Monday, November 2, 2015

लौटाना ताजपोशी का

 गए वो जमाने, जब राजा कलाकारों, साहित्यकारों और संतों से प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले के आभूषण, स्वर्ण मुद्राएं या जागीरें दान में दिया करते थे। लोकतंत्र की स्थापना के बाद जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जब सरकार बनाते हैं, तो वे कोई राजा नहीं होते, जो पत्रकारों, साहित्यकारों या कलाकारों को सम्मान दें। इन सब लोगों का सम्मान तो वह प्यार है, जो इन्हें इनके दर्शकों और श्रोताओं से मिलता है।




1989 में जब हमने देश का पहला हिंदी टेलीविजन समाचार ‘कालचक्र वीडियो’ शुरू किया था, तब मशहूर पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, गिरीलाल जैन और अरूण शौरी जैसे पत्रकारों को अलग-अलग सरकारों ने पद्मभूषण या पद्मश्री दिए। निखिल चक्रवर्ती ने वह पद्मभूषण लेने से मना कर दिया। हमने तब कालचक्र वीडियो समाचार के दूसरे अंक में एक रिपोर्ट तैयार की ‘पत्रकारों की ताजपोशी’। जिसका मूल यह था कि सरकार का पत्रकारों को कोई भी अवार्ड देना, उन पत्रकारों की निष्पक्षता और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। यही कारण है कि मैंने आजतक श्रेष्ठ पत्रकारिता का कोई अवार्ड किसी संस्था से नहीं लिया। हालांकि मेरे पाठक और श्रोता जानते हैं कि पिछले 30 वर्षों में पत्रकारिता में मैंने कितनी बार इस देश में इतिहास रचा है। यहां यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि किसी सरकार ने मुझे ऐसा कोई ईनाम देने की कभी कोई पेशकश नहीं की। जाहिर है कि जब हम डंडा लेकर निष्पक्षता से हर दल की सरकार के पीछे पड़े रहेंगे और उसकी कमियों को उजागर करेंगे, तो कौन सरकार इतनी मूर्ख है, जो हमें सम्मानित करेगी। अब वो दिन थोड़े ही हैं, जब कहा जाता था कि, ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करें सुभाय।।’ अब तो उन पत्रकारों, साहित्यकारों और कलाकारों को राज्यसभा का सदस्य बनाया जाता है या अवार्ड दिए जाते हैं या राजदूत बनाया जाता है, जो किसी एक राजनैतिक दल की चाटुकारिता में लगे रहते हैं और जब वह दल सत्ता में आता है, तो उनको इस तरह के ईनाम देकर पुरूस्कृत किया जाता है।

 
 इसलिए जो लोग आज अवार्ड लौटा रहे हैं, हो सकता है कि वो वाकई देश के सामाजिक ढांचे में तथाकथित रूप से पैदा की जा रही विसंगतियों से आहत हों। हमें इस विषय में कुछ नहीं कहना। पर, यह जरूर है कि वे लोग अपने मन में जानते हैं कि जो अवार्ड इन्हें मिले, वो केवल इसलिए नहीं मिले कि ये अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कलाकार, पत्रकार या साहित्यकार थे। इन्हें पता है कि इनके समय में इनसे भी ज्यादा योग्य लोग थे, जिनका नाम तक ऐसे किसी अवार्ड की सूची में विचारार्थ नहीं रखा गया। क्योंकि ऐसी सूचियों में नाम स्वतः ही प्रकट नहीं हो जाते। अवार्ड लेने के लिए आपको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। नौकरशाही और राजनेताओं के तलवे चाटने पड़ते हैं। बड़े-बड़े ताकतवर लोगों से सिफारिशें करवानी पड़ती हैं और ये सब तब, जब आप पहले से ही सत्तारूढ़ दल के चाटुकार रहे हों। क्योंकि चाटुकारों की कोई कमी थोड़े ही होती है। उनकी भी एक बड़ी जमात होती है। उनमें से कुछ ही को तो अवाॅर्ड मिलता है, बाकी को कहां पूछा जाता है ?
 
