Monday, July 10, 2023

दलितों का अपमान कब तक?



आज से 32 वर्ष पूर्व 1991 में अपने इसी मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक छोटे से गांव में एक आदिवासी दलित के मंदिर प्रवेश करने पर गांव के सवर्ण ने उसके मुंह पर पेशाब कर दिया था। इस घटना पर श्याम बेनेगल ने फिल्म समर बनाई थी। आज 32 वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला। मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले की शर्मनाक घटना एक झलक मात्र है। ऊँचीं जाती के दबंग का एक दलित पर सरेआम मूत्र विसर्जन करना तो दलितों के अपमान का बहुत छोटा उदाहरण है। अपने देश में महानगरों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा प्रांत होगा जहां दलितों का अपमान, उनकी उपेक्षा या उन पर अत्याचार न होते हों। मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत कड़ी दण्डात्मक कारवाई कर के सीधी ज़िले के दबंग प्रवेश शुक्ला को तो सबक़ सिखा दिया पर उससे उन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा जो अपनी जाति या राजनैतिक रसूख़ के चलते सदियों से दलितों पर अत्याचार करते आए हैं। सोशल मीडिया पर तो ऐसी खबर कभी-कभी ही वायरल होती है। पर ऐसी घटनाएँ चौबीस घंटे पूरे देश में कहीं न कहीं होती रहती हैं। जिनका कभी संज्ञान भी नहीं लिया जाता। 



देश की बात करने से पहले मैं अपना अनुभव साझा करना चाहूँगा। मेरा परिवार सनातन धर्म में दृढ़ आस्था रखता है। हम आचरण से शुद्ध रह कर धार्मिक कार्यों में रत ब्राह्मणों का पूरा सम्मान करते हैं। पर हमारे परिवार में इतनी मानवीय संवेदना भी है कि हम दलितों के साथ भी समान व्यवहार करते हैं। इस कारण हमें बीस बरस पहले एक विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ा। हमारे वृंदावन आवास में हमारी माँ की सेवा के लिए जो कर्मचारी तैनात था वो नारायण नाम का बृजवासी जाटव था। मेरी माँ धर्म निष्ठ व संस्कृत की विद्वान होते हुए भी नारायण से हर तरह की सेवा लेती थीं। जैसे पूजा या भोजन की तैयारी। उनके इस आचरण से वृंदावन के हमारे शुभचिंतक कुछ ब्राह्मण परहेज़ करते थे। जब वे हमारे घर कोई अनुष्ठान संपन्न कराने आते तो हमारे घर का जल भी नहीं पीते थे। ऐसा कई वर्ष तक चला। न उनके आग्रह पर हमने नारायण को हटाया और न ही ब्राह्मणों के सम्मान में कोई कमी आने दी। पर इस तरह यह विरोधाभासी स्थिति तब तक चलती रही जब तक नारायण नौकरी छोड़ कर अपने गाँव चला नहीं गया। उसके बाद ही उन ब्राह्मणों ने हमारे घर का भोजन और जल स्वीकार करना शुरू किया। 



जो बुद्धिजीवी ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कटु आलोचना करते हैं वो हमारी भी आलोचना करेंगे यह कहकर कि हमने दलितों के प्रति ऐसा भाव रखने वाले ब्राह्मणों का सम्मान क्यों किया? जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सनातन धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं वे इस बात की आलोचना करेंगे कि हमारी माँ ने एक दलित को रसोई और पूजा घर में प्रवेश क्यों करने दिया? दोनों की आलोचना का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। पर इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि लगभग आठ वर्षों तक यही व्यवस्था हमारे वृंदावन आवास पर चलती रही और इससे कोई तनावपूर्ण परिस्थिति पैदा नहीं हुई। शायद इसलिए कि हमने दोनों मान्यताओं के बीच संतुलन बना कर रखा।


अगर देश के स्तर पर बात करें तो हमारे प्रातः स्मरणीय पुरी शंकराचार्य मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए भी सनातन धर्म के कर्म कांडों को जन्म से ब्राह्मणों का ही एकाधिकार मानते हैं। दूसरी तरफ़ गौड़ीय संप्रदाय के समर्थक श्री चैतन्य महाप्रभु ने धर्म और जाति की सीमाओं को लांघ कर, शुद्ध भक्ति से, वैष्णव धर्म की आचार संहिता का पालन करने वाले हर मनुष्य को सामाजिक अनुक्रम में ऊपर उठने का मार्ग प्रशस्त किया। उनका भाव था ‘हरि को भेजे सो हरि का होय’। इसी का परिणाम है कि गौड़ीय संप्रदाय या इस्कॉन में कृष्ण भक्ति करने वाले हर जाति, धर्म व देश से आकर शामिल हो गये। जिसकी कट्टर ब्राह्मणवादी कटु आलोचना करते हैं। 


इसी तरह लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के और स्वामी हरिदास जी के शिष्यों में मुसलमान तक भक्त थे। एक हज़ार वर्ष पहले रामानुजाचार्य जी ने जो संप्रदाय चलाया उसमें भी ब्राह्मण जाति श्रेष्ठता और कड़े नियमों के मामले में कोई समझौता नहीं किया गया। उनकी जीवन लीला में एक प्रसंग आता है जब उनके एक शिष्य ने बाढ़ से घिरा होने के कारण किसी दलित के घर से भिक्षा में कच्ची सामग्री ले ली। जिससे रामानुजाचार्य जी बहुत दुखी हुए। तब उस शिष्य ने प्रायश्चित में अपने प्राण त्याग दिये। पिछले वर्ष हैदराबाद के निकट श्रद्धेय संत श्री चिन्नाजियर स्वामी ने रामानुजाचार्य जी की एक विशाल प्रतिमा की स्थापना की है जो आकार में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी बैठी प्रतिमा है। इस तीर्थ स्थली का नाम स्वामी जी ने ‘समता स्थल’ रखा है। यानी यहाँ किसी से जाति के आधार पर भेद-भाव नहीं होगा।    


