Monday, July 30, 2012

केवल नेता ही भ्रष्ट क्यों

अन्ना एण्ड कम्पनी हो या बाबा रामदेव, सब राजनेताओं को ही भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसलिए राजनेताओं को गाली देना, उनका मजाक उड़ाना, उनके गाल पर थप्पड़ मारना, उनके खिलाफ अनशन के मंचों पर चुन्नी ओढ़कर नौटंकी करना, यह सब अब सामान्य बात हो गई है। राजनेताओं को विद्रुप बनाना आत्मघोषित आन्दोलनकारियों और मीडिया का फैशन हो गया है। यह बात दूसरी है कि राजनेताओं के खिलाफ शोर मचाने वाले चाहे जितना उछल लें, चुनावों में जनता वोट उन्ही राजनेताओं को देती है जिनके खिलाफ ऐसे लोग आन्दोलन चलाते हैं। फिर क्या वजह है कि राजनेता इस हमले को लगातार सहते जा रहे हैं और हमलावरों से कुछ नहीं कहते। जनता समझती है कि राजनेता ढीट हो गये हैं। उन्हें अपनी निन्दा से कोई परेशानी नहीं होती बशर्ते कि उनकी कमाई ठीक चलती रहे। इसलिए राजनेता लगातार जनता की निगाहों में गिरते जा रहे हैं। राजनेताओं की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?
मैं समझता हूँ कि राजनेता ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसके दो कारण हैं । एक तो उनके मन में एक डर बैठा है जिसकी वजह से वे चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने से बचना चाहते हैं। दूसरा वे समाज को आइना नहीं दिखाते। पिछले दिनों मुम्बई के कुछ अति धनी उद्योगपतियों के साथ देश के भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा हुई जो इस सवाल पर काफी उद्वेलित थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हवाला कारोबार, काले धन और 1000 रुपये के बड़े नोटों के चलन को रोकने की पैरोकारी करेंगे। यह सुनकर सभी मुंह बिचकाने लगे। बात साफ है कि भ्रष्टाचार के लिए हम नेताओं को तो गाली देते हैं पर अपने उद्योग, व्यापार, खनन व भवन निर्माण जैसे क्षेत्रों में जम कर काले धन का आदान-प्रदान करते हैं। देश और विदेश में अचल सम्पत्ति में निवेश हो या विलासितापूर्ण जीवन सब में काले धन का जमकर प्रयोग होता है। सरकारी जमीन का आंवटन कराना हो, ठेके कोटे या लाइंसेंस लेने हों या रक्षा मंत्रालय जैसे विभागों को माल की भारी आपूर्ति करनी हो, तो कोई भी सीधे रास्ते नहीं जाना चाहता। सबकी यही मंशा होती है कि ‘‘खर्चा चाहे जो हो जाए काम हमें ही मिलना चाहिए।’’ फिर चाहे हमारी योग्यता हो या न हो। साफ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर अपने ड्राइंगरूमों में राजनेताओं को गाली देने वाले ये व्यवसायी इन्हीं ड्राइंगरूमों में बिठाकर नेताओं और अफसरों की आवभगत करते हैं। उन्हें बक्सों में भरकर नोट देते हैं। चुनाव के पहले बिना मांगे भी इन नेताओं के घर रुपया भेजते हैं। इस उम्मीद में कि अगर वह नेता जीत गया तो आगे 10 गुना लाभ लेंगे।
जब से टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आयी है तब से टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल वाले खोजी पत्रकारिता के नाम पर सनसनीखेज खबरें लाते हैं और उन्हें खूब मिर्च मसाला लगाकर बार-बार इस तरह दिखाते हैं जैसे कोई चोर रंगे हाथों पकड़ लिया हो। अपने चेहरे के भाव क्रान्तिकारी दिखाते हैं और जनता को उत्तेजित करने के लिए भड़काऊ भाषा का प्रयोग करते हैं। देश में राजनेताओं के खिलाफ माहौल बनाने में इन टीवी चैनलों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। मजे की बात यह है कि इन चैनलों के मालिक वे लोग हैं जो बिल्डिर्स माफिया से लेकर दूसरे ऐसे ही अवैध धन्धों में अरबों रुपये की काली कमाई कर चुके हैं। टीवी चैनल उनके लिए कोई राष्ट्र निर्माण का माध्यम नहीं बल्कि ब्लैक मेलिंग या अपना दबदबा कायम करने या अपने अपराध छिपाने का माध्यम है। देश के ज्यादातर हिस्सों में जो समाचार चैनल चल रहे हैं उनके पीछे आप खोजने पर यही कहानी पायेंगे। जो बड़े और नामी चैनल भी हैं वे सब घाटे में चल रहे हैं। फिर यह घाटा कैसे पूरा हो रहा है ? कई बड़े चैनलों को हाल है के वर्षों में उद्योगपतियों के आगे घुटने टेकने पड़े। अब उन्हीं उद्योगपतियों के आर्थिक साम्राज्य में जो घोटाले होते हैं उनकी सुध कौन लेगा ? फिर यह आक्रामक तेवर किसके लिए ? इतना ही नहीं अब तो चैनलों की राजनैतिक लाइन भी साफ दिखाई देती है। जो जिस दल से पोषण पा लेता है उसी का भौपूं बजाता है। तो क्या यह स्वतंत्र और नैतिक पत्रकारिता है ? अगर नहीं तो फिर राजनेता ही भ्रष्ट क्यों ? यह बात दूसरी है कि आज ज्यादातर राजनेताओं के अपने टीवी चैनल चल रहे हैं। उनमें काम करने वाले लोग पत्रकार कतई नहीं माने जा सकते। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पत्रकारिता के आवरण में उस नेता का जन सम्पर्क अधिकारी माना जाना चाहिए।
न्यायपालिका के सदस्यों को मान-सम्मान, वेतन, सुरक्षा व मनोरंजन सबकी बेहतर सुविधाएं मिली हुई हैं। किसी वादी या प्रतिवादी की हिम्मत नहीं कि उनके घर या चैम्बर में घुस जाये। पर न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अब किसी को कोई संदेह नहीं बचा है। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक के न्यायधीशों का आचरण सामने आ चुका है। राजनेताओं को तो चुनाव लड़ना होता है । जनता की खैर खबर रखनी होती है। हार जायें तो अगले पांच साल राजनीति में जिन्दा रहना होता है। भविष्य की कोई गारंटी नहीं। इस असुरक्षा की भावना के चलते वे भ्रष्ट हो जाते हैं। पर न्यायधीशों को क्या मजबूरी है? देश की अदालतों में ढेड करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली व कार्यक्षमता को दर्शाता है।
इस देश की सबसे ज्यादा मट्टी खराब नौकरशाही ने की है। अंग्रेज अपनी हुकूमत चलाने के लिए अखिल भारतीय सेवाओं का ढांचा बना गये। जिसमें घुसने के लिए एक बार मेहनत करनी होती है। इन्तहान पास होने के बाद सारी जिन्दगी देश को मूर्ख बनाने, लूटने और रौब गांठने का लाइंसेंस मिल जाता है। इस ‘स्टील फ्रेमवर्क’ के सदस्यों को जीवन में कोई असुरक्षा नहीं है फिर ये क्यों भ्रष्टाचार करते हैं ? इनकी सेवाओं के ही ईमानदार अफसर बताते हैं कि अगर ये लोग सहयोग न करें तो राजनेता एक पैसे का भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। पर इनका लालच और हवस नेताओं को भयमुक्त कर देता है। फिर दोनों की सांठगांठ से जनता लुटती है, देश बर्बाद होता है । हर बार भोली-भाली जनता की मृगतृष्णा को अन्ना एण्ड कम्पनी जैसे नये-नये कलाकार अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। हर बार जनता को हताशा हाथ लगती है। क्योंकि ऐसे लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावनाओं को तो भडका लेते हैं पर इनके पास समाधान कोई नहीं है। लोकपाल भी नहीं। क्योंकि इन्हीं लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की सबसे बड़ी लड़ाई को षडयंत्र करके विफल किया और सीवीसी और सूचना आयोग जैसे हवाई किले खड़े करके भ्रष्टाचार से निपटने का दावा किया, जो आज खोखला सिद्ध हो चुका है। ऐसे आन्दोलनकारी भी नैतिकता का आचरण नहीं करते । इनके लिए लक्ष्य महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सारा खेल अपने छिपे एजेण्डा के लिए किया जाता है। इसीलिए ये लोग अपनी दुकान चमकाने के चक्कर में अपने कद से बडे लोगों को दूर रखते हैं। तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं ? जरुरत भ्रष्टाचार के कारणों को गहराई से समझने की है। राजनेताओं जैसे किसी एक वर्ग को बलि का बकरा न बनाकर इसे राष्ट्रीय समस्या मानना होगा। साझे प्रयास से यथा संभव इस बुराई को दूर करने का संकल्प लेना होगा। पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज कभी नहीं रहा। चाणक्य पण्डित ने कहा था कि शहद के गोदाम की रखवाली करने वाले के होठों पर शहद लगा होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करें।

