Friday, July 7, 2000

जेठमलानी जी की दरियादिली

केन्द्रीय कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी का बयान आया है कि क्रिकेट मैंच फिक्सिंग में आरोपित क्रिकेट खिलाडि़यों को देश माफ कर दे। जाहिर है कि उनकी इस दरियादिली के लिए क्रिकेट मैंच फिक्सिंग में आरोपित रहे सभी खिलाडि़यों ने बेहद राहत महसूस की होगी। यह इत्तेफाक ही है कि ऐसे कुछ खिलाडि़यों ने कानून मंत्री के सुपुत्र श्री महेश जेठमलानी को अपना वकील बनाया था। सही भी है कि इतने बड़े कांड में फंसने के बाद बहुत बड़े वकीलों की ही जरूरत होती है। अगर बड़े वकील न मिलें तो उनके सुपुत्रों से ही काम चलाया जाता है ताकि बड़े वकील की कृपा मिल सके। ऐसे वकील लेने पर फीस भी तगड़ी ही देनी होती है। इतनी कि आम आदमी अंदाजा भी नहीं लगा सकता। कानून मंत्री तो वकालत करते नहीं। इसलिए श्री राम जेठमलानी का उनके बेटे के मुवक्किल से कोई ताल्लुक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रिकेट खिलाडि़यों को माफी दिए जाने की बात तो उन्होंने अपने हृदय में उपजी करूणा के कारण कही है। पर उनके इस अप्रत्याशित वक्तव्य से देश की जनता जरूर हतप्रभ है। उसके मन में कई सवाल उठ रहे हैं।

जांच पूरी होने से पहले ही माफी की बात करना कहां तक उचित है। अगर यही बात है तो फिर देश की जेलों में लाखों लोग वर्षों से क्यों सड़ रहे हैं ? इनमें ऐसे नौजवान और युवतियां भी हैं जिन्हें छोटे-छोटे अपराधों के लिए वर्षों से गिरफ्तार करके रखा गया है। इन सब छोटे अपराधियों को भी ‘राम-राज्य’ स्थापित करने वाली भाजपा सरकार के चर्चित कानून मंत्री के दरबार में याचिका देनी चाहिए कि उन सबको भी आम माफी दे दी जाए। इससे कई फायदे होंगे। एक तो देश की अदालतों में वर्षों से लटके हुए करोड़ों मुकदमें एक झटके में समाप्त हो जाएंगे। दूसरा, इन मुकदमों में उलझे करोड़ गरीब किसान मजदूरों का मेहनत का पैसा वकीलों और कचहरियों में बर्बाद होने से बचेगा। तीसरा, भाजपा सरकार के वोट बैंक में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी क्योंकि इस तरह रिहा हुए सभी लोग और उनके परिवारजन भाजपा सरकार की दरियादिली के मुरीद बन जाएंगे। खुद तो वे भाजपा को वोट देंगे ही अपनी ‘विशेष योग्यताओं’ के कारण लाठी-गोली के जोर पर दूसरों से भी वोट डलवा देंगे। इससे देश को लंबे समय तक एक ही सरकार के बने रहने का फायदा मिलेगा।

जब जेठमलानी जी इतनी दरियादिली पर उतर ही आए हैं तो उन्हें एक काम और करना चाहिए। 1986 से वे लगातार बोफोर्स कांड के पीछे पड़े हैं। अपनी काफी ऊर्जा और देश के काफी पैसा इस कांड की जांच के नाम पर देश और विदेशों में खर्च करवा चुके हैं। इस कांड की नौका पर बैठकर वो और उनके साथी राजनेता कई चुनावों की वैतरणी पार कर चुके हैं। फिर भी इस कांड में आज तक एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। क्यों न जेठमलानी जी बोफोर्स कांड के आरोपियों की भी आम माफी की घोषणा कर देते हैं। क्वात्रोची जैसे तमाम लोगों को नाहक अपना प्रिय देश भारत छोड़कर विदेशों में रहना पड़ रहा है। अगर उन पर भी जेठमलानी जी की निगाहेकरम हो जाए तो उनकी आने वाली सात पीढि़यां जेठमलानी जी को इस दरियादिली के लिए दिल से दुआ देंगी। इतनी ही नहीं उनकी इस दरियादिली से इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी खासतौर पर बड़ी राहत महसूस करेंगी। बेचारी को नाहक हर चुनाव के पहले ‘बोफोर्स-बोफोर्स’ की नाम-धुन सुननी पड़ती है। मन में तो वे जानती हैं कि यह सब चुनावी हथकंडा है जिसे वीपी सिंह से लेकर वाजपेयी जी तक प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। पर फिर भी अगर हर चुनाव के पहले इंकाईयों को ‘बोफोर्स-बोफोर्स’ सुनना पड़े तो उनके मन में चोट तो पहुंचती ही है। बोफोर्स मामले में अभयदान देकर जेठमलानी जी रातो-रात इंकाईयों के भी हृदय सम्राट बन जाएंगे। अबसे पहले चार बार भिन्न-भिन्न दलों के कंधे पर पैर रख कर राज्यसभा की सदस्यता का जुगाड़ करने वाले श्री जेठमलानी को अगली बार इंका ही राज्यसभा में भेज देगी।

वैसे देश के कानून की रक्षा के लिए जिम्मेदार बनाए गए केन्द्रीय कानून मंत्री जेठमलानी जी के लिए ऐसी दरियादिली दिखाना कोई नई बात नहीं है। आजकल उनकी दरियादिली अपने मंत्रालय की सीमाओं के बाहर जा पहुंची है। जिन मंत्रालयों में महत्वपूर्ण मामलों में फैसले लिए जा चुके हैं और उनमें बड़े-बड़े लोग फंसे हैं उनकी भी फाइलें जेठमलानी जी कानून मंत्रालय में मंगवा रहे हैं। उन पर नई ‘कानूनी’ राय दर्ज करवा कर उन फैसलों को बदलवा रहे हैं। दरअसल जेठमलानी जी का तो इतिहास ही ऐसी दरियादिली का रहा है। वे किसी भी बड़े घोटाले पर पहले खूब शोर मचाते हैं। जब उनके शोर से उनका लक्षित व्यक्ति पूरी तरह जख्मी हो जाता है और वह उनके चरणों में गिर कर ‘त्राहि माम्-त्राहि माम्‘ कहता है, फिर पता नहीं दोनो के बीच क्या होता है कि अचानक श्री राम जेठमलानी जी के हृदय में शरणागत के प्रति करूणा उपज जाती है। ऐसी अनेक घटनाए देशवासियों को याद है।

हर्षद मेहता कांड में क्या हुआ था ? श्री राम जैठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंह राव पर आरोप लगाया कि उन्होंने हर्षद मेहता से नोटो का भरा एक सूटकेस रिश्वत में लिया। जेठमलानी जी ने खूब बवाल मचाया। मीडिया में छाए रहे। सरकार का काम-काज ढीला पड़ गया। पर फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उनके मन में नरसिंह राव जी के करूणा उपजी और उनके मुवक्किल ने अपना बयान बदल दिया। उसे यही याद नहीं रहा कि वह प्रधानमंत्री निवास जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर सूटकेस लेकर कितने बजे गया। 8 बजे या 11 बजे ? जब समय ही याद नहीं रहा तो बाकी आरोपों का भी क्या भरोसा किया जाता ? मामला अपने आप ठंडा पड़ गया।

1996 में भाजपा की अल्पमत की 13 दिन चली सरकार में बनाए गए कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी ने अपना नया पदभार ग्रहण करते ही अपनी दरियादिली का नमूना पेश किया। उन्होंने घोषणा की कि हवाला कांड में आरोपित भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी निर्दोष हैं। यह भी कि कानून मंत्री की हैसियत से श्री जेठमलानी इस आशय का शपथ पत्र दाखिल करेंगे। जब कानून मंत्री न्यायालय में चल रहे मुकदमें के बारे में ऐसी घोषणा करेंगे तो जांच एजेंसियों को क्या संकेत जाएगा, जांच बंद कर दो और आरोपियों के रिहा होने का रास्ता साफ कर दो ? ये जेठमलानी जी की दरियादिली ही तो है कि वे कानून मंत्री होकर भी गैर-कानूनी घोषणा करने से भी नहीं हिचकते।

2 सितंबर 1993 को तत्कालीन सांसद श्री राम जेठमलानी ने हवाला कांड उजागर करने वाली कालचक्र वीडियों कैसेट के प्रैस-प्रिव्यू के दौरान हवाला आरोपियों के खिलाफ खूब जहर उगला। उन्हें सख्त सजा दिलवाने की घोषणा की। इसके बाद उन्होंने हवाला कांड की ईमानदार जांच की मांग करने वाली जनहित याचिका तैयार करवाने में पूरी मदद की। पर फिर अचानक उनके मन में करूणा उपजी और उन्होंने कश्मीर के आतंकवादियों से जुड़े हवाला कांड के आरोपियों को बचाने का काम शुरू कर दिया। उनकी परोपकारिता इस हद तक बढ़ गई कि उन्होंने अपने मुवक्किल के विरोधी पक्ष की अदालत में रक्षा करने में भी कोई संकोच नहीं किया। इस बात की भी परवाह नहीं की कि उनका यह कदम वकालत के पेशे की सभी नैतिक सीमाओं को पार करने वाला था और इस जुर्म में वकालत करने का उनका अधिकार तक छिन जाने का खतरा था। दरअसल जेठमलानी जी का मानना है कि जब दरियादिली ही दिखानी हो तो कंजूसी क्यों की जाए ? चाहे अपना मान चला जाए या प्रैक्टिस करने का लाइसेंस ही क्यों न छिन जाए।

ये दूसरी बात है कि जेठमलानी जी प्रायः ऐसी दरियादिली बडे़ अपराधियों, ताकतवर, धनी और मशहूर लोगों के लिए ही दिखाते हैं। गरीब मुवक्किल तो उन जैसे महंगे वकील के दरवाजे पर दस्तक देने का भी हिम्मत नहीे कर सकता। पर कानून मंत्री बन कर तो उन्हें अब वकालत में अपना वक्त भी खराब नहीं करना है। बस कानून मंत्रालय के अधिकारियों से एक ऐसा विधेयक तैयार करवाना है जिसमें देश के हर अपराधी को अभयदान की घोषणा की जाए। आखिर को तो हमारा देश दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। फिर इसमें कानून की निगाह में सब बराबर क्यों न हों? जब सैकड़ों करोड रुपए के घोटाले करके, देशवासियों से झूठ बोल कर तमाम लोग बड़े-बड़े पदों पर बैठे रहते हैं और उनका कानून कुछ नहीं बिगाड़ता तो फिर देश के करोड़ों मदतादाओं के मन में कानून का डर क्यों रहे ? उन्हें भी आजाद भारत में उसी आजादी से अपराध करने की छूट होनी चाहिए जिस आजादी से यह छूट देश के हुक्मरानों और कुलीन वर्ग को मिली हुई है। आम माफी का ऐसा विधेयक लाकर जेठमलानी जी अपने दायित्व का निर्वाह ही करेंगे। क्योंकि संविधान के अनुसार हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त है और कानून मंत्री के नाते उनका फर्ज है कि वे आम जनता के हक की रक्षा करें। वैसे भी पुलिस आम अपराधियों को सजा दिलवाना नहीं चाहती। उन्हें सजा का डर दिखा कर उनसे रकम ऐंठना चाहती है। जैसा आजकल मैंच फिक्सिंग के मामले में हो रहा है। एक तरफ तो कानून मंत्री मैंच फिक्सिंग के प्रमुख आरोपियों को माफ करने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ देश के लगभग दो सौ व्यापारियों को मैंच फिक्सिंग में गिरफ्तार किए जाने का डर दिखा कर उनसे पैसा वसूला जा रहा है।

वैसे भी अगर यही रवैया चलता रहा कि देश के ताकतवर अपराधी छूटते रहे और मध्यम वर्गीय पेशेवर लोग, व्यापारी व गरीब-किसान-मजदूर सरकारी जांच एजेंसियों की धौस, धमकियों और लूट का शिकार होते रहे तो हालात काबू के बाहर हो जाएंगे। फिर देश के हर राज्य में जनता का आतंकवाद पैदा होगा। अगर देश के सभी छोटे अपराधी संगठित हो जाएं और ‘अखिल भारतीय छोटे अपराधी महासंघ’ बना कर ये मांग करें कि या तो बड़े घोटालों में लिप्त हुक्मरानों के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर सजा दी जाए या फिर छोटे अपराधियों के विरूद्ध दर्ज सभी आपराधिक मामलों को बिना शर्त समाप्त कर दिया जाए, तो सरकार और उसके कानून मंत्री किस मुंह से मना करेंगे?

