Monday, November 11, 2013

सीबीआई फिर विवादों में

सर्वोच्च न्यायालय ने गौहाटी उच्च न्यायालय के सीबीआई संबंधी फैसले पर रोक लगा कर केन्द्र सरकार को तात्कालिक राहत तो दे दी। पर सीबीआई के अस्तित्व व कार्यप्रणाली को लेकर जो सवाल लगातार उठते रहे हैं वे पहले की तरह ही अनुत्तरित रह गए। गौहाटी के फैसले के बाद टीवी चैनलों, अखबारों और सर्वोच्च न्यायालय में एक बार फिर ‘विनीत नारायण फैसले’ का सहारा लेकर सीबीआई की स्थिति को पुनस्र्थापित करने का प्रयास किया गया। जब-जब सीबीआई की वैधता, पारदर्शिता या कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठते हैं तब-तब यही फैसला बहस का विषय बन जाता है। पर समाधान फिर भी नहीं निकलता। कारण स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को मानना या न मानना संसद की इच्छा पर निर्भर है। लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। इसलिए ऐसे दर्जनों फैसले हैं जो सरकार के कानून मंत्रालय में धूल खाते हैं। जिन्हें लागू करने की या तो सरकार की ही मंशा नहीं होती या सरकार के संसदीय मंत्री जानते हैं कि उन्हें अन्य दलों से सहयोग नहीं मिलेगा।

फिर भी जब कभी अदालतें सीबीआई को लेकर कोई टिप्पणी करती हैं या आदेश देती हैं तो देश में उत्तेजना और उत्सुकता दोनो फैल जाती है। पर इस सबसे भी कोई स्थिति बदलती नहीं। इसलिए इस विषय पर गंभीर सोच की जरूरत है।
दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत सीबीआई का गठन भ्रष्टाचार के मामले जांचने के लिए किया गया था। तब से आज तक इसे पूर्ण संवैधानिक दर्जा नहीं मिला। क्यांेकि अनेक राज्य सीबीआई का दखल नहीं चाहते। उधर केन्द्र में सत्तारूढ होने वाली सरकारें भी सीबीआई के घोषित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कभी गंभीर नहीं रहीं। इसीलिए कभी इसे ‘भ्रष्टाचार का कब्रगाह‘ कभी ‘पिजरे में बंद तोता’ या कभी ‘बिना दांत का सरकारी श्वान’ बताकर सीबीआई का मखौल उड़ाया जाता है।
दूसरे छोर पर वे लोग हैं जो सीबीआई को पूरी स्वायतता देने और निरंकुश बनाने की वकालत करते हैं। उन्हें भ्रम है कि ऐसा करने पर सीबीआई भ्रष्टाचार का खात्मा कर देगी। यह बहुत बचकानी सोच है। पहली बात तो यह कि अगर सामाजिक और आर्थिक अपराध केवल कानूनों से रूक जाते तो देश में अपराध होते ही नहीं। क्योंकि आज देश में जितनी तरह के अपराध होते हैं उससे कहीं ज्यादा कानून उन्हें रोकने के लिए बने हुए हैं। निरंकुश बन कर सीबीआई भ्रष्टाचार भले ही दूर न कर पाए लेकिन स्वयं ब्लैकमेल करने और धमका कर पैसा ऐंठने की एक संस्था जरूर बन जाएगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं। इसलिए हमारे संविधान में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के पारस्परिक नियंत्रण रखने के प्रावधान किए गए हैं।
सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार की जड़ में जो सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक कारण हैं उन्हें जाने बिना भ्रष्टाचार को खत्म करने की हर मुहिम बेमानी है। इन कारणों की तरफ ना तो कानून के विशेषज्ञों का ध्यान है, न सरकार का, न संसद का और न ही मीडिया का। किसी भी बीमारी के कारणों को जाने बिना उसका इलाज कैसे किया जा सकता है ? पर भारत में आज यही हो रहा है। सीबीआई का नाम ही इतना आकर्षक हो चुका है कि उसकी चर्चा आते ही आत्मघोषित विशेषज्ञ लंबी-चैड़ी टिप्पणियां और सलाह देने लगते हैं। जबकि इनके विचारों का जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं होता।
अगर देश की चिंता करने वाले देश को वाकई भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना चाहते हैं तो उन्हें सारे भारत के लोगों की दृष्टि बदलने का काम करना होगा, जो कोई आसान काम नहीं। भ्रष्टाचार ही क्यों, हर समस्या को लेकर आज देशभर में शोर मचाने और बयानबाजी करने का जो फैशन बढ़ता जा रहा है उससे देश मंे हताशा फैल रही है। आम जनता, जो मामूली रोजगार और दो-जून की रोटी की फिराक में जुटी रहती है, ऐसी बातें सुनकर विचलित हो जाती है। अगर यह रवैया ऐसे ही चलता रहा तो हम देश में बहुत जल्दी अराजकता पैदा कर देंगे, जिसे संभालना फिर सरकार ही नहीं, खुद को आम जनता का नेता बताने वालों, को भी मुश्किल होगा।
आज जरूरत इस बात की है कि देश की प्रमुख दस-बारह समस्याओं की सूची बना कर उनके समाधान खोजने की राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाएं। अगर सार्थक समाधान मिलते हैं तो उन्हें बिना किसी राजनैतिक राग-द्वेश के, व्यापक जनहित में लागू करने की पहल हर राजनैतिक दल या सामाजिक समूह द्वारा की जाए। इससे जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा और चैराहों पर निरर्थक आलोचनाओं में लफ्फाजी करने वालों को कुछ ठोस करने का मौका मिलेगा। वो करने का जिससे समाज बदले और सुधरे।
सीबीआई को स्वायतता मिले या न मिले, उसकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो या न हो पर यह जरूर है कि अगर देश की संवैधानिक संस्थाओं को लेकर जनता का विश्वास इसी तरह लगातार कम होता गया तो सामान्य जनजीवन चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, पर दूबे बनकर लौटे।

