Monday, March 3, 2025

कब सुधेरेंगी स्वस्थ सेवाएँ?


आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं। मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचहत्तर वर्ष बाद भी हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब दिखाई देती है। विभिन्न दलों की सरकारों के शासन के बावजूद नए-नए नारों से, नए-नए वायदों से, नई-नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जाता रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए।
 



नियोजित विकास के तहत देश के कई प्रदेशों के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर देश भर में हज़ारों प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथोलॉजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हुआ। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया गया, वह जमीन पर भी हो रहा है? 



देश के किसी भी गांव में जाकर असलियत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद देश भर में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम कई वर्षों से ठप्प पड़ा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा दशकों से बेकार पड़ी है।



इस तरह ऐसे सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह देश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है।


साल 2000 में विश्व बैंक द्वारा ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। देश में  कई उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। ऐसी  योजनाओं के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण लेने गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।


इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन देश के कई प्रदेशों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ इनमें से कई प्रदेशों को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। 


फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों टी.वी. व अन्य उपकरण भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले जहां थोड़े बहुत क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र थे उनके स्थान पर दुगने केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंच वालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।


बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। तमाम बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएँ केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएँ सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। 

Monday, February 24, 2025

कैसे बढ़े राष्ट्रीय उत्पादकता?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार दावा कर चुके हैं कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी बड़ी इकॉनमी बन जाएगा। फ़िलहाल भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था वाला देश है। वहीं अमेरिका अभी भी पहले नंबर पर है, जिसकी अर्थव्‍यवस्‍था की साइज 26.7 ट्रिलियन डॉलर है। दूसरे नंबर पर चीन है और इसकी अर्थव्‍यवस्‍था का आकार 19.24 ट्रिलियन डॉलर है। तीसरे नंबर पर जापान 4.39 ट्रिलियन डॉलर के साथ मौजूद है। एक अनुमान के अनुसार भारत की अर्थव्‍यवस्‍था साल 2030 तक जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था वाला देश बन जाएगा। यदि भारत 2025 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था हासिल करने की यदि क्षमता रखता है तो उसके संकेत तभी मिलने शुरू होंगे जब हमारे देश की उत्पादकता में वृद्धि होगी।


राष्ट्रीय उत्पादकता की जब भी बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुडा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ जापान जैसा भी देश है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात कर दिया है। सूनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पायेगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहाँ के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिये बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि वे एक जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गये। इससे उत्पादन भी नहीं रूका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुँच गयी।



जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आये हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बन्द कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पेंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिये हमारे यहाँ समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिये। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आयें तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारथ है। इसलिये सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमान्त प्रांतों में तस्करी करना हो या अपने गाँब-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फक्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबाँ में नहीं झाँकते। 



देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कर्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कर्तव्य भी प्रिय होने चाहियें। वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से कर ले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिये बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिये पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिये जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाये। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रूपये खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पायेंगे। वैसे भी इस देश की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार की रही है। लोगों की माँग पूरी करने के लिये आज भी देश में संसाधनों की कमी नहीं है। पर किसी की हवस पूरी करने के लिये कभी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। इसलिये रूहानियत या आध्यात्म का, व्यक्ति के तन, मन और जीवन से गहरा नाता है। देश में अन्धविश्वास या बाजारीकरण की जगह अगर आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना होगी तो हम सुखी भी होंगे और सम्पन्न भी।



संत कबीर कह गये हैं ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में, जो सुख पाऊँ राम भजन में वो सुख नाहिं अमीरी में’। बाजार की शक्तियाँ, भारत की इस निहित आध्यात्मिक चेतना को नष्ट करने पर तुली हैं। काल्पनिक माँग का सृजन किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ खींचा जा रहा है। कहा ये जाता है कि माँग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आर्थिक सम्पन्नता आयेगी। पर हो रहा है उल्टा। जितने लोग हैं, उन्हें पश्चिमी देशों जैसी आर्थिक प्रगति करवाने लायक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और ना ही वैसी प्रगति की जरूरत है। इसलिये अपेक्षा और उपलब्धि में खाई बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि हताशा, अराजकता, हिंसा या आत्महत्यायें बढ़ रही हैं। यह कोई तरक्की का लक्षण नहीं। उत्पादकता बढ़े मगर लोगों के बीच आनन्द और संतोष भी बढ़े, तभी इसकी सार्थकता है।

Monday, February 17, 2025

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार


एक बार लॉस एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैंने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।
 


कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बही-खातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर क्रांति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आँकड़े केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बही-खाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।


साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, कॉफ़ी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टोर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी बीस हजार रुपये वाला बिकेगा या पचास  हजार रुपये वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रुपये वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रुपये किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।



इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।



अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना क्रांति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना क्रांति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के लगभग सभी शहरों, गाँवों व क़स्बों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।



जब 1985 में देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले सभी राजनैतिक दल आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे देश के सभी सांसद सोचेंगे?