 इसलिए इनका अवार्ड लौटाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। क्योंकि अगर ये आज की सरकार के समय में दावेदार होते, तो जाहिर है, इन्हें यह अवाॅर्ड नहीं मिलते। मतलब साफ है कि जिसने अवार्ड दिए, उसकी राजनीति चमकाने के लिए अगर हम आज अवाॅर्ड लौटा भी दें और खुदा-न-खास्ता कल वो फिर से सत्ता में आ जाएं, तो इस ‘बलिदान’ के लिए दुगना-चैगुना पुरूस्कार मिलेगा। अगर वे सत्ता में न भी आएं, तो भी उनके प्रति कुछ फर्ज तो अदा करना चाहिए। वैसे भी इन पुरूस्कारों को कौन पूछ रहा है। सबको पता है कि कैसे मिलते हैं और किसको मिलते हैं ? जो यश तब लेना था, वो तो मिल चुका। अब तो लौटने में भी वाहवाही है।
 
 
 इसका मतलब यह नहीं कि मैं समाज में सामाजिक वैमनस्य पैदा करने वालों के हक में बोल रहा हूं। ऐसा कार्य तो जिस भी दल के कार्यकर्ता करते हैं, वह राष्ट्रद्रोह से कम नहीं हैं और अगर ऐसा भाजपा के कार्यकर्ता कर रहे हैं, तो मोदीजी को उनकी लगाम कसनी चाहिए। पर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब संसद में भाजपा के मात्र 2 सांसद होते थे, तब भी तो देश में सामाजिक वैमनस्य होता था। सांप्रदायिक दंगे होते थे और खूब लोग मरते थे। क्या कश्मीर में जब हिंदूओं को मार-मारकर निकाला गया और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी गई, तब इन सब लोगों ने क्या अपने अवार्ड लौटाए थे ? तब तो सबको सांप सूंघ गया था।
 
 
इसलिए अवार्ड लौटाने का यह नाटक बंद होना चाहिए। इसलिए जगह मांग उठनी चाहिए कि किसी भी सरकार को किसी कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार को कोई भी अवार्ड देने का कोई हक नहीं हो। जितने अवार्ड आजतक दिए गए हैं, वे सब राष्ट्रपति का अध्यादेश लाकर निरस्त किए जाएं। अब आप ही सोचिए कि अमिताभ बच्चन को 50 हजार रूपए महीने की पेंशन का अवार्ड देने के पीछे क्या तुक है ? वो तो खुद ऐसी पेंशन हर महीने 50 लोगों को दे सकते हैं। हां, अगर कोई पत्रकार, साहित्यकार या कलाकार गरीबी में जी रहा हो और उसके पास इलाज को भी पैसे न हों और समाज उसकी मदद को आगे न आए, तो सरकारों का फर्ज बनता है कि उसकी मदद करें। अच्छे भले खाते-पीते संपन्न लोगों को आर्थिक अवार्ड या तमगे देना उनके स्वाभिमान को कुचलने जैसा है। जिसे रोकने की पहल हम सबको करनी चाहिए। अवार्ड लौटाकर नहीं, बल्कि आजतक मिले सभी अवार्ड निरस्त करवाकर।

Monday, October 26, 2015

केजरीवाल की नौटंकी

2011 में जब जनलोकपाल कानून की मांग को लेकर अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नाटक मंडली जोड़ी तभी इसके रंगढंग देखकर मुझे लगा कि देश की जनता के साथ एक बार फिर बड़ा भारी छल होने जा रहा है। इसलिए वर्षों की चुप्पी तोड़कर हर टीवी चैनल और अपने लेखों के माध्यम से मैंने इस नाटक मंडली पर करारा हमला बोला। अर्णव गोस्वामी और दूसरे टीवी एंकर हतप्रभ थे कि जब सारो देश, यहां तक कि कालेधन से चलने वाला बालीवुड तक इस नाटक में सड़़कों पर उतर रहा था, तो मुझ जैसा शख्स क्यों इनके विरोध में अकेला खड़ा था। कारण साफ था। मुझे अरविन्द की नीयत पर भरोसा नहीं था। हालांकि उस बेचारे ने मुझे भी किरन बेदी, आनंद कुमार, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, स्वामी अग्निवेश, मयंक गांधी जैसे लोगों की तरह अपने मंच पर आने का न्यौता दिया था। गनीमत है कि मैं उसके झांसे में नहीं आया वरना इन सब की तरह उसने मुझे भी इस्तेमाल कर टोपी पहना दी होती। एक आत्ममुग्ध तानाशाह की तरह अरविन्द हर उस पायदान को लात मारता जा रहा है जिस पर पैर रखकर वह ऊपर चढ़ा।

मेरे ब्लॉग पर 2011 से 2014 तक के लेख देखिए या यू-ट्यूब पर जाकर वो दर्जनों टीवी शो देखिए, जो-जो बात इस नाटक मंडली के बारे में मैंने तब कही थी वो सब आज सामने आ रही हैं। लोग हैरान है अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक अवसरवादिता और छलनीति का करिश्मा देखकर। आज तो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के विरोधाभासों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई है। पर इससे उसे क्या ? अब वो सब मुद्दे अरविन्द के लिए बेमानी है जिनके लिए वो और उसके साथी सड़कों पर लोटे और मंचों पर चिंघाड़े थे। क्योंकि पहले दिन से मकसद था सत्ता हासिल करना, सो उसने कर ली। अब और आगे बढ़ना है तो संघर्ष के साथियों और उत्साही युवाओं को दरकिनार करते हुए अति भ्रष्ट राजनेताओं के साथ गठबंधन करने में केजरीवाल को कोई संकोच नहीं है। आज दिल्ली की जनता दिल्ली सरकार की नाकामियों की वजह से शीला दीक्षित को याद कर रही है। पर केजरीवाल की बला से। उसने तो झुग्गी-झोपड़ी पर अपना फोकस जमा रखा है। क्योंकि जहां से ज्यादा वोट मिलने हैं उन पर ध्यान दो बाकी शासन व्यवस्था और विकास जाए गढ्ढे में।

