Monday, March 24, 2014

पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनैतिक दल



चुनाव का बिगुल बजते ही राजनैतिक दल अब इस बात को ले कर असमंजस में हैं कि जनता के सामने वायदे क्या करें ? यह पहली बार हो रहा है कि विपक्ष के दलों को भी कुछ नया नहीं सूझ रहा है। क्योंकि विरोध करके जितनी बार भी सरकारें हराई और गिराई गईं उसके बाद जो नई सरकार बनीं, वो भी कुछ नया नहीं कर पाई। हाल ही में दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल सरकार की जिस तरह की फजीहत हुई उससे तमाम विपक्षीय दलों के सामने यह सबसे बड़ी दिक्कत यह खड़ी हो गयी है कि इतनी जल्दी जनता को नये सपने कैसे दिखाये ?

अपने इसी कॉलम में हमने मुद्दाविहीन चुनाव के बारे में लिखा था और उसकी जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन्होंने फिर से इस बात को जरा बारिकी से लिखने के लिए प्रेरित किया है।
आमतौर पर देश की जनता को केन्द्र सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह देश में लोक कल्याण की नीतियां तय कर दे और उसके लिए आंशिक रूप से धन का भी प्रावधान कर दे। विकास का बाकी काम राज्य सरकारों को करना होता है। पर केंद्र सरकार की सीमायें यह होती हैं कि उसके पास संसाधन तो सीमित होते हैं और जन आकांक्षाएं इतनी बढ़ा दी जाती हैं कि नीतियों और योजनाओं का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर हो ही नहीं सकता। फिर होता यह है कि सभी क्षेत्रों में थोड़े-थोड़े संसाधनों को आवंटित करने की ही कवायद हो पाती है। अब तो यह रिवाज ही बन गया है और इसे ही संतुलित विकास के सिद्धांत का हवाला दे कर चला दिया जाता है। हालांकि इस बात में भी कोई शक नहीं कि चहुंमुखी विकास की इसी तथाकथित पद्धति से हमारे हुक्मरान अब तक जैसे-तैसे हालात संभाले रहे हैं और आगे की भी संभावनाओं को टिकाए रखा गया है। इन्हीं संभावनाओं के आधार पर जनता यह विचार कर सकती है कि आगामी चुनाव में सरकार बनाने की दावेदारी करने वाले दलों और नेताओं से हम क्या मांग करें?
पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से लगातार भ्रमण करते रहने से यह तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी समस्या आज पानी को लेकर है। पीने का पानी हो या सिंचाई के लिए, हर जगह संकट है। पीने के पानी की मांग तो पूरे साल रहती है, पर सिंचाई के लिए पानी की मांग फसल के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। पीने का पानी एक तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं और है तो पीने योग्य नहीं। चैतरफा विकास के दावों के बावजूद यह मानने में किसी को भी संकोच नहीं होगा कि हमारे देश में आजादी के 67 साल बाद भी स्वच्छ पेयजल की सार्वजनिक प्रणाली का आज तक नितांत अभाव है। पर कोई राजनैतिक दल इस समस्या को लेकर चुनावी घोषणा पत्र में अपनी तत्परता नहीं दिखाना चाहता। क्योंकि जमीनी हकीकत चुनाव के बाद उसे भारी झंझट में फंसा सकती है। आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी से भुनाया। फिर उसकी दिल्ली सरकार ने जनता को अव्यवहारिक समाधान देकर गुमराह किया।