Rajasthan Patrika 13-Dec-2009 |
इसके बाद 13 साल बीत गए। पर तेलंगाना का विकास नहीं हुआ। तब जनता का आक्रोश बढ़ने लगा। वैसे भी पं. नेहरू की तीनों पंचवर्षीय योजनाएं आम आदमी का सपना पूरा नहीं कर पाईं थीं। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं को रोक दिया गया और एक-एक वर्ष की 3 योजनाएं 1966 से 1969 के बीच चलीं। देश के हालात काफी बदल चुके थे। पाकिस्तान से युद्ध, अमरीका पर खाद्यान्न की निर्भरता, बड़ी योजनाओं में भारी विदेशी कर्ज कुछ ऐसे संकट थे जिन से देश में हताशा फैली थी। तेलंगाना वासी और ज्यादा बेचैन हो गए और 1969 में ‘जय तेलंगाना आन्दोलन’ शुरू हुआ। जिसकी शुरूआत भी उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ही की थी। इस आन्दोलन में सैकड़ों लोग मारे गये। पर तेलंगाना राज्य फिर भी नहीं बना। सत्तारूढ़ कांगेस ने राजनैतिक दावपेंच खेलकर इन अलगावादी नेताओं को खरीद लिया या कांग्रेस में ले लिया। आन्दोलन विफल हो गया।
तब से आज तक हालात काफी बदल चुके हैं। आज तेलंगाना क्षेत्र में भारत का पांचवा सबसे बड़ा शहर हैदराबाद है।जो तेजी से फैलता जा रहा है और जिसने दुनिया में अपने झंडे गाढ़े हैं। विकास का फल भी कुछ सीमित मात्रा में इस इलाके में पहुंचा है। अलग राज्य बनकर ऐसा होने कुछ नहीं जा रहा जिससे आम आदमी की हालत सुधर सकेगी। अलबत्ता तेलंगाना के राजनेताओं की तकदीर जरूर चमक जायेगी। जो आज तक सत्ता का सुख भोगने का सपना देखते आए हैं। उल्लेखनीय है कि 1990 और 2004 में भाजपा और कांग्रेस ने पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाकर चुनाव लड़ा था। पर साझी केंद्रीय सरकार के सहयोगी दल तेलगूदेशम पार्टी के विरोध के कारण तब यह राज्य नहीं बनाया गया। इसी तरह 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस ने टीआरएस के साथ चुनाव लड़ा पर बाद में वायदे से मुंह मोड़ लिया। अब चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि सोनिया गांधी को उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। कांग्रेस जानती है कि इस वक्त अगर तेलंगाना राज्य का गठन होता है तो राजनैतिक लाभ भी टीआरएस को ही मिलेगा। पर अगर मांग न मानती तो हालात बेकाबू हो जाते। पर इस सारे आन्दोलन के पीछे क्षेत्र के विकास की चिंता कम और अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। क्या वजह है कि एनटीआर के जमाने में यह आन्दोलन ठंडा पड़ा रहा?
दरअसल जब किसी नेता या दल को अपनी पहचान बनानी होती है या राजनैतिक फसल काटनी होती है तो उसे ऐसा कुछ जरूर करना होता है जिससे उथल-पुथल मचे और दुनिया का ध्यान उस पर या उसके नए दल की ओर आकर्षित हो। गोरखालैंड के लिए मांग करने वाले सुभाष घीसिंग या राज ठकरे, अर्जन मुंडा हों या छत्तीस गढ़ के नेता, सब अपनी पहचान के लिए अपने राज्य की मांग करते हैं या सत्ता es अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते है। राज्य के गठन के बाद नया सचिवालय, नई विधान सभा, नई राजधानी, नई सरकारी इमारतें आदि इतना कुछ बनता है कि नए राज्य के नेताओं की मोटी कमाई होती है। फिर मंत्री पदों की बंदरबांट होती है। जनता के पैसे पर शाही ठाट-बाट जुटाये जाते हैं। अंत में जनता वहीं की वहीं रह जाती है। लुटी-पिटी और बदहाल।
तेलंगाना की आमदनी का जरिया शराब की बिक्री से प्राप्त आबकारी कर है। अलग राज्य होकर ये अपने विकास के लिए साधन कहां से लायेगा? क्या नया राज्य ज्यादा शराब बेचेगा? फिर तो जनता और लुटेगी। राज्य का विनाश होगा या विकास होगा? ऐसे सवालों की
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पृथक राज्य की मांग करने वालों को नहीं है। इसलिए वे आज जीत का जश्न मना रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे अयोध्या में कार सेवकों पर हुए पुलिसिया खूनी हमले के बाद भाजपा नेताओं ने जश्न मनाया था कि अब हमारी गद्दी पक्की। गद्दी तो उन्हें मिली पर मंदिर आज तक नहीं बना। मंदिर बनना तो दूर अयोध्या शहर की भी गति नहीं सुधरी। खैर यह तो वक्त ही बतायेगा कि केंद्र सरकार किस सीमा तक तेलंगाना राज्य को स्वतंत्रता देगी। पर फिलहाल इतना तय है कि तेलंगाना के नेताओं ने अपने ताजा संघर्ष से वह सब हासिल कर लिया जो वे 40 वषों में नहीं कर पाये थे। अब देखना यह है कि वे तेलंगाना की जनता के लिए क्या क्रांतिकारी कार्य करते हैं।