ये तो रहा धार्मिक आस्था से जुड़े लोगों का आचार-विचार। पर भारत का बहुसंख्यक समाज ऐसी आस्थाओं से बंधा हुआ नहीं है। भारतीय समाज में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, विशेषकर गाँव में, जहां दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों से भेद-भावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। स्वयं को ऊँची जाति का मानने वाले इन समाजों को बराबरी का दर्जा देने को क़तई तैयार नहीं हैं। अगर कोई इन सीमाओं को तोड़ने का प्रयास करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। पुलिस का रवैया भी इस भावना से काफ़ी प्रभावित रहता है। इसलिए दलितों को न्याय नहीं मिल पाता। परिस्थिति वहाँ और भी विकट हो जाती है जहां ख़ुद को ऊँची जाती का मानने वाले लोगों के पास धन या सत्ता का बल भी होता है। ऐसे में उनका अहंकार  सातवें आसमान पर चढ़ कर बोलता है और वे दलितों को अमानवीयता की हद तक जा कर प्रताड़ित करते हैं। प्रवेश शुक्ला के मामले में शिवराज सिंह चौहान ने जो किया वो अगर पहले दिन से किया होता तो मध्य प्रदेश में दलितों पर पिछले वर्षों में जो हज़ारों अत्याचार हुए हैं वो न हुए होते, जैसा कि विपक्ष के नेता कमल नाथ का आरोप है। अगर हर नेता, मंत्री या मुख्य मंत्री दलितों पर अत्याचार करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कारवाई करने लगे तो हालत सुधर सकती है। हालाँकि पारस्परिक समाजिक व्यवहार में समरसता लाना अभी दूर की कौड़ी है।


समाज के इस अभिशाप को भारत की रेल, बस और हवाई यातायात व्यवस्था ने काफ़ी हद तक तोड़ा है। इन यात्राओं के दौरान आमतौर पर कोई भी यात्री भोजन बेचने या परोसने वाले से उसकी जाति नहीं पूछता। इसी तरह सरकारी नौकरियों में आरक्षण और औद्योगीकरण ने भी समाज के इन दक़ियानूसी नियमों को काफ़ी हद तक तोड़ा है। मेरे जैसे लोगों के  सामने द्वन्द इस बात का है कि सनातन धर्म में पूरी निष्ठा और आस्था रखते हुए भी कैसे इस अभिशाप को समाप्त किया जा सकता है?  

Monday, July 3, 2023

हाथी मेरे साथी


बचपन से हम विशालकाय हाथियों को देख कर उत्साहित और आह्लादित होते रहे हैं। काज़ीरंगा, जिम कोर्बेट, पेरियार जैसे जंगलों में हाथी पर चढ़ कर हम सब वन्य जीवन देखने का लुत्फ़ उठाते आये
  हैं। जयपुर में आमेर का क़िला देखने भी लोग हाथी पर चढ़ कर जाते हैं। सर्कस में रिंग मास्टर के कोड़े पर आज्ञाकारी बच्चे की तरह बड़े-बड़े हाथियों के करतब करते देख बच्चे-बूढ़े दंग रह जाते हैं। धनी लोगों के बेटों की बारात में हाथियों को सजा-धजा कर निकाला जाता है। मध्य युग में हाथियों की  युद्ध में बड़ी भूमिका होती थी। देश के तमाम धर्म स्थलों में और कुछ शौक़ीन ज़मीदाराना लोगों के घरों में भी पालतू हाथी होते हैं। दक्षिण भारत के गुरुवयूर मंदिर में 60 हाथी हैं जो पूजा अर्चना में भाग लेते हैं। 


आजतक मैं भी सामान्य लोगों की तरह गजराज के इन विभिन्न रूपों और रंगों को देख कर प्रसन्न होता था। पर पिछले हफ़्ते मेरी यह प्रसन्नता दो घंटे में काफ़ूर हो गई जब मैं मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को देखने पहली बार गया। यहाँ लगभग 30 हाथी हैं, जिन्हें अमानवीय अत्याचारों से छुड़ा कर देश भर से यहाँ लाया गया है। ये भारत का अकेला ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ है, जहां जा कर हाथियों के विषय में ऐसी जानकारियाँ मिली जिनका आपको या हमें रत्तीभर अंदाज़ा नहीं है। ये जानकारियाँ हमें शिवम् ने दी, जो कि बीटेक, एमटेक करने के बाद, वन्य जीवन संरक्षण के काम में जुटे हैं। 



क्या कभी आपने सोचा कि जो गजराज अपनी सूँड़ से टनों वज़न उठा लेता है, जंगल का राजा कहलाए जाने वाला शेर भी उसके सामने ठहर नहीं पाता, जो एक धक्के में मकान तक गिरा सकता है, वो इतना कमज़ोर और आज्ञाकारी कैसे हो जाता है कि महावत के अंकुश की नोक के प्रहार से डर कर एक बालक की तरह कहना मानने लगता है? आप कहेंगे कि ये उसको दिये गये प्रशिक्षण का कमाल है। बस, यहीं असली पेंच है। शिवम् बताते हैं कि दरअसल ये प्रशिक्षण नहीं बल्कि यातना है जो गजराज के स्वाभिमान को इस सीमा तक तोड़ देती है कि वो अपने बल को भी भूल जाता है। 



उसके प्रशिक्षण के दौरान उसके पैरों में लोहे की कांटेदार मोटी-मोटी ज़ंजीरें बांधी जाती हैं कि वो अगर ज़रा भी हिले-डुले तो उसके पैरों में गहरे ज़ख़्म हो जाते हैं, जिनसे खून बहता है। इस ज़ंजीर का इतना भय हाथी के मन में बैठ जाता है कि भविष्य में अगर उसकी एक टांग को साधारण रस्सी से एक कच्चे पेड़ से भी बांध दिया जाए तो वह बंधन मुक्त होने की कोशिश भी नहीं करता और सारी ज़िंदगी इसी तरह मलिक के अहाते में बंधा रहता है। 