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि स्वच्छ पेयजल का अभाव ही भारत में बीमारियों की जड़ है। यानि अगर पानी की समस्या का हल होता है, तो आम जनता का स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर सकता है। मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर वर्ष भारी रकम खर्च करने वाली सरकारें और इस मद में बड़े-बड़े आवंटन करने वाला योजना आयोग भी पानी के सवाल पर कन्नी काट जाता है। मतलब साफ है कि देश के सामने मुख्य चुनौती जल प्रबंधन की है। इसीलिए एक ठोस और प्रभावी जल नीति की जरूरत है। जिस पर कोई राजनैतिक दल नहीं सोच रहा। इसलिए ऐसे समय में जब देश में आम चुनाव के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है, पानी के सवाल को उठाना और उस पर इन दलों का रवैया जानना बहुत जरूरी है।
आम आदमी पार्टी की बचकानी हरकतों को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं, तो यह देखकर अचम्भा होता है कि देश के प्रमुख राजनैतिक दल पानी के सवाल पर ज्यादा नहीं बोलना चाहते, आखिर क्यों ? क्योंकि अगर कोई राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करना चाहे तो उसे यह भी बताना होगा कि जल प्रबंधन का प्रभावी काम होगा कैसे और वह नीति क्रियान्वित कैसे होगी ? यही सबसे बड़ी मुश्किल है, क्योंकि इस मामले में देश में शोध अध्ययनों का भारी टोटा पड़ा हुआ है।
जाहिर है कि चुनावी घोषणापत्रों में पानी के मुद्दे को शामिल करने से पहले राजनीतिक दलों को इस समस्या के हल होने या न होने का अंदाजा लगाना पड़ेगा, वरना इस बात का पूरा अंदेशा है कि यह घोषणा चुनावी नारे से आगे नहीं जा पाएंगे। इस विषय पर विद्वानों ने जो शोध और अध्ययन किया है, उससे पता चलता है कि सिंचाई के अपेक्षित प्रबंध के लिए पांच साल तक हर साल कम से कम दो लाख करोड़ रूपए की जरूरत पड़ेगी। पीने के साफ पानी के लिए पांच साल तक कम से कम एक लाख बीस हजार करोड़ रूपए हर साल खर्च करने पड़ेंगे। दो बड़ी नदियों गंगा और यमुना के प्रदूषण से निपटने का काम अलग से चलाना पड़ेगा। गंगा का तो पता नहीं लेकिन अकेली यमुना के पुनरोद्धार के लिए हर साल दो लाख करोड़ रूपए से कम खर्च नहीं होंगे। कुलमिलाकर पानी इस समस्या के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ रूपए का काम करवाना पड़ेगा। इतनी बड़ी रकम जुटाना और उसे जनहित में खर्च करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि असफल होते ही मतदाता का मोह भंग हो जाएगा।
पानी जैसी बुनियादी जरूरत का मुद्दा उठाने से पहले मैदान में उतरे सभी राजनैतिक दलों को इस समस्या का अध्ययन करना होगा। पर हमारे राजनेता चतुराई से चुनावी वायदे करना खूब सीख गए हैं। जिसका कोई मायना नहीं होता।
पानी की समस्या का हल ढूढने की कवायद करने से पहले इन सब बातों को सोचना बहुत जरूरी होगा। आज स्थिति यह है कि राजनैतिक दल बगैर सोचे समझे वायदे करने के आदि हो गए हैं। एक और प्रवृत्ति इस बीच जो पनपी है, वह यह है कि घोषणापत्रों में वायदे लोकलुभावन होने चाहिए, चाहें उन्हें पूरा करना संभव न हो। इसलिए चुनाव लड़ने जा रहे राजनैतिक दलों को पानी का मुद्दा ऐसा कोई लोकलुभावन मुद्दा नहीं दिखता। हो सकता है इसीलिए उन मुद्दों की चर्चा करने का रिवाज बन गया है जिनकी नापतोल ना हो सके या उनके ना होने का ठीकरा किसी और पर फोड़ा जा सके। जबकि पानी, बिजली और सड़क जैसे मुद्दे बाकायदा गंभीर हैं और इन क्षेत्रों में हुई प्रगति या विनाश को नापा-तोला जा सकता है। पर चुनाव के पहले कोई राजनैतिक दल आम जनता की इस बुनियादी जरूरत पर न तो बात करना चाहता है और न वायदा ही।

