Monday, March 24, 2014

पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनैतिक दल



चुनाव का बिगुल बजते ही राजनैतिक दल अब इस बात को ले कर असमंजस में हैं कि जनता के सामने वायदे क्या करें ? यह पहली बार हो रहा है कि विपक्ष के दलों को भी कुछ नया नहीं सूझ रहा है। क्योंकि विरोध करके जितनी बार भी सरकारें हराई और गिराई गईं उसके बाद जो नई सरकार बनीं, वो भी कुछ नया नहीं कर पाई। हाल ही में दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल सरकार की जिस तरह की फजीहत हुई उससे तमाम विपक्षीय दलों के सामने यह सबसे बड़ी दिक्कत यह खड़ी हो गयी है कि इतनी जल्दी जनता को नये सपने कैसे दिखाये ?

अपने इसी कॉलम में हमने मुद्दाविहीन चुनाव के बारे में लिखा था और उसकी जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन्होंने फिर से इस बात को जरा बारिकी से लिखने के लिए प्रेरित किया है।
आमतौर पर देश की जनता को केन्द्र सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह देश में लोक कल्याण की नीतियां तय कर दे और उसके लिए आंशिक रूप से धन का भी प्रावधान कर दे। विकास का बाकी काम राज्य सरकारों को करना होता है। पर केंद्र सरकार की सीमायें यह होती हैं कि उसके पास संसाधन तो सीमित होते हैं और जन आकांक्षाएं इतनी बढ़ा दी जाती हैं कि नीतियों और योजनाओं का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर हो ही नहीं सकता। फिर होता यह है कि सभी क्षेत्रों में थोड़े-थोड़े संसाधनों को आवंटित करने की ही कवायद हो पाती है। अब तो यह रिवाज ही बन गया है और इसे ही संतुलित विकास के सिद्धांत का हवाला दे कर चला दिया जाता है। हालांकि इस बात में भी कोई शक नहीं कि चहुंमुखी विकास की इसी तथाकथित पद्धति से हमारे हुक्मरान अब तक जैसे-तैसे हालात संभाले रहे हैं और आगे की भी संभावनाओं को टिकाए रखा गया है। इन्हीं संभावनाओं के आधार पर जनता यह विचार कर सकती है कि आगामी चुनाव में सरकार बनाने की दावेदारी करने वाले दलों और नेताओं से हम क्या मांग करें?
पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से लगातार भ्रमण करते रहने से यह तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी समस्या आज पानी को लेकर है। पीने का पानी हो या सिंचाई के लिए, हर जगह संकट है। पीने के पानी की मांग तो पूरे साल रहती है, पर सिंचाई के लिए पानी की मांग फसल के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। पीने का पानी एक तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं और है तो पीने योग्य नहीं। चैतरफा विकास के दावों के बावजूद यह मानने में किसी को भी संकोच नहीं होगा कि हमारे देश में आजादी के 67 साल बाद भी स्वच्छ पेयजल की सार्वजनिक प्रणाली का आज तक नितांत अभाव है। पर कोई राजनैतिक दल इस समस्या को लेकर चुनावी घोषणा पत्र में अपनी तत्परता नहीं दिखाना चाहता। क्योंकि जमीनी हकीकत चुनाव के बाद उसे भारी झंझट में फंसा सकती है। आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी से भुनाया। फिर उसकी दिल्ली सरकार ने जनता को अव्यवहारिक समाधान देकर गुमराह किया।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि स्वच्छ पेयजल का अभाव ही भारत में बीमारियों की जड़ है। यानि अगर पानी की समस्या का हल होता है, तो आम जनता का स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर सकता है। मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर वर्ष भारी रकम खर्च करने वाली सरकारें और इस मद में बड़े-बड़े आवंटन करने वाला योजना आयोग भी पानी के सवाल पर कन्नी काट जाता है। मतलब साफ है कि देश के सामने मुख्य चुनौती जल प्रबंधन की है। इसीलिए एक ठोस और प्रभावी जल नीति की जरूरत है। जिस पर कोई राजनैतिक दल नहीं सोच रहा। इसलिए ऐसे समय में जब देश में आम चुनाव के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है, पानी के सवाल को उठाना और उस पर इन दलों का रवैया जानना बहुत जरूरी है।
आम आदमी पार्टी की बचकानी हरकतों को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं, तो यह देखकर अचम्भा होता है कि देश के प्रमुख राजनैतिक दल पानी के सवाल पर ज्यादा नहीं बोलना चाहते, आखिर क्यों ? क्योंकि अगर कोई राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करना चाहे तो उसे यह भी बताना होगा कि जल प्रबंधन का प्रभावी काम होगा कैसे और वह नीति क्रियान्वित कैसे होगी ? यही सबसे बड़ी मुश्किल है, क्योंकि इस मामले में देश में शोध अध्ययनों का भारी टोटा पड़ा हुआ है।
जाहिर है कि चुनावी घोषणापत्रों में पानी के मुद्दे को शामिल करने से पहले राजनीतिक दलों को इस समस्या के हल होने या न होने का अंदाजा लगाना पड़ेगा, वरना इस बात का पूरा अंदेशा है कि यह घोषणा चुनावी नारे से आगे नहीं जा पाएंगे। इस विषय पर विद्वानों ने जो शोध और अध्ययन किया है, उससे पता चलता है कि सिंचाई के अपेक्षित प्रबंध के लिए पांच साल तक हर साल कम से कम दो लाख करोड़ रूपए की जरूरत पड़ेगी। पीने के साफ पानी के लिए पांच साल तक कम से कम एक लाख बीस हजार करोड़ रूपए हर साल खर्च करने पड़ेंगे। दो बड़ी नदियों गंगा और यमुना के प्रदूषण से निपटने का काम अलग से चलाना पड़ेगा। गंगा का तो पता नहीं लेकिन अकेली यमुना के पुनरोद्धार के लिए हर साल दो लाख करोड़ रूपए से कम खर्च नहीं होंगे। कुलमिलाकर पानी इस समस्या के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ रूपए का काम करवाना पड़ेगा। इतनी बड़ी रकम जुटाना और उसे जनहित में खर्च करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि असफल होते ही मतदाता का मोह भंग हो जाएगा।
पानी जैसी बुनियादी जरूरत का मुद्दा उठाने से पहले मैदान में उतरे सभी राजनैतिक दलों को इस समस्या का अध्ययन करना होगा। पर हमारे राजनेता चतुराई से चुनावी वायदे करना खूब सीख गए हैं। जिसका कोई मायना नहीं होता।
पानी की समस्या का हल ढूढने की कवायद करने से पहले इन सब बातों को सोचना बहुत जरूरी होगा। आज स्थिति यह है कि राजनैतिक दल बगैर सोचे समझे वायदे करने के आदि हो गए हैं। एक और प्रवृत्ति इस बीच जो पनपी है, वह यह है कि घोषणापत्रों में वायदे लोकलुभावन होने चाहिए, चाहें उन्हें पूरा करना संभव न हो। इसलिए चुनाव लड़ने जा रहे राजनैतिक दलों को पानी का मुद्दा ऐसा कोई लोकलुभावन मुद्दा नहीं दिखता। हो सकता है इसीलिए उन मुद्दों की चर्चा करने का रिवाज बन गया है जिनकी नापतोल ना हो सके या उनके ना होने का ठीकरा किसी और पर फोड़ा जा सके। जबकि पानी, बिजली और सड़क जैसे मुद्दे बाकायदा गंभीर हैं और इन क्षेत्रों में हुई प्रगति या विनाश को नापा-तोला जा सकता है। पर चुनाव के पहले कोई राजनैतिक दल आम जनता की इस बुनियादी जरूरत पर न तो बात करना चाहता है और न वायदा ही।

1 comment:

  1. Sermoning the political parties has somewhere become a national ritual as if simply the wielding of power has all the resolutions. Involved issues like that of water are mutli-layered in character. While there is a need of a robust and rigorous national policy, planning and allocation of requisite funds to channelize the national water resources as in rivers, dams, canals etc. Much of the last mile water management is local in character which has to be championed by none other than the local Municipal Bodies. In India's political parlance and intellectual thought process the role of the third tier of governance has not been able to attract the attention of the so-called public spirited political contenders. This is the level at which the real effective solutions of water management would come to light. It's more managerial than technical. But who is ready to dirty his hand in the real work. Everyone wants instant fame and prominence lecturing and canvassing. Everyone wants to clean up the Yamuna first, launching global scale agitations while utterly failing to create a simple water management grid in their very own backyards which are smaller in scale and can create effective evidences to be emulated upon. Blaming the politicians is therefore the safest bet for a society which keeps on patronizing hypocrite intellectual, social and spiritual leaders.

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