भ्रष्टाचार से तो इस देश में आजादी के बाद सबसे बड़ी लड़ाई बिना झंडे-बैनर और सड़कों पर आंदोलन के हमने नैतिक बल से लड़ी और 1996 में ही देश के दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और आला अफसरों को भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वाया और जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाया। पर सत्ता के पीछे नहीं भागे। आज भी ब्रज क्षेत्र में आम जनता के हित के लिए विकास का ठोस काम कर रहे हैं और संतुष्ट हैं। पर दुःख इस बात का होता है कि हमारे देश की जनता बार-बार नारे और मीडिया के प्रचार से उठने वाले आत्मघोषित मसीहाओं से ठगी जाती है। पर ऐसे ढोंगी मसीहाओं का कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

इस स्थिति से कैसे ऊबरे ये एक बड़ा सवाल हैं ? जिनके पास विचार हैं, ईमानदारी हैं, विश्वसनीयता है और देश के लिए काम करने का जज्बा हैं उनके पास साधन नहीं है। जिनके पास देशभर में पांच सितारा पंडाल खड़े करके, लाखों मीटर कपड़े के तिरंगे-झंडे बनवाकर, ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपियां बांटकर, हजारों वेतनभोगी युवाओं को स्वयंसेवक बता और 24 घंटे दर्जनों टीवी चैनलों को लपेट कर रखने की शक्ति और साधन हैं उनके पास ईमानदारी कैसे हो सकती है ? इसलिए जनता हर बार छली जाती हैं।

पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में ऐसे लोगांे और युवाओं से फिर से मिलना हुआ जिन्हें मैं गत 3 दशकों से देखता रहा हूं। ये सब युवा बहुत शिक्षित हैं। अच्छे परिवारों से हैं और बाजार में इन्हें बढियां नौकरियां मिल सकती थी और आज भी मिल सकती हैं। पर इन्हें देश की चिंता हैं। ये रातदिन सोच रहे हैं, लिख रहे हैं और 1857 के गदर के सन्यासियों की तरह देशभर में घूम-घूम कर अलख जगा रहे हैं। ये ना तो विदेशी मदद लेते हैं और ना ही किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं। इनमें घोर आस्तिक भी हैं और कुछ नास्तिक भी। इन्हें भारतीय संस्कृति से गहरा प्रेम हैं। पर ये हैरान हैं कि भाजपा की सरकार भी विकास का वो माॅडल क्योंकि नहीं अपना रही जिसकी बात स्वदेशी जागरण मंच वर्षों से करता आया था। इनमें से ज्यादातर केजरीवाल के साथ तन, मन, धन से जुड़े थे। पर आज इनका मोह उससे भंग हो गया हैं और इनका कहना है कि केजरीवाल भी दूसरे नेताओं की तरह एक नौटंकीबाज ही निकला, जिसे ठोस काम करने में नहीं केवल सत्ता हथियाने, अपना प्रचार करने और नए-नए विवाद खड़े करके मीडिया में बने रहने की ही लालसा है। जबकि देश को ऐसे नेतृत्व की जरूरत हैं जो औपनिवेशिक शिकंजे से भारत को निकाल कर अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं के अनुरूप मजबूत राष्ट्र बना सके।

इन्हें विश्वास है कि लोकतंत्र, न्यायपालिका, मीडिया और कार्यपालिका के नाम पर खड़ा किया गया यह ढांचा अब ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा। क्योंकि देश के करोडों लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर पश्चिम की जो जूठन गत 200 वर्षों में परोसी गई है उसने भारत की जड़ों को खोखला कर दिया हैं। विकास का मौजूदा ढांचा देश की बहुसंख्यक आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान व स्वास्थ्य-शिक्षा-रोजगार नहीं दे सकता। इसलिए देशभर में एक बड़ी बहस की जरूरत है। जिसकी ये सब तैयारी कर रहे हैं।