Sunday, February 9, 2025

विकास ऐसा किया जाता है


हमारे पड़ोसी देश चीन ने पिछले सप्ताह एक बार फिर से सुर्ख़ियाँ बनाई। इस बार भारत में घुसपैठ नहीं बल्कि भारत और दुनिया भर के लिए एक उदाहरण बना। चीन ने अपने नवाचार द्वारा एक रेगिस्तान को न सिर्फ़ रोका बल्कि उसे हरा-भरा भी कर दिया। चीन का यह विकास कार्य आज काफ़ी चर्चा में है।
 


‘मौत का सागर’ के रूप में जाने जाना वाला टकलामकन रेगिस्तान 337,600 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसका आकार लगभग पश्चिमी देश जर्मनी के बराबर का क्षेत्र है। इसके विशाल रेत के टीलों और बार-बार आने वाले रेतीले तूफानों ने लंबे समय तक मौसम के पैटर्न को बाधित किया है। कृषि को खतरे में डाला है और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। जवाब में, चीन ने एक व्यापक हरित अवरोध लागू किया है, जिसे रेगिस्तान के किनारों को लॉक करने और इसके नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।


इन प्रयासों ने न केवल रेलवे और राजमार्गों जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की रक्षा की है, बल्कि यह भी प्रदर्शित किया है कि टिकाऊ प्रौद्योगिकियां मरुस्थलीकरण का प्रतिकार कैसे कर सकती हैं। सौर ऊर्जा से संचालित सिंचाई प्रणालियों को एकीकृत करके, चीन पृथ्वी पर सबसे कठिन वातावरणों में से एक में वनस्पति को बनाए रखने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग कर रहा है। 



टकलामकन रेगिस्तान के इस व्यापक पहल पर चार दशकों से काम चलाया गया। ग्रीनबेल्ट का पहला 2,761 किलोमीटर का काम कई वर्षों में पूरा हुआ, अंतिम चरण नवंबर 2022 में शुरू हुआ, जिसमें रेगिस्तानी चिनार, लाल विलो और सैक्सौल पेड़ों जैसी लचीली, रेगिस्तान-अनुकूल प्रजातियों को रोपने के लिए 600,000 श्रमिकों को एक साथ लाया गया - जो शुष्क परिस्थितियों में जीवित रहने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाते हैं।


ये पौधे कई उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं: वे खिसकती रेत को सहारा देते हैं, रेगिस्तान के विस्तार को धीमा करते हैं, और स्थानीय समुदायों को आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं। यह परियोजना इतिहास में सबसे महत्वाकांक्षी पुनर्वनीकरण प्रयासों में से एक का प्रतिनिधित्व करती है, जो दुनिया भर में भूमि क्षरण से निपटने के लिए एक नई मिसाल कायम करती है। 



उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में ग्रीनबेल्ट का प्राथमिक लक्ष्य मरुस्थलीकरण को रोकना है, यह परियोजना दीर्घकालिक आर्थिक अवसर भी पैदा कर रही है। कुछ नए लगाए गए पेड़, जैसे कि रेगिस्तानी जलकुंभी, में औषधीय गुण होते हैं, जो संभावित रूप से हर्बल चिकित्सा के लिए आकर्षक बाजार खोलते हैं।



इसके अलावा, 2022 में, चीन ने हॉटन-रुओकियांग रेलवे का उद्घाटन किया, जो रेगिस्तान के चारों ओर दुनिया की पहली पूरी तरह से घिरी हुई रेलवे थी। 2,712 किलोमीटर लंबा रेलवे रेगिस्तानी शहरों को जोड़ता है, जिससे अखरोट और लाल खजूर जैसे स्थानीय कृषि उत्पादों को पूरे चीन के बाजारों तक पहुंचाना आसान हो जाता है, जिससे क्षेत्रीय व्यापार और विकास को और बढ़ावा मिलता है।


