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Monday, July 29, 2019

कर्नाटक में गिरती सरकारों का इतिहास

चार दशक पहले भारत में आयाराम-गयाराम का खेल शुरू हुआ था। जब हरियाणा में रातो-रात सरकार गिराकर विपक्ष ने इसी तरह सरकार बना ली थी। तब से आज तक देशभर में सैकडों बार विधायकों की खरीद-फरोख्त करके हर सत्तारूढ़ केंद्रीय दल ने प्रांतों की उन सरकरों को गिराया है, जहां उनके विरोधी दल की सरकारें थीं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं है।
फिलहाल बैंगलूरू में जो हुआ, उसका भी एक लंबा इतिहास है। जिस समय रामकृष्णन हेगड़े ने कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया था, उस समय उनके शासन की समस्त देशवासियों ने प्रशंसा की थी। श्री हेगड़े एक सुलझे हुए, काबिल और सद्व्यवहार वाले नेता थे। उन्हीं की कैबिनेट के एक मंत्री थे एच डी देवगौड़ा। जिन्होंने अपने ऐजेंडे को पूरा करने के लिए, विधायकों की एक समूह के साथ विद्रोह कर दिया और हेगड़े सरकार को गिराने में मुख्य भूमिका निभाई।
अबकी बार एस आर बोम्मई ने हेगड़े की जगह ली और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने भी सुचारू रूप से व प्रभावी ढंग से राज्य पर शासन किया। श्री देवगौड़ा जोकि 20 विधायकों के नेता थे, उनके बल पर पुनः मंत्री मंडल में शामिल कर लिये गए। एक बार फिर बिना किसी कारण के उन्होंने असंतुष्ट गतिविधियां शुरू कर दीं और श्री बोम्मई की सरकार गिरा दी।
हवाला कांड के परिणामस्वरूप जब देश की जनता ने किसी भी एक राष्ट्रीय दल को बहुमत देना उचित नहीं समझा, तब देश में दर्जनों छोटे-बड़े दलों की मिलीजुली सरकार बनी। जिसका नेतृत्व उस समय श्री देवगौड़ा ने किया। वे भारत के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री तो वे बन गए, पर कर्नाटक का मोह नहीं छोड़ सके। वे चाहते थे कि उनकी अनुपस्थिति में कर्नाटक मुख्यमंत्री उनका ही कोई व्यक्ति बने। पर ऐसा हो न सका। उस समय जे.पी. पटेल कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। पर यह श्री देवगौड़ा को रास नहीं आया। नतीजतन बतौर प्रधानमंत्री के भी उन्होंने अपने अनुयायियों के माध्यम से श्री पटेल की सरकार को गिराने का भरसक प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। क्योंकि श्री पटेल ने श्री देवगौड़ा की हर चाल को मात दे दी।
बाद के दौर में जब धरम सिंह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने तो श्री सिद्दारमैया उनके उप मुख्यमंत्री बने। श्री देवगौड़ा के सुपुत्र कुमार स्वामी, जो पहली बार विधायक चुने गये थे, बीते दिनों की याद में बेचैन हो गये। उन्हें रातदिन यही उधेड़बुन रहती थी कि कैसे में धरम सिंह की सरका गिराऊ और स्वयं मुख्यमंत्री बनूं। कर्नाटक की राजनीति से जुड़े जानकारों का कहना है कि सत्ता की चाह के लिए कुमार स्वामी, धरम सिंह और सिद्दारमैया को लगातार मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहे। फिर वे ‘जेडीएस’ से अलग हो गये और फर्जी बहाना बनाकर धरम सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया और सरकार गिरा दी।