Monday, October 19, 2015

जेट एयरवेज़ कर रहा है यात्रियों से धोखा और मुल्क से गद्दारी

    पिछले वर्ष सारे देश के मीडिया में खबर छपी और दिखाई गई कि जेट एयरवेज़ को अपने 131 पायलेट घर बैठाने पड़े। क्योंकि ये पायलेट ‘प्रोफिशियेसी टेस्ट’ पास किए बिना हवाई जहाज उड़ा रहे थे। इस तरह जेट के मालिक नरेश गोयल देश-विदेश के करोड़ों यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे थे। हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ;नई दिल्लीद्ध ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसका उल्लेख कई टीवी चैनलों ने किया। यह तो केवल एक ट्रेलर मात्र है। जेट एयरवेज़ पहले दिन से यात्रियों के साथ धोखाधड़ी और देश के साथ गद्दारी कर रही है। जिसके दर्जनों प्रमाण लिखित शिकायत करके इस लेख के लेखक पत्रकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई में दाखिल कर दिए हैं और उन पर उच्च स्तरीय पड़ताल जारी है। जिनका खुलासा आने वाले समय में किया जाएगा।

फिलहाल, यह जानना जरूरी है कि इतने सारे पायलेट बिना काबिलियत के कैसे जेट एयरवेज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहे और हमारी आपकी जिंदगी के खिलवाड़ करते रहे। हवाई सेवाओं को नियंत्रित करने वाला सरकारी उपक्रम डी.जी.सी.ए. (नागर विमानन महानिदेशालय) क्या करता रहा, जो उसने इतनी बड़ी धोखाधड़ी को रोका नहीं। जाहिर है कि इस मामले में ऊपर से नीचे तक बहुत से लोगों की जेबें गर्म हुई हैं। इस घोटाले में भारत सरकार का नागर विमानन मंत्रालय भी कम दोषी नहीं है। उसके सचिव हों या मंत्री, बिना उनकी मिलीभगत के नरेश गोयल की जुर्रत नहीं थी कि देश के साथ एक के बाद एक धोखाधड़ी करता चला जाता। उल्लेखनीय है कि जेट एयरवेज़ में अनेक उच्च पदों पर डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के बेटे, बेटी और दामाद बिना योग्यता के मोटे वेतन लेकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इन विभागों के आला अधिकारियों के रिश्वत लेने का यह तो एक छोटा-सा प्रमाण है।

डी.जी.सी.ए. और जेट एयरवेज़ की मिलीभगत का एक और उदाहरण कैप्टन हामिद अली है, जो 8 साल तक जेट एयरवेज़ का सीओओ रहा। जबकि भारत सरकार के नागर विमानन अपेक्षा कानून के तहत (सी.ए.आर. सीरीज पार्ट-2 सैक्शन-3) किसी भी एयरलाइनस का अध्यक्ष या सीईओ तभी नियुक्त हो सकता है, जब उसकी सुरक्षा जांच भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा पूरी कर ली जाय और उसका अनापत्ति प्रमाण पत्र ले लिया जाय। अगर ऐसा व्यक्ति विदेशी नागरिक है, तो न सिर्फ सीईओ, बल्कि सीएफओ या सीओओ पदों पर भी नियुक्ति किए जाने से पहले ऐसे विदेशी नागरिक की सुरक्षा जांच नागर विमानन मंत्रालय को भारत सरकार के गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय से भी करवानी होती है। पर देखिए, देश की सुरक्षा के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ किया गया कि कैप्टन हामिद अली को बिना सुरक्षा जांच के नरेश गोयल ने जेट एयरवेज़ का सीओओ बनाया। यह जानते हुए कि वह बहरीन का निवासी है और इस नाते उसकी सुरक्षा जांच करवाना कानून के अनुसार अति आवश्यक था। क्या डी.जी.सी.ए. और नागर विमानन मंत्रालय के महानिदेशक व सचिव और भारत के इस दौरान अब तक रहे उड्डयन मंत्री आंखों पर पट्टी बांधकर बैठे थे, जो देश की सुरक्षा के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ होने दिया गया और कोई कार्यवाही जेट एयरवेज़ के खिलाफ आज तक नहीं हुई। जिसने देश के नियमों और कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाईं।