खबरों के मुताबिक़ चीन पुनर्वनरोपण पर रोक नहीं लगा रहा है बल्कि ताकलामाकन रेगिस्तान में एक विशाल नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना भी चल रही है। चाइना थ्री गोरजेस कॉर्पोरेशन 8.5 गीगावाट सौर ऊर्जा और 4 गीगावाट पवन ऊर्जा स्थापित करने की योजना का नेतृत्व कर रहा है, जिसके अगले चार वर्षों में पूरा होने की उम्मीद है। झिंजियांग पहले से ही चीन की स्वच्छ ऊर्जा रणनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी है, और इस पहल का उद्देश्य क्षेत्र के विशाल नवीकरणीय संसाधनों को राष्ट्रीय ग्रिड में एकीकृत करना है। रेगिस्तान की बहाली को टिकाऊ ऊर्जा उत्पादन के साथ जोड़कर, चीन उस चीज़ को हरित विकास के अवसर में बदल रहा है जो कभी एक पारिस्थितिक चुनौती थी।


ग़ौरतलब है कि टकलामकन ग्रीनबेल्ट की सफलता मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटने के वैश्विक प्रयासों के अनुरूप है। इसी तरह की बड़े पैमाने की परियोजनाएं, जैसे कि अफ्रीका की ग्रेट ग्रीन वॉल, का उद्देश्य पूरे महाद्वीप में 8,000 किलोमीटर लंबे वृक्ष अवरोधक लगाकर सहारा रेगिस्तान के विस्तार को रोकना है।


इस विकास कार्य पर चीन का दृष्टिकोण सौर ऊर्जा, वनीकरण और आर्थिक प्रोत्साहन को एकीकृत करना है। टकलामकन रेगिस्तान का विकास कार्य समान पारिस्थितिक खतरों का सामना करने वाले अन्य देशों के लिए एक खाका के रूप में भी कार्य कर रहा है। अब जब तकलामाकन ग्रीनबेल्ट पूरा हो गया है, तो अगले चरण में इसकी दीर्घकालिक दक्षता बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा कि यह एक टिकाऊ, आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी तंत्र बना रहे। 


जानकारों के अनुसार यह अभूतपूर्व उपलब्धि नवीन पर्यावरणीय समाधानों के प्रति चीन की प्रतिबद्धता को उजागर करती है। हरित प्रौद्योगिकियों और बड़े पैमाने पर पुनर्वनीकरण का लाभ उठाकर, राष्ट्र ने न केवल अपने स्वयं के बुनियादी ढांचे और कृषि को सुरक्षित किया है, बल्कि भविष्य की वैश्विक रेगिस्तान बहाली परियोजनाओं के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया है। अत्याधुनिक सौर ऊर्जा संचालित रेत नियंत्रण, बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और नवीकरणीय ऊर्जा एकीकरण का संयोजन दर्शाता है कि मरुस्थलीकरण एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया नहीं है। निरंतर अनुसंधान और निवेश के साथ, रेगिस्तानों के अतिक्रमण से जूझ रहे अन्य क्षेत्र जल्द ही चीन के नक्शेकदम पर चल सकते हैं, जिससे यह साबित होगा कि सही तकनीक और रणनीति के साथ, यहां तक ​​कि सबसे कठिन परिदृश्यों को भी संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र में बदला जा सकता है।


भारत सहित सभी विकासशील देशों को चीन से सबक़ लेते हुए यह सीखना चाहिए कि विषम परिस्थितियों में भी विकास कार्य किए जा सकते हैं। ओछी राजनीति करने से किसी का भी लाभ नहीं होता। यदि किसी भी प्रदेश में किसी विपक्षी दल ने उस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ ठोस कदम उठाए हैं तो उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए। यदि केंद्र में और राज्य में दो अलग दलों की सरकार भी हो तो विकास कार्यों पर किसी भी तरह की रोक लगाना आम जनता के साथ धोखा है। यदि विपक्षी दल की सरकार के चुनाव हारने के बाद किसी अन्य दल की सरकार भी आती है तो उसे भी पुराने विकास के कार्यों को पूरा करना चाहिए। विकास कार्यों के निष्पादन में अक्सर भ्रष्टाचार का बोल बाला माना जाता है। परंतु कार्यों के निष्पादन में होने वाले भ्रष्टाचार से कहीं बड़ा उस कार्य की योजना में होने वाला भ्रष्टाचार होता है जिसे अनुभवहीन इंजीनियर और आर्किटेक्ट जन्म देते हैं। इसलिए यदि सही सोच वाला नेतृत्व सही योजनाओं को स्वीकृति करे तो ऐसे भ्रष्टाचार से बचा जा सकता है और ताकलामाकन रेगिस्तान जैसे कई विकास कार्य दोहराया जा सकते हैं।   