Monday, March 10, 2014

देश का मतदाता भ्रम में

भारत के लोकतंत्र के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी हो गई है। कोई कह सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी महीनों में ऐसा दिखना स्वाभाविक है। 65 साल पुराने भारतीय लोकतंत्र में हर पांच साल में ऐसी अफरा-तफरी मचना वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा कुछ हो गया है कि आगे का रास्ता वाकई चुनौती भरा है।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।

Monday, March 3, 2014

फिर गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी राजनीति

यानी गठबंधन की राजनीती से अभी भी छुटकारा मिलता नही दिखता | गठजोड़ की मजबूरियां पिछले दो दशकों से जतायी जा रही हैं | पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लगता था कि दो ध्रुवीय राजनीति फिर से शक्ल ले लेगी | लेकिन खास तौर पर अभी सिर्फ दो महीने पहले ऐसा दीखता था कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है | मगर उदित राज और पासवान के दलों से भाजपा ने जिस तरह का समझौता किया उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जा रही है |

यहाँ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि भाजपा को आखिर इसकी इतनी ज़रूरत क्यों पड़ी | भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी का माहौल इतना ज़बरदस्त था तो इन गठबंधनों से उसने अपनी कमजोरी उजागर क्यों की | कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी चीज़ है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता | दो तीन महीने के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा के सामने यह सवाल उठाया जाता रहा है कि अकेले वह 272 का आंकड़ा लाएगी कहाँ से | अबतक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से ज्यादा से ज्यादा 230 हद से हद 240 को पार करने की बात किसी ने नहीं बताई | यानी बिना दूसरे दलों के समर्थन के बगैर बहुमत के जादूई आंकड़े को छूने की कोई स्तिथि बनती दीखती ही नहीं थी | ऐसे में अगर भाजपा ने गठबंदन के लिए कोशिशें जारी रखीं तो यह स्वाभाविक ही है | यह बात अलग है कि पिछले दो तीन महीने के चुनावी प्रचार में भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा कि देश में मोदी कि लहर है | ऐसा माहौल बनाये रखना भारतीय लोकतंत्र की चुनावी परंपरा में हमेशा होता आया है | सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं | बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चला और मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उसे हवा दी | लेकिन इन छोटे छोटे दलों से गठबंधन के काम ने उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाया है | हालांकि भाजपा को नुक्सान की बात कहना उतना सही भी नहीं होगा | क्योंकि बात यहाँ लहर या माहौल के नुक्सान की तो हो सकती है पर वास्तविक स्तिथि को देखें तो इससे कितना ही कम सही लेकिन कुछ न कुछ फायदा ज़रूर होगा |

क्योंकि भाजपा को घेरने वाले लोग हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी | और वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी | इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते रहते हैं कि आज की परिस्तिथी में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे | इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे | यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्तिथियों के हिसाब से बताई जाती है लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे छोटे दल मसलन पासवान या उदित राज भाजपा की ओर पहले ही चले आये | अब स्तिथी यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है | उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं |

कुलमिलाकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का भाजपा की ओर ध्रुविकरण की शुरुआत हो गयी है | एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी | बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं | ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं ? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता | अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ | महीनों से चल रही उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है | जबतक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता | इसीलिए हफ्ते – दोहफ्ते भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती |

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश येही स्तिथि है | मसलन लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपना हिसाब भेज दिया है | लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया रुकी सी पड़ी है | खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है | हफ्ते-दोहफ्ते में चुनावी रंग जमेगा | 