Monday, July 23, 2012

अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना

25 जुलाई को अन्ना एण्ड कम्पनी एक दिन के उपवास पर बैठने जा रही है। ऐसा वो ’देश जगाने’ के लिए कर रही है। यह बात दूसरी है कि पिछले डेढ़ साल से इस कम्पनी का दावा था कि देश की 120 करोड़ जनता उनके साथ है। जब देश की 100 फीसदी जनता अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ है तो सो कौन रहा है, जिसे जगाने की जरूरत है ? वैसे अभी यह साफ नहीं हैं कि खुद अन्ना हजारे इस धरने पर बैठेंगे या नहीं। पिछले कुछ महीनों से अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव की शरण ले ली है। वे अनेक सार्वजनिक मंचों पर बाबा के साथ ही नजर आते हैं। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र में जब संवाददाता सम्मेलन के दौरान पत्रकारों ने अन्ना को घेर कर निरूत्तर कर दिया तो अन्ना बौखला गये और अन्ट-शन्ट बोलने लगे। पत्रकार उनके दोहरे आचरण को लेकर आक्रामक थे। आखिर बाबा रामदेव को अन्ना की रक्षा में उतरना पड़ा।
उधर गत 3 जून को बाबा रामदेव के सांकेतिक धरने के मंच से अरविन्द केजरीवाल ने जो कुछ कहा उससे बाबा के अनुयाइयों और अन्ना एण्ड कम्पनी के बीच मनमुटाव बढ़ा। बाबा के लोगों का मानना था कि अन्ना हजारे और बाबा के कंधे पर चढ़कर अरविन्द ने अपनी पहचान बना ली और अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं है अन्ना की भी। शायद इसीलिए अभी तक अन्ना ने अपना रूख इस धरने को लेकर साफ नहीं किया है। इधर बाबा को शिकायत है कि दोनों टीमों के साथ आने के बावजूद क्या वजह है कि अरविन्द ने बाबा के पूर्व घोषित 9 अगस्त के धरने से पहले ही अपने धरने की घोषणा कर डाली ? इतनी छोटी बातों पर भी अगर इन दो समूहों में पारस्परिक विश्वास नहीं है तो देशवासी इनकी बात पर कैसे विश्वास करें ?
अन्ना एण्ड कम्पनी के पिछले डेढ़ वर्ष के कारनामों ने यह साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करना उनका ऐजेण्डा नहीं है। इसलिए वे किसी न किसी बहाने चर्चा में रहना चाहते हैं। अन्ना एण्ड कम्पनी मानती है कि उनसे ज्यादा पवित्र और देश की सोचने वाला और कोई नहीं है। इसलिए इस कम्पनी को यह गुमान है कि हम जो भी कह रहे है ठीक है और सरकार को उसे फौरन मान लेना चाहिए। जबकि देशभर के वे लोग जो व्यवस्था के बाहर या भीतर रहकर भ्रष्टाचार से लड़ते रहे है, उनका साफ कहना है कि अन्ना एण्ड कम्पनी का लोकपाल एक मजाक है जिसे न तो वैधता दी सकती है और न ही उससे भ्रष्टाचार दूर होगा।
अन्ना एण्ड कम्पनी आजकल मध्य प्रदेश के दिवंगत क्रान्तिकारी दुष्यंत कुमार की कविताओं का पाठ कर रही है, ’’सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’’ हालात बदलने की लड़ाई है। कोई पूछे कि जन्तर मन्तर के पहले धरने से लेकर आजतक जितने धरने अन्ना एण्ड कम्पनी ने किये और हिसार के चुनाव प्रचार से लेकर आजतक जो भी कार्यक्रम चलाये हैं, उससे क्या कहीं हालात बदलने का काम हुआ है या सिर्फ हंगामा खड़ा हुआ है। अन्ना एण्ड कम्पनी कहती है कि हम नींव हिलाना चाहते हैं। किसकी, क्या लोकतन्त्र की ? क्योंकि उनके अबतक के कारनामों से भ्रष्टाचार की नींव कहीं भी नहीं हिली। हां लोकतन्त्र को खतरा जरूर हो गया है।
वैसे अबतक के इनके कार्यकलाप भ्रष्टाचार के विरूद्व न होकर केवल सरकार के खिलाफ रहे हैं। यानी मकसद सरकार को बदलना है। पर किसे उसकी जगह बैठाना है इस पर अन्ना एण्ड कम्पनी रहस्यमयी तरीके से खामोश है। अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह मुहीम किस दल को सत्ता में बिठाने के लिए चलाई जा रही है ? अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ होती तो भ्रष्टाचार जूझते रहे सभी योद्धा अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ खड़े होते। पर ऐसा नहीं है। देशभर के ऐसे सभी योद्धाओं को शुरू से पता है कि इस कम्पनी के नाटक का असली मकसद क्या है।
वैसे इन्हें गम्भीरता से इनके साथ दिखने वाले प्रोफेशनल्स भी नहीं लेते। वे भी आपसे की चर्चा में यही कहते हैं कि अब अन्ना एण्ड कम्पनी का अगला फंक्शन कब होगा। इनका धरना बयान बाजी, टीवी कवरेज, सलीम-जावेद के लिखे फिल्मी डायलोगों की तरह आक्रामक तेवर दिखाते हुए हर मशहूर आदमी पर हमला, बढ़िया खान-पान और मनोरंजन का मिला-जुला रंग लिये होता है। इसलिए लोग मनोरंजन होगा यह सोचकर वहां पहुंच जाते हैं। वहां पहुंचने वालों में ज्यादा तादाद उनकी होती है जिन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनकर जिन्दगी का हर लुत्फ उठाया है। कभी भ्रष्टाचार के विरूद्व न तो संघर्ष किया, न तकलीफ झेली, न जान जोखिम में डाली और न हीं बड़े और ताकतवर लोगों से दुश्मनी ली और न ही इस सवाल पर किसी को नुकसान पहुंचाया।  गुल-गुले खाकर और मौज उड़ाकर गुलिस्तां के उजड़ने का रोना रोने वाले घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। इसलिए अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना एक मजाक और गीदड़ भभकी बनकर रह गया है।

Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।

Monday, July 16, 2012

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस क्यों पिट रही है ?

हाल ही में उत्तर प्रदेश की महापलिकाओं और नगरपालिकाओं के चनावों के नतीजे आये हैं। एक बार फिर कांग्रेस का सूपणा साफ हो गया है। विधानसभ चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं को प्रान्त में अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देना चाहिए था। पर लगता है कि आपसी गुटबाजी और राष्ट्रीय स्तर पर किसी स्पष्ट दिशानिर्देश के अभाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी लावारिस हो गये हैं। न तो उनका संगठन दुरूस्त है और न ही उनमें जनहित के मुद्दों पर लड़ने का उत्साह है। जब स्थानीय कार्यकर्ता और नेता ही उत्साहित नहीं हैं, तो फिर वो नये लोगों को अपने दल की ओर कैसे आकर्षित कर पायेंगे। यानी न तो नेतृत्व चुस्त है और न ही कार्यकर्ता दुरूस्त। ऐसे में कांग्रेस 2014 का चुनाव कैसे लड़ेगी ? क्या उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं, या फिर मुलायम सिंह यादव से कोई गुप्त समझौता हो गया है ? जिसके तहत उत्तर प्रदेश सपा को थाली में परोसकर पेश किया जा रहा है।

