छत्तीसगढ में हुए नक्सली हमले से कांग्रेस पार्टी ही नहीं पूरी राजनैतिक जमात हिली हुई है। नक्सलियों ने आज एक दल के नेतृत्व का सफाया किया है। कल किसी दूसरे दल का भी कर सकते हैं । टी वी चैनलों व अखबारों में इस मुद्दे पर खूब बहस चल रही है। जो जल्दी ही ठण्डी पड जायेगी जब तक कोई दूसरा हादसा न हो। समस्या सुलझने के आसार दिखाई नहीं देते। राज्य या केन्द्र की सरकारों की नीति स्पष्ट नहीं है। अगर वे इसे एक युद्ध के रूप मे देखती है तो यह सही नहीं। क्योंकि अपने ही लोगो के खिलाफ कोई सरकार युद्ध कैसे लड़ सकती है ?
जहाँ तक नक्सलवाद से जुडे ज्यादातर नौजवानों के समर्पण, त्याग, निष्ठा और शहादत की भावना का सवाल है, उस पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। जो सवाल इन्होंने उठाये हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल ये नौजवान उन्हीं सवालों को उठा रहे हैं, जिन्हें हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों ने इस लोकतंत्र का लक्ष्य माना है। यह विडम्बना है कि आज आजादी के 62 वर्ष बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। देश के करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए सरकारें दर्जनों महत्वाकांक्षी योजनाऐं बनाती आयी है। इन पर अरबों रूपये के आवण्टन किये गये हैं। पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। कार्यपालिका के अलावा भी लोकतंत्र के बाकी तीन खम्बे अपनी अहमियत और स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस देश के करोड़ों बदहाल लोगों को न तो न्याय दिला पाये हैं और न ही उनका हक। इसलिए नक्सलवाद जन्म लेता है। पर जिस तरह की वीभत्स हिंसा छत्तीसगढ मे हाल मे देखने को मिली वह कोई सामाजिक परिवर्तन की लडाई का नमूना नहीं बल्कि विकृत मानसिकता का परिचायक है। भोले भाले आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर जो माओवादी गुमराह कर रहे है उनके पास इतनी भारी आर्थिक मदद और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हथियार कहाँ से आ रहे हैं ?
इसलिए सरकारों का सोचना भी पूरी तरह गलत नहीं हैं। अगर कुछ लोग कानून और व्यवस्था को गिरवी बना दें तो उनके साथ कड़े से कड़ा कदम उठाना ही पडता है। माओवादी हिंसा जिस तेजी से देश में फैल रही है, वह स्वाभाविक रूप से सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए। पर यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है, क्या माओवाद का यह विस्तार आत्मस्फूर्त है या इसे चीन के शासनतंत्र की परोक्ष मदद मिल रही है ? खुफिया एजेंसियों का दावा है कि भारत में बढ़ता माओवाद चीन की विस्तावादी रणनीति का हिस्सा है। जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन गया है। ऐसे में इन युवाओं को यह सोचना चाहिए कि वे किसके हाथों में खेल रहे हैं। अगर दावा यह किया जाये कि चीन सही मामलों में घोर साम्यवादी देश है तो यह ठीक नहीं होगा। जबसे चीन ने आर्थिक आदान-प्रदान के लिए अपने द्वार खोले हैं तबसे भारत से अनेक बड़े व्यापारी और उद्योग जगत के बड़े अफसर नियमित रूप से चीन जाने लगे हैं। बाहर की चमक-दमक को छोड़कर जब वे चीन के औद्योगिक नगरों में पहुँचते हैं तो वहाँ चीन के निवासियों की आर्थिक दुर्दशा देखकर दंग रह जाते हैं। बेचारों से बन्धुआ मजदूर की तरह रात-दिन कार्य कराया जाता है। लंच टाइम में उनके चावल का कटोरा और पानी सी दाल देखकर हलक सूख जाता है। ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।’ रूस की क्रांति के बाद भी क्या रूस में सच्चा साम्यवाद आ सका ? मैं अभी-अभी रूस का दौरा करके लौटा हूँ। मास्को मे आज दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं। साम्यवादी शासन ने रूस में नौकरशाही और पोलितब्यूरो के नेताओं को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट दी। वही लोग आज रूस मे सबसे ज्यादा धनी हैं। नेपाल में माओवादी क्रान्ति के बाद जो बदहाली फैली है वह किसी से छिपी नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि साम्यवादी लक्ष्यों जैसा आदर्श समाज हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक आदर्श स्थिति है। धरातल की सच्चाई नहीं।
एक खतरनाक बात यह भी है कि इन हिंसक माओवादी गुटों को परोक्ष रूप से देश के कुछ मशहुर नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। यह कहना है झारखण्ड मे नक्सलवाद के खिलाफ सफल अभियान चला चुके पूर्व पुलिस महानिदेशक शिवाजी महान कैरे का। सेवा निवृत्त होते ही उन्हें ‘स्टील किंग‘ लक्ष्मी मित्तल ने झारखण्ड मे नक्सलियों के खतरे के बीच अपनी लोहे की खानों से सुरक्षित खनन करवाने की ऐवज मे मुंहमांगे वेतन पर नौकरी का प्रस्ताव किया तो आध्यात्मिक रूचि वाले श्री कैरे ने यह कहकर ठुकरा दिया कि जो पैसे आप मुझे देंगे वे आप झारखण्ड और बिहार के ‘इन‘ राजनेताओं को दे दें तो आपकी समस्या का हल निकल जायेगा। उनका अनुभव और विश्वास है कि अगर सरकारें इन नक्सलवादी समूहों के नेताओं से बातचीत के रास्ते इनका दिमाग पलटने का प्रयास करें। इन्हें जो भी आश्वासन दिया जाये वह समय से पूरा किया जाये। व्यवस्था को लेकर इनकी शिकायतों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाये ताकि इनके आक्रोश का ज्वालामुखी फटने न पाये। दूसरी तरफ हिंसा पर उतारू माओवादियों से पूरी सख्ती से निपटा जाये तो समस्या का हल निकल सकता है। पर एक समस्या यह भी है कि आतंकवाद की ही तरह नक्सलवाद को पनपाये रखने में भी कुछ निहित स्वार्थो की भूमिका रहती है। जिनका खुलासा करना देश की खुफिया ऐजेन्सिओं की जिम्मेदारी है।
दूसरी तरफ अगर हमारे देश के कर्णधार ईमानदारी से गरीब के मुद्दों पर ठोस कदम उठाना शुरू कर दें तो नक्सलवाद खुद ही निरर्थक बन जायेगा। पर फिलहाल तो यह बड़ी चुनौती है। जिससे जल्दी निपटना होगा वरना हालात बेकाबू होते जायेंगे। भारत आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन से तो सीमाओं पर उलझा ही रहता है। ऐसे में अगर घरेलू स्थिति को माओवादी अशांत कर देंगे तो केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों के लिए भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी।