2019 के चुनावों की पेशबंदी शुरू हो गयी है। जहां एक तरफ भाजपा
भविष्य के खतरे को देखते हुए रूठे साथियों को मनाने में जुटी है, वहीं विपक्षी दल आपसी तालमेल बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
दोनों ही पक्षों की तरफ से सोशल मीडिया पर मनोवैज्ञानिक युद्ध जारी है। जहां भाजपा
का सोशल मीडिया देशवासियों को मुसलमानों का डर दिखाने में जुटा है, वहीं विपक्षी
मीडिया,
जो अभी कम आक्रामक है मोदी जी के 2014 के चुनावी वायदे पूरे न होने की याद दिला रहा है। इस युद्ध
के माहौल में बुनियादी सवाल नदारद है। लोकतंत्र में मतदाताओं की संख्या का बड़ा
महत्व होता है। उस दृष्टि से मुसलमानों की बढ़ती ताकत का डर आसानी से हिंदूओं को
दिखाकर उनके मत को एकमत किया सकता है। पर आम आदमी की जिंदगी में धर्म से ज्यादा
रोजी,
रोटी, शिक्षा, मकान, स्वास्थ
और सुरक्षा का महत्व ज्यादा होता है। धर्म
की याद तो उसे भरे पेट पर आती है। पिछले 4 वर्ष की एनडीए सरकार दावों के विपरीत इन सभी क्षेत्रों में
प्रधानमंत्री की योजनाओं का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंचा, इससे समाज में भारी हताशा है। ज्यादातर मध्यम स्तरीय उद्योग
धंधे चैपट हैं। रियल ईस्टेट का धंधा चैपट है। बेरोजगारी चरम पर है। आम जनता में
भारी निराशा है। मीडिया और सरकारी प्रचार तंत्र सरकार की उपलब्धियों के कितने ही
दावे क्यों करे, जमीन पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। यह भाजपा के लिए शुभ
संकेत नहीं है और अब इतनीदेर हो चुकी है कि रातों-रात कुछ नया खड़ा नहीं किया जा
सकता। यही वजह है कि भाजपा को घिसेपीटे पुराने मुद्दे ही दोहराने पड़ रहे हैं। फिर
वो चाहे अल्पसंख्यकों से खतरा बताकर हिंदू वोटों को पकड़ने की कोशिश हो या राजनैतिक
विपक्षियों पर सीबीआई के शिकंजे कसकर उनकी संभावित एकता को रोकने का प्रयास हो या
पाकिस्तान से कश्मीर के मुद्दे पर युद्ध की झलक दिखाकर देशभक्ति के नाम पर देश को
एकजुट करने का प्रयास हो। पर इन सभी चुनावी हथकंडों से आम मतदाता की समस्याओं का
कोई संबंध नहीं है। ये सब लोगों को अब भटकाने वाले मुद्दे नजर आते हैं। उनके असली
मुद्दों की कोई बात नहीं कर रहा। 2014 के आम चुनाव में मोदी जी ने हर वर्ग और आयु के मतदाता के
मन में उम्मीद जगाई थी। जो वे पूरी नहीं कर पाऐ। इसलिए लगता है कि ये हथकंडे शायद
इस चुनाव में काम न आए।
दूसरी
तरफ विभिन्न विचारधाराओं और भारत के विभिन्न प्रांतों के राजनेता हैं, जो कर्नाटक की सफलता से बहुत उत्साहित हैं। जो केवल आपसी
तालमेल की बात कर रहे हैं भाजपा के कार्यकर्ताओं की संगठित सेना से वैचारिक स्तर
पर निपटने का अभी कोई साफ नक्शा दिखाई नहीं देता। जिससे इस बात की संभावना बनती है
कि एकजुट होकर भी ये विभिन्न राजनैतिक दल, जनता के दिल को छूने वाले मुद्दे नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में
यह स्पष्ट है कि आगामी चुनाव में लड़ाई बुनियादी मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि सतही
मुद्दों को लेकर होगी। जो भी जीतेगा वो फिर सरकार को वैसे ही चलायेगा, जैसा आज तक चलाता आ रहा है। इस तरह तो कुछ नहीं बदलेगा। देश
की गाड़ी 1947 से जिस ढर्रे पर चल रही है, उसी ढर्रे पर आगे बढ़ेगी। आज विकास के नाम पर गलत योजनाओं की
परिकल्पना, भ्रष्ट नौकरशाही के
असीम अधिकार, निचले स्तर पर भारी
भ्रष्टाचार ने विकास की कमर तोड़ दी है। अब चुनाव में चाहे कोई जीते कुछ बदलने वाला
नहीं है। जब सांसदों की इतनी बड़ी संख्या लेकर दमदार नेता नरेन्द्र भाई मोदी चार
साल में जनता को राहत नहीं दे पाये, तो आगे दे पायेंगे इसका क्या भरोसा? ऐसे में मतदाता के सामने प्रश्न खड़ा होता कि वे किसे वोट दे
और क्यों,
और न भी दे तो क्या फर्क पड़ता है। क्योंकि उसकी जिंदगी
बदलने वाली नहीं है- ‘‘कोउ नृप होय हमें का हानि, चेरि छोड़ न होबई रानी’।
जनता
तो लुटने पिटने और शोषित होने के लिए है। इसलिए उसकी चुनावों में रूचि समाप्त हो
गयी है। इस तरह तो हमारा लोकतंत्र कमजोर होता जाऐगा। जरूरत इस बात की थी कि पिछले 71 सालों में विकास का जो ढर्रा चलता रहा, उसे पूरी तरह बदल दिया जाता। फिर स्वयं सिद्ध लोगों की राय
से विकास की योजनाऐं बनाई जाती। ऐसा कुछ नहीं हो रहा। यह चिंता की बात है।
दरअसल
हमारा तो मानना रहा है। कि आप काज, महा काज। जनता को अपने और अपने आसपास के लोगों की भलाई और
विकास की तरफ खुद ही कदम बढ़ाने होंगे और अनुभव यह दिखा देगा कि जो काम जनता
ईमानदारी से चार आने में कर लेती है, वही काम सरकारी अमला 40 रूपये में भी नहीं कर पाता। आज के संचार के युग में
सूचनाओं का प्रसारण बहुत तीव्र गति से होता है। अगर ये सूचनाऐं आम जनता तक पहुंची, तो सभी राजनैतिक दल कटघरे में खड़े होंगे और ऐसे में एक दल
की सरकार बनना असंभव होगा। वास्तव में क्या होता है, ये तो आम चुनाव के परिणाम ही बतायेंगे।
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