Monday, February 3, 2025

सही दिशा में सुधार की ज़रूरत


बीते कई दशकों से ऐसा देखने में आया है कि गणतंत्रता या दिवस पर शहीदों को नमन कर, देश की दुर्दशा पर श्मशान वैराग्य दिखा कर, देश वासियों को लंबे-चौड़े वायदों की सौगात देकर देश का भला करने के संकल्प लिए जाते हैं। परंतु इन सब से क्या देश का भला हो सकता है? सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्, भारतभूमि  में किसी चीज की कमी नहीं है। षट् ऋतुएं, उपजाऊ भूमि, सूर्य, चन्द्र, वरूण की असीम कृपा, रत्नगर्भा भूमि, सनातन संस्कृति, कड़ी मेहनत कर सादा जीवन जीने वाले भारतवासी, तकनीकी और प्रबंधकीय योग्यताओं से सुसज्जित युवाओं की एक लंबी फौज, उद्यमशीलता और कुछ कर गुजरने की ललक, क्या यह सब किसी देश को ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए काफी नहीं है? दुनिया भर के कई देशों में प्रवासी भारतीयों ने कई क्षेत्रों में बुलंदियों को छुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि भारतीयों में योग्यता की कोई कमी नहीं है। यदि सभी को सही मौक़ा और प्रोत्साहन मिले तो कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।



अगर यह बात सही है तो फिर क्या वजह है कि खिलाडि़यों पर खर्चा करने की बजाय खेल के खर्चीले आयोजनों पर अरबों रूपया बर्बाद किया जाता है? कुछ हजार रुपये का कर्जा लेने वाले किसान आत्म हत्या करते हैं और लाखों करोड़ रुपये का बैंकों का कर्जा हड़पने वाले उद्योगपति ऐश। आधी जनता भूखे पेट सोती है और एफसीआई के गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ता है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया भी ऐसी अव्यवस्था  का नंगा नाच दिखाने में पीछे नहीं रहते। नतीजतन आतंकवाद और नक्सलवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। सरकार के पास विकास के लिए धन की कमी नहीं है। पर धन का सदुपयोग कर विकास के कामों को ईमानदारी से करने वाले लोग व संस्थाएँ तो पैसे-पैसे के लिए धक्के खाते हैं और नकली योजनाओं पर अरबों रुपया डकारने वाले सरकार का धन बिना किसी रुकावट के खींच ले जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्रता दिवस का क्या अर्थ लिया जाए? यही न कि हमने आज़ादी के नाम पर गोरे साहबों को धक्का देकर काले साहबों को बिठा दिया। पर काले साहब तो लूट के मामले में गोरों के भी बाप निकले। स्विटजरलैंड के बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन जमा करने वालों में भारत काफी आगे है।



इसलिए जरूरत है हमारी सोच में बुनियादी परिवर्तन की। ‘सब चलता है’ और ‘ऐसे ही चलेगा’ कहने वाले इस लूट में शामिल हैं। जज्बा तो यह होना चाहिए कि ‘देश सुधरेगा क्यों नहीं?’ ‘हम ऐसे ही चलने नहीं देंगे’। अब सूचना क्रांति का जमाना है। हर नागरिक को सरकार के हर कदम को जांचने परखने का हक है। इस हथियार का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना चाहिए। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न हो उसमें में जो लोग बैठे हैं उन्हें भी अपने रवैये को बदलने की जरूरत है। एक मंत्री या मुख्यमंत्री रात के अंधेरे में मोटा पैसा खाकर उद्योगपतियों के गैर कानूनी काम करने में तो एक मिनट की देर नहीं लगाता। पर यह जानते हुए भी कि फलां व्यक्ति या संस्था राज्य के बेकार पड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है, उसके साथ वही तत्परता नहीं दिखाता। आखिर क्यों? जब तक हम सही और अच्छे को बढ़ावा नहीं देंगे, उसका साथ नहीं देंगे, उसके लिए आलोचना भी सहने से नहीं डरेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा। नारे बहुत दिये जाएँगे पर परिणाम केवल कागजों तक सीमित रह जाएँगे। सरकारों ने अगर अपने अधिकारियों के विरोध की परवाह करते हुए अपने कार्यकालों में कई सक्षम लोगों को यदि खुली छूट न दी होती तो अमूल और मेट्रो जैसे हजारों करोड़ के साम्राज्य कैसे खड़े होते?



