हैदराबाद के लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम की क्षमता 50,000 है और नरेन्द्र मोदी की आगामी जनसभा के लिए इतने ही युवाओं ने उनका संभाषण सुनने के लिए 5 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से टिकट खरीद लिये हैं। अब इस पर कांग्रेस प्रवक्ता टिप्पणी कर रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की कीमत बॉलीवुड सिनेमा की टिकटों के मुकाबले कुछ भी नहीं है। जबकि ये टिकटें 300 रूपये से ज्यादा की बिकती हैं। कितनी हास्यादपद बात है। कद्दू का मुकाबला सेब से किया जा रहा है। उस दौर में जब हर राजनैतिक दल को भीड़ जुटाने के लिए लोगों को 300 रूपये रोज, आने -जाने का किराया, बढ़िया भोजन और शराब भी देनी पड़ती हो, अगर हैदराबाद का पढ़ा- लिखा नौजवान नरेन्द्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 5 रूपये भी देने को तैयार हैं, तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए, कि नरेन्द्र मोदी राजनीति की संस्कृति बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
ऐसा ही नरेन्द्र मोदी के हर बयान पर हो रहा है। फिर वो चाहे कार के नीचे पिल्ले वाला बयान हो या धर्मनिरपेक्षता के बुर्के वाला। ऐसा लगता है कि कांग्रेंस नरेन्द्र मोदी के जाल में उलझती जा रही है। ऐजेन्डा मोदी तय कर रहे हैं, कांग्रेस लकीर पीट रही है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं कि जो मन में आये अनर्गल प्रलाप करें। वे हर शब्द चुनकर तय करते हैं और एक तीर से कई निशाने साधते हैं। इन बयानों से जहां उन्होंने अपने समर्पित वोट बैंक को अपनी आगामी रणनीति का संकेत दिया है, वहीं विरोधियों को भी कूटनीतिक भाषा में चेतावनी दे डाली। बस कांग्रेस उलझ गई और लगी मोदी पर ताबडतोड़ हमला करने। राजनीति का एक सामान्य सिद्धान्त है कि आप जितना विवादों में रहेंगे, उतनी आपकी चर्चा होगी और आपका जनाधार बढ़ेगा। गुजरात के पिछले हर चुनाव में कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी पर हर तरह का हमला करके देख लिया। पर विजय हर बार मोदी के हाथ लगी। इसलिए आज तक तो मोदी अपनी इस रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं।
कांग्रेस को चाहिए कि वह मोदी के बयानों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अपनी उपलब्धियों का प्रचार करे। अगर उसकी उपलब्धियां ठोस हैं और जमीनी हकीकत बदलने में कामयाब रही है तो कोई बयानबाजी उसका जनाधार डिगा नहीं पायेंगी। किन्तु अगर नरेगा से लेकर खा़द्य सुरक्षा बिल तक हर योजना कागजों तक सीमित है तो दावे और विज्ञापन जनमानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे। यह सही है कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष हमेशा फायदे में रहता है क्योंकि सरकार की कमियों पर हमला करना आसान होता है। सरकार जो कुछ भी करे वह जनआकांक्षाओं पर कभी पूरा नहीं उतरता। पर इसके अपवाद वह राज्य सरकारें हैं जो लगातार चुनाव जीतकर सत्ता में आतीं हैं। इसलिए केन्द्रीय सत्ता में शामिल दलों को अपनी दामन में झाँककर देखना चाहिए।
कांग्रेस की एक और दिक्कत है। उसमें कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं की पूछ नहीं होती। ये लोग दशकों तक मेहनत करें पर कभी भी आलाकमान की निगाहों में नहीं चढ़ पाते। बड़े नेताओं के बेटे-बेटी, भाई-भतीजे और बहू-दामाद ही चुनावों में टिकट झपट लेते हैं। ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय है और नाराज है। जिसका आक्रोश चुनावों में फूटता है। जो स्थानीय स्तर पर दूसरे दलों के उम्मीदवारों से समझौते कर अपने दल के उम्मीदवारों को हरवा देता है। जबकि दूसरी तरफ पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के चुनावी कमान संभालते ही जो भाजपा में माहौल बना उससे लगा कि बारात सजने से पहले ही बिखर जायेगी। पर जिस कुशलता से नरेन्द्र मोदी ने 65 नेताओं की टीम को एकजुट कर अपनी सेना तैयार की है उससे तो लगता है कि यह चुनौती भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी।
नरेन्द्र मोदी के बयानों पर भड़कने का कांग्रेस का एक और भी स्वभाविक कारण है। कांग्रेस के पास नरेन्द्र मोदी की कद काठी और तेवर का कोई नेता नहीं है या उसे उभरने नहीं दिया गया। मजबूरन कांग्रेस के युवा नेताओं को नरेन्द्र मोदी के हर बयान का जवाब बढ़ चढ़कर देना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि उनकी शब्दावली में कहीं ये ‘‘फेंकू‘‘ नेता अपने बयानों से बाजी न मार ले जाए। इसलिए वे हाथों-हाथ जवाब देते हैं। पर इससे संदेश यही जा रहा है कि कांग्रेस मोदी के लगातार हो रहे हमलों से हड़बड़ाई हुई है। उसे डर है कि कहीं मोदी की रणनीति गुजरात की तरह देश में भी काम न कर जाये।