Friday, June 23, 2000

इस्का¡न के ‘धर्म गुरूओं’ पर 1600 करोड़ रुपए के हर्जाने का दावा क्यों ?


पिछले हफ्ते दुनिया भर के अखबारों में खबर छपी कि 44 किशोरों ने अमरीका के शहर डल्ला¡स में इस्का¡न (अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ) के गुरूओं के विरूद्ध 1600 करोड़ रुपए (400 मिलियन डा¡लर) के हर्जाने का दावा दायर किया है। दावा दायर करने वाले किशोर इस्का¡न द्वारा चलाए जा रहे गुरूकुलों में पढ़ कर बड़े हुए हैं। इन बच्चों ने शपथ पत्र दाखिल करके आरोप लगाए हैं कि जब वे इस्का¡न के मायापुर (पश्चिमी बंगाल), वृंदावन (उत्तर प्रदेश) व टैक्सास (अमरीका) आदि स्थानों पर स्थित गुरूकुलों में पढ़ते थे तो उनके शिक्षकों और इस्काॅन के गुरूओं ने उनका यौन शोषण किया, उन्हें प्रताडि़त किया, उन्हें अमानवीय अवस्थाओं में रहने पर मजबूर किया व आतंकित करके रखा। इस्का¡न गुरूकुल के इन पूर्व विद्यार्थियों का यह भी आरोप है कि इस्का¡न की सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई जीबीसी (गवर्निंग बा¡डी कमीशन) के सदस्यों ने उन वर्षों में इन छात्रों व उनके अभिभावकों की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इतना ही नहीं छात्रों को प्रताडि़त करने वाले और उनका यौन शोषण करने वाले गुरूओं को संरक्षण दिया। इस्का¡न के धर्म गुरूओं के ऐसे गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक आचरण से दुखी होकर मजबूरी में इन बच्चों को यह कानूनी कदम उठाना पड़ा। जबसे इस मुकदमे की खबर पूरी दुनिया के अखबारों में छपी है तब से इस्का¡न से जुड़े लाखों कृष्ण भक्त परिवारों के मन खिन्न हैं। जिनमें एक तरफ तो बंगाल और उड़ीसा के निर्धन कृषक परिवारों से इस्का¡न में आने वाले हजारों युवा भक्त हैं तो दूसरी तरफ डाक्टरी, इंजीनियरी, चार्टड एकाउंटेंसी जैसी डिग्रियां प्राप्त हजारों मेधावी लोग भी हैं। भारत और विदेशों में रहने वाले लाखों साधारण परिवार हैं तो भारत के सबसे धनी परिवारों में से एक के मुखिया श्रीचंद्र हिन्दूजा व अमरीका की फोर्ड कार कंपनी के निर्माता के पौत्र एलफ्रैड फोर्ड तक इस्का¡न के सदस्यों में शामिल हैं। क्योंकि अन्य भक्तों की तरह ही श्रीचंद्र हिन्दूजा दुनियां के जिस शहर में भी हों रोजाना सुबह इस्का¡न के मंदिर में श्रृंगार आरती में बड़ी श्रद्धा से हिस्सा लेते हैं। एलफ्रैड फोर्ड ने तो दो दशक पहले ही इस्का¡न के संस्थापक आचार्य स्वामी प्रभुपाद की शरण ले ली थी। उनका दीक्षा नाम अम्बरीश दास है व उन्होंने एक भारतीय मूल की कृष्ण भक्तिन से विवाह किया है। यह फोर्ड परिवार इस्का¡न की पूजा पद्धति व नियमों का कड़ाई से पालन करता है। अमरीका के सबसे धनी परिवारों में से एक परिवार के प्रमुख सदस्य का दो दशकों तक निष्ठा से कृष्ण भक्त बने रहना असाधारण बात नहीं है। इसी तरह भारत के ही नहीं पूरी दुनिया के लाखों परिवार इस्का¡न से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। इन भक्तों ने प्रभुपाद की शिक्षाआs को समझने के बाद ही इस्का¡न को अपनाया है।
दरअसल इस्का¡न के मंदिरों की भव्यता, वहां स्थापित श्री श्री राधाकृष्ण भगवान के अत्यंत आकर्षक विग्रहों का नित्य होने वाला भव्य श्रृंगार इन मंदिरों में निरंतर होने वाला हरिनाम संकीर्तन व श्रीमद् भागवत् प्रवचन, सुस्वादु प्रसादम्, मन मोहक पुस्तकें, आडियो कैसेट व कृष्ण भक्ति रस में डूब कर अनके भारतीय उत्सवों का मनाया जाना, हर आगंतुक का मन मोह लेता है। जैसी सफाई और व्यवस्था  इस्का¡न के विश्व भर में फैले लगभग 500 मंदिरों और केंद्रों में रोज देखनेे को मिलती है वैसी व्यवस्था आमतौर पर हिंदू मंदिरों में दिखाई नहीं देती। इस सबसे भी ज्यादा आकर्षण इस बात का है कि  इस्का¡न के संस्थापक आचार्य स्वामी प्रभुपाद ने भगवत् गीता, श्रीमद् भागवतम् व श्री चैतन्य चरितामृत सहित अनेक अन्य वैदिक ग्रंथों का जो अनुवाद व जैसी टीकाएं की हS, वे आध्यात्मिक ज्ञान के पिपासुओं और भक्त-हृदयों को तृप्त कर देती है। यही कारण है कि प्रभुपाद जी न सिर्फ यूरोप और अमरीका के ईसाईयों को बल्कि साम्यवादी देशों के लोगों को, कुछ मुसलमानों को और यहां तक कि रागरंग में डूबने वाले अफ्रीका के लोगों तक को भी कृष्ण भक्त बनाने में सफल हो सके। इसलिए जब  इस्का¡न के विरूद्ध कोई समाचार छपता है तो यह स्वभाविक ही है कि  इस्का¡न से जुड़े देश-विदेश में रहने वाले भारतीय व विदेशी, सभी भक्तों को बहुत पीड़ा होती है। एक तो वैसे ही भौतिक संसार दुख और व्याधियों का घर है। जिसमें हर कदम पर संकट मार्ग रोके खड़े रहते हैं। ऐसे में अगर किसी भाग्यशाली जीव को आध्यात्मिक मार्ग मिल जाए तो  उसके आनंद का ठिकाना नहीं रहता। ये एक ऐसी अनुभूति है जिसे केवल अनुभव से ही जाना जा सकता है। निरीश्वरवादियों को यह कोरी बकवास लगेगा। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि जिन देशों में पिछले आठ दशक से साम्यवाद का बोलबाला रहा वहां भी लोगों की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं को कुचला नहीं जा सका। आज इन देशों में सभी आध्यात्मिक आंदोलन बहुत तेजी से फैलते जा रहे हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि जिस आंदोलन पर धर्म या आध्यात्म का ठप्पा लग गया उसमंे कोई दोष होगा ही नहीं। बल्कि देखने में तो यह आ रहा है कि धर्म और आध्यात्म के नाम पर बहुत सारे धर्म गुरू भोगमय और अनैतिक आचरण कर रहे हैं। वैसा दुराचरण करने से पहले सामान्य लोग दस बार सोचेंगे। फिर वो चाहे ईसाई मिशनरियों के बीच फैले अवैध संबंधों की बात हो या किसी और धर्म के मठाधीशों के बीच पनप रहा लालच, भ्रष्टाचार, पद के लिए मारधाड़, ईष्या, द्वेष या हिंसा का वातावरण हो। कोई धार्मिंक आंदोलन इन बुराइयों से अछूता नहीं है। इसलिए यह जरूरी है कि जो लोग जिस धर्म या सम्प्रदाय से जुड़ें, उसकी पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए हमेशा तत्पर रहें। उससे  बच कर भागें नहीं। यह न सोचें कि हम तो ध्यान करने या भजन करने आए हैं। हमारी बला से धर्म गुरू, सन्यासी या संस्थाओं के प्रबंधक चाहे जो करें । वरना फिर अचानक जब धर्म गुरूओं के आचरण के बारे में अप्रिय समाचार मिलता है तो हमारा दिल टूट जाता है। हमारी आस्थाएं हिल जाती है। हमारी आध्यात्मिक प्रगति रूक जाती है। कई बार तो हम धर्म विमुख हो जाते हैं। इसलिए हमें यह याद रखना होता है कि कबूतर के आंख मीच लेने से बिल्ली के रूप में आई मौत भागा नहीं करती।
 इस्का¡न के धर्म गुरूओं द्वारा बालकों का गुरूकुलों में मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाना कोई
साधारण घटना नहीं है। जरा सोचिए कि उन अभिभावकों के मन पर क्या गुजरी होगी जिन्होंने दुनियां के कोनों-कोनों से अपने लाड़ले सपूतों को इसलिए  इस्का¡न के गुरूकुलों में पढ़ने भेजा था जिससे कि वे भारत के सनातन वैदिक ज्ञान व संस्कृति की शिक्षा पा सकें। पर बदले में उनके अबोध बच्चों को मिला क्या, प्रताड़ना और यौन शोषण ? ऐसे दुर्भाग्यशाली अनुभव  इस्का¡न गुरूकुलों में पढ़े लगभग एक हजार बच्चों को हुए। जिससे आज इन किशोरों के मन में  इस्का¡न के धर्म गुरूओं के प्रति घृणा भरी है। क्योंकि इन किशोरों ने  इस्का¡न के अनेक धर्म गुरूओं के केसरिया चोलों के भीतर पनप रहीं वासनाओं को देखा और भोगा है।
जिन शिकायतों को लेकर इन किशोरों ने मुकदमा दायर किया है वे पिछले बीस वर्षों में घटी घटनाओं पर
आधारित है। इसलिए  इस्का¡न के धर्म गुरूओं के लिए यह और भी शर्म की बात है कि यह सब इतने लंबे समय तक उनकी नाक के नीचे होता रहा और वे ऐसी गंभीर शिकायतों को नजरंदाज करते रहे। इतना ही नहीं ऐसे निकृष्ट कार्यों में लिप्त अपने साथी धर्म गुरूओं को संरक्षण देते रहे। अब जब पानी सर के ऊपर से गुजर गया तो घबड़ा रहे हैं। आने वाले दिनों में जब इस मुकदमे की हर तारीख पर इन बच्चों के बयानों की खबरें दुनिया भर के अखबारों में छपेंगी तो  इस्का¡न के ये धर्म गुरू किस-किस का मुंह रोकेंगे ? इनकी लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार का नतीजा  इस्का¡न के दुनिया भर में फैले लाखों भक्तों को नाहक भुगतना पड़ेगा। हर ऐसी घटना के बाद इस्काॅन के मंदिरों में जाने वाले लोगों को  ये धर्म गुरू आज तक यही कह कर बहकाते आए हैं कि ऐसी खबर छापने वाले उनके प्रचार की क्षमता और व्यापकता से ईष्या करते हैं। ये लोग प्रभुपाद जी के पुण्य आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं। ये लोग विधर्मियों द्वारा  इस्का¡न को बदनाम करने के लिए छोड़े गए हैं। ये लोग नर्क को जाएंगे। जो इनकी बात सुनेगा वह वैष्णव अपराध व गुरू अपराध का दोषी होगा। मंदिर में रहने वाले पूर्णकालिक भक्तों को यह कह कर डराया जाता रहा कि ऐसे लोगों की बात सुनने वालों को  इस्का¡न से निकाल दिया जाएगा और निकाला भी गया। प्रभुपाद ने  इस्का¡न को एक ऐसा विशाल घर बनाया था जिसमें सारा विश्व सुख रह सके। पर आज इन छद्म-धर्म गुरूओं के अहंकारी, लोभी और भोगी आचरण के कारण प्रभुपाद के हजारों समर्पित शिष्य इस्का¡न छोड़कर अलग-थलग पड़े हैं। अकेले वृंदावन में ही तमाम विदेशी महिलाएं ऐसी हैं जो  इस्का¡न जीबीसी के रवैए से नाजारा होकर वृंदावन में अलग रह रही हैं। फिर भी जीबीसी को समझ नहीं आ रहा। अभी हाल ही में उसने भारत के कुछ वरिष्ठ भक्तों को  इस्का¡न से निकालने का असफल प्रयास किया। जिनमें मधु पंडित दास शामिल हैं। जिन्होंने बंग्लौर में  इस्का¡न के सर्वश्रेष्ठ मंदिर की स्थापना व हजारों लोगों को भक्त बनाने का कीर्तिमान बनाया है। इन वरिष्ठ भक्तों ने अब जीबीसी को कलकत्ता हाई कोर्ट में चुनौती दी है। एक के बाद एक मुकदमों में हारने के बाद भी जीबीसी को अपनी गलती समझ में नहीं आ रही। जीबीसी के गैर-जिम्मेदाराना कार्यों के कारण प्रभुपाद का यह गंभीर आंदोलन दुनियां के मीडिया में निंदा और उपहास का पात्र बन रहो है। पर अब तो किशोरों ने बीड़ा उठाया है और मामला अदालत में है। आरोप लगाने वाले कोई बाहर के लोग नहीं हैं। भक्त परिवारों के ही भुक्त-भोगी बच्चे हैं, जिनके हलफिया बयान को कानूनन पूर्ण वैधता प्राप्त है। यह मुकदमा कोई मजाक नहीं। कुछ वर्ष पहले अमरीका में ही रोबिन जार्ज नाम की एक किशोरी ने  इस्का¡न के धर्म गुरूओं के विरूद्ध मानसिक प्रताड़ना का मुकदमा जीत कर  इस्का¡न से करोड़ों रूपए का हर्जाना वसूल किया था। यह मुकदमा तो उससे सौ गुना ज्यादा नुकसान कर सकता है। इसका मुआवजा देने में तो  इस्का¡न के अमरीका में स्थित पचासों मंदिरों की संपत्ति बेचनी पड़ सकती है। इस्काॅन के प्रचार कार्य पर जो विपरीत प्रभाव पड़ेगा वह अलग। इसलिए इस घटना की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
ऐसी स्थिति आई क्यों ? दरअसल  इस्का¡न के संस्थापक आचार्य श्री प्रभुपाद जी ने यह साफ निर्देश दिए थे कि उनकी शिक्षाओं को बिना फेरबदल के यथावत आने वाली पीढि़यों को सौपा जाएगा तो यह आंदोलन दस हजार वर्ष तक चलेगा। पर उनके अति महत्वाकांक्षी अमरीकी शिष्यों ने खुद की लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के लोभा में प्रभुपाद के शरीर त्यागते ही 1977 में खुद को गुरू घोषित कर दिया। यहां तक कि उन्होंने 9 जुलाई 1977 को प्रभुपाद द्वारा सभी मंदिरों के लिए जारी, भविष्य में इस्का¡न में दीक्षा दिए जाने संबंधी, लिखित आदेश की भी अवहेलना की। साजिशन इस स्पष्ट आदेश को इस्का¡न के अब तक हुए हजारों प्रकाशनों में नहीं छपने दिया। ताकि लोगों तक सच न पहुंच सके। अपनी कारस्तानियों को छिपाने के लिए प्रभुपाद द्वारा रचित ग्रंथों में बदलाव किए। आध्यात्मिक योग्यता या गुरू द्वारा प्रदत्त आदेश के बिना ही एक हास्यादपद चुनाव प्रक्रिया द्वारा गुरू बनाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते गुरू जैसे महाभागवत् पद को पाने के लालचियों की इस्का¡न में कतार लग गई। परिणाम स्वरूप जीबीसी को धमकी और दबाव के चलते भी बहुत से लोगों को गुरू बनाना पड़ा। अपने आचार्य के चरणों में किए गए इस गुरू अपराध के कारण ही इस तरह बने स्वघोषित लगभग सौ गुरूओं में से आधों का पिछले बीस वर्षों में पतन हो गया। कोई अपनी शिष्या ले भागा तो कोई गुरूकुल के बालकों से अप्राकृतिक यौनाचार में लिप्त पाया गया। कोई इस्का¡न का धन ही ले भागा तो कोई दूसरे अवैध धंधों में फंस गया। यहां तक कि इस्का¡न की सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई जीबीसी के अध्यक्ष व हजारों भक्तों को शिष्य  बनाने वाला गुरू तो जर्मनी की एक मालिश करने वाली महिला के साथ ही भाग गया। अगर यह स्वघोषित गुरू आध्यात्मिक योग्यता और गुरू के आदेश के अनुसार चले होते तो शायद इनका पतन थोक में नहीं हुआ होता। आज जीबीसी में 95 फीसदी सदस्य ऐसे ही स्वघोषित गुरू हैं। जो अपने गुरू क्लब के सदस्यों के विरूद्ध कोई शिकायत सुनने को तैयार नहीं होते। उल्टा अनैतिक कृत्यों में लिप्त अपने साथी गुरूओं को अंत तक बचाने में लगे रहते हैं। जीबीसी कहती है कि उसने प्रभुपाद के आदेश अनुसार ही गुरू बनाए हैं। फिर क्या वजह है कि उसे पिछले बीस वर्ष में कई बार गुरू बनाने की प्रक्रिया बदलनी पड़ी ? जाहिर है कि वे अपने आचार्य प्रभुपाद के आदेश से हट कर चल रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे प्रभुपाद ने लिखित आदेश दिए थे कि गुरूकुल के बच्चों को कभी प्रताडि़त न किया जाए। उन पर कभी हाथ न उठाया जाए। उन्होंने तो यह तक कहा था कि जो शिक्षक बच्चों पर हाथ उठाता है वह शिक्षक बनने के योग्य नहीं। पर प्रभुपाद के अन्य आदेशों की तरह ही जीबीसी ने इस आदेश की भी अवहेलना की। परिणाम स्वरूप आज इस्का¡न को 1600 करोड़ रुपए के मुआवजे के दावे का मुकदमा अमरीका में झेलना पड़ रहा है। इधर कलकत्ता हाई कोर्ट में जीबीसी जिस महत्वपूर्ण मुकदमे में फंसी है, वहां उसे सिद्ध करना है कि उसने गुरू बनाने के मामले में प्रभुपाद के 9 जुलाई 1977 के आदेश की अवहेलना नहीं की है। यह कितने दुख की बात है कि मुट्ठी भर महत्वाकांक्षी स्वघोषित धर्म गुरूओंके कारण इतना सुंदर आंदोलन अपनी शक्ति और साधनों को बेकार के मुकदमों में बर्बाद कर रहा है । इससे पहले कि रोबिन जार्ज केस की तरह इस्का¡न एक बार फिर भारी हर्जे-खर्चे की मार सहे, इस्का¡न के शुभचिंतकों और भक्तों को सामूहिक रूप से जीबीसी पर दबाव डालना चाहिए कि वह गुरू परंपरा के बारे में उठाए गए सभी सवालों का, प्रभुपाद की शिक्षाओं के आधार पर, संतुष्टिपूर्ण उत्तर दे और अगर जीबीसी ऐसा नहीं कर पाती है तो इस्का¡न को बर्बाद करने से पहले अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्याग कर इस शक्तिशाली आंदोलन को आगे बढ़ाने में सहायक बने, बाधक नहीं।

