भारत के लोकतंत्र के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी हो गई है। कोई कह सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी महीनों में ऐसा दिखना स्वाभाविक है। 65 साल पुराने भारतीय लोकतंत्र में हर पांच साल में ऐसी अफरा-तफरी मचना वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा कुछ हो गया है कि आगे का रास्ता वाकई चुनौती भरा है।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।