Monday, December 30, 2024

डॉ मनमोहन सिंह: सबके मन को मोहा


दुनिया से जाने के बाद इंसान के सद्गुणों को याद करने की परंपरा है। इसलिए आज भारतवासी ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के महत्वपूर्ण लोग डॉ मनमोहन सिंह को याद कर रहे हैं। पिछले तीस वर्षों में मेरा उनसे कई बार सामना हुआ। हर बार एक नया अनुभव मिला। मेरा छोटा बेटा और डॉ मनमोहन सिंह का धेवता माधव दिल्ली के सरदार पटेल विद्यालय में पहली कक्षा से 12वीं कक्षा तक साथ पड़े। इसलिए इन दोनों बच्चों के जन्मदिन पर मेरी पत्नी और डॉ सिंह की बेटी अपने सुपुत्र को लेकर जन्मदिन की पार्टी में आती-जाती थीं। जब डॉ सिंह वित्त मंत्री थे तो मेरी पत्नी ने उनके कृष्ण मेनन मार्ग के निवास से लौट कर बताया कि उनकी यह पार्टी उतनी ही सादगी पूर्ण थी जैसी आम मध्यम वर्गीय परिवारों की होती है। न कोई साज सज्जा, न कोई हाई-फ़ाई केटरिंग, सब सामान घर की रसोई में ही बने थे। कोई सरकारी कर्मचारी इस आयोजन में भाग-दौड़ करते दिखाई नहीं दिये। माधव के माता-पिता और नाना-नानी ही सभी अतिथि बच्चों को खिला-पिला रहे थे।
 



सरदार पटेल विद्यालय के वार्षिक समारोह में डॉ मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री के नाते मुख्य अतिथि थे। विद्यालय की मशहूर प्राचार्या श्रीमती विभा पार्थसार्थी, अन्य अध्यापकगण और हम कुछ अभिभावक उनके स्वागत के लिए विद्यालय के गेट पर खड़े थे। तभी विद्यालय का एक कर्मचारी प्राचार्या महोदया के पास आया और बोला कि एक सरदार जी हॉल में आकर बैठे हैं और आपको पूछ रहे हैं। विभा बहन और हम सब तेज़ी से हॉल की ओर गये तो देखा कि वो डॉ मनमोहन सिंह ही थे। हुआ ये कि वे आदत के मुताबिक़ कैबिनेट मंत्री की गाड़ी, सुरक्षा क़ाफ़िला साथ न ला कर अपनी सफ़ेद मारुति 800 कार को ख़ुद चला कर विद्यालय के उस छोटे गेट से अंदर आ गये जहां वे अक्सर माधव को स्कूल छोड़ने आते रहे होंगे। 



1993-96 में जैन हवाला कांड उजागर करने के दौरान मैं देश भर में प्रायः रोज़ ही जनसभाएँ संबोधित करने बुलाया जाता था। उन दिनों मीडिया की सुर्ख़ियों में भी मेरे बयान छपते रहते थे, ऐसे में इण्डियन एयरलाइंस का स्टाफ़ एयरपोर्ट पर चेक-इन करते वक्त मुझे और मेरे सहयोगी रजनीश कपूर को प्राथमिकता देते थे। एक बार मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो डॉ मनमोहन सिंह ब्रीफकेस हाथ में लिए लाइन में पीछे खड़े थे। मुझे झिझक लगी तो मैंने उनसे आगे बढ़कर कहा कि, पहले आप चेक-इन कर लीजिए। उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया और अपना नंबर आने पर ही चेक-इन किया। 