इसके बाद कुमार स्वामी ने अपने कट्टर प्रतिद्वंदियों के साथ हाथ मिला लिया। अब वे भाजपा के मात्र 30 विधायकों को साथ मिलाकर, सरकार बनाने में सफल हो गए। यह सरकार केवल 40 महीने तक ही काम कर पाई। समझौता यह हुआ था कि पहले 20 महीनों में कुमार स्वामी मुख्यमंत्री रहेंगे और बाद के 20 महीनों में भाजपा के येड्डीउरप्पा मुख्यमंत्री रहेंगे। श्री स्वामी ने कई बार जनता और धर्म गुरूओ के सामने यह वायदा भी किया था कि अपने 20 महीने के कार्यकाल को पूरा करके वे बिना शर्त भाजपा को कर्नाटक की कुर्सी सौप देंगे और भाजपा की सरकार समर्थन करेंगे। लेकिन सत्ता में अपने कार्यकाल का आंनद लेने के बाद कुमार स्वामी ने येड्डीउरप्पा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया और सरकार गिरा दी।
अंततः, हर कोई यह इतिहास जानता है कि कुमार स्वामी एक बार फिर कर्नाटक के मुख्यमंत्री कैसे बने और किसी भी समय स्वेच्छा से अपना इस्तीफा देने की सार्वजनिक घोषणा करने के बावजूद उन्होंने क्या किया? पुरानी कहवत है कि, ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’। अब अगर भाजपा ने कुमार स्वामी की सरकार, उनके विधायकों को लुभाकर या खरीदकर, गिरा दी, तो कुमार स्वामी को भाजपा से कोई शिकवा नहीं होना चाहिए। ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय’।
कहते हैं कि राजनीति, युद्ध और प्रेम में कुछ भी गलत या सही नहीं होता। इन परिस्थितियों में फंसे हुए पात्रों को साम, दाम, दंड व भेद जैसे सब हथकंडे अपनाकर अपना लक्ष्य हासिल करना जायज माना जाता है। पर लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही कष्टप्रद स्थिति है। इससे स्पष्ट है कि जो भी विधायक, सांसद इस तरह सत्ता के लालच में दल बदल करते हैं या जो राष्ट्रीय दल इसे अंजाम देते हैं, वे सब मतदाताओं की निगाह में गुनहगार है। पर जब कुएं में ही भांग पड़ी हो, तो किसे दोष दें।
अब जब नये भारत के निर्माण का मोदी जी ने बीड़ा उठाया है, तो उन्हें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। सभी दलों की राय लेकर कानून में कुछ ऐसी व्यवस्थाऐं करें, जिससे ये आयाराम-गयाराम की सृंस्कृति पर हमेशा के लिए विराम लग सके। एक नियम तो अवश्य ही बनना चाहिए कि जो भी विधायक या सांसद जिस राजनैतिक दल की टिकट पर चुनाव जीते, यदि उसे छोड़े, तो उसके लिए विधानसभा या संसद से इस्तीफा देना अनिवार्य हो। इससे विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त पर विराम लग जायेगा। क्योंकि कोई भी जीता हुआ प्रत्याशी इतना बड़ा जोखिम मोल नहीं लेगा। क्योंकि उसे इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि वह इतनी जल्दी दल बदलकर, फिर से चुनाव जीत जाएगा।

