दिल्ली की एक प्रमुख सड़क पर तड़के चार बजे 140-150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 60 लाख रुपए की कीमत वाली बीएमडब्लू कार चला रहे एक युवक ने अपने मित्रों के साथ, सात लोगों को कुचल दिया। इनमें से छह मर चुके हैं और सातवां अस्पताल में है। इन युवकों ने रुक कर घायलों का प्राथमिक उपचार कराने या अपने मोबाइल फोन से पीसीआर को सूचना देने की भी जरूरत नहीं समझी। बल्कि दुर्घटना में फटी पेट्रोल टंकी वाली कार लेकर किसी तरह अपने दोस्त के घर पहqच गए। दोस्त और उसके पिता को भी यह अनुचित या अनैतिक नहीं लगा। वे भी तुरत-फुरत अपने ड्राइवर और चैकीदार के साथ मिलकर इतनी बड़ी दुर्घटना के सबूत मिटाने में जुट गए। कम से कम कार की हालत से तो उन्हें पता चल ही गया होगा कि दुर्घटना मामूली नहीं थी। उन्होंने तो घर के बाहर निकाल कर अथवा छत पर जाकर यह देखने की भी जरूरत महसूस नहीं की कि कोई पीछा करता हुआ आ तो नहीं रहा है।
यह पूरा मामला एक उदाहरण है जिससे पता चलता है कि हमारा ‘सभ्य और कुलीन’ समाज कहां जा रहा है ? इस समाज में पैसे वाले या बड़े कहे जाने वाले लोगों की नैतिकता व समाज के प्रति जिम्मेदारी का क्या हाल है ? इस वर्ग के लोगों में सिर्फ अपनी खाल बचाने की चिंता किस कदर हावी हो चुकी है? ये कोई मामूली लोग नहीं हैं जो रोजी-रोटी की जुगाड़ में ही इतने परेशान रहते हैं कि ‘आ बैल मुझे मार’ की सोच भी नहीं सकते हैं। ये तो ऐसे लोग हैं जिनके पास अकूत पैसा है, बड़े से बड़े वकील रख सकते हैं और कोर्ट-कचहरी के काम के लिए दो तीन आदमी तैनात कर सकते हैं। इस सबके बावजूद इन्हें जानलेवा गलती करके भी कोई पश्चाताप नहीं हुआ या इसके लिए कुछ भी करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इन्हें अपने बिगडै़ल बच्चों को ही बचाने की फिक्र थी। उन अनाथ हुए बच्चों और विधवा हुई महिलाओं की नहीं जिनके सुहाग इन ‘साहबजादों’ के नशे का शिकार हो गए।
अब बहस का मुद्दा ये नहीं है कि सड़क पर खड़े सात के सात लोगों को कुचल देने के बाद संजीव नंदा ने गाड़ी क्यों नहीं रोकी। कचहरी में बहस इस बात पर हो रही है कि पुलिस ने इन्हें गलत धाराओं में निरूद्ध किया है। जाहिर है कि पुलिस ने इन पर जो धारा लगाई है वह ज्यादा कड़ी है और उसमें छूटने की संभावना कम है और ज्यादा सजा का प्रावधान है। पुलिस की इस कार्रवाई को किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि संजीव नंदा और उसके मित्रा अगर दुर्घटना के बाद रुककर घायलों के उपचार में लगते या इन्हें अस्पताल ले जाने की व्यवस्था करते तब बात कुछ और ही होती। फिर भी तब क्या इन्हें छोड़ दिया जाता? जाहिर है नहीं। ऐसी हालात में इन लोगों के खिलाफ शायद सड़क दुर्घटना का मामला ही बनता। क्योंकि तब यह साफ हो जाता कि इनके इरादे नेक थे। हो सकता है कि कुलीन समाज के लोग ये तर्क करें कि अगर वे ऐसी पहल करते तो उन्हें पुलिस तंग करती। यह सही है कि पुलिस की जो छवि जनता में बनी है उसके कारण आम आदमी ऐसे हर झमेले से बचना चाहता है जिसमें उसे पुलिस से उलझना पड़े। पर मानवीय संवेदना और सामाजिक दायित्व भी तो कोई चीज होती है। आए दिन समाज में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब किसी साधारण से आदमी ने सड़क पर घायल पड़े लोगों की ऐसी मदद की कि उनकी जान बच गई। यह शालीनता प्रायः समाज के निम्न वर्ग में ज्यादा पाई जाती है। राजधानी दिल्ली के ही ऐसे कितने उदाहरण है जब इस तबके के लोगों ने सड़क पर बुरी तरह घायल पड़े जिन नौजवानों को अस्पताल पहुंचाया वे रईसों के साहबजादे थे। इस मदद से कायल हुए उन परिवारों ने जब निम्न वर्ग के ऐसे प्राणदाताओं को मोटी रकम ईनाम में देनी चाही तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि वे अपने इंसानी फर्ज की कोई कीमत नहीं लगाना चाहते। आदमी को पैसे से तौलने वाले ठगे से रह जाते हैं, जब देखते हैं कि एक सड़क छाप आदमी उनको नैतिकता में बौना बना कर चला गया।
