सर्वोच्च न्यायालय ने गौहाटी उच्च न्यायालय के सीबीआई संबंधी फैसले पर रोक लगा कर केन्द्र सरकार को तात्कालिक राहत तो दे दी। पर सीबीआई के अस्तित्व व कार्यप्रणाली को लेकर जो सवाल लगातार उठते रहे हैं वे पहले की तरह ही अनुत्तरित रह गए। गौहाटी के फैसले के बाद टीवी चैनलों, अखबारों और सर्वोच्च न्यायालय में एक बार फिर ‘विनीत नारायण फैसले’ का सहारा लेकर सीबीआई की स्थिति को पुनस्र्थापित करने का प्रयास किया गया। जब-जब सीबीआई की वैधता, पारदर्शिता या कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठते हैं तब-तब यही फैसला बहस का विषय बन जाता है। पर समाधान फिर भी नहीं निकलता। कारण स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को मानना या न मानना संसद की इच्छा पर निर्भर है। लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। इसलिए ऐसे दर्जनों फैसले हैं जो सरकार के कानून मंत्रालय में धूल खाते हैं। जिन्हें लागू करने की या तो सरकार की ही मंशा नहीं होती या सरकार के संसदीय मंत्री जानते हैं कि उन्हें अन्य दलों से सहयोग नहीं मिलेगा।
फिर भी जब कभी अदालतें सीबीआई को लेकर कोई टिप्पणी करती हैं या आदेश देती हैं तो देश में उत्तेजना और उत्सुकता दोनो फैल जाती है। पर इस सबसे भी कोई स्थिति बदलती नहीं। इसलिए इस विषय पर गंभीर सोच की जरूरत है।
दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत सीबीआई का गठन भ्रष्टाचार के मामले जांचने के लिए किया गया था। तब से आज तक इसे पूर्ण संवैधानिक दर्जा नहीं मिला। क्यांेकि अनेक राज्य सीबीआई का दखल नहीं चाहते। उधर केन्द्र में सत्तारूढ होने वाली सरकारें भी सीबीआई के घोषित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कभी गंभीर नहीं रहीं। इसीलिए कभी इसे ‘भ्रष्टाचार का कब्रगाह‘ कभी ‘पिजरे में बंद तोता’ या कभी ‘बिना दांत का सरकारी श्वान’ बताकर सीबीआई का मखौल उड़ाया जाता है।
दूसरे छोर पर वे लोग हैं जो सीबीआई को पूरी स्वायतता देने और निरंकुश बनाने की वकालत करते हैं। उन्हें भ्रम है कि ऐसा करने पर सीबीआई भ्रष्टाचार का खात्मा कर देगी। यह बहुत बचकानी सोच है। पहली बात तो यह कि अगर सामाजिक और आर्थिक अपराध केवल कानूनों से रूक जाते तो देश में अपराध होते ही नहीं। क्योंकि आज देश में जितनी तरह के अपराध होते हैं उससे कहीं ज्यादा कानून उन्हें रोकने के लिए बने हुए हैं। निरंकुश बन कर सीबीआई भ्रष्टाचार भले ही दूर न कर पाए लेकिन स्वयं ब्लैकमेल करने और धमका कर पैसा ऐंठने की एक संस्था जरूर बन जाएगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं। इसलिए हमारे संविधान में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के पारस्परिक नियंत्रण रखने के प्रावधान किए गए हैं।
सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार की जड़ में जो सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक कारण हैं उन्हें जाने बिना भ्रष्टाचार को खत्म करने की हर मुहिम बेमानी है। इन कारणों की तरफ ना तो कानून के विशेषज्ञों का ध्यान है, न सरकार का, न संसद का और न ही मीडिया का। किसी भी बीमारी के कारणों को जाने बिना उसका इलाज कैसे किया जा सकता है ? पर भारत में आज यही हो रहा है। सीबीआई का नाम ही इतना आकर्षक हो चुका है कि उसकी चर्चा आते ही आत्मघोषित विशेषज्ञ लंबी-चैड़ी टिप्पणियां और सलाह देने लगते हैं। जबकि इनके विचारों का जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं होता।
अगर देश की चिंता करने वाले देश को वाकई भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना चाहते हैं तो उन्हें सारे भारत के लोगों की दृष्टि बदलने का काम करना होगा, जो कोई आसान काम नहीं। भ्रष्टाचार ही क्यों, हर समस्या को लेकर आज देशभर में शोर मचाने और बयानबाजी करने का जो फैशन बढ़ता जा रहा है उससे देश मंे हताशा फैल रही है। आम जनता, जो मामूली रोजगार और दो-जून की रोटी की फिराक में जुटी रहती है, ऐसी बातें सुनकर विचलित हो जाती है। अगर यह रवैया ऐसे ही चलता रहा तो हम देश में बहुत जल्दी अराजकता पैदा कर देंगे, जिसे संभालना फिर सरकार ही नहीं, खुद को आम जनता का नेता बताने वालों, को भी मुश्किल होगा।
आज जरूरत इस बात की है कि देश की प्रमुख दस-बारह समस्याओं की सूची बना कर उनके समाधान खोजने की राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाएं। अगर सार्थक समाधान मिलते हैं तो उन्हें बिना किसी राजनैतिक राग-द्वेश के, व्यापक जनहित में लागू करने की पहल हर राजनैतिक दल या सामाजिक समूह द्वारा की जाए। इससे जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा और चैराहों पर निरर्थक आलोचनाओं में लफ्फाजी करने वालों को कुछ ठोस करने का मौका मिलेगा। वो करने का जिससे समाज बदले और सुधरे।
सीबीआई को स्वायतता मिले या न मिले, उसकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो या न हो पर यह जरूर है कि अगर देश की संवैधानिक संस्थाओं को लेकर जनता का विश्वास इसी तरह लगातार कम होता गया तो सामान्य जनजीवन चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, पर दूबे बनकर लौटे।
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