Monday, November 24, 2025

सेना बनाम सर्वोच्च न्यायालय बनाम मानवाधिकार

पिछले दिनों एक पोस्ट सोशल मीडिया पर तेज़ी से वायरल हुई। इस पोस्ट में सेवानिवृत्त कर्नल ए. एन. रॉय का बयान सेना के उस वर्ग की भावना को स्पष्ट करता है, जो लगातार आतंकवाद, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता वाले इलाकों में डटा रहता है। जब सैनिक सीमाओं या कश्मीर जैसे ‘संवेदनशील क्षेत्रों’ में आतंकवाद का सामना करते हैं, तब उन्हें कुछ फैसले अक्सर सेकंडों में लेने पड़ते हैं। इसमें औपचारिकताओं के लिए समय नहीं होता। जो भी निर्णय लेना होता है वह उन सैनिकों को दिए गए प्रशिक्षण और अपने विवेक से ही लेना पड़ता है। 

इस पोस्ट ने सीधे सवाल उठाया, क्या आपने कभी अपने बेटे को खोया है? — यह व्यवस्था से उपजी पीड़ा और असंतोष की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। इसका मूल भाव यही है कि जब सैनिक आतंकवादी का सामना करता है, तो वह कानून या न्यायालय की व्याख्याओं से अधिक, अपने प्रशिक्षण और परिस्थिति पर ही निर्भर करता है। बाद में उस पर अभियोग या अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगना उसे अपमानजनक महसूस होता है।


दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय की दृष्टि संविधान की मूल भावना, ‘हर नागरिक के मौलिक अधिकार’ से निर्देशित होती है। न्यायालय किसी सेना या व्यक्ति का विरोध नहीं करता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि ‘राज्य की शक्ति’ जवाबदेही से परे न हो। कश्मीर या किसी अशांत क्षेत्र में नागरिकों पर अत्याचार या फर्जी मुठभेड़ों के आरोप अक्सर सामने आते हैं। यदि जांच का हक छीन लिया जाए, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता पर सवाल उठेंगे। न्यायालय यह नहीं कहता कि आतंकवादी को बचाया जाए, बल्कि यह मांगता है कि निर्दोष लोग आतंकवादी समझकर मारे न जाएं। यही ‘न्याय का नैतिक आधार’ है।


पोस्ट में आतंकवादियों के मानवाधिकारों को लेकर जो कटाक्ष किया गया है, वह भावनात्मक प्रतिक्रिया है। लेकिन मानवाधिकारों का सार आतंकवादी के प्रति करुणा नहीं, बल्कि बिना भेदभाव सिद्धांतों पर आधारित न्याय को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में है। जब किसी संदिग्ध की मौत की जांच होती है, तो लक्ष्य अपराधियों को बचाना नहीं, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग को रोकना होता है। वैश्विक संदर्भ में भी अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस जैसे देशों में वॉर क्राइम्स या एक्सेसिव फोर्स पर सवाल उठते रहे हैं। सशक्त लोकतंत्र वे हैं जो अपने संस्थानों से प्रश्न पूछने का साहस रखते हैं।

यह साफ है कि सेना को अपराधी न मानें और न्यायपालिका को देशविरोधी न कहें। दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा और संवैधानिक निष्ठा के दो मजबूत स्तंभ हैं। समस्या तब आती है जब संवैधानिक प्रक्रिया को देश विरोधी साजिश या सैनिक कार्रवाई को न्याय की हत्या मान लिया जाता है। इससे संवाद में विघटन और अविश्वास बढ़ता है।


समुचित समाधान यही है कि सेना को ‘ऑपरेशनल प्रोटेक्शन’ मिले, ताकि तत्काल कार्रवाई में की गई गलती अपराध न माना जाए, लेकिन शक्ति का दुरुपयोग करने पर न्यायिक जांच की प्रक्रिया बनी रहे। ऐसे पोस्ट सोशल मीडिया पर राष्ट्रभक्ति की भावना को सीधा स्पर्श करते हैं। खतरा इस बात में है कि भावनाओं की लहरों में तथ्य और कानूनी सीमाओं की अनदेखी होने लगती है। न्यायपालिका, सेना और मानवाधिकार, ये विरोधी नहीं बल्कि लोकतंत्र के पूरक अंग हैं। सोशल मीडिया पर एकांगी नैरेटिव अंततः सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करता है। 