Friday, June 16, 2000

केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पर कतरने की तैयारी

श्री शरद पवांर के नेतृत्व में संसदीय समिति की बैठक इस हफ्ते के शqरू में नई दिल्ली में हुई। जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयुक्त संबंधी विधेयक पर चर्चा हुई। राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे मन से ये कतई नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार के मामले में राजनेता किसी जांच के दायरे में आएं। पर लोक-लज्जा के लिए उन्हें यह दिखावा करना पड़ता है। इसलिए नए-नए नामों से भ्रष्टाचार से लड़ने की बात की जाती है। फिर वो चाहे लोक आयुक्त बना कर हो या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त। हर चुनाव से पहले हर दल और प्रधानमंत्री पद का हर दावेदार जनता को यह आश्वासन देता है कि वह भ्रष्टाचार से लड़ेगा। क्योंकि राजनेता जानते हैं कि इस देश के करोड़ों लोग प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं इसलिए भ्रष्टाचार के नाम पर चुनाव में जनता को बहकाना सबसे ज्यादा आसान होता है। यही कारण है कि जैसे ही चुनावों की घोषणा होती है सभी दलों के राजनेता, चाहे वो क्षेत्रीय दल के हों या राष्ट्रीय दल के, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के घोटाले उछालने में जुट जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद फिर सब एक हो जाते हैं और एक-दूसरे को बचाने में लगे रहते हैं। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त से संबंधित विधेयक पर चर्चा करते समय सांसदों को यही दिक्कत आ रही है कि वे कैसे ऐसा प्रारूप बनाएं जिससे जनता में तो यह संदेश जाए कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटना चाहती है, पर असलियत में कुछ न हो। सब यथावत चलता रहे। प्रस्तावित विधेयक को इस तरह बनाया जाए ताकि बड़े ओहदों पर बैठने वाले ताकतवर भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं को नई व्यवस्था में से भी बच कर निकलने के रास्ते खुले रहें।
यह कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ तो भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है और दूसरी तरफ कानून की नजर में यहां सब बराबर नहीं है ? इसीलिए जब 5 फरवरी को स्टार टीवी न्यूज चैनल पर बिग-फाइट-शो में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री विट्ठल ने ये घोषणा की कि वे उन कांडों की जांच दुबारा करवाएंगे जिनमें दर्जनों बडे राजनेता शामिल हैं और जिन कांडों को बड़ी निर्लज्जता से लीपापोती करके दबा दिया गया है, तो सारी की सारी राजनैतिक जमात उन पर टूट पड़ी। संसद से लेकर उसके बाहर तक डट कर शोर मचाया गया कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को यह अधिकार ही नहीं है कि वह राजनेताओं के विरूद्ध जांच करवाए। यह कैसा विरोधाभास है ? जिस केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन सीबीआई काम कर रहीे है उस सीबीआई को तो यह हक है कि वह राजनेताओं के खिलाफ जांच कर सके। पर उसी सीबीआई के काम पर निगरानी रखने के लिए तैनात केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को यह हक नहीं है कि वे सीबीआई से ये जांच करवा सके। मजे कीे बात यह है कि केंद्रीय कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी सरीखे जिन लोगों ने 5 फरवरी 2000 के बाद श्री एन विट्ठल पर हमला बोला, वे वही लोग हैं जो 1994 से विभिन्न कांडों में फंसे राजनेताओं की जान बचाने के लिए ‘निष्पक्ष और स्वायत्त’ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त जैसे पद के सृजन की बात कर रहे थे। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट की ‘न्याययिक सक्रियता’ को देखकर इन लोगों की चिंता थी कि कहीं इनके राजनैतिक आका सजा न पा जाएं। इसलिए भविष्य में बेहतर व्यवस्था बनाने के नाम पर इन्होंने अदालत में लंबित मामलs को वहीं लपेटने की साजिश रची। बाद में जब उसी व्यवस्था से पैदा हुआ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त भस्मासुर बन कर उनके पीछे दौड़ा तो फिर हडकंप मचा और एक और नई व्यवस्था बनाने की बात की गई। अगर मौजूदा सरकार या विपक्ष देश से भ्रष्टाचार समाप्त करने के बारे में वाकई ईमानदार है तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश में तोड़-मरोड़ करने की क्या जरूरत है ? उस पर इतना लंबा विचार करने की क्या जरूरत है कि मौजूदा सरकार दो साल से ज्यादा सत्ता में रहने के बाद भी इस विधेयक का प्रारूप तक तय नहीं करवा पाई ?

सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 1997 के एक आदेश के तहत ऐसी व्यवस्था करने को कहा था जिसमें सीबीआई, आयकर और फेरा विभाग जैसी जांच एजेंसियां निर्भयता से बिना किसी राजनैतिक दबाव के काम कर सकें। न्यायालय के आदेश के अनुसार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विपक्ष के नेता की एक साझी समिति को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का चयन करना था। फिर केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की सलाह पर शीर्ष जांच एजेंसियों के सर्वोच्च पदाधिकारियों का चयन होना था। इन जांच एजेंसियों को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के निर्देशन में काम करना था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सोचा कि इस तरह इन जांच एजेंसियों की स्वायतत्ता निर्धारित हो जाएगी। पर जैसा संदेह था वही हुआ। तब तो जांच इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि जांच एजेंसियां प्रधानमंत्री के अधीन थीं और आज जांच इसलिए नहीं हो पा रही है कि जांच एजेंसियों को यही पता नहीं कि वे किसके आधीन हैं ? केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के या प्रधानमंत्री के ? चालू व्यवस्था के तहत तो वे प्रधानमंत्री के आधीन है पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार उन्हें केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन काम करना है। यहीं पेंच फंसा है। अगर सरकार सर्वोच्च न्यायालय के अनुरूप विधेयक पास करवा लेती है तो केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का पद इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि एक ही व्यक्ति सारे देश को नचा देगा। अगर कोई सही व्यक्ति इस पद पर आ गया तो देश को भला करेगा और गलत आया तो बंटाधार कर देगा। इसलिए भी संसदीय समिति इस विधेयक को लेकर उधेड़-बुन में हैं।

यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के दिए जाने के बाद से संसद के कई सत्र गुजर गए पर यह विधेयक अभी तक पारित नहीं किया गया। यूं इसी आदेश के तहत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर श्री एन विट्ठल को विराजमान कर दिया गया। उन्हें इस पद पर काम करते हुए 21 महीने हो गए और उनका कार्यकाल मात्र 27 महीने का शेष बचा है। इस पद पर आते ही श्री विट्ठल ने तमाम घोषणाएं की थी कि वे देश से भ्रष्टाचार दूर करने में ठोस कामयाबी हासिल करेंगे। पर आज 21 महीने बाद श्री विट्ठल के तेवर बदल गए हैं। उन्हें असलियत का एहसास हो गया है। उन्हें साफ दीख रहा है कि छोटी-मोटी मछलियों को वे भले ही पकड़ लें पर भ्रष्टाचार की शार्क और व्हेल मछलियों को पकड़ना उनके बूते की बात नहीं। इस दिशा में उन्होंने जो भी प्रयास किया उन पर तुरंत हमला हुआ। क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठानों में उच्च पदों पर विराजमान नौकरशाह और राजनेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक मत हैं। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर कहते हैं कि भ्रष्टाचार तो कोई मुद्दा ही नहीं है। राजनेता भ्रष्टाचार को केवल एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। फिर वो चाहे लालू यादव का मामला हो या जयललिता का। भ्रष्टाचार के सवाल पर नेता हंगामा तो खूब मचाते हैं पर अपनी बिरादरी के किसी भी आदमी को सजा नहीं दिलवाना चाहते। क्योंकि वे जानते हैं कि राजनीति में आज किसी का भी दामन साफ नहीं है। जिस दिन कोई राजनैतिक कार्यकता चुनाव लड़ने का फैसला करता है उसी दिन से हालात उसे भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देते हैं। शुरू में हालात मजबूर करते हैं और कामयाब होने पर वो हालातों को भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देता है। इसलिए बड़े पद पर बैठे लोगों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता।

बहुत से लोग कहते हैं कि भारत से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता। क्योंकि भारतीय मूल रूप से भ्रष्ट हैं और मौका मिलने पर नहीं चूकते। इसमें अतिश्योक्ति हो सकती है। पर यह सही है कि दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां बिलकुल भ्रष्टाचार न हो। हां जिन देशों में यह आम जन-जीवन में दिखाई नहीं पड़ता उनमें भी ऊंचे स्तर पर तो भ्रष्टाचार पाया ही जाता है। चाणाक्य पंडित ने भी कहा है कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि शहद के घड़ों की रखवाली पर बैठे चैकीदार के होठों पर शहद न लगा हो। पर साथ ही चाणाक्य पंडित ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए तमाम तरह की सतर्कता व्यवस्थाओं के सुझाव दिए हैं। राजतंत्र में यह राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर होता है कि वह प्रशासन को कैसे चलाए। किंतु लोकतंत्र में यह शक्ति जनता के हाथ में होनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारा लोकतंत्र अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के काम और आचरण पर अंकुश रख सके। इसलिए चुनाव जीतने के बाद उसके प्रतिनिधियों के रवैए रातो-रात बदल जाते हैं। ऐसे में कोई भी मामला क्यों न हो उस पर जो निर्णय लिए जाते हैं वो कहने को तो जन प्रतिनिधियों द्वारा लिए जाते हैं पर दरअसल उसमें जनता की आकांक्षाओं का दर्शन नहीं होता। इसलिए यह जरूरी है कि संसदीय समितियां कुलीन लोगों के क्लब की तरह काम करने की बजाए जन-आकांक्षाओं को सामने लाने का काम करें। वैसे भी लोकसभा और राज्यसभा के भीतर का माहौल अब पहले जैसा नहीं रहा। जहां गंभीर चिंतन हो सके। जो दूरदर्शन पर दिखाई देता है उसमें गंभीरता कम और अखाड़ेबाजी ज्यादा होती है। संसदीय समितियां बेहतर माहौल में काम करती हैं। बिना समय सीमा के दबाव के काम करती हैं। इसलिए इन्हें अपने प्रयास में ज्यादा जनोन्मुख होना चाहिए। जहां तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्य और अधिकारों के निर्धारण का सवाल है, बेहतर हो कि प्रस्तावित विधेयक पर अखबारों, टेलीविजन और जन-मंचों पर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़वाई जाए। इस बहस का जो भी नतीजा सामने आए उसे ईमानदारी से स्वीकार कर लिया जाए। यह कोई अनूठी या अव्यवहारिक बात नहीं है।

स्विट्जरलैंड और अमेरीका दो ऐसे प्रमुख लोकतंत्र हैं जहां हर महत्वपूर्ण सवाल पर इसी तरह व्यापक जनमत संग्रह करवाया जाता है। इतना ही नहीं सार्वजनिक महत्व के पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया भी ऐसी संदेहास्पद और गोपनीय नहीं होती जैसी भारत में होती है। अब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया को ही लें। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत भी जो व्यवस्था की गई है वह पारदर्शी कतई नहीं है। जब हर स्तर के राजनेताओं पर बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों के आरोप लग रहे हों। जब इन राजनेताओं पर अपने विरूद्ध हर जांच को दबवा देने के प्रमाण मौजूद हों तब यह कैसे माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विपक्ष के नेता ईमानदारी से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का चयन करेंगे। इस मामले में तो बेहतर यही होगा कि उक्त तीन महानुभावों की समिति इस पद के लिए सुयोग्य उम्मीदवारों की एक लंबी फेहरिस्त देश के सामने प्रस्तुत कर दे और फिर उसमें प्रस्तावित हर व्यक्ति का देश में मीडिया ट्रायल हो। लोग ऐसे उम्मीदवारों से टीवी, अखबारों और जनमंचों पर दो महीने तक डट कर जवाब-तलब करें। उसके पीछे के जीवन की तस्वीर लोगों के सामने आए और तब जो व्यक्ति सबसे खरा नजर आए उसे ही इस पद पर बैठाया जाए। यह प्रक्रिया सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में भी अपनाई जानी चाहिए। जैसा अमेरीका में होता है। इसी तरह की प्रक्रिया भारत के महालेखा परीक्षक, सीबीआई प्रमुख , मुख्य चुनाव आयुक्त, सेबी चीफ जैसे पदों पर नियुक्ति के मामले में भी अपनाई जानी चाहिए।

जहां तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्य और अधिकारों पर संसदीय समिति में चल रहे मंथन का सवाल है तो बड़ी साफ सी बात है कि इस समिति के सभी सदस्य अपने दिल में झांक कर खुद से ये सवाल पूछें कि क्या वे वाकई देश से भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते हैं ? क्या वे चाहते है कि भ्रष्टाचार में लिप्त आम लोगों को ही नहीं सत्ताधीशों और आला हाकिमों को भी सजा मिले ? क्या वे चाहते हैं कि जो माहौल बिगड़ चुका उससे तो निपटा ही जाए पर भविष्य में हालात ऐसे पैदा हों कि भ्रष्ट आचरण करने वाला कानून के शिकंजे से बच न पाए ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हां में है तो इस समिति को अपना काम पूरा करने में देर लगने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। फिर तो इस समिति को इन मामलों पर किसी की सलाह की जरूरत नहीं है। हां अगर ऐसी तमाम दूसरी समितिययों की तरह यह समिति भी काम की औपचारिता मात्र पूरी करना चाहती है, कोई ठोस परिणाम नहीं देखना चाहती तो फिर यह जो भी चाहे प्रारूप बना कर दे दे, रहेंगे तो वही ढाक के तीन पात।

Friday, June 9, 2000

दहेज हत्याओं के लिए पुलिस का निकम्मापन जिम्मेदार

शालिनी अग्रवाल की चिता की आग अभी ठंडी नहीं हुई कि देश की राजधानी दिल्ली में दहेज हत्याओं की बाढ़-सी आ गई है। कोई दिन नहीं जाता जब अखबारों की पहले पेज पर दहेज के लालच में मार दी गई किसी न किसी अबला की दर्दनाक हत्या की कहानी नहीं छपी होती। आमतौर पर ये माना जाता है कि गरीब मां-बाप की बेटी ही दहेज की बेदी पर कुर्बान होती होंगी। पर आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों जिन हत्याओं की खबर सुर्खियों में रही वे सब उन नवविवाहिताओं के बारे में थी जिनके पिता और श्वसुराल दोनों ही काफी संपन्न हैं। 23 वर्ष की शालिनी अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी। उसकी दो वर्ष की बेटी बताती है कि, ‘पापा ने मम्मी को मार दिया।शालिनी के पिता ने अपने दामाद राहुल को दहेज में तमाम दूसरी चीजों के अलावा ओपेल एस्ट्रा कार दी थी। पर शादी के बाद उस कार को बेच कर राहुल होन्डा सिटी ले आया और इस तरह जो अतिरिक्त रकम उसने खर्च की वही वह शालिनी के पिता से मांग रहा था। ऐसा नहीं है कि शालिनी के घर वाले राहुल की इस वाहियात मांग को पूरा करने से पीछे हट जाते। पर इससे पहले कि वे राहुत की बर्बरता का अंदाजा लगा पाते कि राहुल ने रिवाल्वर से शालिनी की हत्या कर दी। देश के अलग-अलग हिस्सों से ये खबरें आ रही है कि दहेज के लालच में नवविवाहिताओं की हत्या की दर लगातार बढ़ती जा रही है।