सरकार चाहें मायावती की हो, अखिलेश यादव की हो या किसी और की, इतनी कार्यकुशल नहीं होती कि प्रदेश की पूरी जनता को संतुष्ट कर सके। बिजली पानी, कानून व्यवस्था जैसे सामान्य मुद्दे ही नहीं बल्कि तमाम ऐसे दूसरे मसले होते हैं, जिन पर जनता का गुस्सा अक्सर उबलता रहता है। कोई भी विपक्षी दल बुद्विमानी से जनता के आक्रोश को हवा देकर और उसकी समस्याओं के लिए सड़कों पर उतर कर जन समर्थन बढ़ा सकता है। लोकतन्त्र में जमीन से जुड़ा जुझारूपन ही किसी राजनैतिक दल को मजबूत बनाता है। लगता है कि दो दशकों से सत्ता के बाहर रहकर उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी हताश और निराश हो गये है। उनमें न तो जुझारूपन बचा है और न ही सत्ता हासिल करने का आत्मविश्वास। ऐसे माहौल में राहुल गांधी के आने से जो उम्मीद जगी थी, वो भी विधानसभा के नतीजों के बाद धूमिल हो गई। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में महनत तो बहुत की, पर न तो उनके सलाकारों ने उन्हें जमीनी हकीकत से रूबरू कराया और न ही उनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज थी, जो मतदाताओं को तैयार कर पाती। ऐसे में राहुल गांधी का अभियान रोड-शो तक निपटकर रह गया।
अगर कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी सीटंे उत्तर प्रदेश में बढ़ाना चाहती है तो उसे पूरे प्रदेश के ढांचे में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। हर जिले में नेतृत्व क्षमता, साफ छवि और जुझारू तेवर के लोगों को जिले की बागडोर देनी होगी। इसी तरह प्रदेश का नेतृत्व कुछ ऐसे नये चेहरों को सौंपना होगा, जो प्रदेश में दल को जमीन से खड़ा कर सकें। पर कांग्रेस दरबारी संस्कृति और गणेश प्रदक्षिणा के माहौल में दिल्ली में बैठे बड़े मठाधीश ऐसे नेतृत्व को स्वीकरेंगें के नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि वे प्रान्त में दल का भला चाहते है या अपना।
पूरा उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा है। फिर भी उद्योगपति यहां निवेश करने को तैयार नहीं है। उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश के नेताओं की पैसे की भूख व जातिगत मानसिकता किसी भी आर्थिक विकास में बहुत बड़ा रोड़ा है। इसलिए वे उत्तर प्रदेश में आने से बचते हैं। ऐसे में ’’मुर्गी पहले हो या अण्डा पहले’’ उत्तर प्रदेश की छवि सुधरे या पहले विनियोग आय। दोनों एक दूसरे का इन्तजार नहीं कर सकते। इसका समाधान यही है कि दोनों तरफ साथ-साथ प्रयास किये जाये। छवि भी सुधरे और निवेशकों का विश्वास भी बढ़े। जिस उत्तर प्रदेश जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री देश को दिये हों, उस प्रदेश में क्या नेतृत्व का इतना बड़ा अकाल पड़ गया है कि कांग्रेस प्रदेश का सही नेता भी नहीं चुन सकती ? प्रदेश में एक से एक मेधावी प्रतिभायें हैं। तो सपा, बसपा व भाजपा से मन न मिलने के कारण राजनैतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं। ऐसी व्यक्तियों को प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें छूट देनी होगी संगठन को अपनी तरह से खड़ा करने की। वैसे भी कौन सा जोखिम है  ऐसा कौन सा बड़ा साम्राज्य है जो नये नेतृत्व के प्रयोग से छिन जायेगा ? जो कुछ होगा वो बेहतर ही होगा। ऐसा विश्वास करके चलना पड़ेगा। राजनीति में असम्भव कुछ भी नहीं है। ’’जहां चाह वहां राह’’ अब यह तो कांग्रेस आला कमान के स्तर की बात है। क्या वे उत्तर प्रदेश में मजबूत कांग्रेस खड़ा करना चाहती है या उसके मौजूदा हालात से संतुष्ट है।