Monday, October 28, 2013

दिशा से भटक गए केजरीवाल

जब दिल्ली प्रदेश भाजपा ने डा. हर्षवर्धन गुप्त को दिल्ली के विधानसभा चुनावों के लिए अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित त किया तो अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि डा.हर्षवर्धन एक भ्रष्ट नेता हैं, चूंकि उन्होंने कभी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज नहीं उठाई। केजरीवाल यह बयान न सिर्फ हास्यापद है, बल्कि आम आदमी पार्टी के मानसिक दिवालियापन का परिचायक भी। दिल्ली की राजनीति में थोड़ी भी रूचि रखने वाले पत्रकार और आम लोग यह जानते हैं कि डा.हर्षवर्धन की छवि एक भले इंसान की है। दरअसल उनकी जैसी छवि वाले राजनेताओं का भारत की राजनीति में काफी टोटा है। अगर केजरीवाल का यह तर्क मान लिया जाए तो आम आदमी पार्टी की बुनियाद ही अनैतिक आचरण वालों के हाथों से हुई है। यह बात केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि 20 वर्ष पहले 1993 में देश की पूरी राजनैतिक व्यवस्था के खिलाफ भ्रष्टाचार और आतंकवाद को लेकर हवाला कांड की जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें केजरीवाल के अहम सहयोगियों ने अनैतिक भूमिका निभाकर इस लड़ाई को विफल करने का घिनौना कार्य किया था। यह बात केजरीवाल के लोकपाल बिल के आंदोलन से पहले ही मैंने उन्हें एक निजी वार्ता में समझायी थी। पर वे अपने उन साथियों की रक्षा में इतने रक्षात्मक हो गए कि मेरे सप्रमाण तर्क भी उन्हें अपना निर्णय बदलने पर बाध्य नहीं कर पाए। इसलिए मुझे उनके आंदोलन को लेकर शुरू से ही शंका रही, जो बाद में सही साबित हुई।

    केजरीवाल दावा करते हैं कि उन्होंने 20 वर्ष से भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लड़ी है। लोकपाल बिल बनवाकर वे देश से भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते थ। पर उनका तरीका और मांगें इतनी अव्यवहारिक थीं कि उनके मकसद को लेकर शुरू से ही जनता के मन में शक पैदा हो गया था। जो बाद में सच साबित हुआ। लोकपाल बिल आज कहां अंधेरे में खो गया वह केजरीवाल को भी पता नहीं। अन्ना हजारे को मोहरा बनाकर धरने पर बैठाने वाले केजरीवाल का अब अन्ना से कोई नाता नहीं बचा। उनका यह दावा कि देश की आमजनता भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रान्ति करने को तैयार बैठी है, एक मजाक है। क्योंकि न तो देश से भ्रष्टाचार खत्म हुआ है और न ही अन्ना हजारे और केजरीवाल हिमालय की कंद्राओं में जाकर छिप गए हैं। अगर गायब हो गई है, तो वह भीड़, जो रामलीला मैदान में जुटी थी। साफ जाहिर है कि अगर वह आत्मप्रेरित भीड़ थी, तो आज इनके साथ क्यों नहीं है ? क्योंकि वह प्रायोजित भीड़ थी और जो लोग उसमें गंभीरता से जुड़े थे, उन्हें इण्डिया अगेनस्ट करप्शन के नेतृत्व के बचकानेपन और अति महत्वाकांक्षी स्वभाव को देखकर मोहभंग हो गया। इसीलिए वे आज केजरीवाल या अन्ना के साथ नहीं खड़े हैं।

