दो-तीन जनवरी को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी, बंगलौर में अपनी छवि सुधारने की रणनीति बनाएगी। भाजपा नेतृत्व यह बात तो समझता ही होगा कि सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से नाटक या सिनेमा के पात्रों का चेहरा-मोहरा बदला जा सकता है, असली जीवन के पात्रों का नहीं। कलाकारों को तो कुछ क्षणों के लिए ही नाटकीय भूमिका निभानी होती है जबकि असली जीवन में व्यक्ति के आचरण, कार्यों और व्यक्तित्व से ही छवि बनती है, रणनीति बनाने से नहीं। लालू यादव, ओम प्रकाश चैटाला, सुखराम, बूटा सिंह व जयललिता जैसे राजनेताओं की जो भी छवि जनता के दिमाग में बन चुकी है उसे केवल रणनीति बनाकर ही ये नेता बदल नहीं सकते। ठीक ऐसे ही सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्राी व जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं की जो छवि उनके त्यागमय आचरण से बनी थी उसे आज तक कोई बदल नहीं पाया। अगर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का निष्पक्ष मूल्यांकन करें तो कुछ बातें बिल्कुल साफ नजर आती है। सबसे पहली कमी जो भाजपा के नेतृत्व में दिखाई देती है वह है उसका किसी भी मुद्दे पर कभी न टिक पाना। पिछले दस बरस में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने हर मुद्दे पर अपने बयान और अपने कदम को इतनी बार बदला है कि उसकी विश्वसनीयता शून्य हो चुकी है।
सबसे ताजा घटना है ‘पेटेंट बिल’ को लेकर भाजपा की फजिहत। भाजपा के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय संसदीय मंत्राी मदनलाल खुराना ने पहले कहा कि, ‘बिल छपने में देर हो गई।’ फिर कहा कि, ‘राष्ट्रपति भवन ने बिल भेजने में देर कर दी।’ जब वहां से स्पष्टीकरण आया कि उन्हें बिल मिला ही नहीं था तो खुराना जी ने कहा कि, ‘अफसरों ने बदमाशी की।’ अगर कल अफसर ये सिद्ध कर दें कि उनकी तरफ से कहीं कमी नहीं हुई तो शायद खुराना जी कहेंगे कि ड्राइवर कोहरे के कारण गाड़ी ठीक से नहीं चला सका इसलिए बिल पहुंचने में देर हो गई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि असलियत कुछ और है, वह यह कि आडवाणी जी नहीं चाहते थे कि यह बिल संसद में पेश हो। इसलिए उन्होंने खुराना जी को इशारा कर दिया था। सच्चाई जो भी हो इस हादसे ने यह साफ कर दिया कि भाजपा का एक वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता तक एक दिन में तीन बयान बदलने की गुस्ताखी करके भी अपनी कुर्सी पर टिका रहता है। भाजपा में किसी की हिम्मत नहीं है कि वे ऐसे अकुशल मंत्राी को इतनी बड़ी लापरवाही के बाद पदमुक्त कर दें।
भाजपा के मुंबई अधिवेशन में तय किया गया था कि भाजपा भ्रष्टाचार को अपना चुनावी मुद्दा बनाएगी। भाजपा नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध तब बड़े जोशीले भाषण दिए थे। पर जैसे-जैसे भाजपा के नेता किसी न किसी कांड में फंसते गए या जैसे-जैसे भाजपा शासित राज्यों की सरकारों मेें व्याप्त भ्रष्टाचार के चर्चे आम होने लगे- भाजपा नेतृत्व ने इस मुद्दे को न छूने में ही भलाई समझी। फिर अभी पिछले चुनाव में ही श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मसीहा बनाकर प्रचारित किया गया। पर पिछले आठ महीनों के शासन के दौरान जनता को कुछ दूसरी ही सच्चाई का सामना करना पड़ा। जिन सुखराम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर भाजपा सांसदों ने तेरह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। उन्हीं सुखराम को आज भाजपा ने अपनी प्रांतीय सरकार में कैबिनेट मंत्राी का दर्जा दे रखा है। क्या भाजपा ऐसी गंगा है जिसमें शामिल होते ही व्यक्ति के जीवन में लगे तमाम दाग धुल जाते हैं ? पर ऐसा नहीं होता। भाजपा शासित किसी भी राज्य का कोई भी सरकारी दफ्तर नहीं है जहां भ्रष्टाचार में पहले के मुकाबले रत्तीभर भी कमी आई हो।
