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Monday, October 21, 2024

क्या विकास के पैसे सही दिशा में ख़र्च होते हैं?


बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये, वो सब कितने सच्चे हैं। 



दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 70 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ्य सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।



जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फ़र्ज़ीवाड़े के बयान लगातार धमाकेदार छपते है। इन भ्रष्ट अफ़सरों और निर्माण कम्पनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपए की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धँस जाते हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली केवल सड़क मार्गों पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियाँ भी धँस गई और रेल दुर्घटना हुई।     



उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल ख़ानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फ़र्ज़ीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊँचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएँ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।



आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएँ ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरुद्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्य पूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूँकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तों अपने पाँव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएँगे?

 

Monday, June 6, 2016

सोच बदलने की जरूरत

नरेन्द्र भाई मोदी के अधीन काम करने वाले अफसर हर वक्त अपने पंजों पर खड़े रहते है। क्योंकि उन्हें हर काम लक्ष्य से पहले और अच्छी गुणवत्ता का चाहिए। देश की सांस्कृतिक धरोहरों के जीर्णोंद्धार, संरक्षण और संवर्धन के लिए मोदी सरकार ने कई योजनाएं शुरू की है। पर अफसरशाही की दकियानूसी के चलते पुराने काम के ढर्रे में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। पहले भी फाइलें ज्यादा दौड़ती थी और जमीन पर काम कम होता था। आज भी वहींे हालत है। इसका एक कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार के अनुदान का क्रियान्वयन प्रान्तीय सरकारें करती है। जिन पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि अलग-अलग राज्यों में भ्रष्टाचार के स्तर अलग-अलग है। किसी राज्य में 100 में 70 फीसदी खर्च होता है। बाकी कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खप जाता है। जबकि ऐसे भी राज्य हैं जहां 70 से 80 फीसदी रूपया केवल कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खपता है। बचे 20 फीसदी में से 10 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है यानि 100 रूपये में से 16 रूपया ही जमीन तक पहुंचता है।
    1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने यही बात कहीं थी। तब उनके इस वक्तव्य को बहुत हिम्मत का काम माना गया था। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस हकीकत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। दुख की बात यह है कि आज 32 साल बाद भी हालात बदले नहीं है। सवाल है क्या मोदी जी को इसकी जानकारी नहीं है ? क्या उनके पास इसका कोई हल नहीं है ? क्या इस हालत को बदलने की उनमें इच्छाशक्ति नहीं है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। जानकारी भी होगी, हल भी है और इच्छाशक्ति भी है। केवल रूकावट है तो नौकरशाही के औपनिवेशिक रवैये की। जो वैश्वीकरण के इस दौर में भी यह मानने को तैयार नहीं कि उससे बेहतर सोच और समाधान आम लोगों के पास भी हो सकते है। इसलिए नौकरशाही कोई भी नये विचार को अपनाने को तैयार नहीं है। एक दूसरा कारण केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लटकती तलवार भी है। जो हर ऐसे नवीन कदम या पहल पर निहित स्वार्थ का आरोप लगाकर जोखिम उठाने वाले अफसर को तलब कर सकता है। इसलिए कोई अफसर नये प्रयोगों का जोखिम उठाना नहीं चाहता।
    पर मोदी जी के बारे में गुजरात के दिनों में यह शोहरत थी कि वे किसी भी अच्छा काम करने वाले को कहीं से भी ढूंढकर पकड़ लाते है और फिर अपनी नौकरशाही को उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने की हिदायत देते है। नतीजतन काम बढ़िया भी होता है और उसकी गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।
    सरकार के अलावा निजी क्षेत्र में या निजी रूप में अद्भुत कार्य कर चुके लोगों की कमी नहीं है। देश के विकास में अपने बूते पर योगदान देने वालों की संख्या अच्छी खासी है। ये वो लोग हैं जिन्होंने कई दशाब्दियों से सामाजिक स्तर पर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव प्रयोगों, निस्वार्थ कर्मयोग और समाज के प्रति संवेदनशीलता के साथ बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं। पर ऐसे लोगों को नौकरशाही का तंत्र नापसन्द करता है। क्योंकि उसे उनकी सफलता देखकर अपना अस्तित्व खतरे में नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि मोदी जी कुछ पहल करें।
    प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हर ऐसे व्यक्ति के बारे में सूचना का भण्डार है और अगर उसमें कुछ कमी है तो वे अपने प्रभाव से उस सूचना को कहीं से भी मंगा सकते है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रधानमंत्री ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी, स्वयंसेवकों को अपने पास बुलायें और उनसे उनके अनुभव के आधार पर समाधान पूछें और उन समाधानों को लागू करने में अपनी पूर्णक्षमता का प्रयोग करें। इस नूतन प्रयोग से लक्ष्य भी पूरे होंगे और पारदर्शिता भी आयेगी।
    पुरातात्विक संरक्षण के क्षेत्र में, बिना सरकार की आर्थिक मदद के हमारी संस्था ब्रज फाउण्डेशन ने भी ब्रज क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये है। जिनकी जानकारी प्रधानमंत्री जी को हैं। क्योंकि वे हमारे काम में लम्बे समय से रूचि लेते रहे है। इस लेख के माध्यम से मैं उन तक यह बात पहुंचाना चाहता हूं कि बिना लालफीताशाही को काटे भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने का उनका सपना पूरा नहीं हो सकता। मोदी सरकार को चाहिए कि ऐसे नामचीन लोग जो कभी किसी लाभ के लालच में सत्ता के गलियारों में चक्कर नहीं लगाते, उनको बुलाकर उनकी बात सुनें और इस समस्या का स्थायी हल ढूढ़े। जिससे जनता के पैसे का दुरूपयोग रूके और समाज के हित में कुछ ठोस काम हो जायें।

Monday, June 11, 2012

विकास का पैसा कहाँ जाता है ?

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ’वाटरशेड’ कार्यक्रम की प्रान्त सरकारों की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हराभरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर आई.आई.टी. के पढे़ श्री रमेश को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। उन्होंने उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देखा और पाया कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये थे, वो सब झूठे निकले। इसलिए प्रान्तीय ग्रामीण विकास मंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी खुली नाराजगी जाहिर की।
दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 60 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबो-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।
जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाडे़ के बयान लगातार धमाकेदार छपते है।
उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल खानापूरी के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फर्जीवाडे़ का प्रतिशत काफी ऊॅचा रहता है। यही वजह है कि योजनाऐ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।
आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम  नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। जयराम रमेश ही नहीं हर मंत्री को तकनीकि क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ती और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाऐं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरूद्व जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शीतल करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। नहीं तो देश में अराजकता फैलने के आसार पैदा हो जायेंगे।