ये खुलासा तो अभी हाल ही में तब हुआ, जब 31 अगस्त, 2015 को कालचक्र समाचार ब्यूरो के ही प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर की आरटीआई पर नागरिक विमानन मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया। इस आरटीआई के दाखिल होते ही नरेश गोयल के होश उड़ गए और उसने रातों-रात कैप्टन हामिद अली को सीओओ के पद से हटाकर जेट एयरवेज़ का सलाहकार नियुक्त कर लिया। पर, क्या इससे वो सारे सुबूत मिट जाएंगे, जो 8 साल में कैप्टन हामिद अली ने अवैध रूप से जेट एयरवेज़ के सीओओ रहते हुए छोड़े हैं। जब मामला विदेशी नागरिक का हो, देश के सुरक्षा कानून का हो और नागरिक विमानन मंत्रालय का हो, तो क्या इस संभावना से इंकार किया जा सकता है कि कोई देशद्रोही व्यक्ति, अन्डरवर्लड या आतंकवाद से जुड़ा व्यक्ति जान-बूझकर नियमों की धज्जियां उड़ाकर इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाए और देश की संसद और मीडिया को कानों-कान खबर भी न लगे। देश की सुरक्षा के मामले में यह बहुत खतरनाक अपराध हुआ है। जिसकी जवाबदेही न सिर्फ नरेश गोयल की है, बल्कि नागरिक विमानन मंत्रालय के मंत्री, सचिव व डी.जी.सी.ए. के महानिदेशक की भी पूरी है।

    दरअसल, जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल के भ्रष्टाचार का जाल इतनी दूर-दूर तक फैला हुआ है कि इस देश के अनेकों महत्वपूर्ण राजनेता और अफसर उसके शिकंजे में फंसे हैं। इसीलिए तो जेट एयरवेज़ के बड़े अधिकारी बेखौफ होकर ये कहते हैं कि कालचक्र समाचार ब्यूरो की क्या औकात, जो हमारी एयरलाइंस को कठघरे में खड़ा कर सके। नरेश गोयल के प्रभाव का एक और प्रमाण भारत सरकार का गृह मंत्रालय है, जो जेट एयरवेज़ से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना को जान-बूझकर दबाए बैठा है। इस लेख के माध्यम से मैं केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि रजनीश कपूर की आरटीआई पर गृह मंत्रालय लगातार हामिद अली की सुरक्षा जांच के मामले में साफ जवाब देने से बचता रहा है और इसे ‘संवेदनशील’ मामला बताकर टालता रहा है। अब ये याचिका भारत के केंद्रीय सूचना आयुक्त विजय शर्मा के सम्मुख है। जिस पर उन्हें जल्दी ही फैसला लेना है। पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। 8 साल पहले की सुरक्षा जांच का अनापत्ति प्रमाण पत्र अब 2015 में तो तैयार किया नहीं जा सकता।

    कालचक्र समाचार ब्यूरो का अपना टीवी चैनल या अखबार भले ही न हो, लेकिन 1996 में देश के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, विपक्ष के नेताओं और आला अफसरों को जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाने और पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने का काम भारत के इतिहास में पहली बार कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही किया। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशों के अनेकों घोटाले उजागर करने की हिम्मत भी इसी ब्यूरो के संपादक, इस लेख के लेखक ने दिखाई थी। जुलाई, 2008 में स्टेट ट्रेडिंग कॉपोरेशन के अध्यक्ष अरविंद पंडालाई के सैकड़ों करोड़ के घोटाले को उजागर कर केंद्रीय सतर्कता आयोग से कार्यवाही करवा कर उसकी नौकरी भी कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही ली थी। ऐसे तमाम बड़े मामले हैं, जहां कालचक्र के बारे में मध्ययुगीन कवि बिहारी जी का ये दोहा चरितार्थ होता है कि कालचक्र के तीर “देखन में छोटे लगे और घाव करै गंभीर”।

अभी तो शुरूआत है, जेट एयरवेज़ के हजारों करोड़ के घोटाले और दूसरे कई संगीन अपराध कालचक्र सीबीआई के निदेशक और भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त को सौंप चुका है और देखना है कि सीबीआई और सीवीसी कितनी ईमानदारी और कितनी तत्परता से इस मामले की जांच करते हैं। उसके बाद ही आगे की रणनीति तय की जाएगी। 1993 में जब हमने देश के 115 सबसे ताकतवर लोगों के खिलाफ हवाला कांड का खुलासा किया था, तब न तो प्राइवेट टीवी चैनल थे, न इंटरनेट, न सैलफोन, न एसएमएस और न सोशल मीडिया। उस मुश्किल परिस्थिति में भी हमने हिम्मत नहीं हारी और 1996 में देश में इतिहास रचा। अब तो संचार क्रांति का युग है, इसीलिए लड़ाई उतनी मुश्किल नहीं। पर ये नैतिक दायित्व तो सीवीसी और सीबीआई का है कि वे देश की सुरक्षा और जनता के हित में सब आरोपों की निर्भीकता और निष्पक्षता से जांच करें। हमने तो अपना काम कर दिया है और आगे भी करते रहेंगे।

