पिछले दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश के ईसाई मिशनरियों पर विहिप और बजरंग दल वालों के हमलों को कोई भी समझदार व्यक्ति ठीक नहीं ठहराएगा। सभ्य समाज में विरोध प्रकट करने का यह कोई तरीका नहीं है। पर साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है। कि शोर मचाने वाले क्या वास्तव में धार्मिक उन्माद के विरुद्ध हैं या केवल हिन्दुओं को ही नीचा दिखाना चाहते हें ? यदि यह विरोध हिन्दू बहुसंख्यकों द्वारा ईसाई अल्पसंख्यकों के प्रति किये जा रहे अत्याचारों के विरोध में है तो यह नहीं भूलना चाहिये कि इसी देश के उन हिस्सों में जहां ईसाई बहुसंख्यक हैं वहां के गैर ईसाइयों के प्रति कैसा व्यवहार हो रहा है ? पर उसकी तरफ इन लोगों को ध्यान नहीं जाता।
ईसाई मिशनरियों ने नागालैंड की बड़ी आबादी का धर्म परिवर्तित करवा कर उन्हें ईसाई बना दिया।वहीं जिमी नागा नाम की स्थानीय जनजाति ने ईसाई धर्म स्वीकारने से मना कर दिया। इसी तरह मशहूर रानी ग्याडलू के अनुयायी भी अपने पारंपरिक धर्म का निर्वाह करते है। ऐसे सभी गैर ईसाई नागरिकों पर ईसाइयों के अत्याचारों की कहानी मुख्य धारा के मीडिया की खबर क्यों नहीं बनती ? क्या यह हैरानी की बात नहीं कि नागालैंड की सरकार अपनी जनगणना तक में इन गैर ईसाई समुदायों का उल्लेख तक नहीं करती। इस राज्य में इ्रसाई पादरियों और उनके नेता विशपों की तूती बोलती है। राज्य का प्रशासन इन लोगों के इशारे पर चलता है। जिसमें गैर ईसाई उपेक्षित रहते है और प्रताडि़त किये जाते है। ंइसी तरह मेघालय राज्य के बहुसंख्यक ईसाई लोग स्थानीय खासी प्रजाति के गैर ईसाई जन समुदाय पर तमाम तरह के अत्याचार कर रहे हैं।
मानवीय करुणा और विश्व प्रेम का संदेश देने के वाले ईसाई धर्मावलंबियों ने दक्षिणी अफ्रीका के ही नहीं अमरीका तक के अश्वेत नागरिकों पर कैसे अमानवीय अत्याचार किये हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यदि वास्तव में ईसाई मिशनरी दीनदुखियों की सेवा करना चाहते हैं तो इससे किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है ? किन्तु यदि सेवा ही मुख्य भाव है तो धर्म परिवर्तन का यह विश्वव्यापी अभियान क्यों ? भारत के गरीब इलाकों के तमाम लोग बतायेंगे कि उन्हें दवा, शिक्षा, भोजन या रोजगार देने के नाम पर किस तरह ईसाई बनने को ललचाया गया। इसमें शक नहीं है कि देश के सुदूर इलाकों में, कठिन परिस्थितियों में जाकर ईसाई मिशनरियों ने अस्पतालों और स्कूलों का एक बहुत बड़ा जाल फैला दिया है। जिससे ईष्र्या करने का विहिप वालों को कोई हक नहीं है यदि उन्हें मुकाबला ही करना है तो एक विेशष अभियान चलाकर ऐसे पिछ़ड़े इलाकों में स्वास्थ्य, कुपोषण और शिक्षा की सेवाओं का तंत्र विकसित करना चाहिये। हताशा में हमले करने से सहयोग और सहानुभूति नहीं आलोचना ही मिलेगी।पूर्वोत्तर राज्यों में जहां विहिप ने इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू किये हैं वे न तो समुचित हैं और न प्रभावी ही। उधर देश के बहुसंख्य हिन्दू समाज में जहां मंदिरों में पंडे पुजारियों को मोटी मोटी भेंट चढ़ाने की प्रथा है वहीं समाज के निरीह लोगों को सबल बनाने के कार्यक्रमों में उनकी विेशष रूचि नहीं है। जिसे पैदा करना विहिप जैसे संगठछनों का काम होना चाहिये। दूसरी तरफ ऐसा नहीं है कि ईसाई मिशनरी केवल धर्म परिवर्तन और सेवा के काम में ही जुटे हैं।अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो पता चलेगा कि सेवा के नाम पर इन संस्थाओं में भी क्या क्या हो रहा है?
तेजपुर (मेघालय) के थाने में एक रिपोर्ट दर्ज है कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था ने ढाई बरस की बेबी सेसली नाम की एक अबोध बालिका को अवैध रूप से गायब कर दिया है। चूंकि इस शिकायत को मार्च 1998 में तेजपुर के आयुक्त की पत्नी श्रीमती नीरू ने दर्ज कराया था इसलिये इस मामले में तेजपुर के डी सी श्री नव कुमार चेतिया ने स्वयं जांच की और चैकाने वाली जानकारी हासिल की। इस लड़की को संस्था की ननों ने अनाथ बताकर अपने अनाथालय में रखा हुआ था। कुपोषण की शिकार जब इस लड़की की हालत बिगड़ने लगी तो उन्होंने श्रीमती नीरू से मदद मांगी कि वे उसका इलाज सरकारी अस्पताल में करवादें। चूंकि आयुक्त की पत्नी अक्सर इस अनाथालय में बच्चों की जरूरत के सामान इकट्ठा करके देने जाती थीं इसलिय उनकी बेबी सेसली में स्वाभाविक रूचि थी। पर फिर अचानक क्या हुआ कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था की ननों ने तेजपुर के सरकारी अस्पताल के डाक्टरों पर बेहद दबाव डालकर बच्ची को बेहद नाजुक हालत में अस्पताल से छुट्टी करवा ली। शायद उन्हें यह डर हुआ कि गरीबों की सेवा का जोर शोर से दावा करने वाली इस संस्था के बच्चों के कुपोषण की बात अखबारों तक न चली जाए। श्रीमती नीरू को जब यह पता चला तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने तहकीकात की तो संस्था की ननों ने बताया कि बेबी सेसली के मां बाप अरुणाचल से आये थे और जबरदस्ती बच्ची को ले गये। अनाथ बच्ची के मां बाप कैसे पैदा हो गये इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था।तेजपुर के जिलाधिकारी ने जब संस्था के बताये पते पर सेसली के मां बाप की खोज की तो मालू चला कि वह पता फर्जी था। इसके बादउस इलाके के बिशप और तमाम दूसरे पादरियों ने श्रीमती नीरू पर बेहद दबाव डाला कि वे अपनी एफआईआर वापिस ले लें, जो उन्होंने नहीं ली। इस पूरे प्रकरण में सेवा के नाम पर चल रहे अबोध बच्चों के एक रहस्यमय कारोबार का पर्दाफाश हुआ है।
यह पहली बार नहीं हुआ। कुछ समय पहले ही इंग्लैंड के प्रतिष्ठत अखबार ‘ दी गार्डियन’ में एक अंग्रेज पीटर टेलर नाम के ब्रिटिश वायुसेना के पायलट रहे व्यक्ति के कटु अनुभव प्रकाशित हुए थे। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। 1984 से लेकर 1994 तक उनका ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज’ से संबंध रहाथा। इन दस वर्षों में वे बतौर स्वयंसेवी के इस संस्था के भारत में स्थापित केन्द्रों से जुड़े रहे थे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की ‘देखभाल’ की जाती है लेकिन श्री टेलर को इस बात का भारी दुख है कि आशादान नाम के इन केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ता है। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है। श्री टेलर का आोप है कि सेवा के बहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म के प्रचार को प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कई मरीजों की ठीक से देखभाल नहीं हो पाती और उनकी हालत बिगड़ने दी जाती है। ‘‘क्या गाॅड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी करदी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोड़ दिया जाए’’ ? श्री टेलर पूछते हैं।
दरअसल धर्म के नाम पर लोगों को फुसलाने, उनसे धन वसूलने और अपनी सतता और शक्ति का विस्तार करने का कारोबार सदियों से चल रहाहै। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं । जहां सेवा करने वालों के जीवन में त्याग, सदगी, सच्चाई, करुणा और प्रेम है वहां सच्ची सेवा का दर्शन होता है। जहां भोग, विलासिता, अंतर्राष्ट्रीय संगठन, बड़े बडे़ अनुदान, बड़े पदों के लिये लड़ाई और प्रचार की भूख है, वहां धोखाधड़ी है, आंडबर है, शोषण है और सत्ता व साधनों का दुरुपयोग है। ईसाई मिशनरियों के बारे में यूरोप के प्रतिद्ध इतिहासकार ााॅमसन ने कहा था कि, ‘जहां जहां ईसाई मिशनरी गये वहां वहां उनके पीछे तलवाई गयी वहां वहां झंडा गया।’ यानी ईसाइयों की सत्ता कायम होती चली गयी चूंकि धर्म का संबंध आस्था, विश्वास व भावना से है इसलिये समाज का बहुत बड़ा हिंस्सा धर्म से स्वतः प्रभावित हो जाता है। जब एक बार लोग किसी धर्म के प्रभाव में आ जाते हैं तो उस धर्म के राजनेताओं को अपनी सत्ता स्थापित करने में काफी सुविधा होती हे। विदेशों में जन्में इस्लाम और ईसाईयत दोनों इसके प्रमाण हैं। जबकि भारत की भूमि में पनपे दर्शन के पीछे राजसत्ता पाने की ललक कभी नहीं रही।। दर्शन को आत्मा और परमात्मा के बीच सेतु बंधन का उपकरण माना गया या मानव कल्याण का। यूं अपवाद यहां भी हैं पर इतिहास साक्षी है कि सनातन धर्म वालों ने धार्मिक प्रचार को कभी भी अपना लक्ष्य नहीं बनाया न ही इसके लिये कभी भी संगठित होकर किसी रणनीति के तहत कोई कार्यक्रम चलाया। यही कारण है कि सगुण उपासक से लेकर भौतिकतावादी चार्वाक तक को सनातन धर्म ने सहज स्वीकार किया। इसलिये हिन्दुओं को यह देखकर चिंतित व उत्तेजित होना स्वाभाविक है कि उन्हीं के देश में विदेशी लोग विदेशी धर्म को बाकायदा एक अभियान के तहत फैला रहे हैं। जिससे समाज में असंतुलन और विेद्वेष पनप रहाहै। मध्ययुग में चूंकि इस्लामी शासकों की हुकूमत रही इसलिये बहुसंख्यक हिन्दू समाज को अपमानका घूंट पीकर जीना पड़ा। धर्मनिरपेक्षतावादी चाहे जितना समझाने की कोशिश करें पर इसमें शक नहीं है कि मध्य युग में हिन्दुओं के धर्म पर भारी हमले हुए। उनके धर्म स्थान तोड़े गये। उन्हें धर्म परिवर्तन के लिये मजबूर किया गया। उनके बहुमूल्य ग्रंथों और पाण्डुलिपियों को जलाया गया। उनकी आस्थाओं पर कुठाराघात किया गया।
अंग्रेजी शासनकाल में इस सबसे राहत मिली तो दूसरी तरह का हमला हुआ। जिसमें बिना तलवार के ही हिन्दुओं के धर्म,संस्कार और मूल्यों की जड़ें काट दी गयीं। हिन्दु समाज को उम्मीद थी कि आजादी के बाद उन्हें फिर से अपनी परंपराओं के निष्पक्ष मूल्यांकन और अपनी संस्कृति के विस्तार का स्वाभाविक अवसर मिलेगा । पर ऐसा नहीं हुआ। रूस की गिरफ्त के शिकार भारतीय सत्ताधीशों ने धर्मनिरेक्षता के नाम पर एक अजीब स्थिति पैदा कर दी। जिसमें अपने ही देश में अपनी परंपराओं और वैदिक ज्ञान की बात करने वाले दकियानूसी समझे लाने लगे। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जहां बहुसंख्यक हिन्दू समाज को दबाया गया वहीं मुस्लिम साम्प्रदायिकता को पनपने दिया गया। इतना ही नहीं धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की धोखाधड़ी तक को रोका नहीं गया।क्या वजह है कि आज ईसाई धर्म प्रचारक केसरिया रंग का चोगा पहनकर घूमने लगे हैं ? जबकि उनके धर्म का वस्त्र सफेद रंग का होता है। क्या वजह है कि देश के अनेक इलाकों में अब गिरिजाघरों को प्रभु यीशू का ‘मंदिर’ बताकर प्रचारित किया जा रहा है ? क्या वजह है कि सेवा और करुणा की बात करने वाले ईसाई धर्म प्रचारक पिछड़े इलाकों में ‘फेथ हीलिंग’के भारी भारी शिविर लगाकर लोगों को गुमराह कर रहे है। ? साफ जाहिर है कि हिन्दू समाज के प्रतीकों और आस्थाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने प्रचार की रणनीति में अभूतपूर्व बदलाव किया है। ताकि ज्यादा से ज्यादा समाज को अपनी ओर खींच सके और उनका धर्म परिवर्तित करवा सकें। एक तरफ धर्म परिवर्तन का यह सुनियोजित अभियान चल रहा हो और दूसरी तरफ बहुसंख्यक हिन्दू समाज को बार बार धर्मांध और कट्टरपंथी कह कर प्रचारित किया जाये यह कहांकि समझदारी है। इससे तो आक्रोश भड़केगा और उसकी परिणति फिर बजरंग दल जैसे संगठनों में ही होगा। ऐसे धार्मिक उन्माद को रोक पाना सत्ताधीशों के लिये सरल नहीं होगा। मगध के सम्राट अशोक मौर्य से लेकर मुगल शासक अकबर तक की एक धर्मनीति हुआ करती थ। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में क्या भारत सरकार की एक धर्म नीति हो, इसकी आवश्यकता नहीं ? क्या धार्मिक संस्थाओं, स्थानों व संगठनों की समस्याओं और विवादों को सुलझाने के लिये भारत सरकार में विशेष विभाग की जरूरत नहीं है ? क्या इनके कामकाज और धन संग्रह व खर्च के तौर तरीकों में पारदर्शिता लाने वाले कानूनों की जरूरत नहीं है ? यदि हां तो फिर देर किस बात की ? धर्म से जुड़ी समस्याओं से आंख मूंद कर या उन्हें अदालतों में लटका कर हम उनका हल नहीं ढूढ सकते।
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