भारत में सेना, सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार को लेकर टकराव की घटनाएँ केवल हाल ही की नहीं, बल्कि देश के इतिहास में समय-समय पर सामने आई हैं। 18वीं शताब्दी में, कोलोनियल शासन के दौरान सुप्रीम कोर्ट और गवर्नर जनरल इन काउंसिल के बीच अधिकार को लेकर पहली बड़ी भिड़ंत कोसिजुरा मामला में देखने को मिली। सुप्रीम कोर्ट ने सेना का इस्तेमाल करते हुए अपनी शक्तियाँ बढ़ाने का प्रयास किया, जबकि गवर्नर जनरल इन काउंसिल ने अदालत के आदेशों को चुनौती दी और सेना को अदालत के खिलाफ तैनात कर दिया। यह विवाद बंगाल ज्यूडिकेचर एक्ट 1781 के पास होने तक चलता रहा, जिसने अदालत की सीमाएँ तय कर दीं और टकराव का अंत किया। इस मामले ने जता दिया कि अधिकारों की अस्पष्टता शक्ति संघर्ष का हमेंशा केंद्र रही है। 


1945 में आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों पर देशद्रोह और हत्या के आरोप लगे और उन पर कोर्ट मार्शल चलाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन सैनिकों की गतिविधियों को किंग के खिलाफ युद्ध माना, जबकि भारतीय जनता और नेताओं ने देशभक्ति की भावना को कानूनी प्रक्रिया के विरोध में जोरदार तरीके से रखा। इस संघर्ष में अदालत के आदेशों और जनता के मानस के बीच गहरा विभाजन आया। 

नगा पीपल्स मूवमेंट बनाम भारत सरकार केस में सर्वोच्च न्यायालय में AFSPA की वैधता को चुनौती दी गई, लेकिन अदालत ने यह माना कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सेना को अतिरिक्त अधिकार देने का प्रावधान संविधान के खिलाफ नहीं। फिर भी, अदालत ने सेना के अधिकारों पर निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए। इस मामले में मानवाधिकार और सैन्य अधिकार की सीमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी। 

2023 में मणिपुर में जातीय हिंसा के दौरान सर्वोच्च न्यायालय से सेना/पैरामिलिट्री तैनात करने की मांग की गई थी। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश देना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। यह कार्यकार्यपालिका का दायित्व है। बावजूद इसके, कभी-कभी अदालत ने सुरक्षा बलों की तैनाती के निर्देश दिए हैं, जैसे 2008 के ओडिशा के दंगों या 2023 के पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों के दौरान हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों में भी कभी-कभी सेना और मानवाधिकार संस्थाओं के बीच टकराव सामने आते हैं। मगर वहीं बार-बार यह सुनिश्चित किया जाता है कि जनहित और राज्यहित के बीच संतुलन बना रहे। 

मणिपुर अथवा कश्मीर में जारी घटनाओं में, अदालत के आदेश, सेना के अधिकार और जनता का विश्वास—तीनों पहलू परस्पर टकरा सकते हैं। मगर, लोकतंत्र की खूबसूरती इनमें संतुलन बनाना और संवाद की प्रक्रिया में सही समाधान ढूंढना ही होना चाहिए। जरूरत इसी बात की है कि अतीत के अनुभवों से सीखकर, आज के तात्कालिक विवादों को अंधी भावनाओं के बजाय गहन विश्लेषण और खुले संवाद द्वारा हल किया जाए। संविधान की साझा जिम्मेदारी मानते हुए सुरक्षा और अधिकार दोनों के बीच संतुलन जरूरी है। संवाद के बिना, नफरत और अविश्वास बढ़ते हैं। सेना का आत्मसम्मान वही रख सकेगा, जो न्यायपालिका पर भरोसा रखे और न्यायपालिका वही सम्मान पाएगी जो सैनिक के त्याग को समझ सके। इसीलिए, सवाल पूछना गलत नहीं है लेकिन, एक दूसरे पर दोषारोपण करना लोकतंत्र के लिए रचनात्मक नहीं। 

Monday, November 17, 2025

क्यों नहीं रुकते आतंकी हमले ?