आम आदमी के लिए रोजगार का सृजन करना हो या देश की गरीबी दूर करना हो, सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। केवल आंकड़े ही नहीं साक्षात परिणाम देखकर भी नीति बननी चाहिए। खोजी पत्रकारिता के चार दशक के मेरे अनुभव यही रहे कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार बड़ी बेशर्मी से कर दिया जाता है। पर सच्चाई और अच्छाई का डटकर साथ देने की हिम्मत हमारे राजनेताओं में नहीं है। इसीलिए देश का सही विकास नहीं हो रहा। खाई बढ़ रही है। हताशा बढ़ रही है। हिंसा बढ़ रही है। पर नेता चारों ओर लगी आग देखकर भी कबूतर की तरह आंखे बंद किये बैठें हैं। इसलिए फिर से समाज के मध्यम वर्ग को समाज के हित में सक्रिय होना होगा। मशाल लेकर खड़ा होना होगा। टीवी सीरियलों और उपभोक्तावाद के चंगुल से बाहर निकल कर अपने इर्द-गिर्द की बदहाली पर निगाह डालनी होगी। ताकि हमारा खून खौले और हम बेहतर बदलाव के निमित्त बन सके। विनाश के मूक दृष्टा नहीं। तब ही हम सही मायने में आजाद हो पायेंगे। फिलहाल तो उन्हीं अंग्रेजों के गुलाम हैं जिनसे आजादी हासिल करने का मुगालता लिये बैठे हैं। हमारे दिमागों पर उन्हीं का कब्जा है। जो घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है।



यह बातें या तो शेखचिल्ली के ख्वाब जैसी लगतीं हैं या किसी संत का उपदेश। पर ऐसा नहीं है। इन्हीं हालातों में बहुत कुछ किया जा सकता है। देश के हजारों लाखों लोग रात दिन निष्काम भाव से समाज के हित में समर्पित जीवन जी रहे हैं। हम इतना त्याग ना भी करें तो भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ करने की ईमानदार कोशिश करें। चाहे वह गंदगी हमारे दिमागों में हो, हमारे परिवेश में हो या हमारे समाज में हो। हम नहीं कोशिश करेंगे तो दूसरा कौन आकर हमारा देश सुधारेगा? इसलिए यह ज़िम्मेदारी अकेले केवल देश के नेतृत्व कर रहे नेताओं का नहीं है, इसके लिए अफ़सरशाही, मीडिया और जनता सभी का होना चाहिए।
 

Monday, January 27, 2025

जीना है तो पीने की आदत बदलें


शर्बत और लस्सी के देश भारत के अधिकांश लोग पश्चिमी बयार में बहकर खुद को ‘मॉडर्न’ साबित करने के लिए ‘दूषित’ शीतल पेयों का जमकर उपयोग कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन शीतल पेयों के जरिए हम ऐसे कीटनाशकों को निगल रहे हैं, जिनके लंबे समय तक सेवन करने से कैंसर, स्नायु और प्रजनन तंत्र को क्षति, जन्मजात शिशुओं में विकृति और इम्यून सिस्टम तक में खराबी आ सकती है। कुछ समय पहले हुए एक शोध से यह बात सामने आई कि आकर्षक विज्ञापनों के जरिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जिन शीतल पेयों को आम भारतीयों के गले के नीचे उतार रही हैं, वह सेहत के लिए बिल्कुल भी मुफीद नहीं हैं। परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस बात का खंडन करती रहती हैं। वास्तविकता क्या है, यह तो विस्तृत जांच पड़ताल के बाद ही पता चलेगा। गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर  साइंस एंड एन्वायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार यह विदेशी कंपनियां भारत के साथ भेदभाव बरत रही हैं। अमेरिका और अन्य दूसरों देशों में इनके उत्पादों की गुणवत्ता का बारीकी से ध्यान रखा जाता है, जबकि भारत में यह पैसे बचाने के लिए कीटनाशकों का घोल जनता को पिलाते हैं।



पर, पेय पदार्थों में अपशिष्ट पदार्थों की मिलावट सिर्फ विदेशी कंपनियों के इन शीतल पेयों तक ही सीमित नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व बोतल बंद मिनरल वाटर के दूषित होने को लेकर भी काफी बवाल मचा था। उस समय सीएसई ने देसी-विदेशी विख्यात कंपनियों के बोतल बंद पानी के दिल्ली में 17 और मुंबई में 13 उत्पादों की जांच कर उनमें लिन्डेन, डीडीटी, क्लोरोपाइरोफोस, मेलाथियाॅन जैसे कीटनाशक पाए जाने की पुष्टि की थी। इसके बाद सरकार को होश आया और उसने भारतीय मानक ब्यूरो की सिफारिश के आधार पर बोतल बंद पानी की शुद्धता बरकरार रखने के लिए खाद्य अपमिश्रण कानून में कुछ फेरबदल कर इन्हें लागू करवा दिया। हालांकि भारत के अधिकांश लोग नगर पालिका या नगर निगम द्वारा आपूर्ति किया जाने वाला जल अथवा नदियों के पानी को ही पीते हैं। नगर पालिकाएं या नगर निगम इस पानी को स्वच्छ करने के लिए क्या कदम उठाती है, यह किसी से छिपा नही है। बाहरी जल की तो छोड़िए, पृथ्वी पर बढ़ते प्रदूषण के कारण भूगर्भीय जल भी अब स्वच्छ नहीं रहा है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोगों से अनाज, सब्जी और फल तक दूषित हो गए हैं। यदि इनकी बिना सफाई किए हुए यूं ही खा लिया जाए, तो यह सेहत बनाने के बजाए उसका बेड़ागर्क कर देंगे। ज्यादा पैदावार के चक्कर में किसान रासायनिक खादों का बेतरतीबी से इस्तेमाल कर रहे है। इसके दुष्परिणाम भी उनके सामने आने लगे हैं। भूमि बंजर हो रही है। उपज की गुणवत्ता में कमी आई है। जमीन से उपयोगी तत्व नष्ट हो रहे हैं, आदि-आदि।



