केजरीवाल ने आखिरकार अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा
लिया | दिल्ली में सरकार चला पाने में बुरी तरह से नाकामी के बाद केजरीवाल इतनी
मुश्किल में फंस गए थे कि उन्हें किसी भी तरह के बहानों की सख्त ज़रूरत पड़ गई थी |
और उन्होंने ऐसा बहाना ढूँढ ही लिया | और उन्होंने ऐसा ऐलान कर दिया जो किसी भी
तरह से पूरा हो ही नहीं सकता था | अपने ऐलान में उनहोंने यह जोड़ दिया था कि अगर यह
काम मैं नहीं कर पाया तो स्तीफा दे दूंगा | उनहोंने बहाना मिलाया था कि दिल्ली
सरकार जन लोकपाल बिल लाएगी | यही ऐसा एलान था कि छोटी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों
को भी पता था कि केन्द्र शासित राज्य दिल्ली की सरकार कानूनी तौर पर यह प्रस्ताव
ला ही नहीं सकती और वही हुआ और उसके बाद उन्होंने स्तीफा देकर अपनी बाकी सारी
जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | अब वे प्रचार में लग गए हैं कि सारे दल सारे
मौजूदा नेता भ्रष्ट हैं इसीलिए उन्होंने जन लोकपाल बिल नहीं लाने दिया|
सच तो यह है कि केजरीवाल कि छवि दिन पर दिन खराब होती जा
रही थी | दिल्ली का चुनाव लड़ने से पहले उनके किये सारे वादों कि एक-एक करके पोल
खुलती जा रही थी | ऐसे में उनके पास इसे इलावा कोई विकल्प नहीं था की पूरी कि पूरी
पोल खुल जाये उसके पहले ही वे किसी तरहर से मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठ कर भाग
लें|
शुक्रवार की रात जब उनका ड्रामा चल रहा था तब कमोवेश
सारे टी वी चैनल बता रहे थे कि केजरीवाल जल्द ही कुर्सी छोड़ कर भागने वाले हैं |
लेकिन केजरीवाल बैठकों का दौर चला रहे थे और अपने समर्थकों को एस.एम.एस भिजवा कर
कह रहे थे कि पार्टी के दफ्तर के बाहर जमा हो जाओ | उन्हों ने दो – तीन घंटे हरचंद
कोशिश की कि किसी तरह अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाये और यह दिखाते हुए स्तीफे का ऐलान
करें कि जनता उनके साथ है और जनता के कहने पर ही स्तीफा दे रहें हैं | उन्हें
उम्मीद थी कि लोकसभा चुनावों के लिए गली-गली से उन्होंने जो टिकटार्थियों की लिस्ट
बना ली है वे लोग अपने अपने समर्थकों के साथ दफ्तर के बाहर जमा हो जायेंगे | लेकिन
जब भीड़ जमा नहीं हुई और ऐसे कोई आसार भी नहीं दिखे तो उन्होंने रात 9:30 बजे स्तीफे का एलान कर
दिया | और बड़े वीराने माहौल में मुख्यमंत्री की कुर्सी बलिदान करने वाली मुद्रा
में अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया |
लेकिन यह पिण्ड इतनी आसानी से छूटने वाला नहीं है |
पिछले चार महीनों में दिल्ली में जो तमाशा हुआ है उसमे लाखों लोगों को शामिल कराया
गया था | उन्हें सपने दिखाए गए थे | कुछ भोले भाले लोगों को उम्मीदें बंधाई गयी
थीं | कुछ चश्मदीद भी इस खेल में स्वभावतः शामिल हो गए थे | यानी तरह तरह के इन
लोगों की नज़रों में नाकाम साबित हो जाने के बाद और इन लोगों की नज़रों में गिर जाने
की चिंता केजरीवाल को सता रही होगी | वैसे वे इतने चतुर हैं कि इस स्तिथि से
निपटने का भी कोई इंतज़ाम उन्होंने और उनकी चतुर मंडली ने सोच लिया होगा | पर यह
इतना आसान नहीं है |
अब उनके पास एक ही विकल्प बचा है लोकसभा चुनावों में
उतरने कि तय्यारियों के नाम पर अपने दर्शकों और श्रोताओं को कुछ महीने और उलझाये
रखें | चर्चा में बने रहने के हुनर में पाटू हो चुके केजरीवाल को बड़े गजब का यकीन हैं
कि वे एक ही मुद्दे पर और एक ही प्रकार से बार बार बातें बना सकते हैं | लेकिंग इस
पर सवाल उठाने के पीछे तर्क यह है कि इतिहास में ऐसा बार बार होने का कोई उदहारण
मिलता नहीं है | या तो मुद्दे बदले गए हैं या लोग | इस दलील के पक्ष में यह अनुमान
लगाये जा सकता है कि लोकसभा चुनाव आते आते या तो मुद्दे बदले जाएंगे या केजरीवाल अपने
बीच से कोई विकल्प या मुखौटा खड़ा कर देंगे | वैसे उनके पास एक विकल्प यह भी है कि
कुछ महीनों बाद वे राजनीति का मैदान छोड़ कर अन्नानुमा किसी सामाजिक आंदोलन पर
वापिस लौट जायें |
राजनीति में केजरीवाल काण्ड की समीक्षा करते समय हमें यह
भी सोचना होगा कि इससे नफा नुक्सान क्या हुआ | पहली नज़र में दीखता है की आन्दोलनों
के प्रति समाज की निष्ठा दिन प्रतिदिन कम होती चली गयी और लोकतान्त्रिक राजनीति के
ढांचे को चोट ज़रूर पहुंची | यह कहने का आधार यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति की जितनी
कमजोरियां थी उनको तो समझ बूझ कर ही हमने यानी विश्व ने अपना रखा था | भले ही
लोकतंत्र की सीमायें हम भूल गए हों बस यहीं पर इस उठापटक के पक्ष में बात जाती है कि
उसने हमें याद दिलाया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई पूर्णतः निरापद व्यवस्था
नहीं है और विचित्र स्तिथ्ती यह है कि इससे बेहतर कोई विकल्प भी हम सोच नहीं पाते
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