एक बार फिर आतंकवादी हमलों ने देश की राजधानी दिल्ली को दहला दिया। लाल क़िले के भीड़ भरे इलाक़े में ये जानलेवा विस्फोट उस साज़िश से कहीं कम थे जो पूरी दिल्ली को दहलाने के लिए रची गई थी। इन आतंकी हमलों के पीछे पढ़े लिखे ऐसे लोग शामिल हैं जिनसे ऐसी वैशियाना हरकत की उम्मीद नहीं की जा सकती। प्रश्न है कि जब देश की सुरक्षा एजेंसियां हर समय अपने पंजों पर रहती हैं उसके बावजूद भी देश की राजधानी जो कि सुरक्षा के लिहाज़ से काफ़ी मुस्तैद मानी जाती है, वहाँ पर इतनी भारी मात्रा विस्फोटक सामग्री लेकर एक आतंकी कैसे घूम रहा था? कैसे इन विस्फोटक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया एजेंसियां  क्या कर रही थी?

इन हमलों से सारा देश हतप्रभ है पहलगाम में हुई आतंकवादी वारदात के छह महीने बाद ही ये दूसरा बड़ा झटका लगा है। सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए? हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं पिछले 30 वर्षों से अपने लेखों में लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।



गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में हुए धमाके के बाद अपने बयान में यह साफ कहा कि आतंकियों को ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि पूरी दुनिया देखेगी। उल्लेखनीय है कि कश्मीर के खतरनाक आतंकवादी संगठन ‘हिजबुल मुजाईदीन’ को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का खुलासा 1993 में मैंने ही अपनी विडियो समाचार पत्रिका ‘कालचक्र’ के 10वें अंक में किया था। इस घोटाले की खास बात यह थी कि आतंकवादियों को मदद देने वाले स्रोत देश के लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेताओं और बड़े अफसरों को भी यह अवैध धन मुहैया करा रहे थे। इसलिए सीबीआई ने इस कांड को दबा रखा था। घोटाला उजागर करने के बाद मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आतंकवादियों को आ रही आर्थिक मदद के इस कांड की जांच करवाने को कहा।



सर्वोच्च अदालत ने मेरी मांग का सम्मान किया और भारत के इतिहास में पहली बार अपनी निगरानी में इस कांड की जांच करवाई। बाद में यही कांड ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से मशहूर हुआ। जिसने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। पर मेरी चिंता का विषय यह है कि इतना सब होने पर भी इस कांड की ईमानदारी से जांच आज तक नहीं हुई और यही कारण है कि आतंकवादियों को हवाला के जरिये, पैसा आना जारी रहा और आतंकवाद पनपता रहा।



उन दिनों हॉंगकॉंग से ‘फार ईस्र्टन इकोनोमिक रिव्यू’ के संवाददाता ने ‘हवाला कांड’ पर मेरा इंटरव्यू लेकर कश्मीर में तहकीकात की और फिर जो रिर्पोट छपी, उसका निचोड़ यह था कि आतंकवाद को पनपाए रखने में बहुत से प्रभावशाली लोगों के हित जुड़े हैं। उस पत्रकार ने तो यहां तक लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद एक उद्योग की तरह है। जिसमें बहुतों को मुनाफा हो रहा है।


उसके दो वर्ष बाद जम्मू के राजभवन में मेरी वहाँ के तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सैना से चाय पर वार्ता हो रही थी। मैंने उनसे आतंकवाद के बारे में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में एक व्यग्यात्मक टिप्पणी की जिसका अर्थ था कि मुझे ‘घाटी के आतंकवादियों’ की चिंता नहीं है, मुझे ‘दिल्ली के आतंकवादियों’ से परेशानी है। अब इसके क्या मायने लगाए जाए?



