ब्रिटिश एअरवेज में वर्षों नौकरी कर चुके पीटर टेलर बताते हैं कि 1984 में उन्होंने आशादान में जाना शुरू किया था।शुरूआत के दिनों से ही श्री टेलर आशादान के बच्चों व सेविकाओं के बीच काफी लोकप्रिय थे। देखभाल के अलावा वे बच्चों को घुमाने फिराने के लिये बाहर भी ले जाते थे। आशादान के कर्मचारी भी श्री टेलर को अच्छी तरह जान और समझ चुके थे। लेकिन 1994 में अपने साथ हुए बर्ताव की श्री टेलर को उम्मीद तक नहीं थी। अचानक एक दिन आशादान में उनका प्रवेश निषेध कर दिया गया। खुद पर इस पाबंदी की वजह श्री टेलर यह बताते हैं कि गंभीर रूप से बीमार कुछ बच्चों की उपेक्षा जब उनसे नहीं देखी गयी तो उन्होंने इसकी शिकायत वहां काम कर रही वरिष्ठ सेविकाओं से की। शुरूआत में तो श्री टेलर की शिकायतों पर ध्यान दिया गया, पर थोड़ा बहुत ही। इसके बावजूद जब कुछ बच्चों की हालत में सुधार नहीं हुआ तो श्री टेलर ने इस बारे में सेविकाओं से बतौर स्वयंसेवी सवाल जवाब किया। पर इसका नतीजा उन्हें प्रतिबंध के रूप में झेलना पड़ा। आशादान के दरवाजे उनके लिये हमेशा के लिये बंद कर दिये गये।
वे आगे बताते हैं कि आशादान में कुछ बच्चों के रखरखाव का सतर उपेक्षा की हद तक गिरा हुआ है। वहां उनकी हालात सुधारने के लिये कोई विशेष कदम नहीं उठाये जाते। भोजन पानी के नाम पर उनको जैसे तैसे जिंदा रखा जाता है। इसके अतिरिक्त उनका कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है।
श्री टेलर के अनुसार आशादान में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी बड़ी अव्यवस्थित हैं। स्वयंसेवी चिकित्सक हफ्ते में मात्र दो एक बार ही आते हैं और वो भी केवल खानापूरी के लिये। आशादान में दिखावे के लिये तो देख रेख और सेवा का अच्छा प्रबंध है लेकिन कई बार यहां की सेविकायें दर्द से कराहते बच्चों को अनदेखा कर देती हैं। अनेक मौकों पर जब खुद श्री टेलर ने सेविकाओं का ध्यान इस तरफ दिलाया तब जो जवाब इन ‘समर्पित’ सेविकाओं ने श्री टेलर को दिया वो चैंकाने वाला था- ‘‘ये तो भगवान की मर्जी है।’’
कहने को तो इन सेविकाओं ने नर्सिंग की ट्रेनिंग ली है पर वे मरीजों की रख रखव के बुनियादी पहलू तक का पालन नहीं करतीं। ‘बैड सोर’ से पीडि़त मरीजों के जख्मों पर सिर्फ मलहम पट्टी करके ही वह अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हें। जकि उन्हें इससे कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह की जरूरत होती है।
इन सेविकाओं के ‘समर्पण’ के जिस पहलू ने श्री टेलर को सबसे ज्यादा परेशान किया वो ये कि इन सेविकाओं का ध्यान सेवा में कम और प्रार्थनाओं मs अधिक था। और तो और स्वयं मदर टेरेसा इस सोच की प्रबल रहनुमा थी। श्री टेलर के अनुसार वे खुदकाम से ज्यादा प्रार्थना को तरजीह देती थी। प्रार्थना के समय इन बच्चों की इस हद तक उपेक्षा की जाती कि ये सेविकाएं इन बच्चों को अप्रशिक्षित ‘अम्माओं’ की देखरेख में छोड़कर प्रार्थना के लिये चली जाती। जिस समय बच्चे दर्द व उपेक्षा से कलप रहे होते थे, ये सेविकायें प्रार्थना में मग्न होती। इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए श्री टेलर बताते हैं कि उन्होंने जब उच्च प्रशिक्षण के लिये जाती एक सेविका से उसकी ट्रेनिंग के बारे में कुछ जानना चाहा तो उसका यह जवाब मिला, ‘‘ट्रेनिंग तीन हिस्सों में होगी। पहले, प्रार्थना सिखाई जाएगी फिर सघन प्रार्थना और उसके बाद और सघन प्रार्थना।’’
आशादान में डाक्टरों और सेविकाओं के इस रवैये से क्षुब्ध श्री टेलर काफी दिनों तक इस बात पर मंथन करते रहे कि उन्हें आशादान में कुछ बच्चों पर की जा रही यातनापूर्ण उपेक्षा पर खुल कर आलोचना करनी चाहिये या नहीं। उन्हें डर था कि लोग मदर की संस्था पर लगे आरोपों को गंभीरता से नहीं लेंगे और आशादान की सेविकाओं के समर्पण पर कोई उंगली नहीं उठने देंगे। अंततः उन्हें हार ही माननी पड़ेगी। लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि श्री टेलर का मिशनरीज आफ चैरिटीज की अनियमितताओं के खिलाफ अपना मुंह खोलना ही पड़ा।