एक हाथी औसतन 250 किलो रोज़ खाता है। इसलिए वो दिन भर खाता रहता है। लेकिन उसका पाचन तंत्र इस तरह बना है कि वो जो खाता है उसका आधा ही पचा पता है। शेष आधा वो मल द्वार से निकाल देता है। हाथी के इस मल में तमाम तरह के बीज होते हैं। इसलिए जंगल में जहां-जहां हाथी अपना मल गिराता है, वहाँ-वहाँ स्वतः पेड़-पौधे उगने लगते हैं। इस तरह हाथी जंगल को हरा-भरा बनाने में भी मदद करता है, जिससे प्रकृति का संतुलन भी बना रहता है।


जब हाथी को लालची इंसान द्वारा पैसा कमाने के लिए पालतू बनाया जाता है तो उसे भूखा रख कर तड़पाया जाता है, जिससे बाद में वो भोजन के लालच में, मलिक के जा-बेज़ा सभी आदेशों का पालन करे। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक समारोहों में जोते जाने वाले हाथियों को बंधुआ मज़दूर की तरह घंटों प्यासा रखा जाता है। उसे तपती धूप में, कंक्रीट या तारकोल की आग उगलती सड़कों पर घंटों चलाया जाता है। कई बार जानबूझकर अंकुश की नोक से उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। इस तरह भूखे-प्यासे, घायल और अंधे हाथियों से मनमानी सेवाएँ ली जाती हैं। प्रायः इनका कोई इलाज भी नहीं कराया जाता। प्रशिक्षण के नाम पर इन यातना शिविरों में रहते हुए ये हाथी अपना भोजन तलाशने की स्वाभाविक क्षमता भूल जाते हैं और पूरी तरह अपने मलिक की दया पर निर्भर हो जाते हैं। अक्सर आपने हाथी को सजा-धजा कर साधु के वेश में भिक्षा माँगते हुए लोगों को देखा होगा। भिक्षा माँगने के लिए प्रशिक्षित ये सब हाथी प्रायः अंधे कर दिये जाते हैं। 


एशियाई प्रजाति के दुनिया भर में लगभग साठ हज़ार हाथी हैं, जिनमें से लगभग 22-23 हज़ार हाथी भारत के जंगलों में पाए जाते हैं। जबकि ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहे हाथियों की भारत में संख्या लगभग 1500 है। ये हाथी कभी भी अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते क्योंकि इनका बचपन इनसे छीन लिया गया है। ऐसे सभी हाथियों को बंधन मुक्त करके अगर संरक्षण केंद्रों में रखा जाए तो एक हाथी पर लगभग डेढ़ लाख रुपये महीने खर्च होते हैं। मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को दिल्ली में रह रहे एक दक्षिण भारतीय दंपत्ति ने 2009 में शुरू किया था। इस केंद्र को अब देश-विदेश के दान दाताओं से आर्थिक सहयोग मिलता है। वैसे 22-23 हज़ार हाथियों की संख्या सुन कर आप उत्साहित बिलकुल न हों, क्योंकि लालची इंसानों ने ‘हाथी दांत’ और आर्थिक लाभ के लिए भारत के हाथियों पर इतने ज़ुल्म ढाए हैं कि इनकी संख्या, पिछले सौ सालों में पाँच लाख से घट कर इतनी सी रह गई है। 


मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ में मिली इस अभूतपूर्व जानकारी और हृदय विदारक अनुभव के बाद मैंने और मेरे परिवार की तीन पीढ़ियों ने यह संकल्प लिया कि अब हम कभी हाथी कि सवारी नहीं करेंगे। वहाँ से विदा होते समय शिवम् ने यही अपील हमसे की और कहा कि आप देशवासियों को और ख़ासकर बच्चों को ये बताने का प्रयास करें कि अगर हाथियों को मनोरंजन का साधन न मान कर जंगलों में स्वतंत्र रहने दिया जाए तो इससे देश में जंगलों को बचाने में भी मदद मिलेगी। जिसकी ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के इस दौर में बहुत ज़रूरत है। स्कूल के बच्चों को अगर हाथियों की दुर्दशा के बारे में उपरोक्त जानकारियाँ बचपन से ही दी जाएँ तो भविष्य में हाथी संरक्षण का बड़ा काम हो सकता है। यह विडंबना ही है जिन गजराज को आस्थावान हिंदू गणेश का स्वरूप मानते हैं उन पर वे व अन्य धर्मों के लोग, ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं या क्यों होने देते हैं? 

Monday, June 26, 2023

अलविदा प्रो. इम्तियाज़ अहमद साहिब


अगर किसी शिक्षक के छात्र उसकी शख़्सियत को पचास बरस बाद भी ऐसे याद करें जैसे कल की ही बात हो तो मानना पड़ेगा कि वो कितना महान रहा होगा। जी हाँ ऐसी ही नायाब शख़्सियत थी भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री व मानव विज्ञानशास्त्री (एंथ्रोपोलॉजी) प्रो. इम्तियाज़ अहमद की। जिनके पढ़ाये कितने ही छात्र भारत सरकार के सचिव, विदेशों में राजदूत, प्रोफेसर, पत्रकार और न जाने कहाँ-कहाँ सर्वोच्च पदों पर पहुँचे, पर अपने इस शिक्षक को कभी नहीं भूले।
 


वो थे ही ऐसे कि हर दिल अज़ीज़ बन जाते थे। पिछले हफ़्ते उनका दिल्ली में इंतक़ाल हो गया। देश के तमाम बड़े राष्ट्रीय अंग्रेज़ी और भाषाई अख़बारों ने उन पर बड़े-बड़े लेख छापे। जब क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था तो वहाँ के मौलाना ने रस्मी आवाज़ लगायी कि जो इनका वारिस हो वो पहले आगे बढ़कर मिट्टी डाले। पीछे खड़े दर्जनों लोग, जो दशकों पहले उनके छात्र रहे थे, एक स्वर में बोले हम हैं उनके वारिस। क्योंकि उनके दोनों बेटे उस वक्त देश में नहीं थे। सब ने एक साथ आगे बढ़कर मिट्टी डाली। इनमें से मुसलमान तो शायद ही कोई था। 