आज तक भाजपा नेतृत्व राम मंदिर के निर्माण से लेकर हिंदू-राष्ट्र बनाने तक को अपनी रणनीति का अहम् हिस्सा मानता था। इसी भावना को भुनाकर उसने हिंदुओं के बीच अपने जनाधार का इतना विस्तार किया। आज वही नेतृत्व इस सब के विरूद्ध बोल रहा है। इतना ही नहीं, कुर्सी से चिपके रहने के लालच में राम मंदिर आंदोलन को अपनी एक भूल बता रहा है। यही कारण है कि जिन साधु-संतों और महंतों ने राम-रथ यात्रा के बाद भाजपा के चुनावी अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे सब आज उससे नाराज बैठें हैं। संघ या भाजपा के किसी व्यक्ति में शायद इतनी हिम्मत नहीं कि वे भाजपा नेतृत्व से इसकी वजह पूछें। आपातकाल में संघ ने सड़कों पर उतर कर सत्ता का विरोध किया था। अगर उसे वाकई भाजपा से नाराजगी है तो क्यों नहीं आज संघ यही करता ? क्यों नहीं संघ अपने प्रतिनिधियों को भाजपा में से वापिस बुलाता ? अभी तो ऐसा संदेश जा रहा है कि संघ अपनी खाल बचाने के लिए विरोध का नाटक कर रहा है जबकि अंदर से उसकी भाजपा से मिली भगत है।
वैसे संघ के वरिष्ठ नेता व स्वदेशी जागरण मंच के आधार स्तंभ श्री दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी का केंद्रीय सरकार के विरूद्ध सड़कों पर प्रदर्शन करना बताता है कि उनके मन में भाजपा नेतृत्व के विरूद्ध कितना आक्रोश है। स्वदेशी का नारा तो सौ बरस पहले ही स्वतंत्राता संग्राम के दौरान दिया जाने लगा था। इसलिए इस विषय में घरेलू आर्थिक दबाव और राजनैतिक सीमाओं की जानकारी सभी राजनेताओं को लंबे अरसे से है। कोई भ्रांति नहीं है। जिनकी इसमें आस्था है वे आज तक इस पर टिके हुए हैं जैसे गांधीवादी कार्यकर्ता, चिंतक और विशेषज्ञ। जिनकी आस्था नहीं है वे अपनी बात मनवाने से पीछे नहीं हटते। पर भाजपा नेतृत्व ने इस मामले में बेहद ढुलमुलपन का परिचय दिया है। ये बात करते हैं स्वदेशी की और भागते हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पीछे। बार-बार इनका दोहरापन कार्यकर्ताओं में हताश फैलाता है। स्वदेशी के मामले पर भाजपा नेतृत्व क्यों नहीं अपनी समझ साफ कर लेता ? जो तय करे, उस पर टिके। तब तो लगे कि नेतृत्व दमदार है। फिर दमादार नेतृत्व को छवि बनाने के लिए अधिवेशन नहीं करना पड़ेगा। उसके काम से छवि अपने आप बन जाएगी।
लंबे अरसे से भाजपा कुशल प्रशासक होने का दावा करती आई है। किंतु केंद्र से लेकर जिन प्रांतों में भी भाजपा की सरकारें हैं वहां की असलियत कुछ और ही कहानी कहती हैं। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां ग्राम पंचायतों से लेकर जिला परिषदों और प्रांतीय सरकार तक सब जगह भाजपा का बहुमत है। इसलिए गुजरात को भाजपा के काम के नमूने का आदर्श राज्य होना चाहिए। पर वहां की स्थिति क्या है इसका वर्णन भाजपा के ही प्रमुख नेताओं के बयानों से साफ हो जाएगा। 27 दिसंबर 1998 को भाजपा के सांसद व सिने अभिनेता शत्राुघ्न सिन्हा ने खेड़ा जिले के निसराया ग्राम में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए गुजरात सरकार का जो खाका खींचा उससे वहां मौजूद चालीस हजार ग्रामवासियों के ठहाके से सारा पंडाल गूंज उठा। यह तब हुआ जबकि गुजरात के मुख्यमंत्राी केशुभाई पटेल मंच पर आसीन थे। श्री पटेल की सरकार की लोकप्रियता का पता तब चला जब श्री पटेल का भाषण शुरू हुआ। जनता फौरन भारी तादाद में उठकर चल दी। गुजरात सरकार के ही एक वरिष्ठ और आम जनता में लोकप्रिय मंत्राी श्री जसपाल सिंह का कहना है कि गुजरात सरकार के ढीलेपन से जनता इतनी खीज चुकी है कि अगर आज चुनाव हों तो उसे भारी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। भाजपा में रह कर ही जनहित में ठोस काम करने को बेताब रहने वाले जसपाल सिंह जैसे लोगों को शिकायत है कि उनके काम में रोड़े अटकाए जाते हैं।