आतंकवाद को रसद पहुंचाने का मुख्य जरिया है हवाला कारोबार। अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में हवाला कारोबार बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। एक कदम संसद को उठाना है, ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।


ये चिंता का विषय है कि तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद पिछले चार दशक में कोई भी सरकार आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। हर देश के नेता आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक हमला मानते रहे हैं और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद यही कहते रहे हैं कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। पर कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें दिखाई नहीं देता।


नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाय न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।

यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें। देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें। 

Monday, November 10, 2025

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और आवारा कुत्तों की समस्या!

भारत में आवारा कुत्तों की समस्या एक जटिल सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा रही है। बीते शुक्रवार को  सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी किया है जिसमें रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, स्कूलों सहित अन्य सार्वजनिक स्थलों से आवारा कुत्तों को तुरंत हटाने और उन्हें नसबंदी, टीकाकरण के बाद निश्चित आश्रमों में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही कोर्ट ने साफ किया है कि इन कुत्तों को उनकी मूल जगह वापस नहीं छोड़ा जाएगा, ताकि इन सार्वजनिक स्थलों से उनकी उपस्थिति खत्म हो सके। यह फैसला भारत में आवारा कुत्तों से जुड़ी बढ़ती समस्या, जैसे कि कुत्ते के काटने की घटनाओं में वृद्धि को देखते हुए लिया गया है। 

सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि सभी राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय दो सप्ताह के अंदर सभी सरकारी और निजी स्कूलों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड आदि की पहचान करें जहां आवारा कुत्ते उपस्थित हैं। इसके बाद स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी होगी कि वे इन कुत्तों को पकड़कर सुरक्षित आश्रमों में स्थानांतरित करें, जहां उन्हें न सिर्फ नसबंदी और टीकाकरण दिया जाएगा, बल्कि उनकी देखभाल भी सुनिश्चित की जाएगी। कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन इस कार्रवाई में बाधा डालता है तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। यह आदेश 13 जनवरी 2026 को समीक्षा के लिए पुनः लाया जाएगा।


जानवर प्रेमियों और पशु अधिकार संगठनों ने इस आदेश पर व्यापक असंतोष जताया है। उनका कहना है कि इस तरह के आदेश से कुत्तों के प्रति चिंता और संरक्षण कम हो सकता है। कई संगठन इस बात पर जोर देते हैं कि नसबंदी और टीकाकरण के बाद कुत्तों को उनके मूल क्षेत्र में ही जारी रखना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इलाके में कुत्तों की आबादी नियंत्रित रहती है और कुत्तों के व्यवहार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे पशु कल्याण बोर्ड के पुराने सुझावों का हवाला देते हैं, जिनमें कहा गया है कि आवारा कुत्तों का पुनः उनके क्षेत्र में छोड़ना बेहतर तरीका है न कि उन्हें जोर जबरदस्ती आश्रमों में बंद करना। कई जानवर प्रेमी और समाजसेवी समूह आशंकित हैं कि इस कदम से आवारा कुत्तों की संख्या और व्यवहार संबंधी समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

पशु प्रेमी, जो जानवरों के कल्याण के प्रति संवेदनशील होते हैं, उन्हें इस निर्णय को एक सकारात्मक कदम के रूप में देखना चाहिए। यह आदेश केवल कुत्तों को सार्वजनिक स्थानों से हटाने की बात नहीं करता, बल्कि उनके लिए एक सुरक्षित और मानवीय वातावरण प्रदान करने पर भी जोर देता है। नसबंदी और टीकाकरण जैसे कदम न केवल कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करेंगे, बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाएंगे। सड़कों पर रहने वाले कुत्ते अक्सर भोजन, पानी और चिकित्सा सुविधाओं की कमी से जूझते हैं, जिसके कारण वे आक्रामक हो सकते हैं। आश्रय स्थलों में उन्हें नियमित भोजन, चिकित्सा देखभाल और सुरक्षित स्थान मिलेगा, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाएगा।