हवाला कांड के अभियान के दौरान मैं देश के हर बड़े दल के नेताओं के घर जा कर उनसे तीखे सवाल करता था और पूछता था कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इतने बड़े कांड पर संसद मौन क्यों है? आप लोग सरकार से सवाल क्यों नहीं पूछते कि कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला के ज़रिये अवैध धन पहुँचाने के मामले में सीबीआई जाँच क्यों दबाए बैठी है? इसी दौरान मैं तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह से मिलने उनके आवास भी गया। वे और उनकी पत्नी बड़े सम्मान से मिले। शिष्टाचार की औपचारिकता के बाद मैंने उन से पूछा, ‘आपकी छवि एक ईमानदार नेता की है। ये कैसे संभव हुआ कि बिना यूरिया भारत आए करोड़ों रुपये का भुगतान हो गया?’ फिर मैंने कहा, ‘हर्षद मेहता कांड और अब जैन हवाला कांड आपकी नाक के नीचे हो गये और आपको भनक तक नहीं लगी, ऐसे कैसे हो सकता है कि वित्त मंत्रालय को इसकी जानकारी न हो? यह भी संभव नहीं है कि आपके अफ़सरों ने आपको अंधेरे में रखा हो। पर अब तो ये मामले सार्वजनिक मंचों पर आ चुके हैं तो आपकी खामोशी का क्या कारण समझा जाए।’ उन्होंने मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देने के बजाए चाय की चुस्की ली और मुझसे बोले, आपने बिस्कुट नहीं लिया। मैं समझ गया कि वे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं चाहते या उत्तर न देने की बाध्यता है। फिर दोनों पति-पत्नी मुझे मेरी गाड़ी तक छोड़ने आए और जब तक मैं गाड़ी स्टार्ट करके चल नहीं दिया तब तक वहीं खड़े रहे। 



हवाला कांड के लंबे संघर्ष से जब मैं थक गया तो बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा से मथुरा वृंदावन और आस-पास के क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण करने में जुट गया। मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि 1947 से अब तक किसी भी राजनैतिक दल या उससे जुड़े सामाजिक संगठनों ने कभी भी भगवान श्री राधा कृष्ण की दिव्य लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का कोई प्रयास नहीं किया था। अगर कुछ किया तो सार्वजनिक ज़मीनों पर क़ब्ज़े करने का काम किया। ख़ैर भगवत कृपा और संत कृपा से हमारे कार्य की सुगंध दूर-दूर तक फैल गई। लेकिन इस दौरान मैं देश की मुख्य धारा के राजनैतिक और मीडिया दायरों से बहुत दूर चला गया। मेरी गुमनामी इस हद तक हो गई कि मात्र सात वर्षों में दिल्ली के महत्वपूर्ण लोग मुझे भूलने लगे। तभी   2009 में ‘आईबी डे’ पर आईबी के तत्कालीन निदेशक के आवास पर प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह अन्य गणमान्य लोगों से हाथ मिलाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। मैं और मेरी पत्नी उनसे काफ़ी दूर लॉन में एक पेड़ के नीचे खड़े थे। मेरी पत्नी ने कहा कि चलिए हम भी आगे बढ़कर प्रधान मंत्री जी से मिल लेते हैं। पर मैं संकोचवश वहीं खड़ा रहा। इतने में डॉ सिंह मुड़े और दूर से मुझे देख कर मेरे पास चलते हुए आए और बोले, विनीत जी आपका मथुरा का काम कैसा चल रहा है? हमारी यह मुलाक़ात शायद लगभग 15 वर्ष बाद हो रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ उनका यह प्रश्न सुन कर। मैंने कहा, ‘हमारा काम तो ठीक चल रहा है पर आपकी धर्मनिरपेक्ष सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही।’ वे बोले, आप कभी आकर मुझ से मिलें। 


चालीस वर्षों की पत्रकारिता में देश के सभी बड़े राजनेताओं से अच्छा संपर्क रहा। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्रधान मंत्री के पद पर रहते हुए भी जिस आत्मीयता से श्री चंद्रशेखर जी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी व डॉ मनमोहन सिंह जी मुझ से मिलते रहे वह चिरस्मरणीय है। ये तो तब जब इन तीनों की, उनके इस महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए, मैं अपने लेखों और भाषणों में तीखी आलोचना करता था।   

Monday, December 16, 2024

मुसलमान ज़रा सोचें


हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से थे जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।



आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तृप्त नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।



ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।


हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी


मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।


जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।


दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहा हो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। 


इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। देश भर में होने वाले आतंकी हमले, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में होने वाले  भयानक विस्फोटों की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं। 

Monday, December 9, 2024

राजनेताओं के प्रेम प्रसंग


हमेशा की तरह राजनेताओं के प्रेम प्रसंग लगातार चर्चा में रहते हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसे सभी मामलों को बल पूर्वक दबा दिया जाता है। जल्दी ही ऐसी घटनाएँ जनता के मानस से ग़ायब हो जाती हैं। पर दुनिया भर के राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है।
 



उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी। 



आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन. डी. तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं। 



घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।


प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया। 


ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं। 


मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो।