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Monday, September 9, 2013

धर्म का धंधा सबसे चंगा

आसाराम की गिरफ्तारी के बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रही हैं। पर इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही। धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।
 
संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।
 
आसाराम कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘ । 

Monday, September 2, 2013

आसाराम और उनका सच आमने सामने

आसाराम कांड ने एक से बड़े एक दिग्गजों को उनकी हैसियत बता दी है। यहाँ तक कि अपने चतुर सर्मथकों तक को बता दिया है कि उनकी क्या ताकत है। 10 दिन तक मीडिया भी गंभीरता के साथ आसाराम और उनके सच को उजागर करने में पूरी शिद्दत से लग रहा था। लेकिन कानून के हाथ आसाराम के पास तक नहीं पहुँच पाये। हाथ तो क्या कानून की परछाई तक आसाराम तक नही पहुँच पायी।
 
इस कांड का कोई ऐसा पारंम्परिक पक्ष नहीं है, जिस पर जोर-शोर से बहसें नहीं हुईं। लेकिन यह खुलकर समझाया नहीं जा सका कि आसाराम के पीछे ऐसी कौन सी ताकत है ? आसाराम के पास पैसे की ताकत, साम्प्रदायिक पक्ष की ताकत, राजनैतिक ताकत, अपने कर्मचारियों की फौज की ताकत या उनके पास जमा होने वाली भीड़ की ताकत, लगता है कि इन ताकतों की कोई काट पिछले 8-10 दिनों में ढूँढी नहीं जा सकी। इसलिए सवाल उठता है कि ऐसे झूठ के खिलाफ कौन सा तर्क या सच हो सकता है ? इसके शोध की जरुरत है।
 
यदि यही बात है कि आसाराम के आयोजनों में पहुँचने वाले भोले-भाले लोगों की संख्या ही उनकी ताकत है, तो हमें उनके श्रोताओं के अध्ययन की जरुरत पडे़गी जो सब कुछ देख कर भी जानना नहीं चाहते। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश में इस वक्त दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस कांड को लेकर फौरी तौर पर मुश्किल में नजर आ रहे हैं। भाजपा पर आसाराम को चतुराई के साथ बचाने के आरोप है और वारदात राजस्थान में होने के कारण वहाँ सत्तारुढ कांग्रेस पर आरोप है कि कुछ भी मुश्किलें रही हों राजस्थान पुलिस ने आसाराम को फौरन ही और सख्ती के साथ क्यों नहीं पकड़ा ? 10 दिनों मे इतनी बहसें हो जाने के बाद यह कोई भी समझ सकता है कि दोनों ही दलों के ऐसे रवैये का क्या कारण हो सकता है ?
 
सब जानते है कि कानूनी उपायों की क्या सीमाएं होती है ? हम सोचकर देखें कि अगर आसाराम को 10 दिन पहले सख्ती से पकड़ लिया जाता तो क्या होता ? हालांकि हमारे यहाँ इस तरह का सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं है। लेकिन जब ये सवाल उठ रहे हों कि राजस्थान पुलिस ने 10 दिन पहले ही आसाराम को क्यों नहीं पकड़ लिया, तो यह सवाल वाजिब है कि तब क्या होता ? इसका जवाब भी विद्धानों ने टीवी पर जारी बहसों में दिया है कि आसाराम ऐसी बुराई थे जो एक नकाब में थे और उसे बेनकाब करना जरूरी था। इन 10 दिनों में आसाराम खुलकर बेनकाब हो पाये। 10 दिन पहले उन्हें पकड़ा जाता तो उन्हें अपनी नकाबपोश छवि के कारण और उनके सर्मथकों के प्रोपेगंडा के कारण आसाराम को सहानभूति मिल जाने का भी एक बड़ा अंदेशा था। बात कुछ दार्शनिक किस्म की जरुर है लेकिन फौरी तौर पर महत्वपूर्ण इसलिए है कि आसाराम कोई एकल मुक्त बुराई नहीं लगते, बल्कि लगता है कि अभी कई आसारामों को जानने और समझने की जरुरत पड़ेगी और जब हम मुद्दे को सम्रग रुप में देखेंगे, तभी कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती है। वरना टुकड़ों-टुकड़ों में ऐसे कांड बगैर किसी निर्णायक उपायों के आते जाते रहेंगे।
 
सनसनीखेज आसाराम कांड की कुछ पाश्र्व कथाएं भी बनी है। राजनैतिक क्षेत्र में देखें तो उमा भारती से लेकर मध्य प्रदेश के नेता विजय वर्गीय तक कई नेताओं ने आसाराम को बेकसूर साबित करने में खूब जोर लगाया। हालांकि माहौल बिगड़ता देख भाजपा वरिष्ठ नेताओं और प्रवक्ताओं ने आखिर में हालात संभालने में पूरा जोर लगा दिया।
 
एक सबसे जटिल और बारीक कथा आसाराम को बीमार बताने की भी कोशिश हैं। आसाराम के पुत्र ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में बताया कि आसाराम को एक न्यूरोलोजिकल बीमारी न्यूरेल्जिय है। अब उनके डाक्टरों और कानूनी विशेषज्ञों ने एक ऐसी बीमारी का जिक्र कर दिया है जिसकी व्याख्या और निर्धारण करने में पुलिस और फौरेन्सिक मनोवैज्ञानिकों को हफ्तों क्या महीनों लग जायेंगे।
 
अपराध शास्त्र खास तौर पर अपराध मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ का कहना है कि यह एक ऐसा सामान्य रोग है जिसका न तो विश्वसनीयता के साथ यांत्रिक परीक्षण संभव है और न ही इसका कोई विश्वसनीय कारण ज्ञात हो पाया है। अनुमान के आधार पर माना जाता है कि तनाव या विशाक्ता या अदृश्य संक्रमण या किसी यांत्रिक चोट के कारण नाड़ियों में दर्द हो जाता है जिसका नाम न्यूरोलोजी के विशेषज्ञों के न्यूरेल्जिय रख लिया है। इस रोग में जब किस नाड़ी मे दर्द होता है तो उसके लक्षण थोड़ी देर के लिए चेहरे पर आ जाते हैं। अब आसाराम को ऐसी बीमारी का रोगी बताया जाना पुलिस को मुश्किल मे डालने के लिए है। इस बीमारी का न तो विश्वसनीमय परीक्षण है और न कोई आसानी से प्रमाणित कर सकता है कि रोगी को यह रोग नहीं है।
 
यानि ऊँचे स्तर के आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि मामलों को जटिल बनाने के लिए देश में इतने नुक्ते विद्धमान हैं कि कोई सिद्ध या असिद्ध कर पाये या न कर पाये लेकिन उसे उलझाकर लटका जरुर जा सकता है। इस भूल भूलैया में भटकाव के इन रास्तों को सीधा सरल बनाने का काम भी हमारे सामने है। लेकिन इसके लिए व्यवस्थित सोच, विचार, शोध और दार्शनिक विर्मशों की जरुरत पडे़गी, जिसके लिए शायद हमारे पास वक्त नहीं।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।