    केजरीवाल की पार्टी 47 फीसदी वोट लाने का दावा कर रही है, पर जिस सर्वेक्षण को आधार पर बनाकर यह दावा किया जा रहा है, उसे करने वाले योगेन्द्र यादव खुद आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं। किसी भी सर्वेक्षण के बुनियादी सिद्धांतों के विरूद्ध है कि उसे करने वाले स्वयं लाभार्थी हों। निष्पक्ष सर्वेक्षण के लिए जो कोटा प्रणाली सैफोलाजी के लिए आवशयक होती है, उसका तो योगेन्द्र यादव ने कहीं प्रयोग ही नहीं किया। अपने ही दल का कार्यकर्ता सर्वेक्षण करे और भारी जीत का दावा करे, तो इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।

    दरअसल केजरीवाल ने आज तक जो कुछ किया है, उसमें मकसद की ईमानदारी, गंभीरता और परिपक्वता का नितांत अभाव रहा है। हड़बड़ी में जल्दी से जल्दी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करना उनके आचरण का दुखद पक्ष हैं। दिल्ली में जहां गुजरात की तरह लोगों को लगातार बिजली मिल रही हो, वहां मीटर जोड़ने का नाटक करके अरविन्द केजरीवाल ने क्या सिद्ध किया ? अगर उनकी बात में दम था तो दिल्ली के हजारों उपभोक्ताओं ने उनके आह्वान पर अपनी बिजली क्यों नहीं कट जाने दी ? क्योंकि दिल्ली के मतदाताओं को शीला दीक्षित सरकार से बिजली को लेकर कोई शिकायत नहीं है।

    कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आम आदमी पार्टी लोकपाल आंदोलन की तरह एक बुलबुला है, जिसका सही स्वरूप चुनावों के बाद सामने आ जाएगा। लोकतंत्र के लिए एक दुखद अनुभव होता है कि जब भी कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाकर आगे बढ़ता है, तो समाज को धोखा ही मिलता है। अगर केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में जुटे रहते और इस तरह की गैरजिम्मेदाराना बयानबाजियां करके मीडिया की सुर्खियों में रहने का लोभ संवहरण कर पाते, तो उनकी भूमिका ऐतिहासिक बन सकती थी। पर अब तो भगवान ही मालिक है, उनका और उनके दल का। चुनाव लड़ने में कोई बुराई नहीं, पर जैसे दूसरे राजनेता सपने दिखाते हैं, वैसे ही केजरीवाल हवाई सपने दिखा रहे हैं और सोच रहे हैं कि दिल्ली का मतदाता मूर्ख है जो उनकी बातों में आ जाएगा।

Monday, September 30, 2013

राहुल गांधी के बयान से उठे बुनियादी सवाल ?

 
अपराधी प्रवृति के लोगों को नेता बनने से रोकने के मामले में जोर पकड़ लिया है। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था और उसके बाद अध्यादेश और फिर उसके बाद राहुल गांधी ने जिस तरह से जनाकांक्षाओं के अनुकूल बयान दिया उससे पूरे देश में हलचल है। पिछले दो दिन से मीडिया तो इस बयान को लेकर इतना उत्साहित है कि उसने एक ही सवाल को बार-बार दोहराने की झड़ी लगा दी है। मीडिया और विपक्ष के नेताओं का एक ही यह सवाल है कि राहुल गांधी तीन दिन से कहां थे और इसी से जुड़ा यह सवाल भी है कि जब केबिनेट से इस अध्यादेश का मसौदा पास हो रहा था, तब क्या राहुल गांधी को खबर नहीं मिली ?
 
यानि राहुल गांधी पर आरोप है कि उन्होने 72 घंटे की देर क्यों लगाई ? फिलहाल हम राहुल गांधी को छोड़ कर पहले सुप्रीम कोर्ट बनाम अध्यादेश की बात करेंगे। क्योंकि इससे कई सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिलेगी। संक्षेप में कहे तो सुप्रीम कोर्ट ने दागी नेताओं और भविष्य में दागी लोगों के राजनीति में आने पर पाबंदी के लिए बहुत ज्यादा आगे बढ़कर व्यवस्था कर दी थी। जब यह फैसला सुनाया गया तो इस पर देशभर में सामाजिक स्तर पर गंभीर सोच विचार नहीं किया गया। फैसला तो दिखने में बहुत दमदार था पर इसके राजनैतिक दुरूपयोग की संभावनाओं को तलाशने और दूर करने का काम किया जाना चाहिए था। जो नहीं किया गया। दरअसल हमारे यहां सर्वोच्च अदालत का आज भी इतना सम्मान है कि जनता उसके फैसलों को श्रद्धाभाव से ही स्वीकार करती है। लेकिन यह एक ऐसा मामला था जिसका आगा-पीछा सोचने की बहुत ही ज्यादा जरुरत थी। लेकिन इधर साल भर से नेताओं या पूरी राजनैतिक प्रणाली के इस तरह से धुर्रे उड़ाये जा रहे है कि जनता का नजरिया भी वैसा बनता जा रहा है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को भी खूब वाह-वाही मिली। ऐसा लगा की अपराधियों को राजनीति में घुसने के सभी दरवाजे अब बंद हो जायेंगे। टीवी चैनलों पर विशेषज्ञों ने बढ़-चढ़कर  इस फैसले का स्वागत किया। पूरे देश में फैसले के पक्ष में माहौल बन गया।
 