घटना आशादान में दो मासूम बच्चों की दुर्दशा से जुड़ी है। मीनू नाम की इस बच्ची से टेलर की मुलाकात 1984 में आशादान में ही पहली बार हुई थी। तब श्री टेलर को बताया गया था कि मीनू की आंखों की नस क्षतिग्रस्त है और वो कभी देख नहीं पाएगी। पर यह सच नहीं था।जब श्री टेलर ने मीनw को अपने प्रयासों से नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया तो उन्हें हैरानी हुई। डाक्टरों ने बताया कि आपरेशन से मीनू की आंखें ठीक हो सकती हैं। लेकिन इस इलाज के लिये मीनू को इंग्लैंड ले जाना होगा।डाक्टरों की परामर्श से श्री टेलर ने मीनू के जाने का बंदोबस्त लगभग कर ही दिया था जब उन्हें यह पता चला कि इसके लिये मदर टेरेसा की इजाजत जरूरी है। श्री टेलर को उम्मीद थी कि मदर इस मामले में हां कर देंगी लेकिन उन्हें बारह वर्ष तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने जब भी मदर से मीनू के बारे में बात छेड़ी तो मदर का रूखा सा जवाब होता कि वे मीनू के लिये यीशू से प्रार्थना करेंगी। श्री टेलर को आश्चर्य है कि मदर को यह जानने के लिये कि अंधेपन और रोशनी में कौन बेहतर है यीशू की आज्ञा का बारह वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। लेकिन श्री टेलर लगातार मदर से इस बारे में मिलते रहे। काफी ऊहापोह के बाद अंततः जब मदर ने अनुमति दी तो श्री टेलर को यह बताया गया कि अब मीनू ने खुद अपना निर्णय बदल दिया है। टेलर को संदेह है कि मदर के इशारे पर ऐसा किया गया। शायद वे नहीं चाहती थीं कि मीनू देख सके। क्योंकि आशादान का आर्थिक स्वास्थ्य कुछ हद तक मीनू की वहां मौजूदगी से बेहतर होता था। नेत्रहीन मीनू के नाम पर शायद काफी अनुदान इकट्ठा किया जाता था इसीलिये मीनू को दुनिया देखने की इजाजत नहीं दी गयी।
दूसरी घटना विनसेंट नाम के एक और भारतीय लड़के की है। विन्सेंट नौ वर्ष का था जब टेलर की उससे मुलाकात आशादान में हुई। दौड़ना तो दूर विनसेंट चल और बैठ भी नहीं पाता था। इसका कारण था उसकी पीठ में एक बहुत बड़ा फोड़ा। जिसकी वजह से वह बिस्तर पर लेटे लेटे अपनी गर्दन ही केवल इधर से उधर घुा सकता थौ। फोड़े केदर्द से विन्सेंट हमेशा कराहता रहता था। अपनी आंखों के सामने उसकी बिगड़ती हालत श्री टेलर से नहीं देखी गई तो इसकी शिकायत उन्होंने मदर सुपीरियर से की। श्री टेलर ने उन्हें सचेत किया कि यदि ऐसी जघन्य उपेक्षा उन्होंने पश्चिम के किसी देश में दिखाई तो उन्हें सजा तक हो सकती थी। इससे डर कर विन्सेंट की ठीक से देखभाल शुरू की गई। लेकिन कुछ समय के लिये ही। श्री टेलर के वहां से जाते ही विन्सेंट की फिर से उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय बाद लौटने पर श्री टेलर को विन्सेंट का घाव जैसे का तैसा मिला। उन्होंने जब संस्था का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया तो उन्हें उपेक्षित करने वाला और निराशाजनक जवाब मिला,‘‘न जाने ये दोबारा कैसे हो गया’’। जबकि संस्था के डाक्टर हफ्ते में कम से कम दो बार विन्सेंट के बिस्तर के पास से जरूर गुजरते थे।