वहीं सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकार को कई महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। यदि इसे सही ढंग से अमल में लाया जाए तो यह पूरे देश के लिए एक मॉडल बन सकता है। केवल दिल्ली में अनुमानित 10 लाख आवारा कुत्तों को देखते हुए, इसे अमल करना एक चुनौती हो सकती है। सरकार को बड़े पैमाने पर आधुनिक आश्रय स्थल बनाने होंगे, जो स्वच्छता, भोजन और चिकित्सा सुविधाओं से सुसज्जित हों। इन आश्रय स्थलों में पशु चिकित्सकों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति आवश्यक है।

पशु प्रेमियों की मानें तो इस आदेश जारी करते समय कुछ सावधानियों और वैकल्पिक उपायों पर विचार किया जाना आवश्यक था जैसे: स्थानीय आश्रमों की संख्या, संसाधन और देखभाल क्षमता का आकलन, कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए आम लोगों में जागरूकता और सामाजिक समन्वय, नसबंदी और टीकाकरण के बाद ही कुत्तों को उनके इलाके में छोड़ने की नीति, कुत्तों के प्रति मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा, पशु अधिकार समूहों, नगर निगम और प्रशासन के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा।

भारत में आवारा कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है, और प्रबंधन के लिए अलग-अलग राज्यों में ABC (Animal Birth Control) नियम चलाए जाते हैं, जिसमें नसबंदी, टीकाकरण और पुनः छोड़ना शामिल है। उदाहरण स्वरूप, जयपुर और गोवा जैसे शहरों ने इस विधि से कुत्तों से होने वाली बीमारियों को काफी हद तक नियंत्रण में रखा है।

दूसरी ओर, विश्व के कई देशों ने भी अपनी-अपनी रणनीतियाँ अपनायी हैं: सिंगापुर में सरकारी निकाय द्वारा कुत्तों को पकड़कर नसबंदी और टीकाकरण के बाद या तो पुनः छोड़ दिया जाता है या फिर उनका पुनर्वास किया जाता है, तुर्की के इस्तांबुल में मोबाइल वेटरनरी क्लीनिक और सार्वजनिक फीडिंग स्टेशन बनाए गए हैं, जिससे कुत्तों का प्रबंधन प्रभावी ढंग से हो रहा है, भूटान में 2023 में 100% आवारा कुत्तों की नसबंदी का लक्ष्य हासिल किया गया, रोमानिया में कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए नसबंदी पर जोर दिया गया है, साथ ही सार्वजनिक प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए कुत्तों की हत्या से बचा गया है। 

उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में केवल नीदरलैंड ही एक ऐसा देश है जहां पर आपको आवारा कुत्ते नहीं मिलेंगे। नीदरलैंड सरकार ने एक अनूठा नियम लागू किया। किसी भी पालतू पशु की दुकान से ख़रीदे गये महेंगी नसल के कुत्तों पर वहाँ की सरकार भारी मात्रा में टैक्स लगती है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी नागरिक इन बेघर पशुओं को गोद लेकर अपनाता है तो उसे आयकर में छूट मिलती है। इस नियम के लागू होते ही लोगों ने अधिक से अधिक बेघर कुत्तों को अपनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे नीदरलैंड की सड़कों व मोहल्लों से आवारा कुत्तों की संख्या घटते-घटते बिलकुल शून्य हो गई।

