Friday, May 22, 1998

परमाणु विस्फोट से स्वदेशी आंदोलन को बल मिला

परमाणु विस्फोट से स्वदेषी आंदोलन को बहुत फायदा हुआ है। उदारीकण के नाम पर जोदबाव इस आंदोलन पर बनाया गया था,

उसमें अब कमी आएगी। बड़े देषों को धमकियों पर देष के उद्योगपतियों व आप्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रियाएं इसके प्रमाण हैं। दरअसल उदारीकण का जो कांग्रेसी संस्करण देश को परोसा गया था, वह देशभक्तों के गले कभी नहीं उतरा। पहले तो पचास वर्षों तक समाजवादी के नाम पर देश के स्वाभाविक औद्योगिक विकास पर शिकंजा कसा गयचा। कोटा लाइसेंस राज चलाकर भ्रष्टाचार कोपूरे देश में पनपने का मौका दिया गया। सरकारी क्षेत्र में उद्योगों के नाम पर भ्रष्टाचार के बड़े बड़ेसफेद हाथी पाले गये। लेकिन जब पानी सिर से गुजर गया, इन क्षेत्रों से और पेसा खींचने का जरिया न बचा, तो उदारीकण केनाम पर धड़ाधड़ पेप्सी कोला व डोमिनो पिज्जा जैसी तमाम वाहियात चीजों को भारत में घ्ज्ञुसने दिया गया। जो आलू दे?श में दो रुपये किलो के भाव बिक रहा था, उसके अंकल चिप्स ढाई सौ रुपये किलो बेचे जाने लगे।
 
इसी तरह आज सेपचास वर्श पहले दुनिया भर में पश्चिमी देशोंने प्रचार किया कि डिब्बे का दूध मां के दूध से बेहतर होता है, उससे बच्चे तंदरुस्त होते हैं फिर जब डिब्बे के दूध के दुष्परिणाम सामने आये तो पूरी दुनिया में प्रचार किया गया कि ठहरो! ठहरो! गलती हो गयी। मां का दूध डिब्बे के दूध से बेहतर होता है। इसमें कौन सी नई बात बता दी ? लेकिन उन्हें तो अपना दूध बेचना था उन्होंने वहीं किया। पचास वर्षों तक अरबों रुपये को डिब्बे का दूध भारत जैसे पारंपरिक देश में भी बेचकर मोटा पैसा कमा लिया। इन्हीं देशों ने पहले आर्थिक मदद के नाम पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक दवाइयों से भारतीय जमीन को प्रदूषित कर दिया और अब वे कह रहे हैं कि गलती हो गयी, गोबर की खाद रासायनिक खादों से कहीं बेहतर होती है। हम इतने मूर्ख हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी पशु आबादी देश में होने के बावजूद इनके छलावे में आ गये, वरना गोबर की खाद का विकास करते, जिसे ये देश आज आ¡र्गेनिक फार्मिंग कहकर बेच रहे हैं इनकी बेशर्मी की हद यहां तक हो गयी कि आयुर्वेद की पुस्तकों में से ज्ञान चुराकर ये अरदक,नीम, बासमती चावल और हल्दी जैसी आम इस्तेमाल की भारतीय वस्तुओं को अपने देश में पेटेंट करा रहे हैं ताकि इन्हें बेचने में भी केवल इनकी दादागिरी चले। हजारों उदाहरणहैं जिनसे सिद्ध होता है कि देश के राजनेताओं और अफसरों ने चांदी के टुकड़ों के लालच में देश की धरोहर और आत्मनिर्भरता को किसी बेदर्दी से गिरवी रख दिया। जहां तक विदेशी आर्थिक मदद की बात है, यह तथ्य किसी से छिपानहीं है कि एक सौ दस से लेकर तीन सौ अरब डालर तक की अनुमानित रकम अवैध रूप से भारत से ले जाकर बाहरी बैंकों में जमा करा दी गयी है।जबकि भारत पर विदेशी ऋण मात्र bक्यानबे अरब डा¡लर है। यानि जितना कर्ज हम पर है उससे ज्यादा पैसा विदेशी बैंकों में अवैध रूप से पड़ा है।

