Friday, December 11, 1998

फायर: नारी मुक्ति का यह कैसा रूप है ?


देश के अभिजात्य वर्ग में दीपा मेहता की नई फिल्म फायर की बडी चर्चा है। अपने पतियों की उपेक्षा से परेशान दो देवरानी और जेठानी कैसे पारस्परिक संबंध विकसित करती हैं यह है इस फिल्म की कथा। ये महिलाएं एक दूसरे को भावनात्मक सुरक्षा और नैतिक बल देने की सीमाओं से आगे जाकर समलैंगिक शारीरिक संबंधों तक की स्थापना की वकालत करती है। इस सशक्त फिल्म को देखने के बाद हर वह पति स्वयं को अपराधी महसूस करता है जो अपनी पत्नी को पूरा समय नहीं दे पाता। इस मायने में इसे सफल फिल्म कहा जा सकता है क्योंकि इससे घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं की घुटन का पता चलता हैं वह घुटन जो अक्सर दिखाई नहीं देती या नजरंदाज कर दी जाती है लेकिन जो समाधान प्रस्तुत किया गया है वह भयानक ही नहीं वीभत्स भी है।
बात अगर फिल्मी कहानी तक होती तो शायद अपने सरोकार का विषय न होता। दुर्भाग्य से यह बात आज महानगरों के अभिजात्य वर्ग के बीच काफी दिखने लगी है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डा. दीपा डेका कुछ चैंकने वाले तथ्य प्रस्तुत करती हैं। देश भर से इलाज के लिये उनके पास आने वाली अभिजात्य वर्ग की या बुद्धिजीवी वर्ग की अनेक ऐसी महिलायें हैं जो नारी मुक्ति के आधुनिक दर्श का शिकार बन चुकी हैं। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता व आर्थिक आत्मनिर्भरता की धुन में ये महिलायें ऐसे कदम उठा रही हैं जो न सिफ्र उनके लिये घातक हैं बल्कि उनके परिवार को भी उनका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस तरह पूरे समाज के लिये खतरा पैदा हो रहा है जिसकी परिणति तनाव, डिप्रैशन और कभी कभी आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है। डा. डेका बताती हैं। कि आजकल उनके पास आने वाले मरीजों में अनेक ऐसी महिलाएं हें जिन्होंने बिना विवाह किये ही संतान उत्पत्ति की है। आज उन्हें दोहरे संकट से जूझना पड़ रहा है। एक तो अपने अनाम पिता की पहचान को लेकर बालक की जिज्ञासाओं से और दूसरा अकेले जीवन ढोने के संत्रासों से। ये संकट उनके जीवन में तनाव पैदा कर रहा है जिससे अनेक दूसरी बीमारियां भी उत्पन्न हो रही हैं।
नारी मुक्ति की पश्चिमी मानसिकता वाली बहनें तुनक कर कहेंगी कि क्या पारंपरिक समाज की स्त्रियों की दुर्दशा नारी मुक्ति की समर्थ इन महिलाओं से कहीं कम थी ? शायद नहीं। संयुक्त परिवार और नाकारा पति की परमेश्वर रूप में सेवा की त्रासदियों को जिन बहनों ने झेला है वही इसका सही जवाब दे सकती हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि नारी मुक्ति की हामी ज्यादातर महिलाओं के मन में वह प्रसन्नता व संतोष नहीं है जिसके लिये उन्होंने ऐसे कठोर कदम उठाये थे। अगर होता तो डा. डेका को कुछऔर ही अनुभव होते।