Monday, May 13, 2013

भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने का रास्ता खोजा जाए

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेषण खूब आ चुके। हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। पर यह तो सोचना पड़ेगा कि संसद और सड़कों पर विपक्ष गत् दो वर्षो से यूपीए सरकार के स्तीफे की माँग करता रहा है। ज्यादातर टीवी चैनल भी केन्द्र सरकार के खिलाफ र्मोचा खोले हुए हैं ।
मध्यम वर्गीय लोगों के बीच मौजूदा सरकार की छवि लगातार गिर रही है या गिरायी जा रही है। फिर क्यों कर्नाटक की जनता ने सोनिया गांधी की पार्टी के सिर पर ताज रख दिया ? क्या इसलिए कि कर्नाटक की जनता के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था या फिर उन्हें भाजपा का भ्रष्टाचार यूपीए से ज्यादा लगा। पहली बात सही नहीं हो सकती। दूसरी बात अगर सही है तो भाजपा किस नैतिक आधार पर केन्द्र मे भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिन- रात तूफान मचाती आ रही है ? इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि कर्नाटक की जनता कांग्रेस के भ्रष्टाचार को अनदेखा करने को तैयार है। तो फिर कर्नाटक का संदेश क्या है ?
 
बात सुनने मे कड़वी लगेगी। नैतिकता का झंडा उठाने वाले इस पर भृकुटि टेढी करेंगे। पर अब तो यह ही लगता है कि हम शोर चाहे कितना ही मचा लें, पर  भ्रष्टाचार से हमें कोई परहेज नहीं है। सदाचारी वो नहीं है जिसे मौका ही नहीं मिला। सदाचारी तो वो होता है, जो मौका मिलने पर भी ड़गमगाता नहीं। हम अपने इर्द -गिर्द देखें तो पायेंगे कि ऐसे सदाचारी आज उगंलियों  पर गिने जा सकते हैं। वरना जिसे, जहाँ, जब मौका मिलता है, बिना मेहनत के फायदा उठाने से चूकता नहीं। इसीलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर हम चाहे जितना मचा लें, पर चुनाव मे वोट देने की प्राथमिकताएं अलग रहती हैं। इसलिए मायावती हारती हैं तो मुलायम सिंह यादव जीत जाते हैं। वे हारते हैं, तों बहन जी जीत जाती हैं। करुणानिधि हारते हैं तो जयललिता जीत जाती हैं और जब जयललिता हारती हैं तो करुणानिधि जीत जाते हैं। प्रकाश सिंह बादल हारते हैं तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह जीत जाते हैं, और उनके हारने पर बादल की जीत होती है। हर विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाता है। ये नूरा कुश्ती यूँ ही चलती रहती है और टिप्पणीकार, स्तम्भकार और टीवी एंकर उत्तेजना में भरकर ऐसा माहौल बनाते हैं मानो आज जैसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ या भविष्य में नहीं होगा। वे आरोपित मंत्रियों, अफसरों का स्तीफा मांगने मे हफ्तों और महीनों गुजार देते हैं। अगर उनकी माँग पर स्तीफे ले भी लिए जाये तो क्या गांरटी है कि उसके बाद देश मे घोटाला नहीं होगा ? मर्ज गहरा है और ऊपरी मरहम से दूर नहीं होगा। इसलिए अब ज्यादा समय और उर्जा घोटालों के उजागर होने पर खर्च करने की बजाय इसके समाधान पर लगाना चाहिए। जब किसी भी टीवी शो पर मैं ये मुद्दा उठाता हूँ तो एंकर बातचीत को मौजूदा घोटाले की ओर वापस ले आते हैं। पर आप भी जानते हैं कि ऐसे सभी हंगामे कुछ दिन तूफान मचाकर शांत हो जाते हैं। कुछ भी नही बदलता।
 
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हमें  अपनी समझ गहरी बनाने की जरूरत है। जैसे हर रोग के लिए उसका विशेषज्ञ ढूँढा जाता है वैसे ही भ्रष्टाचार से निपटने की समझ रखने वालों को आज तक विश्वास मे नहीं लिया गया। नतीजतन इस भीषण रोग को रोकने के लिए जो भी प्रयास किए जाते हैं, वे सब नाकाम रहते हैं। इसलिए नई सोच की जरूरत है ।
 
वैसे जहां भी हम रहते हों, अपने-अपने दायरे मे आने वाले लोगो से एक सर्वेक्षण करें और पूछे कि वे विकास चाहते हैं या भ्रष्टाचार मुक्त समाज ? उनसे पूछा जाये कि वे ईमानदार और पुराने ख्यालों का नेता पंसद करते हैं या उसे जो उनके काम करवा दे, चाहे भ्रष्टाचार कितना भी कर ले। जवाब चैंकाने वाले मिलेंगे। दरअसल पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज या देश आज तक नहीं हुआ। तानाशाही हो या लोकतंत्र, पूजीवादी व्यवस्था हो या साम्यवादी, सरकारी खजाना हमेशा लुटता रहा है। कड़े कानून भी हर नागरिक को ईमानदार बनने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। फिर भी ये सारे प्रयास इसलिए किये जाते हैं कि जनता के मन मे शासन व पुलिस का और दण्ड मिलने का भय बना रहे। ऐसे में अगर हम लगातार सत्ता केन्द्रों पर हमले करके उसे नाकारा और भ्रष्ट सिद्ध करें तो समाज से भ्रष्टाचार तो दूर नहीं होगा, शासन का भय समाप्त हो जायेगा। जिससे समाज में अराजकता फैल सकती है। जो देश की सुरक्षा को खतरा पैदा कर सकती है।
 
इसलिए जरूरत इस बात की है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर व्यक्तियों को निशाना न बनाकर भ्रष्टाचार विहीन समाज की स्थापना का प्रयास करना चाहिए। जो भी चर्चा हो वह समाधान मूलक होनी चाहिए। जिससे समाज मे हताशा भी कम फैले और आशा के साथ भ्रष्टाचार के जंगल से निकलने के रास्ते खोजे जायें अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो देश की जनता को राहत मिलेगी वरना केवल अशांति और चिंता का वातावरण तैयार होगा जो देश के विकास मे बाधक होगा।

Sunday, March 25, 2012

ये कैसा रामराज्य ?

पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।