दहेज विरोधी कानूनों, महिला संगठनों व जन चेतना के व्यापक प्रसार के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ? साफ जाहिर है कि दहेज के लोभियों के मन में न तो पुलिस का डर है और न ही कानून का। आंकड़े देखने से पता चलता है कि दहेज हत्या के मामले में जो मुकदमें दर्ज होते हैं उनमें से चार फीसदी मुकदमों में ही सजा मिल पाती है। दहेज हत्या के 96 फीसदी अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। इसलिए दहेज के लालच में घर की नव-ब्याहाता की हत्या करना घाटे का सौदा नहीं है। सजा की संभावना बहुत कम और नई शादी करके दुबारा दहेज पाने की संभावना बहुत ज्यादा रहती है। दहेज हत्या के मामलों में अक्सर देखने में आया है कि पुलिस की भूमिका हत्यारों के पक्ष में रहती है। जिनकी लाडली कच्ची उम्र में ही अकाल मृत्यु के गाल में समा जाती है  वो थाने वालों को क्योंकर रिश्वत देने लगे ? वे तो रोएंगे, चीत्कार करेंगे, थाने के दरोगा की देहरी पर माथा रगडें़गे और उससे न्याय देने की अपील करेंगे। अगर वो नहीं सुनेगा तो भारी दुख और हताशा में मजबूर होकर उसे बुरा-भला कहेंगे। किस्मत के मारे ये बेचारे इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं ? पर जिस खूनी दरिंदे पति ने अपनी नवयौवना पत्नी की हत्या करने जैसा जघन्य अपराध किया है, जिसके पत्थर दिल बाप ने अपनी बहू की हत्या की साजिश में बेटे का साथ दिया है, जिसकी चुडै़ल मां ने अपनी बहू को यातनाएं देते वक्त यह भी नहीं सोचा कि कल वो भी किसी की बेटी थी, जिसकी बहन और भाईयों ने अपने भाभी की हत्या का माहौल बनाने में आग में घी का काम किया है, ऐसा वहशी परिवार पुलिस को रिश्वत क्यों न देगा ? क्योंकि उनके मन में चोर है, उन्हें पता है कि उन्होंने कानून और समाज की नजर में एक जघन्य अपराध किया है। स्वभाविक ही है कि ऐसे हत्यारे परिवार की हर कोशिश होती है कि मामले पर किसी तरह खाक डल जाए। सबूत मिटा दिए जाएं। बहु के मायके वालों की तरफ से उनके खिलाफ थाने में लिखी जाने वाली रिपोर्ट इस तरह अधकचरी हो कि आगे चलकर उसका फायदा उठाया जा सके। यही वजह है कि ऐसी हत्या के बाद अक्सर पुलिस मामले को दुर्घटना बता कर रफा-दफा कर देती है। सोचने की बात है कि खाना पकाते वक्त जल कर ज्यादा नवयुवतियां की क्यों मरती हैं ? जबकि कम उम्र की लड़किया तो ज्यादा फुर्तीली और चैकन्नी होती हैं। अगर खाना पकाने में जल कर मरने की कोई दुर्घटना होती भी है तो वो उन बुजुर्ग महिलाओं के साथ होनी चाहिए जिनके अंग शिथिल पड़ चुके हों और जो ऐसी दुर्घटना होने पर तुरत-फुरत भाग कर अपनी रक्षा करने में सक्षम न हों। पर विडंबना देखिए कि अखबारों में जब भी खाना पकाते वक्त मौत होने की खबर छपतीं हैं तो उनमें मरने वाली कोई नववधु ही होती है। जाहिर है कि श्वसुराल वालों द्वारा जबरन पकड़ कर जला दी गई बहू की मौत को पुलिस वाले मोटी रकम खाकर दुर्घटना बता देते हैं। उधर कानून की प्रक्रिया भी इतनी धीमी है कि दहेज हत्या के अपराधियों को सजा मिलने में कई दशक लग जाते हैं। फिर भी सजा चार फीसदी अपराधियों को ही मिल पाती है।

पुलिस और कानून के ऐसे निकम्मे रवैए के कारण ही मार डाली गई लड़की के घर वालों, रिश्तेदारों, शुभचिंतकों या अड़ौसी-पड़ौसियों का उत्तेजित होकर लड़के वालों के घर धावा बोलना एक स्वभाविक सी बात है। कन्या पक्ष के लोगों को इस बात पर खीज आती है कि हत्या के मामले में प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में ही उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। अगर कन्या पक्ष के लोग दबाव न बनाए रखें तो रिपोर्ट दर्ज होने की संभावना काफी कम रह जाती है। इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात वो होती है जब थानेदार कन्या पक्ष के बयान को तोड़-मरोड़ कर दर्ज करता है। शालिनी के मामले में यही हुआ। कन्या पक्ष के लोग पहले दिन से कह रहे थे कि ये दहेज हत्या का मामला है। शालिनी को उसकी सास, ननद, श्वसुर और पति बराबर यातनाएं देते रहे थे। जिनकी शिकायत वह डरी-सहमी सी अपनी मां और मामाओं से करती रहती थी। चूंकि शालिनी के पिता का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है और वे कच्ची गृहस्थी के मुखिया हैं इसलिए शालिनी उन्हें अपना दर्द बता कर, उनके जीवन को खतरे में नहीं डालना चाहती थी। पर शालिनी के परिवार की इस शिकायत को सुन कर भी थाने वालों ने अनसुना कर दिया। चूंकि राहुल और उसके पिता सबरजिस्ट्रार आफिस में कातिब का काम करते हैं और दिल्ली के तमाम महत्वपूर्ण लोगों की अवैध संपत्तियों की रजिस्ट्री में मदद करते रहे हैं इसलिए उन्हें अपने धन बल और संपर्क बल पर पूरा भरोसा था कि पुलिस उनका कुछ नहीं बिगाड़ेगी। आश्चर्य की बात है कि शालिनी की हत्या के मामले में पुलिस ने उसकी सास और ननद को गिरफ्तार नहीं किया। पुलिस के ऐसे रवैए से नाराज एक क्रुद्ध भीड़ ने जब राहुल की कोठी पर हमला बोल दिया तो पुलिस शालिनी के परिवार जनों को गिरफ्तार करने के पीछे पड़ गई। यह सही है कि तोड़-फोड़ की कार्रवाही कानूनन जुर्म है पर यहां प्रश्न उठता है कि कौन सा जुर्म बड़ा है ? किसी की लाड़ली बेटी को गाजे-बाजे और दान-दहेज के साथ ब्याह कर लाओं और फिर उसे तड़पा-तड़पा कर मार दो या जब किसी की लाड़ली इस तरह बेमौत मारी जाए और पुलिस अपराधियों को संरक्षण दे रही हो तो उनके शुभचिंतक खीज कर क्रोध में हत्यारे परिवार को खुद ही थोड़ी-बहुत सजा देने का काम कर बैठे? दहेज हत्याओं की बढ़ती संख्या के लिए पुलिस की ऐसी नाकारा भूमिका ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। जिस पर फौरन ध्यान दिया जाना चाहिए और दोषी पुलिस कर्मियों को सजा देने की श्ुरूआत की जानी चाहिए।

यूं महिला संगठन, समाज शास्त्री और सुधारक लोग यही कहेंगे कि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति ज्यादा जागरूक किया जाए। उनके आर्थिक अधिकार सुनिश्चित किए जाएं। परिवार के किसी भी सदस्य के नाम में उनकी संपत्ति का  हस्तांतरण अवैध घोषित करने वाले कानून बनाए जाएं। दहेज हत्या के मामलों से निपटने के लिए अलग तरह की पुलिस व्यवस्था या विशेष अदालतें गठित की जाएं। पर हकीकत यह है कि ये सब कदम पिछले बीस वर्षों में काफी मात्रा में उठाए जा चुके हैं और इनका थोड़ा-बहुत असर भी पड़ा है। पर सबसे ज्यादा असर अगर पड़ेगा तो वह होगा पुलिस और कानून का डर। कानून आज भी दहेज लोभी हत्यारों के पक्ष में नहीं है। पर जब किसी मुकदमें की बुनियाद ही कमजोर होगी तो उसके नतीजे सही कैसे आएंगे ? दहेज हत्या के मामले में बुनियाद होती है- संबधित थाने में दर्ज प्राथमिक सूचना रिपोर्ट व पुलिस इंसपेक्टर की रिपोर्ट जो वह मामले की जांच करने के बाद तैयार करता है। इसलिए प्रायः दहेज हत्या के अपराधी एक अच्छा आपराधिक वकील पकड़ लेते हैं और थाने में पेशगी रकम पहुंचवा देते हैं ताकि थाना उनके पक्ष में हो जाए और अपनी कार्रवाही को इस तरह करे कि हत्यारे अंततः छूट जाएं। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार और नागरिकों दोनों को पहले करनी होगी। कानून में इस तरह का प्रावधान बना लिया जाना चाहिए कि दहेज हत्या के बाद कन्या पक्ष के लोग थाने में आकर जो भी रिपोर्ट दर्ज कराएं उसके आडियो और वीडियो कैसेट वहीं तैयार किए जाएं। जिनकी एक प्रति थाने में रहे और दूसरी प्रति कन्या पक्ष को सौप दी जाए। ताकि अगर बाद में कन्या पक्ष को लगे कि उनकी बातें थाने में हुबहू दर्ज नहीं की गई है तो वे उच्च अधिकारियों या अदालत के सामने इन टेपों को प्रस्तुत कर अपनी बात सिद्ध कर सकें।

हर समाज में समाज की अवरोधक स्थितियों से निपटने की अपनी एक स्वभाविक प्रक्रिया होती है। भारत में भी यह व्यवस्था सदियों से चली आ रही थी। जिसे फिरंगी हुक्मरानों ने जानबूझ कर ध्वस्त कर दिया। दहेज हत्या के मामले में तथ्यों की सबसे ज्यादा जानकारी घटना स्थल के आसपास रहने वाले लोगी की होती है। वे ही ऐसी दुर्घटना से सबसे ज्यादा आंदोलित होते हैं। क्या कानून में सुधार करके कुछ जूरीजैसा गठन किया जा सकता है ? ताकि हर इलाके के लोग ऐसे मामलों में दहेज के लोभी परिवार के खिलाफ कुछ दंडात्मक कार्रवाही फौरन ही करने में सक्षम हो सके। हत्या से जुड़े मुकदमे को भारतीय दंड संहिता के तहत बाकायदा अदालत में चलाया जा सकता है। यह व्यवस्था कुछ ऐसी ही होगी जैसी अनेक महानगरों में  पुलिस और मजिस्ट्रेट के काम के लिए नागरिकों के बीच में से कुछ लोगों को नियुक्त करके चलाई जाती है। चूंकि इस व्यवस्था में स्थानीय लोग शामिल होंगे इसलिए उनका दबाव दहेज के लोभियों पर ज्यादा पड़ेगा और उसका असर लंबे समय तक रहेगा। इस तरह अपने ही समाज में अपमानित और तिरस्कृत होने का भय ऐसे दरिंदों को नवयौवनाओं की हत्या करने से रोकेगा। इस विषय पर सभी संबंधित संस्थाओं और संगठनों द्वारा गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। इसके साथ ही यह भी बहुत जरूरी है कि लड़कियों को उनके कानूनी हक स्कूल से ही पढ़ाए जाएं और उनमें अत्याचार को न सहने की मानसिकता को विकसित किया जाए। उन्हें यह समझाया जाए कि अपने माता-पिता को दहेज की मार से बचाने के लिए अगर वे खुद शहीद हो जाती हैं तो वह स्थिति उनके माता-पिता का शेष जीवन बर्बाद कर देगी। इससे कहीं अच्छा होगा कि ऐसी लड़कियां जिनके श्वसुराल में दहेज की मांग करके उन्हें सताया जाता है बहुत शुरू में ही इस अत्याचार के विरूद्ध अपने घर वालों को पूरी तरह सतर्क रखें और ये मान लें कि इस तरह सताने वाला पति परमेश्वर नहीं हो सकता। इसलिए उसे समय रहते ही सुधार लिया जाए और न सुधर तो उसे सजा दिलवाने की व्यवस्था खुद या किसी की मार्फत सुनिश्चित कर ली जाए। यह कहना जितना आसान है उतना व्यवहार में मुश्किल। जिस समाज में लड़की को यह कह कर श्वसुराल भेजा जाता हो कि अब तेरी अर्थी ही वहां से निकले, यही तेरा धर्म है, तो उस समाज में लड़की अत्याचार सह कर भी मुंह कैसे खोलेगी ? इसलिए बदलते आर्थिक परिवेश में जब लोगों की भौतिक आकांक्षाएं मानवीय संवेदनाओं पर हावी हो रही हों तब भी अपनी बिटिया को ऐसी पारंपरिक शिक्षा देना उसे कुंए में ढकेलने जैसा है। यह सही है कि भारतीय समाज अभी उस आर्थिक स्थित तक नहीं पहुंचा जब नारी के लिए आर्थिक सुरक्षा सुगमता से उपलब्ध हो। इसलिए उनके मन में यह स्वभाविक भय बना रहता है कि अगर मैंने पति का घर छोड़ दिया तो मैं कहीं की न रहूंगी। इस डर से गरीब और बेपढ़ी लड़कियां ही नहीं संपन्न और सुशिक्षित लड़कियां भी ग्रस्त रहती हैं। इसलिए अत्याचार सह कर भी खामोश रहती हैं। उनकी इस मानसिकता को बदलने की जिम्मेदारी हर लड़की के माता-पिता की है। दहेज उत्पीड़न की समस्या नई नहीं है। पर आज की परिस्थिति में इसका चेहरा विकृत और विक्राल होता जा रहा है इसलिए इस समस्या का समाधान नए संदर्भों में खोजने की जरूरत है।