इस माहौल में इस मुद्दे पर फिर संसद में चर्चा हुई। लेकिन लोकसभा मे जो चर्चा हुई वह इतनी जल्दबाजी में हो गई कि जनमत बनाने का काम ही नहीं हो पाया। जबकि अगर इस मुद्दे पर लंबी और खुली बहस होती और उसे दूरदर्शन पर देश देखता तो गंभीर राजनीतिज्ञों को अपने अंदेशे देशवासियों तक पहुंचाने में मदद मिलती। पर जल्दी में निपटी बहस से यह संदेश यह चला गया कि सारे नेता व प्रमुख विपक्षी दलों के नेता भी अपराधियों को राजनीति में आने से रोकना नहीं चाहते। उसके बाद तो ऐसा माहौल बन गया कि देश के बहुसंख्यक जनप्रतिनिधि सुप्रीम कोर्ट के आदेश या  व्यवस्था से सहमत नहीं हैं। इस तरह यह मामला केबिनेट से एक अध्यादेश के मसौदे के रुप में मंजूर होकर राष्ट्रपति के पास पहुंच गया। राष्ट्रपति भवन को यह अध्यादेश फौरन ही मंजूरी लायक नहीं लगा। तो उन्होंने प्रमुख दलों के नेताओं को बुलवाना शुरु कर दिया। यही से हलचल शुरु हो गई और इसी बीच राहुल गांधी का बयान आ गया।

अब हमारे सामने यह सवाल है कि इस मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों हो रही है ? यह अलग बात है कि राहुल गांधी पर यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने 72 घंटे की देर क्यों की ? दरअसल इतने गंभीर मामले पर जिसे इस देश की राजनीति का पुश्तैनी रोग कहा जा सकता है। अगर केवल एक कानून बना देने से राजनीति के अपराधीकरण का कोई समाधान निकलना होता तो कब का निकल जाता। अपराधियों से निपटने के लिए तो देश में आज भी तमाम कानून हैं, पर उनसे कोई हल नहीं निकल पाया। इस मामले की जटिलता और बारीकी पर अगर गौर किया जाए तो हमें यह याद करना होगा कि हमारी न्याय प्रणाली की एक प्रतिस्थापना है कि ‘चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा न हो‘। यह उदारवादी प्रतिस्थापना ही दागी नेताओं पर रोक लगाने के मामले को जटिल बनाती है। हालांकि इस मुद्दे पर अकादमिक चर्चा नहीं हुई है। इसीलिए जनता के दिमाग में यह मामला स्पष्ट नहीं हो पाया है। जब सब कुछ तथाकथित ‘जनाकांक्षाओं‘ पर चलकर ही किया जाना है, चाहे वे कितनी भी अव्यवाहरिक क्यों न हों तो फिर देश में विद्वानों और विशेषज्ञों की बात को सुनने को राजी ही कौन है ?
 
अब अगर इस नई व्यवस्था के भविष्य पर पूरी गंभीरता और अपने समाज की सच्चाई के आधार पर नजर डालें तो पूरा अंदेशा है कि भविष्य की राजनीति सिर्फ इस बात पर होगी कि अपने विरोधी दल के नेताओं पर आपराधिक मामले कैसे बनाए जाएं। हमारा अब तक का अनुभव बता रहा है कि आखिर में सत्य की जीत भले ही होती हो लेकिन सच को परेशान कर ड़ालने के सारे मौंके हमारी न्यायिक व्यवस्था में मौजूद हैं। जिनका साधन सम्पन्न लोग आसानी से दुरुपयोग कर सकते हैं। राजनैतिक अपराधियों से निपटना भी तो अपराध शास्त्र का ही विषय है। पर विडम्बना देखिए कि कानून बनाने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी लगभग शून्य है। जनप्रतिनिधिओं और वकीलों के जरिये न्याय का सारा काम निपटाने से जो उथल-पुथल हो सकती हैं, वह हमारे सामने है। यानि अभी भी हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि प्रजातंत्र में ‘कथित जनाकांक्षाओं‘ पर ही सब कुछ छोड दिया जाये या जन को निर्णय  लेने में सक्षम बनाने के लिए कुछ विशेषज्ञों की भी मदद ली जाए।