अहमद साहिब ने शिकागो विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद जेएनयू से लेकर अमरीका, फ़्रांस जैसे तमाम पश्चिमी देशों में पढ़ाया। उनका ज्ञान और अपने विषय की पकड़ इतनी गहरी थी कि जो छात्र नहीं भी होता वो भी उनको सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाता था। वे हमेशा छात्रों के दोस्त बनकर रहते थे। वे उनका हर तरह से मार्ग दर्शन करते थे। 


समाजशास्त्र में उनके योगदान को दुनियाँ भर के देशों में सराहा और पढ़ाया जाता है। ये बात दूसरी है कि उस दौर (1978-1995) में जेएनयू पर हावी वामपंथियों ने उनके साथ अच्छा सलूक नहीं किया। उन्हें काफ़ी मानसिक यातना दी गयी और उनकी तरक़्क़ी भी रोकी गयी। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी क़ाबिलियत के दम पर उन वामपंथियों को बहुत पीछे छोड़ दिया। 


दुनिया के विश्वविद्यालयों में ही नहीं मसूरी की आईएएस अकादमी में और देश भर की सार्वजनिक जन सभाओं में भी उनके रोचक संभाषणों के कारण उन्हें प्रायः बुलाया जाता था। 



वो मज़ाक़िया भी बहुत थे। पर उनका मज़ाक़ समझने में कुछ क्षण लगते थे। क्योंकि वो बड़ी मंद मुस्कान के साथ बात को घुमा कर कहते थे। एक बार 1996 में प्रो. अहमद, बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा, गुजरात के मुख्य मंत्री केशु भाई पटेल और मैं खेड़ा ज़िले की एक विशाल किसान जन सभा को संबोधित करने मंच पर साथ-साथ बैठे थे। जब उनका बोलने का नंबर आये तो वे उठे और मेरे कान में फुसफुसाकर चले गये हम तो किराए के भांड हैं जो बुलाये वहीं चले जाते हैं। मैं मुस्कुराया तो पर सोचता रह गया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा? 


एक बार वो सुबह- सुबह एक दुकान पर अंडे ख़रीदने आये। मैं भी वहीं खड़ा था। वे बड़े संजीदा अन्दाज़ में दुकानदार से बोले, सुना है आप अंडे बहुत अच्छे देते हैं। ये सुनकर दुकानदार झल्ला गया और बोला आप ये क्या कह रहे हैं। पर वहाँ खड़े सब लोग उनके इस दोहरे अर्थ वाले वाक्य को सुनकर ठहाका लगाकर हंस पड़े। 



मुस्लिम समाज में प्रगाढ़ जातिवाद पर उन्होंने बेलाग़ लिखा। वे कहते थे कि जैसे हिंदुओं में वर्ण और जाति व्यवस्था है वैसे ही हिंदुस्तान के मुसलमानों में भी है। क्योंकि उनमें से अधिकतर तो पिछली सदियों में धर्म परिवर्तन से ही मुसलमान बने हैं। हालाँकि इस्लाम सबकी बराबरी का दावा करता है। पर असलियत ये है कि एक मुसलमान जुलाहा, तेली या लुहार से शादी नहीं करता। शिया सुन्नी का भेद तो जग ज़ाहिर है पर मुसलमानों में भी ऊँची और नीची जात होती हैं। सैय्यद, पठान, अंसारी जैसे तमाम जातिगत समूह हैं जो एक दूसरे से शादी का रिश्ता नहीं करते। प्रो. अहमद का एक ख़ास वक्तव्य था कि वो हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमान ज़रूर हैं। पर सैय्यद के मुक़ाबले जुलाहे ही हैं। यानि एक नहीं हैं। 


आज के जिस दौर में चारों तरफ़ समाज में इरादतन बढ़ चढ़ कर नफ़रत फैलायी जा रहे है प्रो. इम्तियाज़ अहमद एक नज़ीर थे। जब मैं जेएनयू में पढ़ता तो अक्सर उनके घर जाता था। ये देखकर बड़ा अच्छा लगता था कि वो जितना इस्लाम का सम्मान करते थे उतना ही अन्य धर्मों का भी। श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर अपने बेटों को विभिन्न धर्मों का सार सिखाने के लिये वे बड़े उत्साह से लड्डू गोपाल जी का झूला सजाते थे। उनके एक आध्यात्मिक गुरु वृंदावन में यमुना किनारे रहते थे। जिनसे सत्संग करने वो वृंदावन भी आते थे।



मेरा उनसे एक व्यक्तिगत रिश्ता भी था। वे मेरी मौसी के सहपाठी थे। दोनों ने लखनऊ विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग से साथ-साथ एमए किया था। इस नाते मैं उन्हें मामू कहता था। मौसी बताती हैं कि तब भी वे बड़े मस्तमौला थे। उनकी क्लास का एक अध्ययन ट्रिप पूर्वी उत्तर प्रदेश गया। वहाँ सबने अगले ही दिन से सर्वेक्षण का अपना काम शुरू कर दिया। पर इम्तियाज़ साहिब शिविर के निर्धारित दस में से आठ दिन यही सोचते रहे कि मैं बदरा जाऊँ या पिपरा जाऊँ। उन्हें इन दो गावों में से एक को सर्वेक्षण के लिए चुनना था। पर जब उन्होंने चुन लिया तो उनका शोध प्रबंध ही सर्वश्रेष्ठ माना गया। ये उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण था कि सबसे बाद में शुरू करके भी सबसे बढ़िया अध्ययन उन्होंने ही किया। 