Monday, July 9, 2012

मायावती का फैसला

मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।

जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।

पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का खुलासा और सोनिया गाँधी

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक टर्निंग पाइंट्स में 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम का खुलासा करके एक बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठा दिया है। उस समय श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के सभी सांसदों के भावुक अनुरोधों को ठुकराते हुए प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का फैसला किया था। जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, तो भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे देश में यह अफवाह फैलाई कि राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से रोका। अफवाह यह फैलाई गई कि सोनिया गाँधी अपने समर्थन के सांसदों की सूची लेकर जब राष्ट्रपति भवन पहुंची तो डॉ. कलाम ने उन्हें संविधान का हवाला देकर उनके विदेशी मूल के आधार पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने से मना कर दिया। इस घटना को 8 वर्ष बीत गये पर न तो श्रीमती गाँधी ने इसका खंडन किया और न ही संघ परिवार ने इसके तर्क में कभी कोई प्रमाण प्रस्तुत किए। आम आदमी को यही कहकर बहकाया गया कि सोनिया गाँधी तो प्रधानमंत्री का पद हड़पने को अधीर थीं किन्तु उन्हें बनने नहीं दिया गया। अब जब डॉ. कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक में यह साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि अफवाह के विपरीत डॉ. कलाम ने तो यह लिखा है कि वे श्रीमती गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलावाने के लिए तैयार थे पर वे ही तैयार नहीं थीं। जब वे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति से मिलीं तो डॉ. कलाम उनके इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर हतप्रभ रह गये।
यह पहली बार नहीं जब भाजपा व संघ परिवार अपनी संकुचित मानसिकता के चलते श्रीमती गाँधी के मामले में इस तरह बेनकाब हुआ है । राजीव गाँधी के जीवन में जबसे सोनिया आईं हैं इसी मानसिकता से उनके खिलाफ निराधार प्रचार किया जा रहा है। हर बार अफवाह फैलाने वालों को मुंह की खानी पड़ी है। जब 1977 में श्रीमती गाँधी चुनाव हारीं तो इसी समूह ने यह अफवाह फैलाई थी कि सोनिया गाँधी तो केवल श्रीमती गाँधी की सत्ता का सुख भोगने तक उनकी बहू थीं। उनका माल-टाल से भरा हवाई जहाज दिल्ली के हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा है और चुनाव परिणाम आते ही वे अपने बच्चों और पति को लेकर इटली भाग जायेंगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सोनिया यहीं रहीं। राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या के बाद विदेशी मूल की कही जाने वाली सोनिया गाँधी के लिए भारत में रहने का कोई औचित्य नहीं था। उनका जीवन असुरक्षित था। उनके बच्चे छोटे थे। भारत की राजनीति में उनकी कोई जगह नहीं थी। उस वक्त भी यही प्रचारित किया गया कि वे अब इटली चली जायेंगी। पर वे यहीं रहीं। एक आदर्श विधवा की तरह अपने गम को पीती रहीं और समाज और राजनीति से लम्बे समय तक कटी रहीं।