Monday, September 23, 2013

बाबा रामदेव का अपमान हर भारतीय का अपमान

लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर बाबा रामदेव का जो अपमान हुआ, वह हर भारतीय का अपमान है। चाहे कोई बाबा रामदेव से राजनैतिक या वैचारिक मतभेद क्यों न रखता हो फिर भी वह अपमान के इस तरीके को कभी सर्मथन नहीं देगा। बाबा रामदेव जब हीथ्रो हवाई अड्डे से आव्रजन की सभी औपचारिकताएं पूरी करके बाहर निकल आए, तब उन्हें दोबारा पूछताछ के लिए बुलाया गया और आठ घंटे तक बिठाकर रखा गया। अगले दिन फिर बुलाया और पूछताछ के बाद क्लीन चिट दे दी।
 
यहां कई प्रश्न उठते हैं। अगर उनके वीजा में कमी थी तो उन्हें पहले बाहर ही क्यों निकलने दिया ? वहीं अंदर हवाई अड्डे पर से वापिस भारत क्यों नहीं भेज दिया ? जो क्लीन चिट दूसरे दिन दी उसे पहले दिन देने में क्या दिक्कत थी ? बताया जाता है कि लंदन में किसी व्यक्ति को एक दिन में तीन घंटे से ज्यादा इस तरह पूछताछ के लिए रोकने की परंपरा नहीं है। फिर बाबा को यह मानसिक यातना क्यों दी गयी ? इससे उनके चाहने वालों को जो दिक्कत हुई सो अलग। उसके लिए तो वे अपनी सरकार से लड़ेंगे ही।
 
बाबा का कहना है अंग्रेज आव्रजन अधिकारी ने उन्हें बताया  कि बाबा के विरूद्ध रेड अर्लट जारी किया गया है। रेड अलर्ट किसी देश की सरकार द्वारा उन अपराधियों के खिलाफ जारी किया जाता है जो किसी देश में संगीन जुर्म करके फरार हो जाते हैं और दूसरे देशों की तरफ भाग जाते हैं। तो क्या बाबा के खिलाफ आर्थिक या किसी अन्य अपराध का ऐसा मामला सिद्ध हो चुका है, जिसमें भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती हो पर वो फरार हो गये हों। ऐसा अभी तक कोई मामला सामने नहीं आया है जिसमें बाबा रामदेव के अपराध सिद्ध हो गए हों? फरार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जब बाबा रात-दिन देश भर में घूम-घूम कर अपनी जनसभाएं और योग शिविर कर रहे हैं। भारत सरकार को अगर उनकी तलाश है तो उन्हें किसी भी क्षण भारत में कहीं से भी पकड़ा जा सकता है। फिर रेड अर्लट का सवाल कहां से आया ?
 
उधर बाबा रामदेव का आरोप है कि यह सब यू.पी.ए अध्यक्षा के इशारे पर हुआ। इसका कोई प्रमाण तो बाबा ने नहीं दिया है। पर उन्होंने दावा किया है कि उनके लोग इस बात के प्रमाण जुटाने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए प्रमाण के सामने आने का इतंजार करना होगा। वैसे आम तौर पर एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार से इस तरह की असंवैधानिक मांग नहीं करती है क्योंकि आतंरिक सुरक्षा उस देश का गोपनीय मामला होता है।
 
बात असल में यह है कि अंगे्रजों के दिमाग से अभी भी हुकुमत की बू नहीं गयी। उन्हें भारत छोडे़ 66 वर्ष हो गये मगर वे आज भी भारतीयों को अपनी प्रजा मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसा अनुभव हर उस भारतीय को होता है जो कभी विलायत गया हो। जबकि दूसरी ओर हमारे देश में गोरी चमड़ी को आज भी सिर पर बिठाकर रखा जाता है। चाहे वो व्यक्ति वहां कितनी भी छोटी सामाजिक हैसियत का क्यों न हो ? इतने मूर्ख तो अंग्रेज अधिकारी नहीं कि वह बाबा रामदेव की हैसियत और लोकप्रियता के बारे में कुछ न जानते हों। इसके बावजूद उनके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करना भारतीय समाज का अपमान ही माना जाना चाहिए और इसकी भत्र्सना की जानी चाहिए।
 
हमारी याद में पिछले 45 दशकों में ऐसा कोई हादसा ध्यान नहीं आता जब किसी देश के सम्मानित या लोकप्रिय नागरिक का भारतीय हवाई अड्डों पर ऐसा अपमान हुआ हो। जबकि भारत के विशिष्ट व्यक्तिओं का अमरीका और इंग्लैण्ड के हवाई अड्डों पर अक्सर अपमान होता रहता है। फिर वे चाहे  सत्तारूढ़ दल के नेता हो, विपक्ष के नेता हों या किसी अन्य क्षेत्र के मशहूर व्यक्ति। इसलिए जरूरी है कि हमारा विदेश मंत्रालय और हमारे दूतावास इन मामलों को गंभीरता से लें और सम्बन्धित सरकारों से उनका रवैया बदलने को कहें। आज संचार क्रान्ति के युग में सूचनाओं का आदान प्रदान इतनी तेजी से होता है कि किसी भी मशहूर व्यक्ति के बारे सारी सूचनाएं गूगल व अन्य माध्यमों से क्षण भर में हासिल की जा सकती है, फिर ये पुरातन पंथी रवैया क्यों ?
 