पिछले दिनों सुप्रसिद्ध पत्रिका फा¡र ईस्टर्न इका¡नोमिक रिव्यू के एक वरिष्ठ पत्रकार हांगकांग से भारत आये हुए थे। हाल ही में उन्होंने उन तमाम देशों का अध्ययन किया है जहां पिछले दस वर्षों में तथाकथित उदारीकरण ने अपने झंडे गाड़े हैं। उनके अध्ययन को निचोड़ यह था कि जिन देशों में भी ऐसा हुआ है, उन्हीं देशों में सैकड़ों हजारों करोड़ रुपये के घोटाले भी बहुत तेजी से हो रहे हैं। पिछले दिनों भारत में जो करार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किये गये, उनमें से कई तो इतने आत्मघाती हैं कि उन्होंने अगले तीस वर्षों तक Hkkरत को लूटने को पक्का इंतजाम कर लिया है। दरअसल विदेशी मदद के नाम पर जो पैसा आता हैउससे देश का स्थायी विकास नहीं हो रहा है। दुनिया के जिन देशों में भी उदारीकरण ने पांव पसारे, उन्हे ही कंगाल करके छोड़ दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड इसके सुबूत हैं। जहां पहले तो पश्चिमी उदारीकरण की चमक दमक ने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। मगर फिर अचानक इनकें पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। ये देश इतनी जोर से गिर कि आज वहां आर्थिक दुर्दषा के कारण चीत्कार मचा है। साधारण लोग ही नहीं, संपन्न घरों के लोग भी त्राहिमाम कर रहे हैं। दुकानें लुट रही हैं। लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं। सड़कों पर हिंसा और आगजनी खुलेआम हो रही है। करोड़ों नौजवानों में भारी आक्रोष और हताषा है। दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर कोरिया तक यही कहानी है। फिर भी अगर हम कोई सावधानी न बरतें, तो कौन गारंटी दे सकता है कि यही दुर्दषा भारत के भी नहीं होगी ? ऊर्जा मंत्री कुमारमंगलम को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ करार करके बिजली प्लांट लगवाने की बहुत जल्दी है। वैसे जहां तक बिजली की कमी की बात है, हकीकत यह है fक भारत को ऐसे सहयोग की कोई जरूरत नहीं है। भारत की मौजूदा विद्युत उत्पादन क्षमता छियासी हजार मेगावाट है जबकि उत्पादन मात्र इकतालीस हजार मेगावाट ही हो रहा है। क्षमता से आधा उत्पादन होने पर भी यह हमारी राष्ट्रीय आवष्यकता से मात्र सोलह प्रतिशत कम है। वह भी तब जब भ्रष्टाचार के कारण इक्कीस प्रतिशत उत्पादित बिजली चोरी करवा दी जाती है।यानी आज भी हमारी बिजली आवश्यकता से ज्यादा हे। पर सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार देष के विद्युत बोर्डों में ही व्याप्त है। इसीलिये बिजली की आपूर्ति में व्यवधान आता रहता है या बिजली की दर बिना वजह बढ़ाईजाती हैं। अगर बिजली विभाग से भ्रष्टाचार दूर करने के लिये जनता व सरकार कमर कस ले तो न तो विदेशी पावर प्लांटों की जरूरत है और न विदेशी पूंजी की। फिर हम प्रतिबंधों या धमकियों से क्यों डरें? वैसे ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिबंधों की घोषणा के बावजूद यूरोप की तीन बड़ी कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाने की पेशकश की है। जारि है, इसमें उन्हें भारी मुनाफा है जो हम बेअक्ली के कारण उन्हें देने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि जब से तेरह दिनों की भाजपा सरकार ने एनरा¡न से समझौते पर दस्तखत किये थे तभी से स्वदेश्ज्ञी ला¡बी काफी विचलित रही है। उसकी शिकायत है कि भाजपा के नेता नारा तो स्वदेशी का देते हैं पर नीतियां वही कांग्रेस की चला रहे हैं।

इस बात के तमाम प्रमाण व आंकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि देश में विदेशी पंजी निवेश के नाम पर कैसीतबाही मचाईगयी है। ऐसी स्थिति में यदि आणविक परीक्षण से नाराज होकर अमेरिका, जापन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी या कोईभी देश भारत को धमकाता है तो हमें डरने की कोईजरूरत नहीं है। देश के शहरों और कस्बोंमें मध्यम श्रेणी के कारखानेदारों व दुकानदारों को इतना बड़ा जाल है कि देश की ज्यादातर जरूरतों को बड़ी आसानी से पूरा किया जा सकता है। बशर्ते इन लोगों को इज्जत के साथ काम करने की छूट दी जाए। इसलिये भारत के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ये हिम्मत दिखाई जिससे आज आत्मनिर्भरता का माहौल अपने आप बनने लगा हे।

हालांकि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि चुनाव के लिये माहौल तैयार करने को यह कदम उठाया गया है। भाजपा सरकार ने अपने अंतर्विरोधों और जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी असफलताओं से ध्यान बंटाने के लिये यह किया हे। यह अगर सच हो तो भीकिसी को यह नहीं भूलना चाहिये कि 1974 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने पोकरण में जो विस्फोट किया था उसके बाद उन्हें तात्कालिक प्रसिद्धि भले ही मिली हो, किन्तु राजनीतिक लाभ नहीं मिला। 1975 में जेपी आंदोलन षुरू हुआ। 1977 में श्रीमती गांधी का सफाया हो गया। वह खुद तकचुनाव हार गईं। परमाणु विस्फोट एक राष्ट्रीय उपलब्धि है। इसमें वैज्ञानिकों की पांच दशकों की मेहनत छिपी है किसी एक व्यक्ति या दल का कोईयोगदान नहीं।पर इस समय यह निर्णय लेकरअटल् बिहारी वाजपेई ने एक अच्छी षुरूआत की है। देश को इसका पूरा फायदा तभी मिलेगा जब इस मौके का लाभउठाकर स्वदेशी आंदोलन जोर पकड़े। बाहरी मदद या सहयोग वहीं लिया जाए जहां जरूरी हो।देश की आधी से अधिक भूखी प्यासी आबादी को पानी और रोटी चाहिये, पेप्सी कोला औ केंटकी फ्राइड चिकन नहीं।देश के किसानों को उनकी मेहनत और उपज का वाजिब दाम चाहिये। देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार के अवसर चाहिये जो आज के मा¡डल का उदारीकरण नहीं दे सकता। भाजपा सरकार के इसमजबूत कदम का औचित्य तभी सिद्ध होगा जब देश कोतेजी से आत्मनिर्भरता की ओर ले जाया जाए। देश्रूा के संसाधनों व क्षमता का पूरा उपयोग करके देश की हर जरूरत देश में पूरी करने अभियान और कार्यक्रम तेजी से चलाया जाए। यह संभव है और अपरिहार्य भी।

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