मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।
जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।
पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।
जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।
पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।