महंगाई और गरीबी की मार से सताए हुए एक तरफ ये आम लोग हैं जिनमें आज भी नैतिकता और सामाजिक सारोकार बाकी है और दूसरी तरफ एडमिरल नंदा के पोतेनुमा लोग हैं जो पांच सितारा मस्ती में इतना खोए हैं कि अपनी ही गलती के शिकार हुए लोगों की जान बचाने की कोशिश भी करने को तैयार नहीं हैं। दुर्घटना की घबड़ाहट में उस स्थल से भाग जाना भी एक बार को समझा जा सकता है। पर अगले थाने पर समर्पण न करना और घायलों के बारे में पुलिस कंट्रोल रूप को सूचना न देना आपराधिक मानसिकता का प्रतीक है। ऐसी मानसिकता एक दिन में पैदा नहीं होती। उसकी एक लंबी पृष्ठभूमि होती है। जैसे संस्कार वे अपने परिवार और परिवेश में देखते हैं वैसा ही बर्ताव फिर वे समाज में करते हैं। अगर वे सूचना भर दे देते तो कौन जाने कुछ बेगुनाह जाने बच सकती थी? इस पूरे घटनाक्रम से जो खबर अखबारों के दफ्तर में पहले आई वह थी कि जिन धाराओं में इन युवकों को निरूद्ध किया गया है उनके कारण मृतकों के आश्रितों को ‘मोटर दुर्घटना दावा पंचाट’ से मुआवजा नहीं मिलेगा। मृतकों के साथ-साथ उनके आश्रितों के साथ सहानुभूति रखने वाले तमाम लोगों के लिए यह चिंताजनक खबर थी। पर बाद में जब खबर आई कि मुआवजा मिलने में इन धाराओं से कोई फर्क नहीं पडे़गा, तो सबने राहत की सांस ली।
इसके बावजूद अभियुक्तों ने जो किया है उसके लिए उन्हें सामान्य से ज्यादा सजा मिलनी चाहिए-इसमें कोई दो राय नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हर तरह से पैसा कमाने में जुटे और अमीर या बड़े बने लोगों को यह समझ में आ जाए कि रईसी, गरीब को नशे में कुचलने का लाइसेंस नहीं देती। वैसे भी देश में अमीरों और गरीबों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हैं। फिर भी दिल्ली के अमीरजादे इस गलतफहमी के शिकार हैं कि पैसें हों तो लालबत्ती पर रुकने की जरूरत नहीं। अव्वल तो कोई रोकता नहीं है और कोई रोक भी ले तो जुर्माना अदा करके छूटा जा सकता है। इसी लिए यहां के आत्मघोषित सुसंस्कृत लोग लालबत्ती पर नहीं रुकने में गर्व महसूस करते हैं।
घटना के पांच दिनों बाद सामने आए चश्मदीद गवाह सुनील कुमार ने अखबार वालों को बताया है कि टक्कर मारने के बाद संजीव ने आगे बढ़कर गाड़ी रोकी थी। उसने और उसके साथ बैठे दूसरे युवक ने उतर कर गाड़ी का हाल देखा और फिर वहां से फरार हो गए। इस तरह स्पष्ट हैं कि इन लोगों को मरने वालों से ज्यादा चिंता अपनी महंगी विदेशी कार की थी। होती भी क्यों नहीं ? आखिर यही कार उनके बाप-दादों की संपन्नता की प्रतीक थी और इसी संपन्नता के बल पर उन्हें यकीन था कि वे बचा लिए जाएंगे। यह तो उनकी किस्मत खराब थी कि पीसीआर जिप्सी पर इंस्पेक्टर जगदीश पांडे की ड्यूटी थी, दुर्घटना एकदम भोर में हुई और वह इतवार का दिन था। वरना विदेशी पासपोर्ट और अंतर्राष्ट्रीय ड्राइविंग लाइसंेस वाले इस युवक के लिए देश छोड़कर भाग जाना कोई मुश्किल काम नहीं था। क्योंकि हर तरह से पैसे कमाने में मशगूल ऐसे लोग यही समझते हैं कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।
