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Monday, September 23, 2013

बाबा रामदेव का अपमान हर भारतीय का अपमान

लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर बाबा रामदेव का जो अपमान हुआ, वह हर भारतीय का अपमान है। चाहे कोई बाबा रामदेव से राजनैतिक या वैचारिक मतभेद क्यों न रखता हो फिर भी वह अपमान के इस तरीके को कभी सर्मथन नहीं देगा। बाबा रामदेव जब हीथ्रो हवाई अड्डे से आव्रजन की सभी औपचारिकताएं पूरी करके बाहर निकल आए, तब उन्हें दोबारा पूछताछ के लिए बुलाया गया और आठ घंटे तक बिठाकर रखा गया। अगले दिन फिर बुलाया और पूछताछ के बाद क्लीन चिट दे दी।
 
यहां कई प्रश्न उठते हैं। अगर उनके वीजा में कमी थी तो उन्हें पहले बाहर ही क्यों निकलने दिया ? वहीं अंदर हवाई अड्डे पर से वापिस भारत क्यों नहीं भेज दिया ? जो क्लीन चिट दूसरे दिन दी उसे पहले दिन देने में क्या दिक्कत थी ? बताया जाता है कि लंदन में किसी व्यक्ति को एक दिन में तीन घंटे से ज्यादा इस तरह पूछताछ के लिए रोकने की परंपरा नहीं है। फिर बाबा को यह मानसिक यातना क्यों दी गयी ? इससे उनके चाहने वालों को जो दिक्कत हुई सो अलग। उसके लिए तो वे अपनी सरकार से लड़ेंगे ही।
 
बाबा का कहना है अंग्रेज आव्रजन अधिकारी ने उन्हें बताया  कि बाबा के विरूद्ध रेड अर्लट जारी किया गया है। रेड अलर्ट किसी देश की सरकार द्वारा उन अपराधियों के खिलाफ जारी किया जाता है जो किसी देश में संगीन जुर्म करके फरार हो जाते हैं और दूसरे देशों की तरफ भाग जाते हैं। तो क्या बाबा के खिलाफ आर्थिक या किसी अन्य अपराध का ऐसा मामला सिद्ध हो चुका है, जिसमें भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती हो पर वो फरार हो गये हों। ऐसा अभी तक कोई मामला सामने नहीं आया है जिसमें बाबा रामदेव के अपराध सिद्ध हो गए हों? फरार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जब बाबा रात-दिन देश भर में घूम-घूम कर अपनी जनसभाएं और योग शिविर कर रहे हैं। भारत सरकार को अगर उनकी तलाश है तो उन्हें किसी भी क्षण भारत में कहीं से भी पकड़ा जा सकता है। फिर रेड अर्लट का सवाल कहां से आया ?
 
उधर बाबा रामदेव का आरोप है कि यह सब यू.पी.ए अध्यक्षा के इशारे पर हुआ। इसका कोई प्रमाण तो बाबा ने नहीं दिया है। पर उन्होंने दावा किया है कि उनके लोग इस बात के प्रमाण जुटाने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए प्रमाण के सामने आने का इतंजार करना होगा। वैसे आम तौर पर एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार से इस तरह की असंवैधानिक मांग नहीं करती है क्योंकि आतंरिक सुरक्षा उस देश का गोपनीय मामला होता है।
 
बात असल में यह है कि अंगे्रजों के दिमाग से अभी भी हुकुमत की बू नहीं गयी। उन्हें भारत छोडे़ 66 वर्ष हो गये मगर वे आज भी भारतीयों को अपनी प्रजा मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसा अनुभव हर उस भारतीय को होता है जो कभी विलायत गया हो। जबकि दूसरी ओर हमारे देश में गोरी चमड़ी को आज भी सिर पर बिठाकर रखा जाता है। चाहे वो व्यक्ति वहां कितनी भी छोटी सामाजिक हैसियत का क्यों न हो ? इतने मूर्ख तो अंग्रेज अधिकारी नहीं कि वह बाबा रामदेव की हैसियत और लोकप्रियता के बारे में कुछ न जानते हों। इसके बावजूद उनके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करना भारतीय समाज का अपमान ही माना जाना चाहिए और इसकी भत्र्सना की जानी चाहिए।
 
हमारी याद में पिछले 45 दशकों में ऐसा कोई हादसा ध्यान नहीं आता जब किसी देश के सम्मानित या लोकप्रिय नागरिक का भारतीय हवाई अड्डों पर ऐसा अपमान हुआ हो। जबकि भारत के विशिष्ट व्यक्तिओं का अमरीका और इंग्लैण्ड के हवाई अड्डों पर अक्सर अपमान होता रहता है। फिर वे चाहे  सत्तारूढ़ दल के नेता हो, विपक्ष के नेता हों या किसी अन्य क्षेत्र के मशहूर व्यक्ति। इसलिए जरूरी है कि हमारा विदेश मंत्रालय और हमारे दूतावास इन मामलों को गंभीरता से लें और सम्बन्धित सरकारों से उनका रवैया बदलने को कहें। आज संचार क्रान्ति के युग में सूचनाओं का आदान प्रदान इतनी तेजी से होता है कि किसी भी मशहूर व्यक्ति के बारे सारी सूचनाएं गूगल व अन्य माध्यमों से क्षण भर में हासिल की जा सकती है, फिर ये पुरातन पंथी रवैया क्यों ?
 
वैसे यह जिम्मेदारी उन देशों के भारत स्थित दूतावासों की भी है, जो भारत की हर गतिविधि पर बारीकी से नजर रखते हैं, फिर वे यह तो जानते ही हैं कि बाबा रामदेव हो या शाहरूख खान, राहुल गांधी हो या ए.पी.जे अब्दुल कलाम, ये ऐसी शख्सियतें नहीं है जिन्हें विदेशों के हवाई अड्डों पर अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए घंटो सफाई देनी पड़े। पर इनके साथ कभी न कभी ऐसे हादसे होते रहे हैं। इसलिए भारत सरकार को अपने राजनैतिक मतभेद पीछे रखकर देशवासियों के सम्मान के लिए इस अपमानजनक व्यवहार को रुकवाना चाहिए।

Sunday, August 14, 2011

गोपनीयता के पक्ष में तर्क क्या सही है?

Rajasthan Patrika 14 Aug
श्रीमती सोनिया गाँधी की बीमारी को लेकर देशभर में उत्सुकता बनी हुई है। आधिकारिक सूचना न होने के कारण तमाम तरह की अटकलों का बाजार गर्म है। गम्भीर किस्म की असाध्य माने जानी वाली बीमारी तक का कयास लगाया जा रहा है। राष्ट्रीय नेताओं के जीवन के कुछ पक्षों की क्या इस तरह की गोपनीयता लोकतंत्र में सही ठहरायी जा सकती है? इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। गोपनीयता के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सुना वह सी.एन.एन. के उस अमरीकी संवाददाता का था, जो 9/11 के आतंकी हमले के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाईट हाउस को कवर कर रहा था। सी.एन.एन. के एंकर पर्सन ने उससे बार-बार पूछा कि व्हाईट हाउस में क्या हो रहा है? पर वह बताने से कतराता रहा। यह वो वक्त था जब वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें ध्वस्त हो चुकी थीं। पेंटागाॅन पर हमला हो चुका था। यात्रियों का एक हवाई जहाज आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था। पूरे अमरीका में अफरा-तफरी मची थी। इस आपातकालीन दौर में सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कहीं टी.वी. पर नजर नहीं आ रहे थे। टी.वी. चैनल अटकलें लगा रहे थे कि वे जान बचाने के लिए या तो बंकर में घुस गये हैं या अपने अत्यंत सुरक्षित विमान में अमरीका के आसमान में चक्कर लगा रहे हैं या हमले में मारे जा चुके हैं। ऐसी अनिश्चितता के समय में जाहिर है कि व्हाईट हाउस को देखने वाले संवाददाता से कुछ आधिकारिक और असली खबर की अपेक्षा होती। पर जब उससे एंकर पर्सन ने झुंझलाकर पूछा कि तुम गत् 18 वर्षों से व्हाईट हाउस के भीतर की खबरें देते रहे हो तो अब क्यों कुछ नहीं बताते? संवाददाता का उत्तर था कि, ‘‘क्योंकि मैं 18 वर्षों से व्हाईट हाउस कवर करता रहा हूँ, इसीलिए मैं वह सबकुछ लोगों को नहीं बता सकता, जो मैं जानता हूँ। यह देशहित में नहीं होगा।’’ इस घटना के बाद मैंने बहुत चिंतन किया। मेरी वृत्ति एक ऐसे बेखौफ खोजी पत्रकार की रही, जिसने तथ्य हाथ में आने के बाद बड़े से बड़े ताकतवर लोगों को बेनकाब करने में एक मिनट की देरी नहीं की। मुझे लगा कि सब जानने का मतलब, सब बताना नहीं है। कई बार राष्ट्रहित में चुप भी रह जाना होता है।

आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।

इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।

हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है।  जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।

क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।