Monday, October 12, 2015

अमृतानंदमयी मां हमारी समझ से परे हैं

केरल के कोल्लम गांव जाने से पहले मैंने दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से माता अमृतानंदमयी मां के विषय में राय पूछी। केरल के ही एक राजनैतिक व्यक्ति ने यह कहकर बात हल्की कर दी कि अम्मा के पास बहुत पैसा है और वो खूब धन लुटाती हैं। मीडिया से जुड़े एक व्यक्ति ने कहा कि जिस तरह वे लोगों का आलिंगन करती हैं, उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक तीसरे व्यक्ति ने कहा कि अम्मा को अज्ञात स्रोतों से विदेशों से भारी मात्रा में पैसा आ रहा है और वे ऐश्वर्य का जीवन जीती हैं। दूसरी तरफ तमाम ऐसे प्रतिष्ठित लोग थे, जिन्होंने अम्मा के उच्च आध्यात्मिक स्तर का यशगान किया। पेरिस में रहने वाले श्रीविद्या, जो मूलतः तमिलनाडु से हैं, पर पेरिस में वैदिक विज्ञान पर शोध कर रहे हैं और हर महीने भारत आते-जाते रहते हैं। जब उनसे मैंने अम्मा के विषय में पूछा, तो वे कपकपा उठे और बोले अम्मा अन्य आत्मघोषित संतों की तरह नहीं है। उनका चेतना का स्तर मानवीय सीमा के बाहर है। उनमें इतनी आध्यात्मिक शक्ति है कि मैं आज तक उनके दर्शन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूं। इतना कहकर वे रोने लगे। अब ऐसे विरोधाभासी बयानों के बीच मैं कोचीन से कोल्लम के रास्ते के बीच यही सोचता गया कि मुझे कैसा अनुभव होगा ?
 
विस्तार में न जाकर अगर निचोड़ प्रस्तुत करूं तो कहना अतिशोक्ति न होगी कि अम्मा का दिल एक विशाल सागर की तरह है। जिसमें छोटी मछली से लेकर व्हेल मछली तक सबको उन्होंने समा रखा है। उनके आलिंगन का लाभ धनिकों और सत्ता के निकट रहने वालों तक सीमित नहीं है। उनका दरबार तो खुला है। पहले आओ पहले पाओ। उनके दर्शनार्थ आने वालों में बहुसंख्यक लोग दरिद्र हैं, जो अपनी बेबसी का, लाइलाजी का या पारिवारिक कलह का रोना लेकर आते हैं। मां सबको गले लगाती है, उनके आंसू पोंछती है और अपने स्वयंसेवकों से ऐसे लोगों की हर तरह से मदद करने का निर्देश देती हैं। गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के क्षेत्र में अम्मा ने अभूतपूर्व कार्य किया है और आज भी कर रही हैं। यह सुनकर बहुत रोमांच हुआ कि कोल्लम के आश्रम के शौचालय से जुड़े ‘सोकपिट’ जब साफ करने होते हैं, तो उसमें भरे मल और मूत्र को बाल्टी से बाहर निकालने के काम में अम्मा सबसे आगे खड़ी होती हैं। सबरीमलई एक ऐसा तीर्थ है केरल में, जहां सालाना करोड़ों लोग आते हैं और स्थानीय मान्यता के अनुरूप अपने वस्त्र वहीं उतार देते हैं। नतीजतन, वहां की नदी, बगीचे और खुली जगह कूड़े-करकट और उतारे हुए कपड़ों के पहाड़ से ढक जाती है। यह है हमारी धार्मिक आस्था का प्रमाण। हम जिस भी तीर्थ स्थल पर जाते हैं, वहां ढे़रों कूड़ा छोड़कर आते हैं। पर अम्मा, जिनके शिष्यों की संख्या पूरे विश्व में करोड़ों में है, वो हर साल डेढ़ हजार स्वयंसेवकों को लेकर सबरीमलई जाते हैं और उत्सव के बाद जमा हुआ सारा कूड़ा भारी मशीनों की मदद से तीन दिन में साफ कर देते हैं। आप बताइये कि आपकी दृष्टि में भारत में ऐसा कौन-सा संत है, जो भगवान कृष्ण के उस उदाहरण का अनुकरण करता हो, जब उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में झूठे पत्तल उठाने की सेवा ली थी। ऐसा कोई संत या भागवताचार्य दिखाई नहीं देता।
 