हमने जब दिल्ली में खोजी खबरों की वीडियो मैगज़ीन ‘कालचक्र’ जारी करने के लिये ‘कालचक्र समाचार ट्रस्ट’ की स्थापना की तो उन्हें भी उसका ट्रस्टी बनाया था। बाक़ी ट्रस्टी अन्य व्यवसायों के नामी लोग थे। ट्रस्ट की मीटिंग की कार्यवाही पर जब दस्तख़त करने का उनका नंबर आता तो वह मज़ाक़ में कहते मैं एक दस्तख़त करने का पचास पैसे लेता हूँ। मज़ाक़ की बात अलग पर मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे बहुत सीखने को मिला। ऐसे इंसान दुनियाँ में बहुत कम होते हैं। अब तो उनकी यादें ही शेष हैं।

Monday, June 19, 2023

भाजपा, केसीआर और मुसलमान


महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने हाल ही में मुसलमानों को ‘औरंगज़ेब की औलाद’ कह कर संबोधित किया। इससे पहले उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में ‘रामज़ादे - हरामज़ादे’ या ‘शमशान - क़ब्रिस्तान’ जैसे भड़काऊ बयान दिये गये थे। दिल्ली चुनावों में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने
गोली मारो सालों को जैसे भड़काऊ बयान देकर मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा अभिव्यक्त की थी। पिछले दिनों बालासोर की ट्रेन दुर्घटना में बिना तथ्यों की जाँच हुए ही ‘ट्रॉल आर्मी’ ने फ़ौरन प्रचारित कर दिया कि दुर्घटना स्थल से थोड़ी दूर एक मस्जिद में इस हादसे की साज़िश रची गई थी। जबकि जिसे मस्जिद बताया जा रहा था वो इस्कॉन संस्था का श्री राधा कृष्ण मंदिर है और जिस स्टेशन मास्टर को मुसलमान होने के नाते इस दुर्घटना का साज़िशकर्ता बताया जा रहा था वो दरअसल हिंदू निकला। 


देश में जब कोविड फैला तो दिल्ली के निज़ामुद्दीन स्थित एक इमारत में ठहरे हुए तबलिकी जमात के लोगों को इस बीमारी को फैलाने का ज़िम्मेदार बता कर मीडिया पर खूब शोर मचाया गया। हर वो हिंदू लड़की जो मुसलमान से ब्याह कर लेती है उसे ये कहकर डराया जाता है कि उसका पति भी उसे आफ़ताब की तरह टुकड़े-टुकड़े कर उसे काट देगा या वैश्यालय में बेच देगा। ऐसे ही दर्दनाक हादसे जब हिंदू लड़कियों के हिंदू प्रेमी या पति करते हैं तब ‘ट्रोल आर्मी’ और मीडिया ख़ामोश रहते हैं। 



हर चुनाव के पहले भाजपा के नेता ऐसा ही माहौल बनाने लगते हैं पर चुनाव के बाद उनकी भाषा बदल जाती है। ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से और ‘ट्रॉल आर्मी’ के द्वारा फैलाई गई जानकारी ही अगर मुसलमानों से नफ़रत का आधार है तो संघ प्रमुख मोहन भागवत ये क्यों कहते हैं, मुस्लिमों के बिना हिंदुत्व नहीं, हम कहेंगे कि मुसलमान नहीं चाहिए तो हिंदुत्व भी नहीं बचेगा, हिंदुत्व में मुस्लिम पराये नहीं? गुजरात के मुख्य मंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने ‘सीधी बात’ टीवी कार्यक्रम में कहा था कि, जो हिंदू इस्लाम का विरोध करता है वह हिन्दू नहीं है। समझ में नहीं आता कि संघ और भाजपा की सोच क्या है? कहीं पर निगाहें - कहीं पर निशाना!



इसी हफ़्ते सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल करवाया गया जिसमें तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव किसी भवन के मुहूर्त में श्रद्धा भाव से खड़े हैं और उनके बग़ल में मौलवी खड़े क़ुरआन ख्वानी (दुआ) पढ़ रहे हैं। भेजने वाले का ये कहना था कि अगर केसीआर फिर से तेलंगाना विधान सभा का चुनाव जीत गये तो इसी तरह मुसलमान हावी हो जाएँगे। जबकि हक़ीक़त इसके बिलकुल विपरीत है। जुलाई 2022 से पहले के वर्षों में मैं जब भी हैदराबाद जाता था तो वहाँ के भाजपा के नेता यही कहते थे कि केसीआर मुसलमान परस्त हैं और इनके शासन में सनातन धर्म की उपेक्षा हो रही है। जुलाई 2022 में एक सनातनी संत के संदर्भ से मेरा केसीआर से परिचय हुआ। तब से अब तक उन्होंने मुझे दर्जनों बार हैदराबाद आमंत्रित किया। जिस तीव्र गति से वे तेलंगाना को विकास के पथ पर ले आए हैं वह देखे बिना कल्पना करना असंभव है। सिंचाई से लेकर कृषि तक, आईटी से लेकर उद्योग तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और वंचित समाज से लेकर धार्मिक कार्यों तक, हर क्षेत्र में केसीआर का काम देखने वाला है जो किसी अन्य राज्य में आजकल दिखाई नहीं देता। इसलिए हर परियोजना का भव्य उद्घाटन करना केसीआर की प्राथमिकता होती है। 



अब तक हमने देश में हर स्तर के चुनावों के पहले बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के शिलान्यास होते देखे हैं। पर इनमें से ज़्यादातर परियोजनाएँ शिलान्यास तक ही सीमित रहती हैं आगे नहीं बढ़ती। पर केसीआर की कहानी इसके बिल्कुल उलट है। वे शिलान्यास नहीं परियोजनाओं के पूरा हो जाने पर उद्घाटन के बड़े भव्य आयोजित करते हैं। ऐसे अनेक उद्घाटनों में मैं वहाँ अतिथि के रूप में उपस्थित रहा हूँ। हर उद्घाटन में सर्व-धर्म प्रार्थना होती है और उन धर्मों के मौलवी या पादरी आ कर दुआ करते हैं। पर केसीआर की जो बात निराली है, वो ये कि वे बिना प्रचार के सनातन धर्म के सभी कर्म कांडों को योग्य पुरोहितों व ऋत्विकों द्वारा बड़े विधि विधान से शुभ मुहूर्त में श्रद्धा पूर्वक करवाते हैं। 