Friday, June 2, 2000

सोरों में भाजपा की हार के मायने

पश्चिम उत्तर प्रदेष की सेारों विधानसभा सीट पर हाल में संपन्न हुए उप चुनाव में भाजपा के प्रत्याषी की जमानत जब्त हो गई। इस चुनाव में जीतने वाला प्रत्याषी भाजपा के निश्कासित नेता कल्याण सिंह के दल का है। जाहिरन कल्याण सिंह के हौसले बढ़े हैं और उत्तर प्रदेष के भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री राम प्रका गुप्त के खेमे में हताषा फैली है। यूं एक उप चुनाव का भाजपा की प्रादेषिक सरकार के भविश्य पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ेगा। पर सभी जानते हैं कि किसी भी उप चुनाव नतीजे सत्तारूढ़ दल की लोकप्रियता या अलोकप्रियता के परिचायक होते हैं। इसलिए सोरों में भाजपा की हार उसे काफी महंगी पड़ेगी। इसलिए इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

इसे उत्तर प्रदेष का दुर्भाग्य कहें या भाजपा का, आज उत्तर प्रदेष में भाजपा की सरकार को चार ऐसे लोग चला रहे हैं जिनका कोई उल्लेखनीय जनाधार नहीं। राजनाथ सिंह, लालजी टंडन, रामप्रकाष गुप्ता और कलराज मिश्र उत्तर प्रदेष की भाजपा के सरकार के चार स्वघोशित प्रमुख स्तंभ हैं। भाजपाईयों का कहना है कि इनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, संकुचित मानसिकता, स्वार्थपरक क्रिया-कलापों और जातिगत गुटबाजी ने उत्तर प्रदेष की भाजपा को कई खेमों में बांट दिया है। इस सबके चलते सबसे ज्यादा दुर्गति तो प्रदेष के हजारों जमीन से जुड़े भाजपा कार्यकर्ताओं की हो रही है। एक तरफ तो भाजपा मंत्रिमंडल में पूर्ववर्ती सरकारों की ही तरह व्याप्त भारी भ्रश्टाचार के कारण उन्हें प्रदेष की जनता के सामने नीचा देखना पड़ रहा है और दूसरी तरफ भाजपा सरकार की पूरी निश्क्रियता, प्राषासनिक अकुषलता के चलते वे भाजपा के वोट बैंक को थामे रखने में अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेष के षहरों और गांवों में भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं के मन में भारी आक्रोष है, जो बेबुनियाद नहीं है। आज प्रदेष में मूलभूत सुविधाओं की बेहद कमी है और अव्यवस्था फैल रही है। प्रदेष की ज्यादातर सड़के उधड़ी पड़ी हैं। पर उनकी देखरेख करने वाले विभाग चादर तान कर सो रहे हैं। बिजली व पानी की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है और पूर्ववर्ती सरकारों की तरह भाजपा सरकार भी इन समस्याओं का हल ढूंढने में नाकाम रही है। सरकार साधनों की कमी का बहाना बना कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। यह सही है कि उत्तर प्रदेष की सरकार दिवालिया हो चुकी है। उसके पास जोड़-तोड़ करके भी अपनी नौकरषाही को टिकाए रखने लायक भी पैसे नहीं हैं। परिणाम स्वरूप तनख्वाह और जमा भविश्य राषि तक बांटने में उसे भारी दिक्कत आ रही है। जब तनख्वाह ही बांटने को पैसे नहीं है तो विकास कार्य क्या खाक होंगे ? नतीजतन प्रदेष के लाखों सरकारी मुलाजिम और अफसर महीने से अपने दफ्तरों में निट्ठले बैठें हैं और इनको खाली बैठाकर खिलाने का भार प्रदेष की जनता पर पढ़ रहा है। ऐसा नहीं है कि धन के अभाव में प्रषासन तंत्र कुछ कर ही नहीं सकता। इच्छाषक्ति हो तो थोड़ी सी अक्ल लगा कर बिना पैसे खर्च किए जनता को राहत पहुंचाने के बहुत से काम किए जा सकते है। मसलन, प्रदेष भर के तालाबों को श्रमदान से खुदवाने का काम ये लोग अच्छी तरह से कर सकते हैं। जिससे भविश्य में प्रदेष में पानी का संकट दूर हो सकता है। षहरों में अवैध कब्जे तोड़कर यातायात को सुचारू करना, पुलिस को प्रभावी बनाकर अपराधों पर काबू पाना व जन सहयोग से बढ़ते कूड़े के अंबारों को खत्म करना। पर उसके लिए नौकरषाही और नेताषाही दोनों को अपने वातानुकूलित आरामगाहों से निकल कर धूप में सिर तपाने होंगे।

प्रदेष की ज्यादातर नगरपालिकाओं पर भाजपा हावी है। इन नगरपालिकाओं की भी भारी दुर्गति हो रही है। प्रदेष की ज्यादातर नगरपालिकाओं के अध्यक्षों के उल्टे-सीधे कामों से नगरपालिकाओं का दिवाला निकल गया है। सार्वजनिक जमीनों पर कब्जे कराना, उन्हें रिष्वत लेकर सस्ते दामों पर बेचना या आवंटित करना, खुलेआम निर्लजता से हो रहा है। प्रदेष की आम जनता इस बात से बहुत बौखलाई हुई है कि कुषल, पारदर्षी व ईमानदार प्रषासन देने का दावा करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के दल का इतनी तेजी से पतन क्यों हो गया ? आज उत्तर प्रदेष की जनता ये कहने पर मजबूर है कि भाजपा और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं बचा।

प्रदेष की नौकरषाही एक तरफ तो मायावती के जमाने की ही तरह लगातार हो रहे तबादलों से त्रस्त हैं और कोई भी कडे़ निर्णय ले पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही है। दूसरी तरफ प्रदेष की अनुभवहीन सरकार की कमजोरी का फायदा उठाकर प्रदेष की नौकरषाही का एक बड़ा हिस्सा उद्दंड, अहंकारी और लापरवाह होता जा रहा है। अगर प्रदेष की जनता को थोड़ी-बहुत राहत मिल रही है तो उसका श्रेय संघ के कार्यकर्ताओं को जाता है। संघ के समर्पित कार्यकर्ता आज भी अपना काम उसी तत्परता से कर रहे हैं जैसाकि वे हमेषा करते आए हैं। प्रषासनिक निकम्मेपन से जूझने में जनता की मदद करने संघ के कार्यकर्ता सदैव तत्पर रहते है। पर भाजपा की नीतियों के कारण इनमें भी काफी हताषा आती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है भाजपा नेतष्त्व द्वारा हर जिलों में दलालों और भू-माफियाओं को वरीयता देना। जमीन व संपत्तियों पर कब्जे करने का जो काम ये माफिया पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में कांग्रेसी नेता बन कर करते आए थे वहीं काम आज ये भाजपाई नेता बन कर कर रहे हैं। फिर भी इन षहरों व कस्बों में जब भाजपा के प्रादेषिक ही नहीं राश्ट्रीय नेता भी आते हैं तो वे इन माफियाओं और दलालों का आतिथ्य स्वीकारने में हिचकते नहीं। सत्ता के ये दलाल इन बड़े नेताओं को इस तरह अपने सुरक्षा घेरे में ले लेते हैं कि वर्शों से भाजपा के लिए समर्पित कार्यकर्ता भी मिलने वालों की कतारों में खड़े रह जाते हंै। ऐसी बातें छिपती नहीं हैं। जनता में उनकी खूब टीका-टिप्पणी होती है। पर लगता है कि भाजपा नेतष्त्व को अब अपनी स्वच्छ छवि की कोई परवाह ही न रही और उसने मान ही लिया है कि उसकी कमीज दूसरों की कमीज से ज्यादा चमकदार नहीं है, इसलिए क्यों परवाह की जाए ?

ऐसा नहीं है कि भाजपा उत्तर प्रदेष का महत्व नहीं समझती। उत्तर प्रदेष की राजनीति का केंद्र की सरकार के स्थायित्व से सीधा संबंध है। अगर उत्तर प्रदेष गड़बड़ाया तो केंद्र की सरकार भी स्थिर नहीं रह पाएगी। पर यह जानते हुए भी भाजपा का केंद्रिय नेतष्त्व उत्तर प्रदेष की उपेक्षा करता जा रहा है। आज प्रदेष में अनेक उद्योग-धंधे और कारोंबार बंद हो चुके हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ी है और नौजवानों में हताषा है। आर्थिक विकास होना तो दूर की बात रहा। प्रदेष में आधारभूत संरचनाओं के अभाव व प्रषासनिक निकम्मेपन के कारण प्रदेष से बाहर के लोग औद्योगिक विनियोग में रूचि नहीं ले रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेष के पास प्राकष्तिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। एक तरफ भाजपा अपनी नाकामियों के बावजूद आत्मसम्मोहित होकर सो रही है तो दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह उसकी कमजोरियों का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इनके दलों के नेता, सांसद, विधायक और कार्यकर्ता गुपचुप अपना जनाधार बढ़ाने में लगे हुए हैं। राजब्बर जैसे फिल्मी सांसद भी अपने क्षेत्र में डेरा डाले पड़े हैं और जनता के सवालों पर जमीनी संघर्श चलाने का उपक्रम कर रहे हैं। जाहिर है कि आगामी विधानसभाओं के निकट आने तक इनके तेवर आक्रामक हो जाएंगे और भाजपा रक्षात्मक भी नहीं रह पाएगी। पर षायद भाजपा के राश्ट्रीय नेतष्त्व ने वही रवैया अपना लिया है जो दूसरे पुराने दलों के बड़े नेताओं के अपना रखा है। वह है कि चुनाव जीतने तक जनता को खूब सपने दिखाओं फिर जनता को भूल जाओ और मौज मारों क्योंकि जनता अगले चुनाव में तो तुम्हें वोट देगी नहीं। अगले चुनाव में जब हारो तो दुख मत मनाओ क्योंकि जो आज जीते हैं वह कल हारेंगे। ये मौका मिला है अर्जित धन को ठिकाने लगाने का और मौज लेने का, सो खूब मौज लो तब तक जब तक कि अगला चुनाव सिर पर न आ जाए। यह दुखद स्थिति है। एक तरफ जनता को भेड़ बकरियों की तरह हांका जाए। दूसरी तरफ उसके संसाधन उससे छीन लिए जाएं। उसके संसाधनों को कौडि़यों के मोल बहुराश्ट्रीय कंपनियों को सौप दिए जाएं। जनता को प्रगतिषील और विष्व व्यापी आर्थिक दष्श्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी जाए। यह सब तब हो जबकि उसके सामने रोटी, कपड़ा, मकान, पानी, बिजली, षिक्षा, रोजगार व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध न हों।