अब यह तीसरी बार है जब एक बड़े आरोप से उन्हें अनायास ही मुक्ति मिल गई है। डॉ. कलाम अगर यह खुलासा न करते तो देश के बहुत से लोगों को यह गलतफहमी रहती कि सोनिया प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं। किन्तु उन्हें डॉ. कलाम ने बनने नहीं दिया। यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि संघ और भाजपा नेतृत्व की सोच इतनी संकुचित क्यों है ? अक्सर मेरे पाठक या टी.वी. पर चर्चाओं में मुझे सुनने वाले यह सवाल करते हैं कि आप भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर तो बड़ी सख्ती से सभी दलों पर हमला करते हैं पर आपके हमले की धार भाजपा पर ज्यादा क्यों रहती है। क्या आप भी छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हो गये हैं ? उत्तर साफ है मैं सनातन धर्म में गहरी आस्था रखता हुआ भगवान श्री राधाकृष्ण के भक्तों की चरण रज का आकांक्षी हूँ। पर मेरा गत 30 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव बताता है कि संघ और भाजपा ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर समाज में विद्वेश को ही भड़काया है। विभिन्न धर्मों के मानने वालों से बना भारतीय समाज उदारता की भावना रखता है और सनातन संस्कृति में विश्वास रखता है । उसको विगत 50 वर्षों में ऐसी मानकिसता के लोगों ने बार-बार नष्ट भ्रष्ट किया है। इसका जवाब जनता उन्हें अब दे रही है।
इस मानसिकता के ज्यादातर लोग अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं। ऐसा मैंने बार-बार अनुभव किया। 1993 में जब मैंने आतंकवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े जैन हवाला काण्ड को उजागर किया तो उसमें भाजपा के 4-5 नेता ही फंसे थे जबकि कांग्रेस के दर्जनों नेताओं के राजनैतिक जीवन दांव पर लग गये थे। पर देश और धर्म की दुहाई देने वाले संघ और भाजपाईयों ने इस लड़ाई में मेरा साथ देना तो दूर मेरे खिलाफ देश विदेश में यह प्रचार किया कि मैं कांग्रेस के हाथ में खेलकर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूँ। मेरे खिलाफ संघ के एक बड़े नेता ने अंग्रेजी पुस्तिका छपवाकर पूरी दुनिया में बंटवाई। ये बात दूसरी है कि उस पुस्तिका में झूठ का सहारा लेकर आडवाणी जी को बचाने का जो तानाबाना बुना गया था उसे मैं देश विदेश की अपनी जन सभाओं में बड़े तार्किक रूप से ध्वस्त करता चला गया। पर यह टीस मेरे मन में हमेशा रहेगी कि 1993 में ही जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और अफसरों के विरुद्ध शंखनाद किया था तो संघ और भाजपा ने एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपने संगठन और राष्ट्रहित की बलि दे दी।
पिछले वर्ष जब टीम अन्ना के दो स्तम्भ वही सामने आए जो इस ऐतिहासिक संघर्ष को विफल करने के देशद्रोही कार्य में संलग्न थे तो मुझे मजबूरन टी.वी. चैनलों पर जाकर टीम अन्ना को आड़े हाथों लेना पड़ा। चूंकि भाजपा व संघ टीम अन्ना के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीति कर रही है इसलिए मुझे इन सभी टी.वी. चर्चाओं में मजबूरन भाजपा व संघ को फिर कटघरे में खड़ा करना पड़ा। भगवत कृपा से भाजपा के जो भी बड़े नेता इन चर्चाओं में मेरे विरुद्ध बैठते रहे हैं वे मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे पाये। अब 2014 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर फिर संघ और भाजपा सोनिया गाँधी की नैतिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं। देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। मैं टीम अन्ना की तरह किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने का दंभ नहीं पालता। मैं यह मानता हूँ कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है और कोई दल इससे अछूता नहीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भाजपा और संघ की कमीज दूसरों से ज्यादा सफेद है। सोनिया गाँधी पर उनका लगातार परोक्ष और सीधा हमला जनता को गुमराह करने के लिए है। जैसे उन्होंने पिछले 40 वर्षों में किया है। विरोध मुद्दों और आर्थिक या अन्य नीतियों का विचारधारा के आधार पर हो तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है। पर तंग दिल और दिमाग से झूठा प्रचार करने वाले देश के हित में कोई बड़ा काम कभी नहीं कर पायेंगे।