पिछले महीने जब उन्होंने बाबा साहेब अंबेडकर के नाम से नये बनाए भव्य सचिवालय का लोकार्पण किया तो मैं यह देख कर दंग रह गया कि न केवल मुख्य द्वार पर नारियल फोड़ कर वेद मंत्रों के बीच सचिवालय में प्रवेश किया गया, बल्कि छः मंज़िल के इस अति विशाल भवन में मुख्य मंत्री, मंत्री, सचिव व अन्य अधिकारियों के हर कक्ष में पुरोहितों द्वारों विधि-विधान से पूजन किया गया। दो घंटे चले इस वैदिक कार्यक्रम में ट्रॉल आर्मी को दुआ के हाथ उठाते तीन मौलवी ही दिखाई दिये। जिनके बग़ल में केसीआर श्रद्धा भाव से खड़े थे। ये है एक सच्चे सनातन धर्मी व धर्म निरपेक्ष भारतीय नेता का व्यक्तित्व। दूसरी ओर धर्म का झंडा लेकर घूमने वाले अपने आचरण से ये कभी सिद्ध नहीं कर पाते कि उनमें सनातन धर्म के प्रति कोई आस्था है। करें भी क्यों जब धर्म उनके लिए केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम है। फिर भी ‘ट्रॉल आर्मी’ यही प्रचारित करने में जुटी रहती है कि उसके नेता तो बड़े धार्मिक हैं, जबकि विपक्ष के नेता मुस्लिम परस्त हैं। यह सही नहीं है। 


चार दशकों के अपने पत्रकारिता जीवन में हर राजनीतिक दल के देश के सभी बड़े नेताओं से मेरे व्यक्तिगत संबंध रहे हैं, चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, जनता दल हो या समाजवादी दल, साम्यवादी दल हो या तृणमूल कांग्रेस, मैंने ये पाया है कि भाजपा के अलावा भी जितने भी दल हैं, वामपंथियों को छोड़ कर, उन सब के अधिकतर नेता आस्थावान हैं और अपने-अपने विश्वास के अनुरूप अपने आराध्य की निजी तौर पर उपासना करते हैं। अगर इनमें कुछ नेता नास्तिक हैं तो संघ और भाजपा के भी बहुत से नेता पूरी तरह से नास्तिक हैं। अन्तर इतना है कि स्वयं को धर्म निरपेक्ष बताने वाले नेता अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन और प्रचार नहीं करते। इसलिए मुसलमानों के सवाल पर देश में हर जगह एक खुला संवाद होना चाहिए कि आख़िर भाजपा व संघ की इस विषय पर सही राय क्या है? अभी तक इस मामले में उसका दोहरा स्वरूप ही सामने आया है जिससे उनके कार्यकर्ताओं और शेष समाज में भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

Monday, June 12, 2023

कैसे हों पूरब - पश्चिम के रिश्ते?


2011 में देश भर के अख़बारों में छपी एक खबर ने सबका ध्यान आकर्षित किया। ये खबर थी ही ऐसी कि जो कोई पढ़ता अचंभित हो जाता। अब तक लोगों का अनुभव था कि एक माँ से उसके बच्चे तभी अलग होते हैं जब कोई उन्हें अगवा कर ले या माता-पिता का तलाक़ हो जाए और बच्चों का बंटवारा या फिर माँ मानसिक या शारीरिक रूप से अपने बच्चों की परवरिश करने की स्थिति में न हो। इसके अलावा अत्यंत ग़रीब परिवारों द्वारा भी कई बार आर्थिक मजबूरी के चलते अपने बच्चे या तो गोद दे दिये जाते हैं या बेच दिये जाते हैं। पर इस खबर के मुताबिक़ सागरिका भट्टाचार्य नाम की जिस महिला का चार साल का बेटा और छः महीने की बेटी पश्चिमी यूरोप के देश नॉर्वे में सरकारी एजेंसी द्वारा छीन लिये गये थे। वो महिला अपने बच्चों की परवरिश करने में पूरी तरह सक्षम थी और अपने इंजीनियर पति के साथ पूरी ज़िम्मेदारी से अपनी गृहस्थी चला रही थी। फिर उसके साथ ऐसा क्यों हुआ?
 



पिछले हफ़्ते नेटफ़्लिक्स पर सागरिका भट्टाचार्य के जीवन की इस घटना पर आधारित एक फ़िल्म रिलीज़ हुई है जिसका शीर्षक है ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’। फ़िल्म को देखने के बाद हर दर्शक नॉर्वे के समाज और सरकार के रवैए पर सवाल उठा रहा है। नॉर्वे दुनिया का एक बेहद संपन्न देश है जिसकी आबादी मात्र पचपन लाख है। ये वही देश है जो पिछले सौ वर्षों से दुनिया के मेधावी लोगों को समाज सेवा, पत्रकारिता, विज्ञान, कला व राजनीति के क्षेत्र में विश्व स्तर के उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रतिष्ठित ‘नोबल पुरस्कार’ प्रदान करता है। फिर ऐसे देश में ये कैसे हुआ कि सुखी-संपन्न युवा परिवार के बच्चे, सरकार द्वारा समर्थित संस्था द्वारा माँ की गोद से छीन लिये गये? अपने बच्चों को पाने के लिए सागरिका भट्टाचार्य को नॉर्वे से लेकर भारत तक की अदालतों में तमाम मुक़द्दमें लड़ने पड़े। आख़िरकार माँ के प्यार की ही जीत हुई और तीन वर्ष बाद वो अबोध बालक माँ को वापिस मिल गए। अलबत्ता सागरिका भट्टाचार्य के पति ने इस लड़ाई में उनके साथ धोखाधड़ी की क्योंकि वो नॉर्वे में रहने के लिए अपने वीज़ा को ज़्यादा प्राथमिकता देते थे और इसीलिए चाहे-अनचाहे उन्होंने नॉर्वे की सरकार और क़ानून का पक्ष लिया। ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फ़िल्म में सागरिका भट्टाचार्य के किरदार को रानी मुखर्जी ने बखूबी निभाया है। 