अब तो जनता के बुनियादी सवालों की बात करना भी दकियानूसी माना जाता है। पर आष्चर्य यह देखकर होता है कि देष, धर्म, स्वदेषी और संस्कष्ति का बात करने वाला दल भी क्या इतना खोखला है कि जब उसे जनता की सेवा करने का मौका मिला तो रातो-रात उसका नकाब उतर गया। पर ऐसा है नहीं। भाजपा और संघ को खड़ा करने में जिन लोगों ने अपनी जवानी और अपना खून-पसीना होम कर दिया उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। आज उन्हें यह कह कर बरगला दिया जाता है कि साझी सरकार कड़े निर्णय लेने में असमर्थ है। पर क्या साझी सरकार में बैठे भाजपा के मंत्री भी लोकतांत्रिक और जनतांत्रिक जैसी राजनीति करने पर मजबूर हैं ? तमाम सीमाओं के बावजूद क्या उत्तर प्रदेष सरकार में भाजपा के मंत्री अपने स्वच्छ और पारदर्षी आचारण से जनता को राहत नहीं दे सकते ? क्या उनके ऐसे आचरण से सरकार का स्थायित्व खतरे में पड़ जाएगा ? अगर उत्तर प्रदेष के भाजपा के मंत्री अपने उन्हीं जूझारू दिनों को याद करें जब वे प्रदेष की जनता के बुनियादी सवालों को लेकर सड़कों पर संघर्श किया करते थे तो उन्हें सब समझ में आ जाएगा कि कमी कहां है और उसे कैसे पूरा करना है। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो वे अगले चुनाव में ये कह पाने की स्थिति में होंगे कि साझी सरकार की तमाम सीमाओं के बावजूद हम यह सब कर सके। अब अगर आप हमें पूर्ण बहुमत दें तो हम अपने एजंेडा के बाकी सवालों पर भी आपको ठोस नतीजे दे पाएंगे। बषर्ते वे ऐसा करना चाहें। लगता तो यह है कि भाजपा के राजनेताओं में अब न तो दल के प्रति समर्पण रहा और ना ही विचारधारा के प्रति। जब सारा खेल ही कुर्सी का और स्वार्थ सिद्धि का हो तो जनता की परवाह कौन करे ? इसलिए सोरों में भाजपा की करारी षिकस्त चाहे जो भी संदेष दे, भाजपा नेतष्त्व की खुमारी टूटने वाली नहीं है।

Friday, May 26, 2000

हवाला कांड आयकर विभाग के दोहरे मापदंड


हवाला कांड में आयकर विभाग की जांच में हो रही कोताही को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किए हैं। आगामी 13 जुलाई को इस मामले की सुनवाई होगी। देश की राजनीति में हड़कंप मचा देने वाले हवाला कांड को लेकर एक बार फिर अटकलों का बाजार गर्म है। अदालत के नोटिस की इस खबर को देश के लगभग सभी अखबारों ने प्रमुखता से छापा है। जाहिर सी बात है कि देश का हर कारोबारी आदमी इस बात से हैरान है कि जब जैन बंधुओं के यहां से करोड़ों रुपए के काले धन के हिसाब-किताब के खाते 3 मई 1991 को छापे में बरामद हुए थे। तमाम देशों की विदेशी मुद्रा, इंदिरा विकास पत्रा और दूसरे अवैध लेन-देन के सबूत मिले थे तो आज तक आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के खिलाफ क्या कार्रवाही की ?

यह उल्लेखनीय है कि अगर जैन बंधुओं के साथ इस देश के प्रमुख राजनेताआंे के अवैध आर्थिक लेन-देन के सबूत न मिले होते तो आयकर विभाग उनकी जम कर खबर लेता। जैसा इस देश के आम व्यापारी, कारखानेदार और दूसरे कारोबारियों के साथ होता है। किसी व्यापारी के घर छापे में अगर कच्चे हिसाब की एक पर्ची भी मिल जाए तो उसे भी आयकर वाले छोड़ते नहीं हैं। उससे और आगे सबूत नहीं मांगे जाते। उस पर्ची में दर्ज जमा-खर्च को सही मानकर आयकर और जुर्माने का निर्धारण कर दिया जाता है। पर देश की जनता को काले धन के नाम पर अखबारी और टीवी विज्ञापनों में आए दिन धमकाने वाले आयकर विभाग, राजस्व सचिव व भारत के वित्तमंत्राी जैन बंधुओं के साथ विशिष्ट व्यक्तियांेजैसा बर्ताव करते आए हैं। सितंबर 1993 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी जनहित याचिका में मैंने ये मुद्दे उठाए थे । उसके बाद इसी मामले में 18 अप्रैल 199510 जनवरी 1996 को दायर अपने शपथ पत्रों में मैंने वे तमाम तथ्य रखे थे जिनसे हवाला मामले में आयकर विभाग की कोताही सिद्ध होती है। इन्हीं शपथ पत्रों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के राजस्व सचिव को निर्देश दिए थे कि आयकर के इस मामले में सेटलमेंट कमीशनभी अंतिम निर्णय लेने को स्वतंत्रा नहीं होगा। ऐसा सर्वोच्च न्यायालय को इस लिए कहना पड़ा क्योंकि जैन बंधुओं ने 1995 में आयकर विभाग को यह लिखकर दिया था कि वे अपने विरूद्ध हवाला कांड से जुड़े आयकर के सारे मामलों को निपटवाने की एवज में एकमुश्त सौ करोड़ रुपया बतौर आयकर व जुर्माना जमा कराने को तैयार हैं। जैन बंधुओं ने यह प्रस्ताव इस लिए किया क्योंकि उन्हें यह पता है कि अगर ईमानदारी से उनके विरूद्ध जांच हो तो इसकी कई गुना राशि उन्हें बतौर आयकर व जुर्माना जमा करानी पड़ेगी।
आश्चर्य की बात है कि आयकर विभाग ने जैन बंधुओं के इस प्रस्ताव के तहत सौ करोड़ रुपया आज तक जमा नहीं करवाया। अगर आयकर विभाग जैंन बंधुओं से यह रकम लेकर बैंक की सावधि जमा योजना में ही जमा कर देता तो आज ये बढ़ कर दो सौ करोड़ रुपया हो गई होती। सरकार को हुए इस सौ करोड़ रुपए के नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या उसे इस साजिश की सजा मिलेगी ? पैसे जमा कराना तो दूर आयकर विभाग ने तो जैन बंधुओं के खिलाफ ढंग से जांच भी शुरू नहीं की है। इतना ही नहीं जैन बंधुओं ने अपने विरूद्ध चल रहे आयकर के मामलों की फाइलें बिना किसी दिक्कत के दिल्ली से मध्य प्रदेश ट्रांसफर करवा ली है। ताकि वे गुपचुप तरीके से, ले-देकर अपने विरूद्ध चल रहे सब मामलों को, अपने हित में सुलटाने में कामयाब हो जाएं। सबसे पहले इस मामले में जो वांछित कार्रवाही है वह होनी चाहिए। क्या दिल्ली उच्च न्यायालय 13 जुलाई को इस साजिश पर ध्यान देगा ?
जैन हवाला कांड में कुछ ठोस सबूत हासिल करने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय ने आयकर विभाग के जांच प्रकोष्ठ को स्वतंत्रा जांच करने के आवश्यक निर्देश दिए थे। इस संबंध में ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये एजंसियां (सीबीआई और आयकर विभाग) संसद द्वारा पारित कानून के तहत काम करती हैं और इन्हें किसी भी मंत्राी या मंत्रालय से निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके अलावा जांच अधिकारी द्वारा इनकम टैक्स एक्ट के सैक्शन 131 के अंतर्गत दर्ज बयान के आधार पर न केवल किसी भी जरूरी समझे जाने वाले व्यक्ति को जांच के लिए बुलाया जा सकता है। बल्कि किसी भी तरह के कागजात की मांग के लिए सम्मन भेजा जा सकता है। इसके अलावा वांच्छित व्यक्ति के स्थान पर उसके वकील या किसी और व्यक्ति से पूछताछ नहीं की जा सकती। जांच अधिकारी उपयुक्त समझे तो आयकर अधिनीयम की धारा 276सी और 276 सीसी के अंतर्गत अवमानना और असहयोग बरतने के आरोप में उस व्यक्ति पर 10 हजार रूपए तक का दंड भी लगा सकते हैं। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इतने प्रावधान होने के बाद भी आयकर विभाग ने अब तक इस मामले में पैसा लेने वालांे में से किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सम्मन जारी नहीं किया और जांच पड़ताल के नाम पर केवल खानापूर्ति की है। फिर भी कोई राजनेता या दल इस कांड की जांच की मांग नहीं करता, क्यों ?
आयकर विभाग द्वारा की जाने वाली जांच-पड़ताल का काफी महत्व है। क्योंकि आयकर विभाग द्वारा जो भी सबूत आयकर अधिनियम की धारा 131 के तहत दर्ज किए जाते हैं उन्हें कोर्ट के सम्मुख दर्ज सबूतों का दर्जा प्राप्त होता है। जबकि पुलिस द्वारा दर्ज बयानों के साथ ऐसा नहीं है। फिर आयकर विभाग ने यह क्यों नहीं किया ? क्या भारत सरकार के राजस्व सचिव इसका जवाब दे सकते हैं ?
आयकर विभाग के जांच अधिकरी जहां एक ओर उच्चतम न्यायालय को यह दिखाने का नाटक कर रहे थे कि वे उसके सभी निर्देशों का कड़ाई से पालन कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ वे जांच-पड़ताल को लेकर गंभीर नहीं थे। वरना ऐसा क्यों होता कि डीडीआईटी (नार्थ) अग्रवाल देश भर में फैले 10 हजार से भी ज्यादा आयकर अधिकारियों को एक सर्कुलर भेज कर यह जानना चाहते कि उनमें से कौन सा अधिकरी जैन बंधुआं की डायरी में पैसा लेने वालों के मामले में कर निर्धारण करने का काम देख रहा है। जाहिर है कि इस सब के पीछे उनकी यही मंशा थी कि किसी भी तरह जांच की कार्रवाई को अनावश्यक रूप से लंबा खींच कर उसको बेमतलब सा कर दिया जाए। जबकि सब जानते हैं कि जिन लोगों का नाम जैन डायरी में पैसा लेने के मामले में दर्ज है वो कोई मामूली व्यक्ति नहीं है। उनके नाम पते सबको पता हैं। उन्हें यूं सारे देश में ढंूढने की जरूरत नहीं थी
जांच-पड़ताल के किसी भी मामले में जानबूझ कर कोताही बरतना, मामले को दबाने जैसा है, बल्कि उससे भी कही ज्यादा बदतर है।  इस मामले में 70 से ज्यादा लोगों के खिलाफ न तो सम्मन जारी किए गए और ना ही उनके खातों को आयकर अधिनियम के तहत जब्त किया गया है। जबकि इससे भी कही साधारण मामले में जरा-सी शंका होने पर ही ऐसा कर दिया जाता है, ऐसा क्यों किया गया ? क्या राजस्व सचिव जवाब दे सकते हैं ?
इस संबंध में एक रूचिकर तथ्य यह है कि आयकर अधिनियम किसी भी ऐसे खर्चे को जायज़ नही मानता, जो कि किसी नाजायज़ काम के लिए खर्च किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी काम के लिए रिश्वत देता है, जो गैर कानूनी है तो ऐसा करने के लिए जो भी व्यय होगा वो अमान्य होगा और उस पर भी आयकर लगेगा। इसके अलावा 1 लाख रुपए  सालाना से ऊपर की आमदनी को छुपाना भी एक दंडनीय अपराध है। जिसमें तीन से सात साल तक की सजा हो सकती है और देय इनकम टैक्स का 100 फीसदी से 300 फीसदी तक भी बतौर दंड वसूल किया जा सकता है। पर जैन बंधुओं के मामले में आयकर विभाग के अधिकारियों ने दूसरा ही रवैया अपनाया। उन्हें लगातार बचाया जाता रहा ताकि नेताओं को बचाया जा सके। जबकि आयकर अधिनियम, सरकारी खजाने का बकाया कर वसूलने का सबसे सशक्त अधिनियम है।
आयकर विभाग का एक मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि वह हर लेन-देन की पूरी तरह जांच करे।  जैसे कि अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता कि उसे इतना पैसा उपहार स्वरूप (गिफ्ट) मिला है तो संशोधित आधिनियम के अनुसार उपहार स्वीकार करने वाले को, दिए गए पैसे का 30 फीसदी बतौर गिफ्ट टैक्स देना होता था और यदि गिफ्ट स्वीकार करने वाला स्वेच्छा से आयकर रिटर्न नहीं दाखिल करता तो आयकर अधिनियम के अनुसार यह दंडनीय है।
लेकिन जैन डायरी में दर्ज लोगों के नाम किसी भी तरह की कोई जांच नहीं की गई। केवल कुछ ही लोगों से तफतीश की गई। पैसा लेने वाले लोगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखने वालों की ना तो संपत्ति जब्त की गई और न ही उनके बैंक खाते सील किए गए और न ही इन लोगों के खिलाफ धारा 276सी और 276सीसी के अंतर्गत मुकदमें दायर किए गए, जबकि इस संदर्भ में काफी तथ्य पहले से ही प्रकाश में आ चुके थे, जाहिर है कि जांच करनी ही नहीं थी।
इस संबंध में एक और कानूनी पहलू यह है कि आयकर विभाग के उपनिदेशक से वरिष्ठ अधिकारी तक इस तरह के मामले में कार्रवाई के तरीकों पर कोई निर्देश जारी नहीं कर सकते। इस संबंध में जांच अधिकारी को ही इतने अधिकार होते हैं कि वह आयकर अधिनियम की सीमाओं के अंतर्गत यह सुनिश्चित करे कि न केवल मामले का शीघ्र निपटारा हो बल्कि राजस्व संबंधी कार्रवाई भी पूरी हो। परंतु इस तरह के प्रावधान के बावजूद भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि जब यह नहीं किया गया। इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद थे कि गैर कानूनी ढंग से लेन-देन हुआ, फिर भी कोई कार्रवाई आयकर विभाग के ओर से नहीं की गई। इससे सबसे ज्यादा धक्का आयकर विभाग की साख को ही पहुंचाता है।
विडम्बना देखिए कि देश की जनता को बताया जा रहा है कि हवाला कांड में सबूत नहीं है, जबकि हकीकत यह है कि जो सबूत हैं, उन्हें दबाया जा रहा है या तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है। सरकारी जांच एजंसियों की इन साजिशों की कोई नेता चर्चा तक नहीं कर रहा है कि कैसे उन्होंने हवाला आरोपियों को लगातार बचाया है। जाहिर है कि जानबूझकर किए गए इस निकम्मेपन के लिए इन जांच एजंसियों के अधिकारियों को जैन बंधुओं ने मुंह मांगी मोटी रकमें बांटी होंगी। वरना कौन अपनी नौकरी खतरे में डालकर ऐसे अवैध काम करता है ? जो राजनेता हवाला कांड को अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बता कर देशवासियों व अपने दल के कार्यकर्ताओं को मूर्ख बनाते आए हैं, उन्हें इस कांड की जांच में की गई इन तमाम बेईमानियों के खिलाफ संसद में और बाहर शोर मचाना चाहिए। पर वे ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते। उनके दल के कार्यकर्ताओं को उनसे इस खामोशी की वजह पूछनी चाहिए। पर जब तक आयकर विभाग से हमेशा बेइज्जत होने वाले आम व्यापारी, कारोबारी, कारखानेदार और उद्योगपति मिलकर अपने अपने स्तर पर हवाला कांड से जुड़े इन बुनियादी सवालों पर सरकार और आयकर विभाग को कटघरे में खड़ा नहीं करते तब तक कुछ होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय अगर इन बिंदुओं पर कुछ करवा पाता है तभी उसके ताजा कदम का औचित्य है, वरना नहीं।