विन्सेंट के मामले में श्री टेलर की बढ़ती रुचि को देखते हुए उन्हें मिशनरीज आफ चैरिटीज में कदम कदम पर हतोत्साहित किया गया। विन्सेंट को पीटर टेलर की पहंqच से बाहर रखने की कोशिश शुरू हो गयीं। आशादानके सक्रिय स्वयंसेवी श्री टेलर को क्या इतना अधिकार भी नहीं था कि वे बीमार और अपाहिज विन्सेंट की स्वास्थ्य के बारे में कुछ जान सकते। विन्सेंट की देखभाल करने वाली सेविकाओं ने श्री टेलर को कई बार तो यह कहकर मना कर दिया कि ‘‘विन्सेंट के पास बाहर वालों का जाना मना है।’’ पर श्री टेलर ने हार नहीं मानी अपने कुछ भारतीय दोस्तांे के जरिये जब उन्होंने विन्सेंट के बारे में जानना चाहा तो बताया गया कि, ‘उसे दूसरे सेवा केन्द्र पर भेज दिया गया है।’ पर किस सेवा केन्द्र पर, ये जानकारी नहीं दी गयी। श्री टेलर के अनुसार उन्होंने इसकी बाबत भरपूर कोशिशें की। उन्हें डर हैकि विन्सेंट उपेक्षा का शिकार होकर अपने दुखों से हमेशा के लिये मुक्त हो गया होगा। ये कहते हुए श्री टेलर की आंख से आंसू लुढ़क आते हैं। पर उनका जी चाहता है कि विन्सेंट जिंदा हो और स्वस्थ भी।
केवल मीनू या विन्सेंट ही नहीं श्री टेलर के अनुसार आशादान में उन्होंने ऐसे कई मामले देखे जिनसे मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रांे से उनका भरोसा उठ गया। सेवा केबहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म केप्रचारको प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कईमरीजों की ठीक सेदेखभाल नहीं हो पाती औरउनकी हालत बिगढ़ने दी जाती है। ‘‘क्या गा¡ड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी कर दी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोढ़ दिया जाए?’’ श्री टेलर पूछते हैं। उनके विचार से ऐसे सेवा केन्द्रों को अपनी प्राथमिकतायें मानवाधिकार के मौजूदा कानूनों की रोशनी में बदल देनी चाहिये। ‘‘ सेवा जरूरी हैन कि प्रार्थना।’’
श्री टेलर को उन सेविकाओं से भी नाराजगी हैजो समर्पण भाव से काम करने के बजाय सेवा केन्द्र केप्रांगण मेंदोपहरके भोजन के बाद हाथमें हाथ डाले मटरमश्ती करती रहती हैं। उनके ऐसे रूखे ओर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव से ही विन्सेंट जैसे बच्चे, जिन्हें थोड़े से स्नेह ओर देखभाल से बचाया जा सकता था असमयकाल के शिकार हो जाते हैं। अब यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि विन्सेंट कहां है, कैसा है और वो जिंदाहै भी या नहीं? मीनू अब कभी nsख भी पाएगी यानहीं? चिंता केवल इसबात की है कि कितने ही विन्सेंट और मीनू आज इन सेवा केन्द्रों में अमानवीय उपेक्षा के शिकार हो रहे ? जबकि दूसरी तरफ बाहर की दुनिया को ये तसल्ली है कि मानवीय संवेदनाएं इन केन्द्रों में अभी भी जीवित हैं। केवल एक पीटर टेलर के अनुभवों को काफीन माना जाए तब भी जो साक्ष्य उन्होंने मेरे सामने रखे उनसे आंखें मूंदी नहीं जा सकतीं।
वर्षों तक मिशनरीज आफ चैरिटीज को काफी करीब से देख चुके श्री टेलर बताते हैं कि मदर टेरेसा केपास जब तककलकत्ता के सीमित क्षेत्रमें काम था तब तक उनके काम का स्तर काफी ऊंचा था। मदर सेवा कार्य में गहरी रूचि लेती थीं और वहां कार्य करने वाले स्वयंसेविओं पर पूरानियंत्रणरखती थीं ‘हैल्स एंजल्स (नर्क की फरिश्ता) नाम से मटर टेरेसा के कामों पर बनी fQल्म ने उन्हें जरूरतमंद लोगों की मसीहा के रूप में सारी दुनिया में स्थापित करदिया था। दुनिया भर से उन पर आर्थिक अनुदान और पुरस्कारों की वर्षा होने लगी थी। मीडिया की इसचमक दमक और उत्साहके अतिरेक में मदर टेरेसा ने ‘वायुदूत’ के हवाई अड्डों की तरह निरंतर नये सेंटर खोलना शुरू करदिये। काम इतना फैला लिया कि ना तो स्वयंसेवियों के समर्पण को और ना ही मिशनरियों की योग्यता कोपरखने कासमयरहा और ना ही उन्हेंप्रशिक्षित करने का। श्री टेलरके षब्दों में, ‘‘नतीता यह हुआ कि काम का दिखावा तो खूबरहुआपर ठोस काम नदारदरहा।’’ गंभीर व्यक्तित्व वाले श्री टेलर गहरी सांस छोढड़ते हुए केन्द्रों में ‘‘टू मच प्रेयर,लैसकेयर’’की बात कहते हैं और यह भी कहते हैं। कि, ‘‘करुणावतार ईसा मसीह केचित्र के आगे घंटों मोमबत्ती जलाने वाले प्रार्थना तोबहुत करते हैं पर दर्दसे कराहते बच्चों के लिये करुणा नहीं दिखा पाते। काश! इनकी कथनी और करनी में ऐसा भेद न होता।
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