वैसे यह जिम्मेदारी उन देशों के भारत स्थित दूतावासों की भी है, जो भारत की हर गतिविधि पर बारीकी से नजर रखते हैं, फिर वे यह तो जानते ही हैं कि बाबा रामदेव हो या शाहरूख खान, राहुल गांधी हो या ए.पी.जे अब्दुल कलाम, ये ऐसी शख्सियतें नहीं है जिन्हें विदेशों के हवाई अड्डों पर अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए घंटो सफाई देनी पड़े। पर इनके साथ कभी न कभी ऐसे हादसे होते रहे हैं। इसलिए भारत सरकार को अपने राजनैतिक मतभेद पीछे रखकर देशवासियों के सम्मान के लिए इस अपमानजनक व्यवहार को रुकवाना चाहिए।

Monday, September 16, 2013

बलात्कारियों को फाँसी देने से क्या होगा ?


आखिर चारों को फाँसी की सजा हो गयी। इस वीभत्स और भयानक हत्याकांड में अदालत को फैसला करने में सिर्फ नौ महीने लगे। इस कांड पर समाज की प्रतिक्रिया अपूर्व थी। यही कारण रहा कि अदालत को तेजी से न्याय करना पड़ा। वैसे मीडिया की भी इसमें बड़ी भूमिका रही। अगर समाज और मीडिया के बीच जुगलबंदी को देखें तो कह सकते है कि इस सामाजिक प्रतिक्रिया के पीछे मीडिया की ही भूमिका हमें ज्यादा दिखती है। वरना ऐसे हत्याकांडों और इससे भी ज्यादा अमानवीय और भयानक घटनाओं पर मीडिया अकसर इतनी तत्परता नहीं दिखा पाता। मसलन धर्म, जाति और नस्लभेद में होने वाली घटनाओं की तीव्रता इस हत्याकांड से कहीं ज्यादा होती है। बस फर्क यह है कि वे घटनाएं बहुत सारे नकाब ओढ़े होती हैं। खैर अभी चर्चा चार लड़कांे को फाँसी की है।

इस रेप और हत्याकांड में मीडिया के कारण सजा को लेकर बड़ी उत्सुकता बनायी गयी। जरा बारीकी से देखें तो अदालत पर समाज के दबाव को कोई भी इनकार नहीं कर सकता। फाँसी की सजा के बाद अब समाज में, खास तौर पर प्रबुद्ध समाज में और प्रबुद्ध समाज के विशेषज्ञ वर्ग में चर्चा शुरू हो गयी है और हो भी क्यों न। क्योंकि किसी भी अपराध के लिए सजा की मात्रा या प्रकार बहुत सोच-समझकर तय की जाती हैं। उनके मुताबिक ऐसे मामले में अधितम सजा यही हो सकती थी और उसके हिसाब से समाज ने उसी का दबाव बनाया और अदालत ने तेजी से काम करके जल्दी न्याय कर दिया। इस फैसले के बाद अब विश्लेषण की जरूरत पड़ रही है। क्या समाज से हत्या और बलात्कार खत्म करने में इस सजा के बाद मदद मिलेगी ?

अपराध शास्त्री सुधीर जैन का कहना है कि अपराध शास्त्र की पढ़ाई में दण्ड के उद्देश्यों की कई व्यवस्थाएं हैं। पिछले 200 सालों में इसी पर विचार हुआ है और अलग-अलग राजनैतिक प्रणालियों में उनके मुताबिक दण्डशास्त्र विकसित हुआ है। हमारी प्रणाली लोकतंत्र है। साम्राज्यवादी व्यवस्था से मुक्त होकर हमारा लोकतंत्र बना है। अग्रेजों की दण्ड व्यवस्था के तीन उद्देश्य थे। प्रतिशोध, प्रतिरोध और प्रायश्चित। आजादी के बाद हमने इसमें दो उद्देश्य और जोडे़, सुधार और पुर्नवास। सुधार और पुर्नवास जैसे उददेश्यों पर भी समीक्षा होती रहती है। इसे लेकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ता काम भी करते रहते हैं और समाज में उनकी प्रशंसा भी होती रहती है। कहने की गर्ज यह है कि साम्राज्यवादियों की दण्ड व्यवस्था सिर्फ दण्डात्मक थी और हमारी व्यवस्था दण्ड और अपराधियों के उपाचार यानि दोंनों को मिलाकर दंडोपचारात्मक बनी है। ऐसे में अपराधियों को दण्ड दिया जाए या उनका सुधार किया जाए इसके बीच द्धन्द की स्थिति बनती है। कहीं ऐसा न हो जब यह वीभत्स और भयानक हत्याकांड समाज की स्मृति में धंुधला पड़ जाए, तब हम कुछ और बातें करने लग जाए। होने को तो यह भी हो सकता है कि हत्या और बलात्कार के लंबित पड़े दर्जनों  मामलों में हम फाँसी देने में ही हिचक जाएं। यह सोचकर कि लोकतंत्र में इतने सारे अपराधियों को फाँसी देने से भारत की दुनिया में क्या छवि बनेगी?