भला हो पीसीआर के इंस्पेक्टर जगदीश पांडे का कि उन्होंने सिर्फ सरकारी खानापूर्ति से आगे बढ़कर बुद्धिमता का इस्तेमाल किया और बीएमडब्लू कार और सबूत मिटाने वालों को रंगे हाथों पकड़ लिया। इससे दिल्ली पुलिस भारी बदनामी और नालायक व निकम्मी होने के आरोपों से बच गई। आम लोगों को भी लगा कि कानून को हाथ में लेने वाले बड़े बाप के बच्चें ही क्यों न हो उनके खिलाफ कार्रवाई तो हुई। लोगों को यह देखकर अच्छा लगा कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में अभी भी ऐसे लोग हैं कि नौसेना प्रमुख एडमिरल नंदा के पोते को भी तिहाड़ जेल की हवा खानी पड़ी। वरना नंदा परिवार के सदस्यों को तो पैसे का इतना घमंड था कि ये लोग नोटों के बंडल के साथ अदालत पहंुच गए थे। मानों वहीं जमानत मिल जाएगी और इसकी रकम जमा हो जाएगी।
देश के कई मशहूर और महंगे वकीलों से सलाह लेने के बाद इन्हें विश्वास था कि सड़क दुर्घटना के इस मामले में जमानत तो हो ही जाएगी। पैसे के नशें में चूर इन लोगों ने यह जानने की भी जरूरत नहीं समझी कि जमानत लेने की प्रक्रिया क्या होती है ? अगर नौसेना प्रमुख जैसे उच्च पदों पर रहे परिवार के सदस्यों का यह हाल है तो ऐसे मां-बाप के बच्चों से क्या उम्मीद की जाए? वह भी तब जब नौसेना प्रमुख रह चुके व्यक्ति का बेटा अंतर्राष्ट्रीय हथियारों का सौदागर हो जाए। ऐसे घर और संस्कार वालांे का 20 साल का पोता अगर बिना नंबर की बीएमडब्लू कार चलाएगा तो उससे भी और क्या उम्मीद की जा सकती है? अदालत में बचाव पक्ष भले ही उसे बच्चा कहे, पर उसके मां-बाप उसे बच्चा मानते तो बीएमडब्लू कार से पार्टी में नहीं जाने देते। कम से कम इस ‘बच्चे’ की हिफाजत के लिए एक ड्राइवर तो साथ भेजते ही। पर रातो रात रईस बने लोग तो आज इस बात पर फक्र करते हैं कि उनका बच्चा कौन सी गाड़ी चलाता है ? कैसी गाड़ी चलाता है? किस ‘ब्रांड-नेम’ के कपड़े पहनता हैं ? कैसी डांस पार्टियां आयोजित करता है ? आदि। एक ऐसे ही घनाड्य महिला अपनी मित्रा को बता रहीं थी कि उनका सोलह साल का बेटा सातों गाडि़यां चला लेता है। इस एक वाक्य में उनकी पूरी मानसिकता का परिचय मिलता है। गाड़ी एक चलाए या सातों, क्या फर्क पड़ता है ? हां, इस तरह अपने वैभव का प्रदर्शन जरूर होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि कानूनों के पालन के प्रति इस वर्ग में कितनी अरूचि है। कानून तोड़ने की इस संस्कृति से ही पनप रहे ये धनाड्य लोग भारत में उसी मानसिकता से रहते हैं जैसे औपनिवेशिक शासक देश लूटने के लालच में भीषण गर्मी की मजबूरी झेलकर भी यहां पड़े रहते थे। जब तक उन्हें भारत से आर्थिक फायदा मिला, वे यहां टिके रहे। जब भारत उन पर भार बनने लगा, तो इसे छोड़ भागे। ये नवधनाड्य लोग भी तभी तक भारत के सीने पर मूंग दलेंगे, जब तक कि यहां पड़े रहना फायदे का सौदा है। जिस दिन यह घाटे का सौदा बन जाएगा ये यहां रूकने वाले नहीं है। इन सबने अपने अवैध धन से विदेशों में जायदादे बना रखी हैं। गुप्त खातों में मोटी रकम जमा करवा रखी हैं। जब देश के हालात नाजुक देखेंगे तो देश छोड़कर भाग जाएंगे। यह जिम्मेदारी तो मध्यम और निम्न वर्ग के उन युवाओं की है जिन्हें इसी भारत भूमि पर जीना और मरना है। उन्हें चाहिए कि इन रईसजादों के भड़काऊ जीवन की चकाचैंध से भ्रमित न हों बल्कि इनके कारनामों, इनकी जिंदगी और रवैए पर कड़ी निगाह रखें, ताकि भौंडे उपभोक्तावाद के इस नासूर को बढ़ने से पहले ही कुचल दिया जाए।