चुनाव जब भी हो और परिणाम जो भी हो आज दिन तो ऐसा लगता है कि मोदी ने चुनाव का ऐजेन्डा सेट करने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। पर यह तेवर, नए-नए मुद्दे और आक्रामक शैली क्या मोदी चुनावों तक अपना पायेंगे ? अगर नहीं, तो परिणाम इण्डिया शाइनिंग की तरह हो सकते हैं। अगर अपना ले गए तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह इतिहास रच जायेंगे। क्योंकि तब मतदाता दलों और उनके नेताओं के इतिहास को भूलकर देश में एक सशक्त नेतृत्व की आकांक्षा से वोट करेगा। क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।
ऐसा ही नरेन्द्र मोदी के हर बयान पर हो रहा है। फिर वो चाहे कार के नीचे पिल्ले वाला बयान हो या धर्मनिरपेक्षता के बुर्के वाला। ऐसा लगता है कि कांग्रेंस नरेन्द्र मोदी के जाल में उलझती जा रही है। ऐजेन्डा मोदी तय कर रहे हैं, कांग्रेस लकीर पीट रही है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं कि जो मन में आये अनर्गल प्रलाप करें। वे हर शब्द चुनकर तय करते हैं और एक तीर से कई निशाने साधते हैं। इन बयानों से जहां उन्होंने अपने समर्पित वोट बैंक को अपनी आगामी रणनीति का संकेत दिया है, वहीं विरोधियों को भी कूटनीतिक भाषा में चेतावनी दे डाली। बस कांग्रेस उलझ गई और लगी मोदी पर ताबडतोड़ हमला करने। राजनीति का एक सामान्य सिद्धान्त है कि आप जितना विवादों में रहेंगे, उतनी आपकी चर्चा होगी और आपका जनाधार बढ़ेगा। गुजरात के पिछले हर चुनाव में कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी पर हर तरह का हमला करके देख लिया। पर विजय हर बार मोदी के हाथ लगी। इसलिए आज तक तो मोदी अपनी इस रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं।
कांग्रेस को चाहिए कि वह मोदी के बयानों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अपनी उपलब्धियों का प्रचार करे। अगर उसकी उपलब्धियां ठोस हैं और जमीनी हकीकत बदलने में कामयाब रही है तो कोई बयानबाजी उसका जनाधार डिगा नहीं पायेंगी। किन्तु अगर नरेगा से लेकर खा़द्य सुरक्षा बिल तक हर योजना कागजों तक सीमित है तो दावे और विज्ञापन जनमानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे। यह सही है कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष हमेशा फायदे में रहता है क्योंकि सरकार की कमियों पर हमला करना आसान होता है। सरकार जो कुछ भी करे वह जनआकांक्षाओं पर कभी पूरा नहीं उतरता। पर इसके अपवाद वह राज्य सरकारें हैं जो लगातार चुनाव जीतकर सत्ता में आतीं हैं। इसलिए केन्द्रीय सत्ता में शामिल दलों को अपनी दामन में झाँककर देखना चाहिए।
कांग्रेस की एक और दिक्कत है। उसमें कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं की पूछ नहीं होती। ये लोग दशकों तक मेहनत करें पर कभी भी आलाकमान की निगाहों में नहीं चढ़ पाते। बड़े नेताओं के बेटे-बेटी, भाई-भतीजे और बहू-दामाद ही चुनावों में टिकट झपट लेते हैं। ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय है और नाराज है। जिसका आक्रोश चुनावों में फूटता है। जो स्थानीय स्तर पर दूसरे दलों के उम्मीदवारों से समझौते कर अपने दल के उम्मीदवारों को हरवा देता है। जबकि दूसरी तरफ पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के चुनावी कमान संभालते ही जो भाजपा में माहौल बना उससे लगा कि बारात सजने से पहले ही बिखर जायेगी। पर जिस कुशलता से नरेन्द्र मोदी ने 65 नेताओं की टीम को एकजुट कर अपनी सेना तैयार की है उससे तो लगता है कि यह चुनौती भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी।
नरेन्द्र मोदी के बयानों पर भड़कने का कांग्रेस का एक और भी स्वभाविक कारण है। कांग्रेस के पास नरेन्द्र मोदी की कद काठी और तेवर का कोई नेता नहीं है या उसे उभरने नहीं दिया गया। मजबूरन कांग्रेस के युवा नेताओं को नरेन्द्र मोदी के हर बयान का जवाब बढ़ चढ़कर देना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि उनकी शब्दावली में कहीं ये ‘‘फेंकू‘‘ नेता अपने बयानों से बाजी न मार ले जाए। इसलिए वे हाथों-हाथ जवाब देते हैं। पर इससे संदेश यही जा रहा है कि कांग्रेस मोदी के लगातार हो रहे हमलों से हड़बड़ाई हुई है। उसे डर है कि कहीं मोदी की रणनीति गुजरात की तरह देश में भी काम न कर जाये।
चुनाव जब भी हो और परिणाम जो भी हो आज दिन तो ऐसा लगता है कि मोदी ने चुनाव का ऐजेन्डा सेट करने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। पर यह तेवर, नए-नए मुद्दे और आक्रामक शैली क्या मोदी चुनावों तक अपना पायेंगे ? अगर नहीं, तो परिणाम इण्डिया शाइनिंग की तरह हो सकते हैं। अगर अपना ले गए तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह इतिहास रच जायेंगे। क्योंकि तब मतदाता दलों और उनके नेताओं के इतिहास को भूलकर देश में एक सशक्त नेतृत्व की आकांक्षा से वोट करेगा। क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।