यानि फाँसी या उससे भी कड़ी किसी काल्पनिक सजा से भी हम समस्या के समाधान की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। अगर सोचते हैं तो यही सोच पाते हैं कि अपराधों पर नियंत्रण दण्ड से उतना नहीं हो सकता,जितनी उम्मीद हम अपराध निरोध की कोशिशों से करना चाहते हैं। मौजूदा मामले में भी यही लगता है कि हमने बलात्कारी से प्रतिशोध या बदला तो ले लिया। लेकिन इससे प्रतिरोध सुनिश्चित नहीं होता। प्रतिरोध भी दो प्रकार का होता है। विशिष्ट और सामान्य (सार्वभौमिक)। इसकी व्याख्या यह है कि हमने उस अपराधी को तो समाप्त कर दिया। यानि उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले अपराधों से हम मुक्त हो गए, यह विशिष्ट प्रतिरोध था। लेकिन उसे फाँसी पर चढ़ाकर दूसरे ऐसे और लोग ऐसा कांड करने से बचेंगे, यह सुनिश्चत नहीं होता। इसका इतिहास गवाह है कि जिन अपराधों में फाँसी दी गयी, वे अपराध रुके नहीं। आंकड़े तो यह भी बताते है कि तमाम कानूनों को लागू किए जाने के बावजूद समाज में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ ही रही है। यानि जरूरत ऐसे उपायों की है कि जहां ऐसी व्यवस्था हो जिससे हम अपराधिक प्रवृत्तियों को विकसित होने से रोक सकें। बस मुश्किल यही है कि इसके लिए काम कानूनी नहीं, सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है। जो जरा मेहनत का काम है। इसलिए शायद सामाजिक कार्यकर्ता भी कानून व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, पुलिस सुधार और कड़े कानूनों जैसी मांगों को उठाना अपने लिए ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हम अपराधों के त्वरित समाधान की बजाए अपराधों के कारणों पर विचार करना शुरू करें, फिर समाधान ढूँढें। तभी समाज में अमन कायम होगा। उस दृष्टि से इन चारों की फाँसी से भी बलात्कारों के रुकने की संभावना दिखाई नहीं देती।

Monday, September 9, 2013

धर्म का धंधा सबसे चंगा

आसाराम की गिरफ्तारी के बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रही हैं। पर इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही। धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।
 
संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।
 
आसाराम कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘ । 

Monday, September 2, 2013

आसाराम और उनका सच आमने सामने

आसाराम कांड ने एक से बड़े एक दिग्गजों को उनकी हैसियत बता दी है। यहाँ तक कि अपने चतुर सर्मथकों तक को बता दिया है कि उनकी क्या ताकत है। 10 दिन तक मीडिया भी गंभीरता के साथ आसाराम और उनके सच को उजागर करने में पूरी शिद्दत से लग रहा था। लेकिन कानून के हाथ आसाराम के पास तक नहीं पहुँच पाये। हाथ तो क्या कानून की परछाई तक आसाराम तक नही पहुँच पायी।
 
इस कांड का कोई ऐसा पारंम्परिक पक्ष नहीं है, जिस पर जोर-शोर से बहसें नहीं हुईं। लेकिन यह खुलकर समझाया नहीं जा सका कि आसाराम के पीछे ऐसी कौन सी ताकत है ? आसाराम के पास पैसे की ताकत, साम्प्रदायिक पक्ष की ताकत, राजनैतिक ताकत, अपने कर्मचारियों की फौज की ताकत या उनके पास जमा होने वाली भीड़ की ताकत, लगता है कि इन ताकतों की कोई काट पिछले 8-10 दिनों में ढूँढी नहीं जा सकी। इसलिए सवाल उठता है कि ऐसे झूठ के खिलाफ कौन सा तर्क या सच हो सकता है ? इसके शोध की जरुरत है।
 
यदि यही बात है कि आसाराम के आयोजनों में पहुँचने वाले भोले-भाले लोगों की संख्या ही उनकी ताकत है, तो हमें उनके श्रोताओं के अध्ययन की जरुरत पडे़गी जो सब कुछ देख कर भी जानना नहीं चाहते। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश में इस वक्त दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस कांड को लेकर फौरी तौर पर मुश्किल में नजर आ रहे हैं। भाजपा पर आसाराम को चतुराई के साथ बचाने के आरोप है और वारदात राजस्थान में होने के कारण वहाँ सत्तारुढ कांग्रेस पर आरोप है कि कुछ भी मुश्किलें रही हों राजस्थान पुलिस ने आसाराम को फौरन ही और सख्ती के साथ क्यों नहीं पकड़ा ? 10 दिनों मे इतनी बहसें हो जाने के बाद यह कोई भी समझ सकता है कि दोनों ही दलों के ऐसे रवैये का क्या कारण हो सकता है ?
 