चैथी कक्षा पढ़ी अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं। पर, कोल्लम के समुद्रतट पर, नारियल के पेड़ों की छांव में एक तख्त पर बैठकर हजारों देशी-विदेशी शिष्यों के आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर वे इतने विस्तार से देती हैं कि बड़े-बड़े शास्त्र पारंगत नतमस्तक हो जाएं। इसमें अचम्भा भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सूर, कबीर व तुलसी जैसे संत ने बिना पढ़े-लिखे होकर भी ऐसा साहित्य रच गए, जिस पर आज पीएचडी के लिए शोध किया जाता है। अम्मा का आध्यात्मिक ज्ञान किताबों से पढ़ा हुआ नहीं लगता। ये तो उनकी चेतना है, जो ब्रह्मांड की शक्तियों से संपर्क साधकर अपने चैत्य गुरू के निर्देश पर सारे दर्शन का निचोड़ जान चुकी हैं। मैं तीन बार अम्मा से मिला और तीनों बार उन्होंने आलिंगन कर मेरे सिर पर हाथ फेरे और मुझे लगा कि मैं साक्षात् यशोदा मैया की गोद में आ गया हूं। आंखों से बरबस आंसू झलक आए। वह माहौल ही कुछ ऐसा था, जहां एक मां की हजारों संतानें सामने बैठकर भजन सुन रही थीं। अम्मा का गायन और भजन में तल्लीनता इहलौकिक नहीं है। अम्मा के आश्रम में हर व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा या व्यवसाय की सर्वश्रेष्ठ स्थिति से निकलकर अम्मा के पास आकर बस गए हैं और निष्काम भावना से शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन जैसे कार्यों में रात-दिन दरिद्र नारायण की सेवा कर रहे हैं। सबके चेहरे पर एक पारलौकिक मुस्कान हमेशा दिखाई देती है।
 
मैं तो यही कहूंगा कि अम्मा का व्यक्तित्व देखकर यह लगता है कि वे वास्तव में जगतजननी हैं। ग्रामीण विकास के और ग्रामीण स्वास्थ्य के जितने बड़े अभियान देश में दिख रहे हैं, उन सबसे कहीं आगे है अम्मा का ग्राम विकास का सार्थक प्रारूप। ऐसी भगवती स्वरूपा को हम अम्मा न कहें तो और क्या कहें। जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा मिलीं अम्मा, जो भी उनके पास जाएगा, उनका कृपा प्रसाद अवश्य पाएगा।

Monday, October 5, 2015

भारत सरकार ही बनाए देश का पैसा

    बैंकों के मायाजाल पर जो दो तथ्यपरक लेख पिछले हफ्तों में हमने लिखे, उन पर देशभर से जितनी प्रतिक्रियाएं आईं हैं, उतनी आज तक किसी लेख पर नहीं आईं। हर पाठक अब इस समस्या का समाधान पूछ रहा है। इसलिए इस कड़ी का यह तीसरा और अंतिम लेख समाधान के तौर पर है। ऐसा समाधान जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत बनें और हर भारतीय कर्ज के दबाव से मुक्त होकर सम्मानजनक जीवन जी सके। इसके लिए जरूरी होगा कि भारत सरकार देश का पैसा खुद बनाए और इन व्यवसायिक बैंकों को देश लूटने की छूट न दे। इसे हम विस्तार से आगे समझाएंगे। पहले देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति पर एक नजर डाल लें। 2015-16 वित्तीय वर्ष के लिए जो बजट सरकार ने बनाया, उसमें 14,49,490 करोड़ रूपए एकत्रित किए। इसमें से 5,23,958 करोड़ रूपए राज्यों को उनके हिस्से के रूप में दे दिए। इस प्रकार जो बचा, उसमें सरकार ने अपनी आमदनी 2,21,733 करोड़ रूपए जोड़ ली और उसकी कुल आय हो गई 11,41,575 करोड़ रूपए। इस आय में से शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, विद्युत, संचार, परिवहन, विज्ञान व प्रौद्योगिकी जैसे जनकल्याण कार्यों में मात्र 58,127 करोड़ रूपए खर्च करने का प्रावधान किया। जबकि इसमें से 6,81,719 करोड़ रूपया बैंकों को ब्याज और किस्त के रूप में दे दिया। अब आप स्वयं ही देख लीजिए कि भारत सरकार अपने हिस्से के बजट का 60 फीसदी केवल बैंकों को दे देती है, फिर क्या खाक विकास होगा और हम कभी इस कर्जे के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो पाएंगे। आप चाहे जितनी मेहनत कर लो। जितना उत्पादन कर लो। जितना कर दे दो सरकार को। सबका सब ये बैंक हजम कर जाते हैं, तो कैसे होगा आपका विकास ?