Monday, February 24, 2014

सीबीआई में नियुक्ति पर बवाल

पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नियुक्ति समिति ने सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद पर श्रीमती अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके एक और विवाद खड़ा कर दिया है। उल्लेखनीय है कि यह नियुक्ति केन्द्रीय सर्तकता आयोग अधिनियम व दिल्ली पुलिस स्थापना कानून की अवज्ञा करके की गई है। इस कानून के अनुसार सी.बी.आई. में पुलिस अधीक्षक से लेकर विशेष निदेशक तक की नियुक्ति करने का अधिकार जिस समिति को दिया गया है, उसकी अध्यक्षता केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त करते हैं। इस समिति में दो सर्तकता आयुक्त, भारत के गृहसचिव व भारत के डी.ओ.पी.टी. विभाग के सचिव भी सदस्य होते हैं। सी.बी.आई. के निदेशक को सलाह लेने के लिए आमन्त्रित अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। सी.बी.आई. के निदेशक की सलाह मानना इस समिति की बाध्यता नहीं है। पर इस समिति द्वारा जो नाम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्ति समिति को भेजा जाता है, उससे मानना प्रधानमंत्री की समिति के लिए अनिवार्य है। अभी तक ऐसा ही होता आया है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विनीत नारायण फैसले के तहत सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के लिए यह निर्देश जारी किए थे।
पर अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके प्रधानमंत्री ने एक बार फिर इन नियमों की अवहेलना की है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की नियुक्ति के समय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की सलाह की उपेक्षा करके पी.जे. थामस को नियुक्त कर दिया था, जिस पर भारी बवाल मचा। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रूख को देखते हुए श्री थामस को इस्तीफा देना पड़ा। ठीक वैसी स्थिति अब पैदा हो गई है। केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने सी.बी.आई. के सह निदेशक पद के लिए बंगाल काडर के पुलिस अधिकारी आर.के. पचनन्दा का नाम प्रस्तावित किया था। जिसे डी.ओ.पी.टी. ने लौटाकर पुर्नविचार करने को कहा। जिसके बाद 26 दिसम्बर, 2013 को दूसरी बैठक में भी चयन समिति ने फिर से आरके पचनन्दा का नाम ही प्रस्तावित किया, अब यह सरकार की बाध्यता बन गया। पर सरकार ने इसकी परवाह नहीं की और किन्हीं दबावों में आकर अपनी मर्जी से सहनिदेशक की नियुक्ति कर दी। यहां प्रश्न की इस बात का नहीं है कि अर्चना रामासुन्दरम् योग्य हैं या नहीं। सवाल इस बात का है कि क्या प्रधानमंत्री का यह निर्णय कानून सम्मत है या नहीं, उत्तर है नहीं, तो फिर यह नियुक्ति अदालत की परीक्षा में कैसे खरी उतर पाएगी। अगर प्रधानमंत्री को आरके पचनन्दा के नाम पर आपत्ति थी, तो उन्हें इसके लिखितकारण बताकर समिति को पुर्नविचार करने के लिए कहना चाहिए था। पर ऐसा कोई आरोप सरकार ने पचनन्दा के विरूद्ध नहीं लगाया, इसलिए उनकी उम्मीदवारी की उपेक्षा का कोई कारण समझ में नहीं आता।
उल्लेखनीय है कि जब मुझे इस गैरकानून प्रक्रिया की भनक मिली, तो मैंने 7 फरवरी, 2014 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर ऐसा न करने की सलाह और चेतावनी दी। पर उसके बावजूद जब यह निर्णय हो गया, तो मुझे सार्वजनिक रूप से टेलीविजन चैनलों पर इसकी भत्र्सना करनी पड़ी और अब मैं इस मामले को सर्वोच्च अदालत में ले जाने की तैयारी कर रहा हूं।
मेरा प्रश्न इतना सा है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार गठित चयन समिति की कोई हैसियत सरकार के दिमाग में है या नहीं। अगर सरकार कानून का उल्लंघन करके सी.बी.आई. में अपनी पसंद के अधिकारी नियुक्त करना चाहती हैं, तो वह अदालत से कहकर उसके निर्देशों के विरूद्ध फैसला ले ले, क्योंकि फिर उसे केंद्रीय सर्तकता आयोग की जरूरत नहीं बचेगी। फिर तो वह सी.बी.आई. में मनमानी नियुक्ति कर सकती है। पर जब तक यह कानून प्रभावी है, इसका उल्लंघन गैर कानूनी माना जाएगा। इसलिए एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर ‘विनीत नारायण फैसले’ की पुर्नव्याख्या करवानी होगी।
 समझ में नहीं आता कि चुनावी वर्ष में, अपने कार्यकाल के अन्तिम कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री क्यों बार-बार ऐसी गलती दोहरा रहे हैं, जिस पर पहले भी उनकी फजीहत हो चुकी है। अब देखना यह है कि अदालत इस मामले में क्या निर्णय देती है।

जो भी हो, अगर फैसला सरकार के विरूद्ध आता है तो आरके पचनन्दा सी.बी.आई. के अतिरिक्त निदेशक नियुक्त किए जा सकते हैं और अगर फैसला सरकार के पक्ष में आता है, तो अर्चना रामासुन्दरम् इस स्थान को भर सकती हैं। फिलहाल वे तमिलनाडु काडर की पुलिस अधिकारी हैं। मैं समझता हूं कि इस जनहित याचिका पर अदालत का रूख सुने बिना अगर अर्चना रामासुन्दरम् सी.बी.आई. में पदभार ग्रहण कर लेती हैं और फिर फैसला उनके विरूद्ध आता है, तो उन्हें वापिस अपने राज्य लौटना होगा। शायद वे इतनी हड़बड़ी न दिखाएं और अदालत के फैसले का इंतजार करें।
जो भी हो सी.बी.आई. वैसे ही कम विवादों में नहीं रहती और फिर अगर उसकी नियुक्तियों को लेकर सरकार कठघरे में खड़ी हो जाए तो सरकार की क्या छवि बचेगी। इसलिए यह गम्भीर प्रश्न है। अब हमें जनहित याचिका दायर होने और उस पर सर्वोच्च न्यायालय क्या रूख लेता है, इसका इंतजार करना होगा।

