नवाज़ शरीफ की भारी जीत ने परवेज मुशर्रफ के मंसूबों पर पानी फेर दिया। वरना पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा था उसमें अचानक परवेज मुशर्रफ का वहाँ पहुँचना कोई जल्दबाजी में लिया गया अधकचरा निर्णय नहीं था। इसके पीछे अमरीका और सऊदी अरब की सोची समझी रणनीति है। रोचक रहेगा इनसे जुड़े कुछ तथ्यों को जान लेना।
पाकिस्तान में हुए ब्रिटिश काउसिंल के हाल ही में एक सर्वेक्षण में 18 वर्ष से 29 वर्ष के युवाओं से जब पूछा गया कि वो अपने मुल्क में कैसा निजाम चाहते हैं तो 38% युवाओं ने कहा कि शरियत का, 32% ने कहा सेना का और केवल 29% ने कहा जम्हूरियत यानि लोकतंत्र। यह एक संकेत था जिसने मुशर्रफ को घर लौटने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि उन्हें इस माहौल में अपनी भूमिका दिखाई दी। दूसरी तरफ यह भी रोचक तथ्य है कि लगभग लाखों युवा फेसबुक पर मुशर्रफ से सम्पर्क बनाए हुए हैं। मुशर्रफ को वाकायदा स्टाफ रखकर उनके जवाब देने पड़ रहे थे। इससे उन्हें लगा कि पाकिस्तान में आज भी उनके चाहने वाले कम नहीं हैं।
दरअसल 2011 से मुशर्रफ लंदन में शरण लिए हुए हैं। वहाँ उनकी सुरक्षा इंग्लैंण्ड की सरकार को करनी पड़ रही है। सुरक्षा इतनी कड़ी है कि उसका स्तर वहाँ की महारानी और प्रधानमंत्री की सुरक्षा जैसा है। जिस पर भारी खर्च हो रहा है। ब्रिटेन की जनता इससे नाराज है और इस खर्च का कोई औचित्य नहीं देखती। चूँकि वहाँ सक्रिय लोकतंत्र है इसलिए जन भावनाओं की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसलिए भी मुशर्रफ पर घर लौटने का दबाब था।
दूसरी तरफ इंग्लैंण्ड के वीजा नियमों के चलते मुशर्रफ के नातेदार, मित्र और समर्थक लगातार लंदन नहीं आ पा रहे थे। उनसे मिलने मुशर्रफ दम्पत्ति को बार-बार दुबई जाना पड़ता था। जिससे मुशर्रफ और उनकी पत्नी एक फ्लैट में बंद रहकर काफी घुटन महसूस कर रहे थे। हालांकि यह फ्लैट काफी आरामदायक था पर वहाँ सुरक्षा कारणों से चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी। मुशर्रफ ने सोचा होगा इस घुटन भरी जिन्दगी से अपने वतन की आबोहवा बेहतर रहेगी।
जहाँ तक अमरीका और सऊदी अरब की बात है तो यह सबको मालूम है कि आज पाकिस्तान पर इन्हीं दो देशों का नियंत्रण है। पाकिस्तान के जिन इलाकों में तालिबान का जोर ज्यादा है वहाँ सऊदी अरब नियंत्रण रखता है, बाकी में अमरीका की चलती है। मतलब ये कि पाकिस्तान को अब पाकिस्तानी नहीं चला रहे। कारण साफ है अफगानिस्तान में अमरीका और नाटो के सदस्य देश अब तक सेना, पुलिस व प्रशासन पर इतनी बड़ी रकम खर्च कर चुके हैं कि अब आगे अफगानिस्तान को संभाले रखना उनके लिए संभव नहीं है। क्योंकि नाटो के देश तो पहले ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। अमरीका की अर्थव्यवस्था भी मंदी के दौर से उबर नही पा रही है। ऐसे में अगर पाकिस्तान मे कोई ऐसी सरकार आ गयी जो इन देशों के साथ सम्बन्ध न रखे तो पाकिस्तान उनके हाथ से निकल जाएगा और अफगानिस्तान से इनका निकलना संभव नहीं होगा। ऐसे में अब तक का सब करा-धरा पानी हो जायेगा। दुबारा अफगानिस्तान पर इतना खर्च करने की समझ अमरीका की नहीं है। इसलिए पाकिस्तान अन्र्तराष्ट्रीय सामरिक दृष्टि से अमरीका के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए वह इस पर अपनी पकड़ ढ़ीली नहीं करना चाहता।
इसलिए मुशर्रफ को अमरीका और सऊदी अरब एक प्यादे के रुप में देखते हैं। अगर पाकिस्तान के राजनैतिक हालात नहीं सुधरते या अमरीका के अनुसार नहीं बनते तो वे मुशर्रफ को मोहरे की तरह मैदान में उतार देते। फिर वह चाहें जन आंदोलन का नेता बनाकर उतारते या किसी राजनैतिक दल का। रही बात अदालत में हुई छीछलेदार और अपमान की तो यह साफ है कि ऐसी घटनाएं और नहीं होने वाली। पहले ही सेना ने साफ कह दिया कि वह अपने पूर्व अध्यक्ष की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेगी। कयानी और आई एस आई में सुनिश्चित करेंगे कि मुशर्रफ नजरबंदी के नाटक के बीच ऐशों आराम से पाकिस्तान के अपने फार्म हाउस में रहते रहें। जिससे भविष्य में जरुरत के मुताबिक मुशर्रफ की भूमिका तय की जा सकती है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तानाशाह रहे जनरल परवेज मुशर्रफ न तो इतने नासमझ है कि अपना आगा पीछा न जानते हों और ना ही इतने मूर्ख कि जानबूझकर ओखली में सिर दे दें। उनका घर लौटना एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था जिसमें उन्हें फायदा ही फायदा हैं। सत्ता में रहें या उसके बाहर। जब तक पाकिस्तान पर उनकी सेना का दबदबा है। मुशर्रफ अपने को महफूज महसूस करते हैं।
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