   
शोध से यह निकलकर आ रहा है कि लगभग 25 लाख करोड़ रूपया सालाना भारत की सरकार, राज्य सरकारों और जनता से लूटकर ये बैंक ले जा रहे हैं और अपनी तिजोरी भर रहे हैं। इस तरह हमारे रूपए की कीमत लगातार तेजी से गिरती जा रही है। इस व्यवस्था के पहले अगर हमारे पास 100 रूपए होते थे, तो उसका मतलब था 100 तौला यानि 1 किलो चांदी। पर आज अगर हमारे पास 100 रूपए हैं, तो उसकी कीमत रह गई मात्र 25 पैसे। 99.75 रूपए इस बैकिंग व्यवस्था ने डकार लिए और हमें और हमारे देश को कंगाल कर दिए, केवल खातों में कर्जे दिखाकर।

    समाधान के रूप में हमें अपनी इस पिरामिड वाली बैकिंग व्यवस्था को पलटना होगा। इंग्लैंड के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति और बैंक आॅफ इंग्लैंड के डायरेक्टर सर जोशिया स्टाम्प ने टैक्सास विश्वविद्यालय में 1927 को भाषण देते हुए कहा था कि, ‘आधुनिक बैंकिंग प्रणाली जादुई तरीके से पैसा बनाती हैं। यह प्रक्रिया शायद जादू का अभी तक सबसे बड़ा अविष्कार है। बैकिंग की कल्पना में अन्याय है और यह पाप से जन्मा है। बैंकर पृथ्वी के मालिक हैं। अगर इसे तुम उनसे छीन भी लो, पर उन्हें पैसे बनाने की शक्ति देकर रखो, तो वे कलम के एक झटके के साथ, सारी धरती को फिर से खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे बना लेंगे। उनसे यह भारी ताकत छीन लो। फिर ये दुनिया ज्यादा खुशहाल और रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। परंतु अगर आप बैंकरों के गुलाम बने रहना चाहते हो और अपनी खुद की ही गुलामी की लागत का भुगतान देना जारी रखना चाहते हों, तो बैंकरांे को पैसे बनाने और उसे नियंत्रित करने की शक्ति उन्हीं के पास रहने दो।’

    अगर भारत सरकार अपना पैसा खुद बनाए, तो उसे ब्याज देने की जरूरत नहीं होगी। आज की व्यवस्था के अनुसार कुल बजट का 40 फीसदी ही सरकार खर्च कर पाती है, शेष कर्जे में चला जाता है। अगले आर्थिक वर्ष से अगर सरकार ये 40 फीसदी पैसा खुद बना लें, तो पुराना कर्ज तो चुकाती रहे, पर नया कर्ज उस पर कुछ नहीं चढ़ेगा और जब नया कर्ज नहीं चढ़ेगा, तो उसे कर बढ़ाने की भी आवश्यकता नहीं होगी और इसके तुरंत प्रभाव से सरकार का बजट 3 गुना बढ़ जाएगा। ऐसा करने से सरकार अपनी आवश्यकता का पैसा खुद बना लेगी और उसे विकास योजनाओं के लिए कोई कर्ज नहीं लेना पड़ेगा। धीरे-धीरे पुराना कर्ज खत्म हो जाएगा और कुछ ही वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाएगी कि उसका अपना बजट चीन के बजट से भी ज्यादा हो जाएगा और तब भारत दुनिया के अर्थव्यवस्थाओं में पहले नंबर पर पहुंच जाएगा, जैसा सन् 1700 में था।

दरअसल, ये कोई अजीब बात नहीं है। 1969 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इस ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया था। जिससे बैकिंग उद्योग में खलबली मच गई और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किंसिजर ने इंदिरा गांधी को और भारतीयों को भद्दी गालियां दीं और भारत पर पाकिस्तान से हमला करवाकर हमें जबर्दस्ती युद्ध में धकेल दिया। 1971 में की गई उनकी यह निजी बातचीत अमेरिकी सरकार के दस्तावेजों के 2005 में सार्वजनिक होने पर प्रकाश में आई। ये बात दूसरी है कि भारत ने पाकिस्तान को 1971 के युद्ध में हरा दिया। इस तरह इंदिरा गांधी ने देश को बैंकरों के शिकंजे से छुड़ाने में एक मजबूत और सफल कदम बढ़ाया। ये बात आगे जाती, पर इंदिरा गांधी कुछ भ्रष्टाचार में फंस गईं। जिसकी आड़ में बैंकिंग समुदाय ने उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका। बाद की सरकारों ने बैंकों को फिर से निजी हाथों में देना शुरू कर दिया और हम फिर इनके मायाजाल में फंस गए। अब अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पैसा खुद बनाने का छोटा, लेकिन कड़ा निर्णय लेते हैं, तो जनता और व्यापारी वर्ग को कर और कर्ज से मुक्त कर सकते हैं, देश को कर्जमुक्त कर सकते हैं और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ कर सकते हैं। तब देश को कभी भी महंगाई और मंदी का मुंह नहीं देखना पड़ेगा और तब फिर से बनेगा भारत सोने की चिड़िया।

Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है। 

Monday, September 21, 2015

महंगाई और मंदी के लिए बैंक जिम्मेदार

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जॉन.एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति,  ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पंेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।