Monday, February 17, 2014

केजरीवाल के रवैये से लोकतांत्रिक ढांचे को चोट पहुंची

केजरीवाल ने आखिरकार अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | दिल्ली में सरकार चला पाने में बुरी तरह से नाकामी के बाद केजरीवाल इतनी मुश्किल में फंस गए थे कि उन्हें किसी भी तरह के बहानों की सख्त ज़रूरत पड़ गई थी | और उन्होंने ऐसा बहाना ढूँढ ही लिया | और उन्होंने ऐसा ऐलान कर दिया जो किसी भी तरह से पूरा हो ही नहीं सकता था | अपने ऐलान में उनहोंने यह जोड़ दिया था कि अगर यह काम मैं नहीं कर पाया तो स्तीफा दे दूंगा | उनहोंने बहाना मिलाया था कि दिल्ली सरकार जन लोकपाल बिल लाएगी | यही ऐसा एलान था कि छोटी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को भी पता था कि केन्द्र शासित राज्य दिल्ली की सरकार कानूनी तौर पर यह प्रस्ताव ला ही नहीं सकती और वही हुआ और उसके बाद उन्होंने स्तीफा देकर अपनी बाकी सारी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | अब वे प्रचार में लग गए हैं कि सारे दल सारे मौजूदा नेता भ्रष्ट हैं इसीलिए उन्होंने जन लोकपाल बिल नहीं लाने दिया|

सच तो यह है कि केजरीवाल कि छवि दिन पर दिन खराब होती जा रही थी | दिल्ली का चुनाव लड़ने से पहले उनके किये सारे वादों कि एक-एक करके पोल खुलती जा रही थी | ऐसे में उनके पास इसे इलावा कोई विकल्प नहीं था की पूरी कि पूरी पोल खुल जाये उसके पहले ही वे किसी तरहर से मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठ कर भाग लें|

शुक्रवार की रात जब उनका ड्रामा चल रहा था तब कमोवेश सारे टी वी चैनल बता रहे थे कि केजरीवाल जल्द ही कुर्सी छोड़ कर भागने वाले हैं | लेकिन केजरीवाल बैठकों का दौर चला रहे थे और अपने समर्थकों को एस.एम.एस भिजवा कर कह रहे थे कि पार्टी के दफ्तर के बाहर जमा हो जाओ | उन्हों ने दो – तीन घंटे हरचंद कोशिश की कि किसी तरह अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाये और यह दिखाते हुए स्तीफे का ऐलान करें कि जनता उनके साथ है और जनता के कहने पर ही स्तीफा दे रहें हैं | उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा चुनावों के लिए गली-गली से उन्होंने जो टिकटार्थियों की लिस्ट बना ली है वे लोग अपने अपने समर्थकों के साथ दफ्तर के बाहर जमा हो जायेंगे | लेकिन जब भीड़ जमा नहीं हुई और ऐसे कोई आसार भी नहीं दिखे तो उन्होंने रात 9:30 बजे स्तीफे का एलान कर दिया | और बड़े वीराने माहौल में मुख्यमंत्री की कुर्सी बलिदान करने वाली मुद्रा में अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया |

लेकिन यह पिण्ड इतनी आसानी से छूटने वाला नहीं है | पिछले चार महीनों में दिल्ली में जो तमाशा हुआ है उसमे लाखों लोगों को शामिल कराया गया था | उन्हें सपने दिखाए गए थे | कुछ भोले भाले लोगों को उम्मीदें बंधाई गयी थीं | कुछ चश्मदीद भी इस खेल में स्वभावतः शामिल हो गए थे | यानी तरह तरह के इन लोगों की नज़रों में नाकाम साबित हो जाने के बाद और इन लोगों की नज़रों में गिर जाने की चिंता केजरीवाल को सता रही होगी | वैसे वे इतने चतुर हैं कि इस स्तिथि से निपटने का भी कोई इंतज़ाम उन्होंने और उनकी चतुर मंडली ने सोच लिया होगा | पर यह इतना आसान नहीं है |