कभी जहां इस देश में दूध-दही की नदियां बहा करती थीं, अब वहां हर चीज में मिलावट का आलम है। यहां तक कि दूध भी इससे अछूता नहीं रह गया है। थोड़े से लाभ के लिए लोग सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह पदार्थों से नकली दूध तैयार कर लोगों को पिला रहे हैं। यूरिया, साबुन, और तेल जैसी खतरनाक चीजों को मिलाकर बनने वाले इस दूध में दूध नाम की कोई चीज ही नहीं होती। लोग अज्ञानतावश मानव सभ्यता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। इन्हें नहीं पता कि इस दूध को पीकर हमारे नौनिहाल, जो देश का भविष्य हैं, कितनी बीमारियों के चंगुल में फंस जाएंगे। डॉ वर्गीज कुरियन ने भी भारत में ‘ऑपरेशन फ्लड’ शुरू करते समय यह नहीं सोचा होगा कि आम लोगों को दूध मुहैया कराने के लिए वह जिन डेयरियों को खुलवाने की बात कह रहे हैं, उनमें बरती जाने वाली लापरवाही गाय और भैंसों के लिए तो जानलेवा साबित होंगी ही, साथ ही वहां से मिलने वाला दूध भी आम आदमी के लिए मुफीद नहीं रहेगा। भारत में डेयरियों की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। ज्यादा दूध लेने के चक्कर में गायों को हर साल गर्भवती करवा दिया जाता है, क्योंकि बच्चा होने के बाद दस माह तक वह ज्यादा दूध देती हैं। हर रोज उन्हें ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाए जाते हैं ताकि वे ज्यादा दूध दे सकें। परंतु यह इंजेक्शन उनके लिए कितने हानिकारक हैं, यह दूध दुहने वाले और डेयरी मालिक शायद नहीं जानते। अगर उन्हें पता है तो वह और भी गंभीर अपराध कर रहे हैं, क्योंकि जानबूझकर किसी को मौत के मुंह में धकेलना, भारतीय ही नहीं विदेशी कानून में भी अपराध की श्रेणी में आता है। यह सभी तरीके इन बेजुबान जानवरों के लिए तो खतरनाक है ही, साथ ही इनका दूध पीने वालों के लिए भी कम नुकसानदेह नहीं हैं।


इंडियन काउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा सात साल के शोध के बाद निकाले नतीजों में पाया कि जिस गाय के दूध को सदियों से हम पूर्ण आहार मानकर पीते चले आ रहे हैं, वह भी कीटनाशकों से भर गया है। उसमें भी डाईक्लोरो डाई फिनाइल ट्राइक्लोरोईथेन (डीडीटी), हैक्साक्लोरो साइक्लोहैक्सेन (एचसीएच), डेल्ड्रिन, एल्ड्रिन जैसे खतरनाक कीटनाशक भारी मात्रा में मौजूद हैं। रिपोर्ट कहती है कि यदि अल्सर से पीडि़त किसी व्यक्ति को डेयरी का दूध और उसके उत्पाद खाने-पीने को दिए जाएं तो उसे दिल का दौरा पड़ने की संभावना दो से छह गुना तक बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य अपमिश्रण कानून एक किलो में केवल 0.01 मिलीग्राम एचसीएच की अनुमति देता है, जबकि आईसीएमआर की रिपोर्ट में यह 5.7 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम निकला। इसके अलावा वैज्ञानिकों को दूध में आर्सेनिक, कैडमियम और सीसा जैसे खतरनाक अपशिष्ट भी मिले। यह इतने खतरनाक हैं कि इनसे किडनी, दिल और दिमाग तक क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।


