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Monday, March 10, 2014

देश का मतदाता भ्रम में

भारत के लोकतंत्र के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी हो गई है। कोई कह सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी महीनों में ऐसा दिखना स्वाभाविक है। 65 साल पुराने भारतीय लोकतंत्र में हर पांच साल में ऐसी अफरा-तफरी मचना वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा कुछ हो गया है कि आगे का रास्ता वाकई चुनौती भरा है।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।

Monday, August 29, 2011

कैसे सुनिश्चित हो सरकार की जवाबदेही?

Punjab Kesari 29 Aug 2011
बहुसंख्यक गरीब लोगों के इस मुल्क में 122 करोड़ में मुठ्ठीभर खुशकिस्मत लोग हैं, जिन्हें सरकारी नौकरी मिलती है। चाहे राज्य सरकार में हों या केन्द्र सरकार में। सरकारी नौकरी को नियामत समझा जाता है। बंधी तनख्वाह, दूसरे भत्ते, बुढ़ापे में पैंशन और ताउम्र जलवा। गाँव-देहात में तो अगर बेटा पुलिस में सिपाही भर्ती हो जाए तो वह परिवार खुद को इलाके के पुलिस अधीक्षक से कम नहीं समझता। इसीलिए सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों में भारी उत्सुकता रहती है। फौज में भर्ती हो, आंगनबाड़ी में हो या सरकारी महकमों में, रिक्त पदों से कई गुना ज्यादा युवा आवेदन करते हैं। अक्सर उनकी बेकाबू भीड़ पर पुलिस को लाठी भी चलानी पड़ती है। ये तो निचले स्तर की नौकरियों की बात है। आई.ए.एस. जैसी नौकरियों के लिए बैठने वाले प्रत्याशियों की तादाद भी लाखों में होती है। जबकि हर साल नौकरी मिलती है चन्द हजारों को। दूसरी तरफ इस देश के करोड़ों युवा और उनके आर्थिक रूप से असुरक्षित परिवार हैं, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में किसी तरह रो-रोकर जिन्दगी बसर करते हैं।

सोचने वाली बात यह है कि इन हालातों में जिन्हें सरकारी नौकरी मिल जाती है, वे क्यों कामचोरी, निकम्मापन, भ्रष्टाचार और कोताही करते हैं? क्यों तनख्वाह और भत्तों से उनका पेट नहीं भरता? क्यों आज जरूरत पड़ रही है ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ की? साफ जाहिर है कि हर स्तर की नौकरशाही में काफी तादाद ऐसे लोगों की आ गई है, जो जनता से आज भी औपनिवेशिक साम्राज्य की रियाया की तरह बर्ताव करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत 1947 से लोकतंत्र बन चुका है। वे भूल जाते हैं कि इस देश की जनता जब हुक्मरानों से नाराज होती है तो बड़े-बड़े ताकतवर सत्ताधीशों के तख्ते पलट देती है। फिर चाहें 1977 में श्रीमती गाँधी की सरकार हो या 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार। हाँ, सत्ता के इस फेरबदल में नौकरशाही का कुछ नहीं बिगड़ता। वे तो ‘आई एम सिक्योर्ड’ के मूड में मस्त रहते हैं। इसी लिए उनके अधीनस्थ कर्मचारी भी अलमस्त रहते हैं। पर अब ये चलने वाला नहीं।

जनता जाग चुकी है। टी.वी. चैनल हर वक्त कैमरा लिए दफ्तरों के बाहर तैनात रहते हैं। टी.आर.पी. बढ़ाने की होड़ में वे किसी की भी पतलून उतारने में संकोच नहीं करते। जनहित याचिकाऐं बड़े-बड़ों को गद्दी से उतार देती हैं या जेल पहुँचा देती हैं। ऐसे माहौल में यह जरूरी है कि नौकरशाही अपना रवैया बदले। इसी लिए सरकारें भी अब ऐसे कानून बना रही है, जिससे नौकरशाही की जनता के प्रति जबावदेही सुनिश्चित हो। ‘सिटिजन्स चार्टर’ नाम से यह परिकल्पना 1991 में इंग्लैण्ड में सामने आयी जब नौकरशाही को समयबद्ध तरीके से जनता की शिकायतों को दूर करने का कानून बनाया गया। न करने वालों के खिलाफ मौद्रिक सजा का प्रावधान भी सुनिश्चित किया गया। अब भारत की कई प्रांतीय सरकारें इस कानून को बना रही है। कानून तो पहले भी बहुत हैं। पर सफेद कागज पर काली स्याही से छपा कानून किताबी ही रहता है, जब तक उसे अंजाम तक न ले जाया जाए।

जबावदेही कानून को प्रभावी बनाने के लिए हर सरकार को अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करना होगा। दूसरी तरफ यह माहौल बना रहे तो नौकरशाही पर दबाव बनेगा। इसलिए ज्यादा जिम्मेदारी जनता, सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया की है कि वे फालतू के नाच-गाने और मनोरंजन से हटकर असली सवालों पर पाठकों और दर्शकों का ध्यान केन्द्रित करें और जनता के साथ गद्दारी करने वाले को निर्वस्त्र करते रहें। अन्ना हजारे के धरने के दौरान मीडिया कवरेज करने वालों ने पहली बार मीडिया की ताकत को पहचाना। उन्होंने यह महसूस किया कि जनहित के मुद्दे पर भी टी.आर.पी. बढ़ाई जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि यह जज्बा कायम रहे। पर इसमें फालतू की उत्तेजना न फैलने दी जाए। भड़काऊ और अराजक भाषा का प्रयोग न किया जाए। गंभीरता से, पर मजबूती से, जनता के साथ खड़े रहकर सरकारी तंत्र को जबावदेह बनाया जाए। उच्च पदों पर बैठे अधिकारी और मंत्री इस रवैये से नाराज होकर, जनता के प्रति बैर का नहीं सद्भाव का आचरण करें। जिससे गाड़ी के दो पहिए की तरह मुल्क विकास की पटरी पर आगे चले। अभी तक होता यह आया है कि निचले कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण और निकम्मेपन को ऊपर के अधिकारी या उनके राजनैतिक आका संरक्षण दे देते हैं। जिससे जनता हताश हो जाती है। पर दुनिया का सूचनतंत्र जुड़ चुका हो, त्रिपोली से लेकर काहिरा तक की खबरें हर मिनट लोगों तक पहुँचती हों, तो जनता का उठ खड़े होना, बेकाबू हो जाना और हिंसक हो जाना कभी भी सम्भव है।

समय आ रहा है जब राजनेताओं को भी बदलना होगा। जनता से संवाद कायम करना होगा। आपसी राजनैतिक झगड़ों से हटकर जनता के बुनियादी सवालों के हल ढूँढने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ इस दिशा में एक और ठोस कदम होगा।