Monday, June 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव में बहुतों की फजीहत


ममता बनर्जी चाहे कितने ही जोर से कहे कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ पर राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी फजीहत करवा ली। उन्होंने क्या सोचकर प्रधानमंत्री का नाम सुझाया ? जिसका उन्हें कोई हक नहीं था। डा. अब्दुल कलाम भी बिना जीत की गारंटी के अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते। सोमनाथ चटर्जी को पता है कि वामपन्थी दल और एन.डी.ए. सहित कोई उनके नाम पर सहमत नहीं है। फिर यह नाम क्यों उछाले गये ? मुलायम सिंह यादव तो यह कहकर किनारा कर गये कि यू.पी.ए. ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम घोषित करने में देर की, इसलिए उन्होंने जो ठीक समझे नाम सुझा दिये। अब प्रणवदा चूंकि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हैं इसलिए सपा उनका समर्थन करेगी। पर दीदी क्यों अकड़ी रहीं ? यह जानते हुए भी कि बंगाल के लोगों को अपनी संस्कृति और अपने बंगाली होने का जितना गर्व है उतना शायद किसी दूसरे प्रान्त के निवासियों को नहीं होगा। बंगाली आज भी इस बात को भूले नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस को आजाद भारत में  अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। अब जबकि पहली बार एक बंगाली के राष्ट्रपति बनने का मौका आया है तो दीदी उसमें पलीता लगा रही हैं। इसका ममता बनर्जी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वैसे राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह दलित, महिला, या मुसलमान के चयन किये जाने की बातें अनेक दलों ने उठाई उससे इस गरिमामय पद की प्रतिष्ठा को आघात लगा है। राष्ट्रपति किसी दल, समुदाय, श्रेत्र या जाति का ना होकर पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। देश मंे प्रधानमंत्री को सत्ता का प्रतीक माना जाता है। पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में  राष्ट्रपति को ही देश का सदर मानकर सम्मानित किया जाता है। अगर कोई यह कहे कि यह तो उनका राष्ट्रपति है, हमारा नहीं, तो फिर लोकतन्त्र का मायना क्या बचा ? विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीतने वाला प्रत्याशी 25-26 फीसदी मतों पर जीत जाता है। तो क्या उस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लोग उसे उनका विधायक या सांसद कहते है या पूरे क्षेत्र का ? जाहिर है कि जीतने के बाद वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और सबकी सुध लेता है। इसी तरह राष्ट्रपति भी चुन जाने के बाद पूरे देश का हो जाता है।
वैसे भी प्रणव मुखर्जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनके बारे में किसी संशय हो। उनके विरोधियों को ही नहीं अपनों को भी पता हैं कि प्रणवदा कैसे आदमी हैं। दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में यू.पी.ए 1 के समय से ही यह चर्चा रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद उन्हें यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वे अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं। ऐसे में उनके दल के नेताओं को यह संशय रहा कि किसी नाजुक मोड़ पर प्रणवदा अलग भी निर्णय ले सकते हैं। यह बात विपक्षीदल भी जानते हैं। इसलिए उन्हें प्रणवदा का समर्थन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रणवदा के सभी दलों के लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं।
इस चुनावी दंगल में एन.डी.ए. की फजीहत भी कम नहीं हुई। अपने उम्मीदवार की घोषणा एन.डी.ए. ने इसलिए नहीं की कि पहले यू.पी.ए. का नाम सामने आ जाये। उसकी फजीहत हो जाये तब हम अपनी शतरंज बिछायेंगे। पर पासा उल्टा पड़ गया, जिन अब्दुल कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनाने की बात एन.डी.ए. में चल रही थी, वे खुद ही आम सहमति के बिना चुनाव लड़ना नहीं चाहते। उधर प्रणव मुखर्जी के नाम पर देश में जैसी प्रतिक्रिया अब तक मिली है उससे साफ जाहिर है कि एन.डी.ए. के लिए अपना उम्मीदवार जिताना सम्भव न होगा। कमजोरी की हालत में यू.पी.ए. एन.डी.ए. से डील कर सकती थी कि राष्ट्रपति हमारा और उपराष्ट्रपति तुम्हारा। पर अब शायद इसकी जरूरत न पड़े। उधर भाजपा में दो खेमे हैं। प्रणवदा को जानने वाले कह रहे हैं कि एन.डी.ए. को उनका समर्थन करना चाहिए। पर दूसरा खेमा ऐसे मौके पर खुद को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा दीखना चाहता है। अभी अंतिम निर्णय होना बाकी है।
इस चुनाव में पी.ए. संगमा और राम जेठमलानी जबरदस्ती कूदकर सस्ती प्रसिद्वि पाना चाहते हैं। संगमा को तो उनके ही दल राकापा का समर्थन नहीं है और जेठमलानी को कोई भी दल गम्भीरता से नहीं लेता। क्योंकि वो कब क्या कर बैठें किसी को पता नहीं। दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसी गम्भीरता और परिपक्वता राजनैतिक दलों को दिखानी चाहिए थी, वैसी उन्होंने नहीं दिखाई। अपने स्थानीय मतदाता को प्रभावित करने का मौका समझकर सब ने इस चुनाव को एक मखौल बना दिया। जो लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ परम्परा नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो और सभी दल चिन्तन करें कि भविष्य में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद पर चयन आम सहमति से हो, इससे लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ेगी। अल्पमत की साझी सरकारों के दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की गरिमा बचाने का भी यही एक तरीका होगा।