अब उनके पास एक ही विकल्प बचा है लोकसभा चुनावों में उतरने कि तय्यारियों के नाम पर अपने दर्शकों और श्रोताओं को कुछ महीने और उलझाये रखें | चर्चा में बने रहने के हुनर में पाटू हो चुके केजरीवाल को बड़े गजब का यकीन हैं कि वे एक ही मुद्दे पर और एक ही प्रकार से बार बार बातें बना सकते हैं | लेकिंग इस पर सवाल उठाने के पीछे तर्क यह है कि इतिहास में ऐसा बार बार होने का कोई उदहारण मिलता नहीं है | या तो मुद्दे बदले गए हैं या लोग | इस दलील के पक्ष में यह अनुमान लगाये जा सकता है कि लोकसभा चुनाव आते आते या तो मुद्दे बदले जाएंगे या केजरीवाल अपने बीच से कोई विकल्प या मुखौटा खड़ा कर देंगे | वैसे उनके पास एक विकल्प यह भी है कि कुछ महीनों बाद वे राजनीति का मैदान छोड़ कर अन्नानुमा किसी सामाजिक आंदोलन पर वापिस लौट जायें |


राजनीति में केजरीवाल काण्ड की समीक्षा करते समय हमें यह भी सोचना होगा कि इससे नफा नुक्सान क्या हुआ | पहली नज़र में दीखता है की आन्दोलनों के प्रति समाज की निष्ठा दिन प्रतिदिन कम होती चली गयी और लोकतान्त्रिक राजनीति के ढांचे को चोट ज़रूर पहुंची | यह कहने का आधार यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति की जितनी कमजोरियां थी उनको तो समझ बूझ कर ही हमने यानी विश्व ने अपना रखा था | भले ही लोकतंत्र की सीमायें हम भूल गए हों बस यहीं पर इस उठापटक के पक्ष में बात जाती है कि उसने हमें याद दिलाया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई पूर्णतः निरापद व्यवस्था नहीं है और विचित्र स्तिथ्ती यह है कि इससे बेहतर कोई विकल्प भी हम सोच नहीं पाते | 

Monday, February 10, 2014

केवल कानूनों से नहीं रूक सकता भ्रष्टाचार

इस देश के हर आम और खास आदमी को पता है कि देश में हो रहे अपराधों को रोकने के लिए सैकड़ों कानून हैं। पुलिस और सी.बी.आई. है और नीचे से ऊपर तक न्यायिक तंत्र है, पर क्या इसके बावजूद अपराध घट रहे हैं ? फिर भी लोगों को लगातार बहाकाया जा रहा है कि सख्त कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि अपराध शास्त्र के शोध बताते हैं कि कानून से केवल 5 फीसद अपराध कम होते हैं। बाकी 95 फीसद अपराध कम करने के लिए दूसरे प्रयासों की जरूरत होती है।