ये मॉडल भारत के लिए भी प्रासंगिक हैं, जहाँ मानवीय और वैज्ञानिक तरीके से आवारा कुत्तों की संख्या नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आवारा कुत्तों की समस्या पर कड़ा कदम है, लेकिन इसके अमल में स्थानीय प्रशासन, जानवर प्रेमी और स्थानीय समुदाय के बीच सामंजस्य और समझ जरूरी है। आवारा कुत्तों को हटाने के बजाय उन्हें स्थायी और मानवीय तरीके से नियंत्रित करने के लिए बेहतर नीतियों और जागरूकता की आवश्यकता है, ताकि न सिर्फ इंसानी सुरक्षा सुनिश्चित हो बल्कि पशु कल्याण भी बना रहे। भारत जैसे बहु-आयामी सामाजिक परिवेश में आवारा कुत्तों की समस्या का समाधान सामूहिक और संवेदनशील दृष्टिकोण से ही संभव है। इस लिहाज से यह आवश्यक होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ पशु अधिकार संगठनों और स्थानीय निकायों की मदद से ऐसे उपाय किए जाएं, जो दोनों पक्षों के हित में हों और आवारा कुत्तों का हानिरहित प्रबंधन सुनिश्चित करें।   

Monday, November 3, 2025

चुनावी मौसम में पत्रकारों का कर्तव्य

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है और इस जनता की आवाज़ बनने का दायित्व पत्रकारों पर है। चुनाव वह समय होता है जब यह शक्ति सबसे अधिक सक्रिय होती है, जब जनता अपने मत से आने वाले पाँच वर्षों की दिशा तय करती है। ऐसे निर्णायक समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह एक प्रहरी यानी ‘वॉचडॉग’ की भूमिका निभाता है। दुर्भाग्य से, आज के परिदृश्य में कई बार यह प्रहरी सार्वजनिक हित का रक्षक बनने के बजाय सत्ता या किसी दल का प्रचारक बनता दिखता है। यही वह विमर्श है जिस पर विचार होना चाहिए, कि पत्रकारों और एंकरों को क्यों और कैसे अपनी मूल भूमिका निभानी चाहिए, न कि पीआर (पब्लिक रिलेशन) पेशेवर बन जाना चाहिए।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य हमेशा सत्य का अन्वेषण रहा है। पत्रकार न तो किसी नेता के समर्थक होते हैं, न विरोधी, वे केवल जनता के प्रतिनिधि हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रेस का काम जनता को सरकार की भूलों से सतर्क करना है, सरकार का मुखपत्र बनना नहीं। जब चुनाव आते हैं, तो यही भूमिका और भी संवेदनशील हो जाती है क्योंकि इस समय जनता को सूचित निर्णय लेने के लिए निष्पक्ष जानकारी चाहिए होती है। यदि मीडिया इस समय भ्रम फैलाए या किसी पक्ष के प्रचार का माध्यम बने, तो लोकतंत्र की आत्मा को आघात पहुँचता है।


पत्रकारिता एक सार्वजनिक सेवा है, जबकि पीआर एक निजी हित का कारोबार। दोनों के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जहाँ पत्रकारिता का उद्देश्य सत्य और पारदर्शिता है, वहीं पीआर का उद्देश्य छवि निर्माण होता है, और वह भी किसी व्यक्ति या संगठन के हित में। जब कोई पत्रकार या एंकर अपने मंच का उपयोग किसी नेता की छवि चमकाने या विरोधी को बदनाम करने के लिए करता है, तो वह पत्रकार नहीं, पीआर एजेंट बन जाता है। यह स्थिति न केवल उसकी पेशेवर आचारसंहिता का उल्लंघन करती है, बल्कि जनता के साथ विश्वासघात भी है।

चुनाव कवरेज अक्सर टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज रूप ले लेता है। लेकिन वास्तविक पत्रकारिता की परीक्षा इसी समय होती है जब दबाव हो, आकर्षण हो और फिर भी कोई पत्रकार निष्पक्ष रह पाए। पत्रकारों को चाहिए कि वे चुनावी खबरों में तथ्यों की पुष्टि करें, उम्मीदवारों के वादों की जांच करें और जनता से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखें, न कि केवल रैलियों की भीड़ या विवादों की गहमागहमी को।

एंकरों के लिए भी यह समय आत्म-संयम का होता है। उनसे अपेक्षा है कि वे मंच पर दोनों पक्षों को बराबर अवसर दें, तर्क पर तर्क से जवाब लें और चुनावी बहस को ‘शोर’ नहीं बल्कि ‘संवाद’ में बदलें। पत्रकारों व एंकरों का उद्देश्य दर्शकों को किसी दल की मनोवैज्ञानिक दिशा में मोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए।


लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का संतुलन बनाए रखने वाले चौथे स्तंभ का प्रतिनिधि है। चुनाव काल में जब राजनीतिक दल वादों की बाढ़ लाते हैं, तब मीडिया का दायित्व है कि वह इन वादों की जांच करे। कौन से वादे व्यवहारिक हैं, कौन से केवल भाषणों की सजावट। इसके अलावा, मीडिया को यह भी देखना चाहिए कि क्या चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्ष हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्र रूप से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार यह निगरानी न करें, तो सत्ता और धनबल का उपयोग करके जनमत को गुमराह करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में पत्रकार ही वह दीवार है जो जनतंत्र को ‘विज्ञापनतंत्र’ बनने से बचा सकती है। 


सच्चा पत्रकार अपनी राय ज़रूर रख सकता है, लेकिन उसे तथ्यों की सत्यता से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह हर रिपोर्ट में स्रोत स्पष्ट करे, हर दावा परखे और किसी भी राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने से पहले उसकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे। पत्रकारिता में ‘निष्पक्षता’ का अर्थ यह नहीं कि सबकी बात एक समान मानी जाए, बल्कि यह कि सच्चाई के प्रति वफ़ादारी रखी जाए, चाहे वह सत्ता के खिलाफ़ हो या विपक्ष के।

एंकरों को भी समझना होगा कि उनका मंच और चैनल एक भरोसे का प्रतीक है। यदि वे उसी मंच से किसी विशेष पार्टी के प्रवक्ता बन जाएँ, तो वह भरोसा टूट जाता है। ट्रोल्स के प्रभाव, कॉर्पोरेट दबाव और राजनीतिक समीकरणों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन अवश्य है, पर यही कठिनाई पत्रकारिता को सम्मान दिलाती है।


आज के युग में सोशल मीडिया ने सूचना का लोकतंत्रीकरण किया है, लेकिन अफवाहों और आधी सच्चाईयों के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। इस वातावरण में टीवी और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे त्वरित सुर्खियों से आगे बढ़कर पड़ताल करें, डेटा और दस्तावेज़ों पर आधारित रिपोर्ट तैयार करें और जनता को यह सिखाएँ कि सच्ची खबर कैसे पहचानी जाए। यदि पत्रकार भी सिर्फ़ ट्रेंड या वायरल वीडियो के पीछे भागने लगे, तो वह समाज को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित करेगा।

आज चुनाव के मौसम में पत्रकारों को आत्ममंथन की ज़रूरत है। क्या वे अपनी रिपोर्टों से जनता को सशक्त बना रहे हैं या किसी राजनीतिक पार्टी या कॉर्पोरेट घराने के एजेंडे को मज़बूत कर रहे हैं? क्या उनके सवाल जनता के प्रश्न हैं या टीआरपी के लिए रचे गए नाटक? लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब पत्रकार अपने पेशे की आत्मा को जिंदा रखेंगे।  जब वे सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से डरेंगे। ‘वॉचडॉग’ बनने का अर्थ है सत्ता पर निगाह रखना, अन्याय पर सवाल करना और जनता के अधिकारों की रक्षा करना। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगरपालिका का, मीडिया का धर्म एक ही है: सच दिखाना, पूरी ईमानदारी से, चाहे किसी को असुविधा ही क्यों न हो।

पत्रकारिता केवल करियर नहीं, बल्कि लोकसेवा का माध्यम है। यदि पत्रकार और एंकर इस आत्मा को पहचान लें और चुनावी मौसम में पीआर के प्रभाव से ऊपर उठकर तटस्थ प्रहरी बनें, तो लोकतंत्र की नींव और अधिक मजबूत होगी। जनमत जागरूक होगा, सत्ता जवाबदेह बनेगी और भारत की लोकतांत्रिक परंपरा सच्चे अर्थों में सशक्त होगी।