सब जानते है कि कानूनी उपायों की क्या सीमाएं होती है ? हम सोचकर देखें कि अगर आसाराम को 10 दिन पहले सख्ती से पकड़ लिया जाता तो क्या होता ? हालांकि हमारे यहाँ इस तरह का सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं है। लेकिन जब ये सवाल उठ रहे हों कि राजस्थान पुलिस ने 10 दिन पहले ही आसाराम को क्यों नहीं पकड़ लिया, तो यह सवाल वाजिब है कि तब क्या होता ? इसका जवाब भी विद्धानों ने टीवी पर जारी बहसों में दिया है कि आसाराम ऐसी बुराई थे जो एक नकाब में थे और उसे बेनकाब करना जरूरी था। इन 10 दिनों में आसाराम खुलकर बेनकाब हो पाये। 10 दिन पहले उन्हें पकड़ा जाता तो उन्हें अपनी नकाबपोश छवि के कारण और उनके सर्मथकों के प्रोपेगंडा के कारण आसाराम को सहानभूति मिल जाने का भी एक बड़ा अंदेशा था। बात कुछ दार्शनिक किस्म की जरुर है लेकिन फौरी तौर पर महत्वपूर्ण इसलिए है कि आसाराम कोई एकल मुक्त बुराई नहीं लगते, बल्कि लगता है कि अभी कई आसारामों को जानने और समझने की जरुरत पड़ेगी और जब हम मुद्दे को सम्रग रुप में देखेंगे, तभी कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती है। वरना टुकड़ों-टुकड़ों में ऐसे कांड बगैर किसी निर्णायक उपायों के आते जाते रहेंगे।
 
सनसनीखेज आसाराम कांड की कुछ पाश्र्व कथाएं भी बनी है। राजनैतिक क्षेत्र में देखें तो उमा भारती से लेकर मध्य प्रदेश के नेता विजय वर्गीय तक कई नेताओं ने आसाराम को बेकसूर साबित करने में खूब जोर लगाया। हालांकि माहौल बिगड़ता देख भाजपा वरिष्ठ नेताओं और प्रवक्ताओं ने आखिर में हालात संभालने में पूरा जोर लगा दिया।
 
एक सबसे जटिल और बारीक कथा आसाराम को बीमार बताने की भी कोशिश हैं। आसाराम के पुत्र ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में बताया कि आसाराम को एक न्यूरोलोजिकल बीमारी न्यूरेल्जिय है। अब उनके डाक्टरों और कानूनी विशेषज्ञों ने एक ऐसी बीमारी का जिक्र कर दिया है जिसकी व्याख्या और निर्धारण करने में पुलिस और फौरेन्सिक मनोवैज्ञानिकों को हफ्तों क्या महीनों लग जायेंगे।
 
अपराध शास्त्र खास तौर पर अपराध मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ का कहना है कि यह एक ऐसा सामान्य रोग है जिसका न तो विश्वसनीयता के साथ यांत्रिक परीक्षण संभव है और न ही इसका कोई विश्वसनीय कारण ज्ञात हो पाया है। अनुमान के आधार पर माना जाता है कि तनाव या विशाक्ता या अदृश्य संक्रमण या किसी यांत्रिक चोट के कारण नाड़ियों में दर्द हो जाता है जिसका नाम न्यूरोलोजी के विशेषज्ञों के न्यूरेल्जिय रख लिया है। इस रोग में जब किस नाड़ी मे दर्द होता है तो उसके लक्षण थोड़ी देर के लिए चेहरे पर आ जाते हैं। अब आसाराम को ऐसी बीमारी का रोगी बताया जाना पुलिस को मुश्किल मे डालने के लिए है। इस बीमारी का न तो विश्वसनीमय परीक्षण है और न कोई आसानी से प्रमाणित कर सकता है कि रोगी को यह रोग नहीं है।
 
यानि ऊँचे स्तर के आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि मामलों को जटिल बनाने के लिए देश में इतने नुक्ते विद्धमान हैं कि कोई सिद्ध या असिद्ध कर पाये या न कर पाये लेकिन उसे उलझाकर लटका जरुर जा सकता है। इस भूल भूलैया में भटकाव के इन रास्तों को सीधा सरल बनाने का काम भी हमारे सामने है। लेकिन इसके लिए व्यवस्थित सोच, विचार, शोध और दार्शनिक विर्मशों की जरुरत पडे़गी, जिसके लिए शायद हमारे पास वक्त नहीं।