हुआ यूँ कि जब सागरिका नॉर्वे में जा कर अपने पति के साथ रहने लगी तो नॉर्वे की सरकार की बाल कल्याण एजेंसी के अधिकारियों ने भट्टाचार्य दंपत्ति के निजी जीवन में ताक-झांक करनी शुरू कर दी। उनको घोषित उद्देश्य था बच्चों कि परवरिश में भट्टाचार्य दंपत्ति की मदद करना। क्योंकि नॉर्वे की सरकार बच्चों की परवरिश पर बहुत ज़ोर देती है और उस पर करोड़ों रुपया ख़र्च भी करती है। इस ताक-झांक की ये अधिकारी नियमित रिपोर्ट लिखते रहे और एक दिन अचानक भट्टाचार्य दंपत्ति के इन अबोध बच्चों को उनसे जबरन छीन कर बाल कल्याण गृह में ले गये। जहां सागरिका को अपने बच्चों से हफ़्ते में केवल एक बार मिलने दिया जाता था। इस बाल कल्याण एजेंसी का आरोप था कि सागरिका अपने बच्चों की परवरिश करने के लायक़ सही माँ नहीं है। क्योंकि वह अपने छ महीने की बेटी और चार साल के बेटे को छुरी-काँटे से नहीं बल्कि हाथों से ख़ाना खिलाती है। उनका आरोप था कि शरारत कर रहे अपने बच्चे को सागरिका डाँटती है और उसे थप्पड़ भी दिखाती है। बाल कल्याण एजेंसी के इन अधिकारियों का यह भी आरोप था कि सागरिका इन बच्चों के माथे पर काला टीका (नज़रबट्टू) लगाती है। इसके अलावा उनका आरोप यह भी था कि सागरिका के पति अपने बच्चों की परवरिश में हाथ नहीं बटाते। 


इन आरोपों को पढ़ कर इस लेख के पाठक हँसेंगे। क्योंकि जो आरोप सागरिका पर लगाए गए वो तो दक्षिण एशिया के किसी भी समाज के परिवारों पर लगाए जा सकते हैं। इससे पहले कि हम ये जानें कि नॉर्वे की सरकार ने ऐसा क्यों किया, पहले ये जान लें कि इन आरोपों से निपटने के लिए सागरिका को कई अदालतों में बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि बाल कल्याण के नाम पर ये पूरा तंत्र निहित स्वार्थों के लिए काम कर रहा है। जो किसी बड़े घोटाले से कम नहीं है। जिसमें बाल संरक्षण एजेंसी, सामाजिक कार्यकर्ता, मनोचिकित्सक, वकील, सरकारी अनुदान के बदले ऐसे छीने गये बच्चों को पालने वाले दत्तक परिवार या इन बच्चों को क़ानून गोद लेने वाले परिवार भी शामिल हैं। क्योंकि इसमें इन सबकी कमाई होती है। 


नॉर्वे की सरकार, इस फ़िल्म के आने से, पूरी दुनिया में विवादों में घिरना शुरू हो गई है। फ़िल्म देखने के बाद मैंने भी नॉर्वे की सरकार व भारत में नॉर्वे के राजदूत को ट्विटर पर एक संदेश भेजा, जो इस प्रकार है। ‘आपका देश दुनिया का एक प्रतिष्ठित देश है। पर ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फ़िल्म को देख कर आपके बाल कल्याण कार्यक्रम का एक दिल-दहलाने वाला पक्ष उजागर हुआ है। आशा है अब आप एशियाई मूल के परिवारों के प्रति अपना रवैया बदलेंगे और उन्हें अपने देश की संस्कृति और जीवन मूल्यों के चश्में से देखना बंद करेंगे। आपको याद दिला दूँ कि सुप्रसिद्ध अमरीकी समाज शास्त्री तालकॉट पार्संस ने अपनी पुस्तक में भारत के संयुक्त परिवारों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ समाज व्यवस्था बताया है। क्योंकि इस व्यवस्था में परिवार के सदस्यों का तनाव प्रबंधन होता है, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा रहती है और पारस्परिक संबंध प्रगाढ़ होते हैं, जो इन समाजों को लंबे समय तक स्थायित्व देते हैं। जबकि पश्चिमी समाजों में एक परिवार या व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था के कारण समाज का विघटन हो रहा है।’ 


इसी ट्वीट में मैंने आगे लिखा, ‘1988 में अमरीका के शहर विस्कॉन्सिन में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मैंने कहा था कि पूर्वी देशों की सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत समृद्ध है और सदियों पुरानी है। जबकि पश्चिमी देशों के समाज अपने कुशल प्रबंधन के कारण भौतिक रूप से तो आगे बढ़ रहे हैं लेकिन उनके पास जीवन जीने की दृष्टि नहीं है। अगर दोनों समाजों के बीच पारस्परिक सम्मान का ऐसा रिश्ता स्थापित हो जाए कि पूर्व की दृष्टि और पश्चिम का प्रबंधन संयुक्त रूप से काम करें तो ये पूरी मानव जाति के रहने के लिए यह दुनिया कल्याणकारी हो जाएगी।’

Monday, June 5, 2023

बालासोर हादसे से सबक


रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने बालासोर के बेहद खौफ़नाक रेल हादसे के एक दिन पहले टीवी के जरिये जनता को बताया था कि मोदी सरकार ने भारतीय रेल का कायाकल्प कर दिया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि ट्रेन दुर्घटनाओं को टालने के लिए मोदी सरकार ने विश्व की सबसे आधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘कवच’ को लागू कर दिया है। हकीकत यह है कि इस तकनीक को लागू करने का फ़ैसला मनमोहन सिंह की सरकार ने 2012 में ले लिया था। तब इसका नाम ‘ट्रेफिक कोलिजन अवोइडेंस सिस्टम’ था। पुरानी योजनाओं के नाम बदलकर उन्हें अपनी नई योजना बताकर लागू करने में माहिर भाजपा सरकार ने 2022 में उसी योजना को ‘कवच’ के नाम से लागू किया। प्रश्न है कि पिछले 9 वर्ष से केंद्र सरकार इस सुरक्षा प्रणाली पर कुंडली मारे क्यों बैठी थी ?