बात सिर्फ गाय और भैंस के दूध तक ही सीमित नहीं है। खेती के दौरान भारी मात्रा में कीटनाशकों के प्रयोग से बच्चे के लिए अमृत कहा जाने वाला मां का दूध भी शुद्ध नहीं रह गया है। अमेरिका में हुए एक शोध में अमेरिकी औरत के दूध में कीटनाशकों के साथ-साथ सौ से भी ज्यादा औद्योगिक रसायन पाए गए। इस शोध में तो यहां तक कहा गया कि यदि इस दूध को बोतल में बंद करके बाजार में बेचने की कोशिश की जाए तो, अमेरिकी सरकार इसकी इजाजत नहीं देगी। पर, अनेक नुकसानदेह रसायनों के बावजूद मां का दूध बच्चे के पोषण के लिए बहुत जरूरी है। यह नवजात शिशु को अनेक बीमारियों से लड़ने की ताकत प्रदान करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि प्रतिवर्ष करीब दो लाख लोग कीटनाशकों को खाकर काल के गाल में समा जाते हैं। यह संख्या पिछले दस-12 सालों में लगभग सात गुनी हो गई है। संगठन की रिपोर्ट के अनुसार हर साल करीब 30 लाख लोग इन जहरों की चपेट में आते हैं और खास बात है कि इनमें से ज्यादातर बच्चे होते हैं।


कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई इन स्थितियों को देखते हुए अनेक देशों ने तो इनका प्रयोग लगभग बंद ही कर दिया है और वे प्राकृतिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करने लगे हैं। पर, भारत अभी पश्चिम की कदमताल कर रहा है। जिस तकनीक को वे उपयोग कर उसके बुरे प्रभावों को देखकर त्याग चुके हैं, भारतीय उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। वे हमारी पुरातन संस्कृति और सभ्यता के गुणों से परिचित होकर उनका अध्ययन कर गूढ़ रहस्य को समझकर अपने जीवन में उतारने की कोशिश में लगे हैं, वहीं भारतवासी अपनी समृद्ध संपदा को छोड़कर पश्चिमी चकाचैंध के पीछे दीवाने हुए जा रहे हैं। तकनीक को अपनाना, चाहे वह अपने देश की हो या विदेश की, गलत नहीं है, पर उसके अच्छे और बुरे प्रभावों को जाने बिना उसका अंधानुकरण करना सही नहीं कहा जा सकता। 

Monday, January 13, 2025

हॉलीवुड जलकर हो रहा है ख़ाक


आज से 50 साल पहले इस्कॉन के संस्थापक आचार्य स्वामी प्रभुपाद कार में कैलिफ़ोर्निया हाईवे पर जा रहे थे। खिड़की के बाहर दूर से बहुमंजलीय अट्टालिकाओं की क़तार दिखाई दे रही थी। श्रील प्रभुपाद के मुँह से अचानक निकला कि इन लोगों ने रावण की सोने की लंका बनाकर खड़ी कर दी है जो एक दिन ख़ाक हो जाएगी। जिस तेज़ी से लॉस एंजल्स का हॉलीवुड इलाक़ा भयावह आग की चपेट में हर क्षण ख़ाक हो रहा है, उससे 50 वर्ष पूर्व की गई एक सिद्ध संत की भविष्यवाणी सत्य हो रही है।
 



कैलिफ़ॉर्निया राज्य के शहर लॉस एंजेलिस के जंगलों में फैली आग भयावह रूप लेती जा रही है  I अब तक इस आग की चपेट में छह जंगल आ चुके हैं और इसका दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। आग की वजह से अब तक दस लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग दो लाख से अधिक लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है। तेज़ हवा राहत कार्यों में बाधक बन रही है। चार लाख से अधिक घरों की बिजली कटी हुई है। कैलिफ़ॉर्निया के इतिहास में इसे सबसे विनाशकारी हादसा बताया जा रहा है। शुरू में महज़ 10 एकड़ के इलाके में लगी ये आग कुछ ही दिनों me 17,200 एकड़ में फैल गई। पूरे शहर में धुएँ के बादल छाए हुए हैं। इस भयावह आग से अभी तक अनुमानित लगभग 135-150 अरब डॉलर (12 हज़ार अरब रुपयों) का नुक़सान हो चुका है। 



हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री पेरिस हिल्टन के मकान की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही हैं। मालिबू नगर में समुद्र के किनारे बने फ़िल्मी सितारों के खूबसूरत घर अब मलबे में तब्दील हो चुके हैं और इनके केवल जले हुए अवशेष ही बचे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का घर भी ख़तरे में है। इसके चलते उनके घर को भी ख़ाली कराया गया है। राजनीति, उद्योग और सिने जगत की कई जानी-मानी हस्तियों के आलीशान मकानों को भी ख़ाली करने के आदेश जारी हुए हैं। 



उल्लेखनीय है कि लॉस एंजेलिस अमेरिका की सबसे ज्यादा आबादी वाला काउंटी है। यहां 1 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। कैलिफोर्निया में कई सालों से सूखे के हालात हैं। इलाके में नमी की कमी है। इसके अलावा यह राज्य अमेरिका के दूसरे इलाकों की तुलना में काफी गर्म है। यही वजह है कि यहां पर गर्मी के मौसम में अक्सर जंगलों में आग लग जाती है। यह सिलसिला बारिश का मौसम आने तक जारी रहता है। बीते कुछ सालों से हर मौसम में आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। पिछले 50 सालों में कैलिफोर्निया के जंगलों में 78 से ज्यादा बार आग लग चुकी है। कैलिफोर्निया में जंगलों के पास रिहायशी इलाके बढ़े हैं। ऐसे में आग लगने पर नुकसान ज्यादा होता है। 1933 में लॉस एंजिलिस के ग्रिफिथ पार्क में लगी आग कैलिफोर्निया की सबसे बड़ी आग थी। इसने करीब 83 हजार एकड़ के इलाके को अपनी चपेट में ले लिया था। करीब 3 लाख लोगों को अपना घर छोड़कर दूसरे शहरों जाना पड़ा था।


मौसम के हालात और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की वजह से आने वाले दिनों में इस आग के और भड़कने की आशंका जताई जा रही है। अमेरिकी की बीमा कंपनियों को डर है कि यह अमेरिका के इतिहास में जंगलों में लगी सबसे महंगी आग साबित होगी, क्योंकि आग के दायरे में आने वाली संपत्तियों की कीमत बहुत ज़्यादा है। 


यदि आग के कारणों की बात करें तो अमेरिकी सरकार के रिसर्च में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि पश्चिमी अमेरिका में बड़े पैमाने पर जंगलों में लगी भीषण आग का संबंध जलवायु परिवर्तन से भी है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि बढ़ती गर्मी, लंबे समय तक सूखा और प्यासे वायुमंडल सहित जलवायु परिवर्तन पश्चिमी अमेरिका के जंगलों आग के ख़तरे और इसके फैलने की प्रमुख वजह रहे हैं। अमेरिका में दक्षिणी कैलिफोर्निया में आग लगने का मौसम आमतौर पर मई से अक्टूबर तक माना जाता है। परंतु राज्य के गवर्नर गैविन न्यूसम ने मीडिया को बताया कि आग लगना पूरे साल की एक समस्या बन गई है। इसके साथ ही इस आग को फैलाने का एक बड़ा कारण ‘सेंटा एना’ हवाएँ भी हैं, जो ज़मीन से समुद्र तट की ओर बहती हैं। माना जाता है कि क़रीब 100 किलोमीटर प्रति घंटे से ज़्यादा की गति से चलने वाली इन हवाओं ने आग को अधिक भड़काया। ये हवाएं साल में कई बार बहती हैं।


अमरीका हो, भारत हो या विश्व का कोई भी देश, चिंता की बात यह है कि यहाँ के नेता कभी पर्यावरणवादियों की सलाह को महत्व नहीं देती। पर्यावरण के नाम पर मंत्रालय, विभाग और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन सब काग़ज़ी ख़ानापूरी करने के लिए हैं। कॉर्पोरेट घरानों के प्रभाव में और उनकी हवस को पूरा करने के लिए सारे नियम और क़ानून ताक पर रख दिये जाते हैं। पहाड़ हों, जंगल हों, नदी हो या समुद्र का तटीय प्रदेश, हर ओर विनाश का ऐसा ही तांडव जारी है। विकास के नाम पर होने वाले विनाश यदि ऐसे ही चलते रहेंगे तो भविष्य में इससे भी भयंकर त्रासदी आएँगीं। 


अमरीका जैसे संपन्न और विकसित देश में जब ऐसे हादसे बार-बार होते हैं तो लगता है कि वहाँ भी जाने-माने पर्यावरणविदों, इंजीनियर और वैज्ञानिकों के अनुभवों और सलाहों को खास तवज्जो नहीं दी जाती। यदि इनकी सलाहों को गंभीरता से लिया जाए तो शायद आनेवाले समय में ऐसा न हो। एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन पर नज़र रखने वाले यूएन के वैज्ञानिकों ने अक्तूबर 2018 में चेतावनी दी थी कि अगर पर्यावरण को बचाने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए गए तो बढ़ते तापमान की वजह से 2040 तक भयंकर बाढ़, सूखा, अकाल और जंगल की आग का सामना करना पड़ सकता है। दुनिया का कोई भी देश हो क्या कोई इन वैज्ञानिक शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों की सलाह को कभी सुनेगा?