भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन वी रमना ने ज़ूम के माध्यम से सारे देश को संबोधित करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि, “न्यायपालिका को पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहिए। इसे विधायिका या कार्यपालिका के ज़रिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। ऐसा किया गया तो ‘क़ानून का शासन’ छलावा बन कर रह जाएगा।” उनके ये विचार सूखी ज़मीन पर वर्षा की फुहार जैसे हैं।
न्यायमूर्ति रमना का ये प्रहार सीधे-सीधे देश की कार्यपालिका और विधायिका पर है, जिसके आचरण ने हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को जितना धूमिल किया है उतना पहले कभी नहीं हुआ था। सेवानिवृत हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री सथाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया जाना और इसी तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे श्री गोगोई को राज्य सभा का सदस्य बनाना सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह याद किया जाएगा।
पहले की सरकारों ने भी न्यायाधीशों को अपने पक्ष में करने के लिए परोक्ष रूप से और कभी-कभी प्रगट रूप से भी प्रलोभन दिए हैं। पर वे इतनी निर्लजता से नहीं दिए गए कि आम जनता के मन में देश के सबसे बड़े न्यायधीशों के आचरण के प्रति ही संदेह पैदा हो जाए। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा एक अनैतिक कार्य और हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने भारत के मुख्य न्यायधीश रहे श्री रंगनाथ मिश्रा को अपनी पार्टी की टिकट पर चुन कर राज्य सभा का सदस्य बनाया था। हालाँकि तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं थी। इसलिए मिश्रा का चुनाव सथाशिवम और गोगोई की तरह सत्तारूढ़ दल की तरफ़ से उनकी ‘सरकार के प्रति सेवाओं का पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में जो कारण था जो वैसा ही था जिसके कारण अब प्रधान मंत्री मोदी ने इन दो पूर्व मुख्य न्यायधीशों को पुरस्कृत किया है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में दिल्ली में हुए दंगों की जाँच के लिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने एक सदस्यीय ‘रंगनाथ मिश्रा आयोग’ बनाया था। जिसने उन दंगों में सरकार की भूमिका को ‘क्लीन चिट’ दे दी थी। उसका ही पुरस्कार उन्हें 1998 में मिला।
तो 75 साल के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय के 220 रहे न्यायधीशों में ये कुल तीन अपवाद हुए हैं। इससे संदेश क्या जाता है, कि इन तीन न्यायधीशों ने कुछ ऐसे निर्णय दिए होंगे जो न्याय की कसौटी पर खरे नहीं रहे होंगे। उन निर्णयों को देने का मात्र उद्देश्य उस समय के प्रधान मंत्री को खुश करना रहा होगा। इसीलिए इन्हें यह इनाम मिला। इससे इन तीनों पूर्व न्यायधीशों की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई और सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता पर भी संदेह पैदा होना स्वाभाविक है।
तो क्या यह माना जाए कि न्यायमूर्ति रमना का यह सम्बोधन देश की कार्यपालिका और विधायिका को एक चेतावनी है, जो क्रमशः न्यायपालिका पर भी अपना शिकंजा कसने की जुगत में रही है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए उसके चारों स्तम्भों का सशक्त होना, स्वतंत्र होना और बाक़ी तीन स्तम्भों के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक होता है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भरपूर वकालत तो करते हैं पर उनके कार्यकाल में इस स्वतंत्रता का जितना हनन हुआ है उतना मैंने गत 35 वर्षों के अपने पत्रकारिता जीवन में, 18 महीने के आपातकाल को छोड़ कर, कभी नहीं देखा। यह बहुत ख़तरनाक रवैया है, क्योंकि इससे लोकतंत्र लगातार कमजोर हो रहा है और राज्यों तक में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं। सवाल आप पूछने नहीं देंगे, प्रेसवार्ता आप करेंगे नहीं, केवल बार-बार देश को इकतरफ़ा संबोधन करते जाएँगे, तो स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो लोकतंत्र और जनता के लिए बहुत घातक स्थिति होगी।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण रखने से सरकार देश की करोड़ों जनता का विश्वास अर्जित करती हैं। इससे आम आदमी को न्याय मिलने की आशा बनी रहती है। इससे सरकार में भी न्यायपालिका का परोक्ष डर बना रहता है। यही स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है। जब सरकार ऐसे काम करती है जिसमें देश के संसाधनों का या राष्ट्रहित का स्वार्थवश या अन्य अनैतिक कारणों से बलिदान होता है, तभी सरकारें अपनी कमजोरी या भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए न्यायपालिका का सहारा लेती है।
दूसरी तरफ़ यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायधीशों को अपनी गरिमा की खुद चिंता करनी चाहिए। जिस तरह समाज के अन्य क्षेत्रों में नैतिक पतन हुआ है उससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं रही है। यह बात अनेक उदाहरणों से सिद्ध की जा सकती है। आम भारतीय जिसका न्याय व्यवस्था से कभी भी पाला पड़ा है उसने इस पीड़ा को अनुभव किया होगा। हाँ अपवाद हर जगह होते हैं। 1997 और 2000 में मैंने भारत के दो पदासीन मुख्य न्यायधीशों व अन्य के अनैतिक और भ्रष्ट आचरण को सप्रमाण उजागर किया था तो हफ़्तों देश की संसद, मीडिया और अधिवक्ताओं के बीच एक तूफ़ान खड़ा हो गया था। सबको हैरानी हुई कि अगर इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर बैठ कर भी अगर कोई ऐसा आचरण करता है तो उससे न्याय मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
इस दिशा में भी न्यायपालिका में गम्भीर चिंतन और ठोस प्रयास होने चाहिए। सन 2000 में भारत के मुख्य न्यायधीश एस पी भारूचा ने केरल के एक सेमिनार में बोलते हुए कहा था कि ‘सर्वोच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, लेकिन मौजूदा क़ानून उससे निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। भ्रष्ट न्यायधीशों को सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।’ उनकी इस बात को आज 21 साल हो गए, लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। क्या उम्मीद की जाए, कि न्यायमूर्ति रमना व उनके सहयोगी जज इस विषय में भी ठोस कदम उठाएँगे?
भारत की बहुसंख्यक जनता आज भारी कष्ट और अभावों में जी रही है। उसका आर्थिक स्तर तेज़ी से गिर रहा है। जबकि मुट्ठी भर औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रही है। इससे समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। इन हालातों में अगर गरीब को न्याय भी न मिले और वो हताशा में क़ानून अपने हाथ में ले, तो दोष किसका होगा? न्यायपालिका में सुधार के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, बड़े-बड़े न्यायविद और क़ानून पढ़ाने वाले समय-समय पर अपने सुझाव देते रहे हैं, पर उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकारें न्यायपालिका को मज़बूत नहीं होने देना चाहती और दुर्भाग्य से न्यायपालिका भी अपने आचरण में बुनियादी बदलाव लाने को इच्छुक नहीं रही है। क्या माना जाए कि आज़ादी के 75वे साल में न्यायमूर्ति रमना इस दिशा में कुछ पहल करेंगे?
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