भाजपा का आम कार्यकर्ता जो चाहता था वो उसे गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे मिल गया। राजनैतिक क्ष्तिज पर से अटल बिहारी वाजपेयी का हटना भाजपा के लिए एक बडा शून्य छोड़ गया। हालांकि लालकृष्ण आडवाणी ने इस शून्य को भरने का भरसक प्रयास किया। पर वे सफल नहीं हो सके। पाकिस्तान में कायदे आजम जिन्ना कि मजार पर आडवाणी का बयान उनके लिए आत्मघाती बन गया। संघ ने आडवाणी को अपनी छाया से भी दूर कर दिया। घर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के चक्कर में आडवाणी जी अपना हिन्दु वोट बैंक खो बैठै। पार्टी मे दो धडे़ साफ हो गये। एक संघ की मानसिकता का और एक आडवाणी जी का खेमा। इसलिए आडवाणी जी भाजपा पर अपना एकछत्र वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाये। उधर नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में अपने को स्थापित किया और जिस तरह मीडिया में अपनी छवि बनवायी, उससे मोदी का कद लगातार बढता गया। पिछले कुछ वर्षो से तो यह बात हमेशा चर्चा में रही कि आडवाणी-नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय नेतृत्व पर दावेदारी को पसंद नहीं करते। आडवाणी के साथ जुडे भाजपा के कई बडे नेता और मुख्यमंत्री भी इसी तरह की बयानबाजी करते रहे जिससे नरेन्द्र मोदी की भाजपा में नम्बर 1 की पोजीशन न बन पाये। जाहिर है कि इससे मोदी खेमे में नाराजगी बढ़ती गयी। हद तो यह हो गयी 2 सांसदो से 115 सांसद तक पार्टी को बढ़ाने वाले आडवाणी के घर के बाहर उन्हीं के दल के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। नरेन्द्र मोदी को जिन हालातों में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के चुनाव की कमान सौंपी है वह कार्यकर्ताओं के दबाव के कारण पैदा हुए हैं। भाजपा का युवा कार्यकर्ता भाजपा से जुडे उद्योगपति और व्यापारी व मध्यम वर्ग का हिन्दुवादी हिस्सा इस वक्त नरेन्द्र मोदी की अगुवायी से बनी सरकार देखना चाहता है। इसलिए इन सब लोगों मे भारी उत्साह है। दूसरी तरफ आडवाणी के खेमे के नेता इस गोवा घोषणा से जाहिरन नाखुश हैं। वे किस करवट बैठेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की आगे की राह अभी इतनी आसान नहीं है। वैसे भी जो सच्चाई है वह नरेन्द्र मोदी के पक्ष में नहीं है। नरेन्द मोदी एक साधारण परिवार से अपने काम के बलबूते यहां तक पहुंचे हैं। लेकिन जब कोई राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करना चाहता है तो उसे अपने ही दल के वरिष्ठ नेतृत्व का इसी तरह विरोध झेलना पडता है। क्षेत्रिय नेता जब किसी राष्ट्रीय नेता को किनारे करेगा तभी तो उसकी राष्ट्रीय पहचान बनेगी। पर पार्टी के शिखर पर काबिज नेतृत्व आसानी से किसी को ऊपर नहीं चढ़ने देता। नतीजतन दोंनो में खूब रस्साकशी चलती है। जो अब मोदी को झेलनी पडेगी।
दरअसल मोदी को लगने लगा था कि अब उन्हे राष्ट्रीय स्तर पर जाना है इसलिए वे अपनी छवि और अपने साधन जुटाने मे लगे रहे। जोकि राष्ट्रीय नेतृत्व की नाराजगी का कारण बना। राष्ट्रीय नेतृत्व चाहता है कि हर मुख्यमंत्री उनको नियमित हिस्सा भेजे जो पार्टी और संगठन चलाने के लिए जरूरी होता है। जो मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर पाते, उसका बोरिया बिस्तर गोल कर दिया जाता है। यह भी स्थापित तथ्य है कि पार्टी व संगठन को चलाने के लिए साधनों की जरूरत होती है। जिन्हे मुख्यमंत्री ही आसानी से जमा कर पाते हैं। नरेन्द्र मोदी इसके अपवाद नहीं हैं। ऐसे में यह साफ जाहिर कि मोदी को लगा होगा कि पार्टी के लिए धन मैं इकठ्ठा कर रहा हूँ तो क्यूं न दल की कमान भी मेरे हाथ मे दी जाये। इसलिए वे अपने मकसद मे सफल हुए। पर अभी कई इम्तिहान बाकी है। गुजरात का शेर या गुजरात के लौहपुरूष बताकर मोदी ने स्वंय को लगभग आधे गुजरातियों का नेता तो बना ही लिया। शेष आधे वो हैं जिन्होंने हाल के विधानसभा चुनाव मे मोदी को वोट नहीं दिया। इसके अलावा उ.प्र., राजस्थान और बिहार की आम जनता नरेन्द्र मोदी को वैसा भाव नहीं देती जैसा गुजरात की जनता देती है। ऐसे मे नरेन्द्र मोदी का चुनावी अभियान जहां भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को उत्साहित करेगा और उनमे जोश भरेगा वही इन राज्यों के बहुत से मतदाताओं को सशंकित करेगा। ऐसे में उन्हें गुजरात से इतर रणनीति बनाकर चुनावी अभियान चलाना होगा। जो कितना सफल होगा, अभी नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर साधारण पृष्ठ भूमि के नरेन्द्र मोदी के लिए यहां तक पहुंचना भी बहुत बडी उपलब्धि है। पर इससे देश के चुनावी समीकरण कितने बदलेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। आडवाणी - मोदी विवाद का एक लाभ भाजपा को जरूर मिला है कि उसने सारे मीडिया का ध्यान अपने दल की ओर आर्कषित करवा लिया इस विवाद से भाजपा को दोहरा लाभ होगा। धर्मनिरपेक्षता वाले लोगों को आडवाणी समर्थक लामबंद करेंगे और हिन्दूवादी सर्मथकों को मोदी खेमा लामबंद करेगा। अंततः दोंनो एक हो जायेंगे। इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक मानना चाहिए। इसलिए आने वाले दिन जहां मोदी के लिए चुनौती भरे होंगे वही राजनैतिक रंगमंच पर अनेक रंग भी बिखेरेंगे।