‘कवच’ वह तकनीक है जिसे लागू करने के बाद पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी किसी दुर्घटना के अंदेशे से 400 मीटर पहले ही अपने आप रुक जाती है। शुरू में इसे दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के रूट पर लागू किया गया और दावा किया गया कि मोदी सरकार के ‘मिशन रफ़्तार’ के तहत 160 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ने वाली रेलगाड़ी अपने आप रुक जाएगी। उल्लेखनीय है कि इस तकनीक का परिक्षण करने के लिए रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने अपनी जान को जोखिम में डाला और पिछले साल मार्च में सिकंदराबाद में इंजन ड्राईवर के साथ बैठे और इस तकनीक का सफल परीक्षण किया। जिसमें आमने-सामने से आती दो रेलगाड़ियों पर इसे परखा गया था। रेल मंत्री ने बालासोर के दुखद हादसे से कुछ घंटे पहले ही दिल्ली में रेल मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों  को संबोधित करते हुए ‘कवच’ के परीक्षण का विडियो भी दिखाया। उन्होंने रेल अधिकारियों से सभी प्रमुख रेल गाड़ियों की गति को 160 किलोमीटर तक बढ़ाने की अपील की। जिससे प्रधान मंत्री मोदी का ‘मिशन रफ़्तार’ गति पकड़ सके।



पर अनहोनी को कौन टाल सकता है? बालासोर में जो हादसा हुआ उसमें एक नही, तीन-तीन ट्रेनें आपस में भिड़ीं। ऐसा हादसा दुनिया की रेल दुर्घटनाओं में होने वाले हादसों में शायद पहले कभी नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि इस रूट पर ‘कवच’ को अभी लागू नही किया गया था। इस हादसे में सैकड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और हजार से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। राहत और बचाव कार्य करने वाले लोग दुर्घटना स्थल को देखकर दहल गए। क्योंकि उनके सामने चारों तरफ लाशों का अम्बार लगा था। रेलगाड़ी की कई बोगियां तो पूरी तरह पलट गईं, जिनके पहिये ऊपर और छत जमीन पर आ गई थी।



काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। कहते हैं जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु की घड़ी भी पूर्व निर्धारित होती है। इसलिए जिन परिवारों ने अपनों को खो दिया है उनके प्रति पूरे देश की सहानुभूति है। सरकार से उम्मीद है कि वह जो भी कर सके वो सब इन परिवारों के लिए करे। मगर यहाँ एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम रेल यात्रा के मामले में अपनी क्षमता से अधिक हासिल करने का प्रयास तो नही कर रहे? 11 करोड़ लोग भारतीय रेल में सफ़र करते हैं। मालगाड़ी की जगह यात्री सेवाओं पर कहीं ज्यादा खर्च आता है। क्योंकि यात्रियों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि संपन्न वर्ग अब रेल यात्रा की जगह हवाई यात्रा को प्राथमिकता देता है। जबकि आम आदमी, विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए रेल यात्रा ही एक मात्र विकल्प है। काम की तलाश में मजदूर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आते-जाते रहते हैं। इन्हें 5 सितारा चमक-धमक की बजाय पेय-जल, शौचालय और वेटिंग हाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से ही संतोष हो जाता है। ऐसे में सरकार का रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों को 5 सितारा संस्कृति से सुसज्जित करना बड़ी प्राथमिकता नहीं होना चाहिए। अभी तो देश को अपने सीमित संसाधनों को आम जनता के स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च करने की ज़रूरत है।



मोदी जी हमेशा बड़े सपने देखते हैं। वे ‘मिशन रफ़्तार’ को सभी प्रमुख रेल गाड़ियों पर लागू करना चाहते हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने ‘बुलट ट्रेन’ का भी सपना दिखाया था। जो अभी धरातल पर नही उतर पाया है। हमारे देश की जमीनी हकीकत यह है कि हम जापान और चीन की तरह न तो अपने कार्य के प्रति ईमानदारी से समर्पित हैं और न ही अनुशासित हैं। परिणामत: सरकार की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाएँ लागू होने से पहले ही विफल हो जाती हैं। यहाँ अगर उज्जैन के महाकाल का उदाहरण लें तो अनुचित न होगा। छ: महीने पहले 856 करोड़ रूपये से हुआ मंदिर का सौंदर्यीकरण एक ही आंधी में धराशायी हो गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाओं को जल्दबाज़ी में, बिना गुणवत्ता का ध्यान रखे, लागू किया गया और वे जल्दी ही अपनी अकुशलता का सबूत देने लगीं। इसलिए रेल विभाग को नई तकनीकी और 5 सितारा संस्कृति अपनाने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। ऐसा न हो ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।’


अंतिम प्रश्न है कि क्या रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को 1956 में तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अनुसरण करते हुए, बालासोर की दुखद दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए व विपक्ष की मांग का सम्मान करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए? मैं इसका समर्थक नहीं हूँ। क्योंकि आज की राजनीति में न तो राजनीतिज्ञों के नैतिक मूल्यों का शास्त्री जी के समय जैसा उच्च नैतिक स्तर बचा है और न ही ऐसे इस्तीफों से किसी मंत्रालय की दशा सुधरती है। बजाय इस्तीफा मांगने के मैं रेल मंत्री को सुझाव देना चाहता हूँ कि वे अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं, उपलब्ध संसाधनों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के करोड़ों रेल यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखकर निर्णय लें। जो मौजूदा ढांचा रेल मंत्रालय का है उसमें यथा संभव सुधार की कोशिश करें और अपने विभाग से भ्रष्टाचार को ख़त्म करें और कार्य कुशलता को बढ़ाएं। वही बालासोर के इस हादसे में मारे गए रेल यात्रियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।