दरअसल देश के अभिजात्य वर्ग को पश्चिमीकरण के कीड़े ने काट खाया है नतीजतन वह पश्चिम के हर किस्म के कूड़े करकट को बिना बिचारे बटोरने में जुट जाता है चाहे वह प्लास्टिक के लिफाफे हों या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता, परन्तु हर बार मुंह की खाता है। फिर नये मायाजाल में फंस जाता है। यह बात दूसरी है कि पश्चिमी समाज अपने कटु अनुभवों से अब पुनः पारंपरिक मूल्यां की तरफ लौट रहा है। सिगरेट पीना या मुक्त सैक्स संबंध रखना पश्चिमी समाज में अब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है। एक जमाना था जब पश्चिमी देशों में सैक्स की भावना भड़काने वाले सामान खुलेआम बड़ी दुकानों और हवाई अड्डों पर बिकते थे। आज ऐसा नहीं है। पहले यूनिवर्सिटी के पुस्तकालयों तक में वैंडर-मशीनमें सिक्कर डालकर गर्भ निरोधक हर क्षण हर स्थान पर प्राप्त किये जा सकते थे। गोया कि गर्भनिरोधक न होकर मिनरल वाटरकी बोतल हो जिसके बिना जिंदा रहना भी मुश्किल होता हो। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के भय ने आज सैक्स से जुड़े हर कारोबार को उन देशों में लगभग समाप्त कर दिया है।यही वजह है कि एक साथ पनपी दो विख्यात बड़ी कंपनियों में से स्वस्थ मनोरंजन पर आधारित कंपनी मैक-डोनाल्डतो दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति कर रही है जबकि सैक्स पर आधारित प्ले ब्वा¡कंपनी का बिस्तर गोल हो गया।
लीक से हटकर काम करने वाले भारत के टेलीविजन व फिल्म मीडिया में दुर्भाग्ये से आज उसी वर्ग का बोलबाला है जो अस्वाभाविक किस्त के मानवीय संबंधों की वकालत करता है जबकि ही कीमत यह है कि पूरे समाज का वह एक नगण्य प्रतिशत है जबकि अधिकांश समुदाय इस प्रकार की वार्ता को हिकारत की निगाह से देखता है। उसकी चर्चा तक करने से बचता है। चूंकि अप्राकष्तिक संबंधों का हिमायती वर्ग बुद्धिजीवियों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों जेसे लोगों से भरा है इसलिये यह समूह ज्यादा मुखर है, अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में कुशल है, इसलिये यह समूह कभी कभी अपने बारे में ताकतवर व विशाल होने का भ्रम पैदा कर देता है। संचार माध्यमों पर अपनी पकड़ के कारण अपने विचारों को बड़े जोर शोर से प्रचारित करता है। चूंकि फिल्म संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है इसलिये इस पर कही बात गहरी चोट करती है।
चिंता की बात यह हे कि फायर फिल्म में जिस तरह भारतीय दर्शन का उपहास किया गया है, वह अशोभनीय व असंतुलित ही नहीं, सतही भी है। समलैंगिकता में रत दो महिलायें भारतीय दर्शनके इस मूल सिद्धांत का उपहास करती हैं कि इच्छाओं के दमन से चिंताओं का दमन होता है। भगवद गीता से लेकर बौद्ध, जैन, सिख व सूफी संतों ने हजारों वर्षों से भारतीय दर्शन के इस मूल मंत्र का प्रचार किया है। समाज ने इसे अनुभवभी किया है। यही वजह है कि भौतिक प्रगति की बुलंदियों को छूने के बावजूद अमरीका से लेकर जापान तक का जिज्ञासु मन इसी दर्शन की खोज में भटकता हुआ भारत आता है, परन्तु यह दुर्भाग्य है अपने समाज का कि स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित आधुनिक लोग पश्चिमी समाज के भौंडेपन को मानव स्वतंत्रता के नाम पर महिमामंडित करने में जुटे हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि भारतीय समाज में कोई दोष ही नहीं। लिंग, जाति व वर्ग के आधार पर समाज में शोषण का एक लम्बा इतिहास है। पर यह सिर्फ भारत में हुआ हो ऐसा नहीं। नारी मुक्ति की समर्थक न्यूयार्क टाइम्स की एक महिला पत्रकार ने एशिया, अफ्रीका व पश्चिमी देशों की महिलाओं के सर्वेक्षण के बाद कुछ चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनके अनुसार उन देशों की महिलाओं की सामाजिक और मानसिक स्थिति में