उधर गुजरात में तैनात कुछ ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि भाजपा, विहिप, संघ व बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने उनकी नाक में दम कर रखा है। भ्रष्ट, निजी और अनैतिक काम करवाने में ये कार्यकर्ता किसी मामले में कांग्रेसियों से पीछे नहीं हैं। इन अधिकरियों का कहना है कि अगर कार्यकर्ता वाकई जनहित में, निस्वार्थभाव से व ईमानदारी से काम करवाने के लिए दबाव डालें तो उन्हें खुशी ही होगी। पर होता ये है कि गलत काम करने को मना करने वाले अधिकारियों को छोटे-छोटे कार्यकर्ता भी तबादले की धमकी देते हैं। दरअसल आज हालत ये हो गई है कि राजनीतिक दलों में विशुद्ध जनसेवा की भावना से काम करने वालों का टोटा हो गया है। भाजपा का ही कार्यकर्ता जब देखता है कि उनका जो नेता बीस बरस पहले पांचजन्य अखबार की तीसरी मंजिल पर हाथ से रोटी बनाकर खाता था वो आज पांच सितारा जिंदगी जी रहा है तो उसे भी आर्थिक सुरक्षा का भय सताने लगता है। इसीलिए राजनीति सेवा नहीं व्यवसाय बन कर रह जाती है। अपनी छवि सुधारने को बेचैन भाजपा के शिखर नेतृत्व को यह सोचना होगा कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश कैसे लगाया जाए ? भगवान् गीता में कहते हैं कि, ‘जो कुछ श्रेष्ठजन आचरण करते हैं वही आमजन अनुसरण करते हैं।’ अगर भाजपा का शिखर नेतृत्व और उसके मंत्राी व मुख्यमंत्राी आधुनिकता के तमाम दबावों के बावजूद ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ के सिद्धांत पर चल सकें तो इसका गहरा प्रभाव कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। ये असंभव नहीं है। समाजवादी विचार वाले सुरेंद्र मोहन जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्राी व राजनेता दिल्ली में जिस सादगी से रहते रहे हैं वह भाजपा के ज्यादातर मंत्रियों के आचरण में दिखाई नहीं देती। जबकि संघ में इस पर काफी जोर दिया जाता है।
छवि सुधारने की चिंता में भाजपा का शिखर नेतृत्व मीडिया को संभालने की योजना भी बनाएगा। ऐसा संकेत उसके बयानों से मिल रहा है। भाजपा के नेतृत्व को लगता है कि मीडिया ने पिछले चुनावों में उस पर नाहक हमला किया। पर भाजपा वाले ये क्यों भूल जाते है कि मीडिया अमूमन जनभावनाओं का ही प्रदर्शन करता है। मार्च में जनभावना भाजपा के काफी पक्ष में थी। सबको श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भारी उम्मीदें थीं। अक्टूबर आते-आते लोगों का भ्रम टूट गया। अगर मीडिया ने इस बात को सही-सही जनता के सामने रखा तो इस पर भाजपा के नाराज होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। हां उन लोगों की बात फर्क है जो रागद्वेष की भावना से ग्रस्त होकर पत्राकारिता करते हैं। किंतु तकलीफ यह देखकर होती है कि भाजपा का नेतृत्व भी मीडिया से ये उम्मीद करता है कि वे चाहे जो करें पर उनकी सुंदर छवि ही जनता के बीच प्रस्तुत की जाए। निष्पक्ष और जागरूक पत्राकार भला ऐसा क्यों करेंगे ? अगर वाकई भाजपा को मीडिया में अपनी छवि सुधारने की चिंता है तो उसे चाहिए कि ऐसे तमाम समाचारों और लेखों पर वह चैकन्नी निगाह रखे जिसमें उसके कामों और नीतियों की आलोचना होती है। ऐसी हर स्वस्थ आलोचना का तुरंत और संतुष्टिपूर्ण जवाब भाजपा नेतृत्व की तरफ से उस पत्राकार के पास भेजा जाना चाहिए। तब एक ऐसा संबंध विकसित होगा जो स्वतः भाजपा को उसकी छवि सुधारने में मदद करेगा। देखना ये है कि बंगलौर के अधिवेशन में भाजपा का नेतृत्व वास्तव में अपने तौर-तरीके बदलने को तैयार होता है या चेहरे पर क्रीम-पाॅवडर पोत कर छवि सुधारने की रस्म अदायगी करता है ? क्योंकि देश में अभी भी बहुत से लोग हैं जो न तो चुनाव चाहते हैं और न ही यह माने को तैयार हैं कि भाजपा कुछ कर नहीं सकती।
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