 चूंकि भ्रष्टाचार भी एक अपराध है, तो हमें समझना होगा कि यह अपराध क्यों हो रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है ? जहां तक ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार का सवाल है, तो उसे अपराध शास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट कालर क्राइम’ कहते हैं और इसकी परिभाषा यह है कि ‘वह अपराध, जिसे पकड़ा न जा सके’ यानि ताकतवार लोगों के भ्रष्टाचार को पकड़ना आसान नहीं होता। अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। देशभर में राजनीति, प्रशासन, उद्योग और व्यापार से जुड़े ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं, जहां बिना मेहनत के अकूत धन सम्पदा को जमा कर लिया गया है। इलाके के लोग जानते हैं कि यह संग्रह भ्रष्ट तरीकों से किया गया है। फिर भी इन अपराध करने वालों को पकड़ा नहीं जा पाता।
दरअसल भ्रष्टाचार के कारण दो हैं। एक-प्रवृत्ति और दूसरा-परिस्थिति। जितनी ही प्रवृत्ति और परिस्थिति ज्यादा प्रबल होगी, उतना ही उसे रोकने का कानून अप्रभावी होगा। प्रवृत्ति आती है, व्यक्ति के संस्कारों से और परिस्थितियां वो हालात हैं, जो एक आदमी को भ्रष्ट बनने का मौका देते हैं। अगर प्रवृत्ति सादा जीवन उच्च विचार की होगी, तो वह व्यक्ति भ्रष्ट आचरण करने से बचेगा। आज हम लोगों को यह बता रहे हैं कि खुशी पाने का तरीका है, रोज नई खरीददारी करते जाना। चाहे वह नई कारें का माॅडल हो या अन्य कोई सामान। बाजार की सभी शक्तियों, उनकी विज्ञापन एजेंसियों का एक ही मकसद है कि लोग खरीददारी करें। चाहे वो संपत्ति हो, उपकरण हों या सोना चांदी। इस तरह भूख और हवस को लगातार हवा दी जा रही है। जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हो रहा है। नतीजा यह है कि लोग अनैतिक साधनों से अपनी इन कृत्रिम आवश्यकताओं को पूरा करने में संकोच नहीं करते और यही भ्रष्टाचार का कारण है।
इसके साथ ही समाज में नैतिक मूल्यों का तेजी से हृास हो रहा है। आज समाज के आदर्श कोई ज्ञानी, त्यागी या सिद्ध पुरूष नहीं हैं, बल्कि जिसके पास अकूत धन और ताकत है, उसी का समाज में बोलबाला है। वही धार्मिक, सामाजिक व शैक्षिक कार्यों को सहायता देता है और यश कमाता है। उसे देखकर हर व्यक्ति वैसा ही बनना चाहता है। फिर भ्रष्टाचार कैसे कम हो ? जो लोग सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब सख्त कानूनों का विपरीत असर पड़ा है। फ्रांस के एक राजा ने मुनादी करवाई कि जेबकतरों को सरेआम फांसी दी जाएगी। अपेक्षा यह थी कि फांसी के डर से जेबकतरे जेबे नहीं काटेंगे। पर जब किसी अपराधी को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी, तो तमाशबीन लोगों की दर्जनों जेबें कट जाती थीं। मतलब साफ था कि फांसी पर लटकते हुए देखकर भी जेबकतरों के मन में डर पैदा नहीं होता था। यही बात भ्रष्टाचार विरोधी कानून की भी है। पिछले तीन बरस के हल्ले को छोड़कर अगर पीछे जाएं, तो पाएंगे कि मौजूदा कानून में ही एक क्लर्क से लेकर प्रधानमंत्री तक को पकड़ने की क्षमता थी। अगर उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ, तो कानून की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसको लागू करने वालों की प्रवृत्ति के कारण हुआ। फिर वो चाहे सी0बी0आई0 का पुलिस अधिकारी हो या सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश। नये कानून बनाकर भी यह परिस्थिति बदलने वाली नहीं है, क्योंकि लोग तो वही रहेंगे।
तो क्या कानून न बनाया जाए ? कानून की भी भूमिका केवल प्रतिरोध करने तक होती है, समाधान देने की नहीं। उस हद तक कानून की सार्थकता है, पर अगर भ्रष्टाचार से निपटना है, तो समाज में सादा जीवन व नैतिकता के मूल्यों पुर्नस्थापना करनी होगी। कोई प्रश्न कर सकता है कि संपन्न देशों में तो भौतिकता का स्तर ऊंचा है, फिर वहां आम आदमी के स्तर पर भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा कर देती है। चाहे उसे दूसरे देशों को लूटकर साधन जुटाने पड़ें, इसीलिए आदमी आसानी से भ्रष्टाचार करने का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करता। पर फिर भी अपराध वहां कम नहीं होते।
इसलिए हम बार-बार यही दोहराते आए हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध केवल कानून बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। जो लोग कानून का मुद्दा पकड़कर तूफान मचा रहे हैं, वो भी मन में जानते हैं कि ये तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता पाना है। अब यह आम आदमी पर है कि वो नकाबों के पीछे की असलियत को देखे। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

Monday, February 3, 2014

भाजपा में सुगबुगाहट

 देशभर में भाजपा व संघ के कार्यकर्ताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर भारी उत्साह है। वहीं भाजपा का पुराना नेतृत्व इस उत्साह के अनुरूप सक्रिय नहीं है। इसके दो कारण माने जा रहे हैं, एक तो यह कि भाजपा का पारंपरिक नेतृत्व अचानक आयी मोदी की बाढ़ से असहज है। उसे लगता है कि मोदी की सफलता का अर्थ उनका राजनीति में दरकिनार होना होगा। इसका कारण वे नरेंद्र मोदी की कार्यशैली बताते हैं। इसलिए वे स्वयं और अपने समर्थकों को उस तरह चुनाव की तैयारी में नहीं लगा रहे, जैसा भाजपा के पक्ष में बन रहे आज के माहौल में उन्हें लगाना चाहिए था। कोई भी लड़ाई आधे मन से जीती नहीं जा सकती। चाहे हम अपनी संभावित सफलता का कितना ही ढिढ़ोरा पीट लें।
 शायद नरेंद्र मोदी कैंप को इस मानसिकता का पूर्वाभास है, इसलिए मिशन मोदी के कर्णधारों ने बूथ के विश्लेषण से लेकर प्रत्याशियों के चयन तक की समानान्तर प्रक्रिया विकसित कर ली है। जिससे भाजपा के पारंपरिक नेतृत्व पर बोझ बने बिना अपनी चुनावी लड़ाई जमकर लड़ी जा सके। यह बात दीगर है कि इस लड़ाई को लड़ने के लिए मतदाता को बूथ तक लाने का जैसा मैनेजमेंट चाहिए और जैसे समर्पित युवा चाहिए, उन्हें टीम मोदी अभी सक्रिय नहीं कर पायी है। ऐसे युवाओं का कहना है कि उनके जैसे लाखों युवा मोदी के अभियान में सक्रिय होना चाहते हैं, पर उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिल रहे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के स्वयंसेवी लोग जगह-जगह मलिन और निर्धन बस्तियों में मेज-कुर्सी लगाकर सदस्यता अभियान चला रहे हैं और तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि अरविंद केजरीवाल का रेलभवन के सामने का धरना मध्यम वर्ग और पढ़े-लिखे समाज को पसंद नहीं आया। इसलिए दिल्ली में जैसा लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ रहा था, वह गिरने लगा है। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार की नीतियों से अप्रभावित अन्य राज्यों के आम आदमी केजरीवाल की कारगुजारियों से उत्साहित हैं और भारी तादाद में सदस्य बन रहे हैं। टीम मोदी के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए।
 जुड़ने के प्रति जो आकर्षण है, उसका मूल कारण है कि राजनैतिक सोच रखने वाले देश के अनेकों लोगों को यह लगता है कि पारंपरिक राजनैतिक दलों में नए व्यक्तियों और नए विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वहां तो पुराने थके हुए गुटबाज नेताओं का ही वर्चस्व रहता है। जबकि (आआपा) में फिलहाल हर व्यक्ति को अपनी भूमिका नजर आ रही है। भविष्य में आम आदमी पार्टी (आआपा) की परिणति पारंपरिक दलों की तरह होगी या नहीं होगी, नहीं कहा जा सकता। पर आज तो पढ़े-लिखे लोग भी यह मान रहे हैं कि अन्य दलों का नेतृत्व अहंकारी है और वहां किसी की कोई सुनवाई नहीं होती।
 इस सबके बावजूद भाजपा में टिकटार्थियों की लाइनें लगना शुरू हो गई हैं। जिन राज्यों में हाल ही में भाजपा को प्रभावशाली सफलता मिली, वहां लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए बहुत से लोग इच्छुक हैं। उन्हें लगता है कि मोदी की बहती गंगा में वह भी हाथ धो लें। पर मोदी की टीम उम्मीदवारों के चयन में बहुत सचेत है। वह झूठे दावे करने वालों और वफादारी का नाटक करने वालों को पसंद नहीं करते। उन्हें तलाश है ऐसे चेहरों की जो मोदी के भारत निर्माण अभियान में ठोस और सक्रिय भूमिका निभा सकें। जो गुटबाजी से दूर हों और जिन्हें मोदी के नेतृत्व पर पूरा यकीन हो। ऐसे लोगों का चयन आसान नहीं होगा, क्योंकि ऐसे लोगों को समाज के निहित स्वार्थ कोई न कोई षडयंत्र चलाकर मुख्य धारा से दूर रखते हैं। जिससे उनकी दुकान फीकी न पड़ जाये। पर यह तो जौहरी की योग्यता पर है कि वह गुदड़ी में से भी हीरे पहचान कर ले आये।
 जहां तक आआपा के प्रभाव का प्रश्न है, यह सही है कि आआपा ने अपनी जमीनी पहचान बनाकर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों में सुगबुगाहट पैदा कर दी है। पर वैचारिक अस्पष्टता और अराजक तौर तरीकों के कारण आआपा बदनाम भी कम नहीं हुई है। अपने सामने नेपाल का उदाहरण स्पष्ट है। वहां के माओवादी नेता अरविंद केजरीवाल की भाषा और तेवर में बोला करते थे। किस्मत से उन्हें सरकार भी बनाने का मौका मिला, पर उनके राज में नेपाल का जो बंटाधार हुआ कि वह खुद भी मैदान छोड़कर भागते नजर आये और नेपाल को पहले से बदतर हालत में लाकर खड़ा कर दिया। इसी तरह आआपा के नेताओं की अनुभवहीनता, अपरिपक्वता, अहंकार और आत्मश्लाघा से यह स्पष्ट हो गया है कि इनके पास नारों के अलावा देने को कुछ भी नहीं है। इस सबके बावजूद भारत का मतदाता किस ओर बैठेगा, नहीं कहा जा सकता।