भारतीय महिलाओं से कोई विशेष बुनियादी अंतर नहीं था। काम से लौटे दम्पत्ति घर में घुस कर वहां भी वही करते हैं जो भारत में। मसलन पति आराम कुर्सी पर बैठकर टीवी देखता है या अखबार पढ़ता है और पत्नी रसोई घर में घुसकर खाना पकाती है। इस सर्वेक्षण में चैंकने वाली बात यह थी कि भारत की कामगार देहाती महिलायें शहरों की तथाकथति आधुनिक महिलाओं के मुकाबले ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, इसलिये ज्यादा स्वतंत्र भी हैं। यदि भारत की महिलाओं से फायर जैसी फिल्म पर प्रतिक्रिया मांगी जाएतो सिवाय हिकारत के और कुछ नहीं मिलेगा।
दूसरी तरफ ये तथाकथित आधुनिक महिलायें उनका उपहास करेंगी। यह कहकर कि बेचारी अंधकार में हैं, अज्ञानी हैं, बचपन से मिले संस्कारों के जाल में जकड़ी हैं, विकल्प के अभाव में हालात से समझौता करने पर मजबूर हैं। आजादी की कोई परिकल्पना उनके दिमाग में नहीं है, इसलिये रात दिन चक्की में पिस रही हैं। किन्तु आंकड़े सिद्ध करदेंगे कि ये वाहियात तर्क हैं। पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी ज्यादातर महिलाओं के परिवारों में जो सुख व शांति है वह इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं के परिवारों की तुलना में कई गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षाा से लैस किन्तु पारंपरिक मूल्यों में आस्था रखने वाली भारतीय महिलाओं की संख्या भी इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं से कई गुना ज्यादा है। ये महिलायें करोड़ों की तादाद में भारत के नगरों में रहती हैं तो लाखों की तादाद में अनिवासी भारतीयों के परिवारों की शोभा पश्चिमी देशों में बढ़ा रही हैं। जितने संतुलित व्यक्त्वि वाले बच्चे इन परिवारों में बड़े हो रहे हैं जितना प्रेम और सोहार्द इन परिवारों में है उसका शतांश भी तथाकथित आधुनिक महिलाओं के घरों में दिखाई नहीं देता। महिलाओं की समस्याओं पर लेख लिखे जायें, सेमिनार किये जायें, टीवी टा¡क शो किये जायें या भाषण आयोजित किये जायें तो विशेषज्ञ के तौर पर प्रायः ये तथाकथित आधुनिक महिलायें ही आमंत्रित की जाती है। प्रांतों के नगरों में एक आम परिवार की महिला जब इन आत्मघोषित क्रांतिकारी महिलाओं के विचार सुनती है तो हैरान रह जाती है। वह स्वयं को ऐसे हवाई विचारों से कोसों दूर पाती है यही वजह है कि नारी मुक्ति की आधुनिक अवधारणा प्रस्तुत करने वाली ये बुद्धिजीवी महिलाये आज तक अपना जनाधार नहीं बना सकी हैं। इसलिये सरकारी प्रतिनिधिमंडलों की सदस्य बन कर हवा में उड़ा करती हैं आवश्यकता तो नारी मुक्ति के उस प्रारूप की है जिसे भारत के समाज में पनपे मनीषियों, समाज सुधारकों, संतों व युग पु3षों और महिलाओं ने अपने लेख, व्याख्यानों और आचरण से प्रस्तुत किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानदं, ज्योति बाफुले, गांधी जैसे कुछ नाम हैं जो शायद इन आधुनिक महिलाओं के शब्दकोष में नहीं हैं वर्ना ऐसी कुत्सित मानसिकता को नारी मुक्ति के नाम पर न परोसा जाता। जाहिर है कि फायर जैसी फिल्मों में सुझाये गये समलैंगिकता के समाधान का भारतीय समाज की बहुसंख्यक महिलाओं की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है। उनके लिये यह एक विकृति से अधिक कुछ भी नहीं है।

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