Friday, May 19, 2000

दिल्ली में श्री जगमोहन का आतंक

केंद्रीय शहरी विकास मंत्रh श्री जगमोहन के ताजा बयानों ने देश की राजधानी में आतंक फैला दिया है। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय आवासीय कालोनियों के निवासी ज्यादा चिंतित हैं। इसमें श्री जगमोहन का कोई दोष नहीं क्योंकि वे उन कुशल प्रशासकों में से हैं जो हर काम को मुस्तैदी से अंजाम देना चाहते हैं, चाहे जो भी काम क्यों न हो। आपातकाल के दौर में वे श्रीमती इंदिरा गांधी के तुनक मिजाज पुत्रा संजय गांधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। तब उन्होंने दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके और दूसरे इलाकों में बड़ी मात्रा में अवैध निर्माण गिराकर पहली बार शोहरत हासिल की थी। इसके बाद जब वे कश्मीर के उप राज्यपाल बने तो उन्होंने वैष्णो देवी तीर्थ स्थल पर व्याप्त भारी अवयवस्था को दुरूस्त करने का काम किया। जिससे उन्हें फिर वाहवाही मिली। घाटी में फैले आतंकवाद पर अपने कार्यकाल में अंकुश लगाने का काम भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। वाजपेयी सरकार में जब उन्हें संचार मंत्रालय थमाया गया तो उन्होंने वहां हो रहे घोटालों पर अपनी लगाम कसने की कोशिश की। पर सत्ता के गलियारों में दखल रखने वालों को यह रास नहीं आया और श्री जगमोहन से संचार मंत्रालय लेकर उन्हें शहरी विकास मंत्रालय सौप दिया गया। इसलिए उनके ताजा बयानों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

सब जानते हैं कि देश के अन्य बड़े नगरों की तरह दिल्ली भी बुरी तरह भू-माफियाओं की गिरफत में रही है, जिन्हें पुलिस, प्रशासन व राजनेताओं का खुला संरक्षण प्राप्त है। इसलिए अवैध निर्माण के मामले में देश के महानगरों में दिल्ली का स्थान सबसे ऊपर है। कहते हैं कि आधी से ज्यादा दिल्ली अवैध रूप से निर्मित है। इसलिए श्री जगमोहन की ताजा मुहिम दिल्ली में शहरी निर्माण नियमों और कानूनों को कड़ाई से लागू करवाने की है। वे चाहते है कि दिल्ली में हो रहे अवैध निर्माण रूक जाएं। जो हो चुके हैं उन्हें तोड़ दिया जाए और इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाए। उनके इन कदमों को उनकी सरकार के बाकी मंत्रियों को सहमति प्राप्त है ऐसा बताते है। इसीलिए वे दमखम के साथ अपने बयान और निर्देश जारी कर रहे हैं। सबसे ताजा निर्देश यह है कि डीडीए के जिन फ्लैटों में अवैध निर्माण हुए हैं उनके आवंटन रद्द कर दिए जाएं। चूंकि डीडीए के अवंटन की शर्तों में यह अधिनियम पहले से ही मौजूद है इसलिए इसमें नया कुछ भी नहीं।नई बात तो यह है कि इस अधिनियम को पहली बार लागू करने की संभावना दिखाई दे रही है। जाहिर है कि अपने जीवन भर की कमाई को लगा कर किसी तरह डीडीए के एक फ्लैट का जुगाड़ करने वाले मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग काफी आतंकित हैं। जैसाकि श्री जगमोहन ने संकेत भी दिया है कि इस आदेश को लागू करने का मकसद डीडीए के घरों में रहने वालों के मन में कानून का डर पैदा करना है। डीडीए के कुछ बस्तियों में अवैध निर्माण गिराने का काम शुरू भी हो चुका है। श्री जगमोहन का यह प्रयास वांछित भी है और समर्थन करने योग्य भी। पर इसके साथ ही कुछ ऐसे टेढ़े सवाल खड़े हो जाते हैं जिनका उत्तर दिए बिना श्री जगमोहन को अपना अभियान आगे बढ़ाने से पहले कुछ सोचना होगा।

आमतौर पर डीडीए का फ्लैट लेने वाले परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वे बच्चों के जवान हो जाने पर दूसरे घर खरीद सकें। इसलिए उन्हीें फ्लैटों में किसी तरह जगह बनाई जाती है। वैसे भी राजनेताओं के भारी भ्रष्टाचार के चलते देश में जो बे इंतहा महंगाई बढ़ी है जिसने आम लोगों की कमर तोड़ दी है। इसलिए ऐसे मजबूर लोगों के मामले में इन बातों का भी ध्यान रखना होगा। सबको एक लाठी से नहीं हांका जा सकता। कानून लोगों के सुख के लिए है, उन्हें प्रताडि़त करने के लिए नहीं। इसी तरह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि एक तरफ तो सरकार देश की अर्थ व्यवस्था का पश्चिमीकरण कर रही है और दूसरी तरफ दिल्ली के व्यवसायिक इलाकों में बड़े कमर्शियल भवन नहीं बनने दे रही। जबकि आधुनिक किस्म के स्टोरों बनाने के लिए हजारों वर्ग फुट के हाॅल चाहिए। सही योजना के अभाव में बेतरतीब विकास होगा ही। पर इसका अर्थ यह नहीं कि गलत को सही ठहराया जाए। हां, यह जरूर देखा जाएगा कि कानून की मार किस पर पड़ती है, बेलगाम राजनेताओं पर या साधारण जनता पर ?

मानी हुई बात है कि समाज के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोग जो करते हैं शेष समाज उनका अनुसरण करता है। दिल्ली में अवैध निर्माण को सबसे ज्यादा संरक्षण यहां के बड़े राजनेताओं ने दिया है और उनसे संबंधित अवैध निर्माणों को तुड़वाए बिना श्री जगमोहन मध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय परिवारों के सीने पर बुलडोजर नहीं चला सकते। दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित मशहूर पांच सितारा होटल हयाॅत रिजेंसी के सामने की ओर अनंतराम डेरी कालोनी है, जिसमें देश के कई मशहूर राजनीतिज्ञों ने गैर-कानूनी तरीके से विशालकाय महलनुमा अवैध बंगले बना रखे हैं। जबकि इस जमीन पर सरकारी फ्लैट बनाए जाने थे। इन राजनेताओं में मौजूदा केंद्रीय सरकार के मंत्राी भी शामिल हैं। इन अवैध आलिशान बंगलों को तोड़ने के शहरी विकास मंत्रालय के पिछले वर्षों में सब प्रयास नाकामयाब रहे। ये ताकतवर राजनेता हर परिस्थिति में अपनी ताकत का उपयोग करके अपने अवैध निर्माणों को सुरक्षित रख पाने में सफल रहे हैं। श्री जगमोहन के सामने अनंतराम डेरी के ये अवैध निर्माण एक चुनौती के रूप में खड़े हैं। जिन्हें तुड़वाए बिना अगर वे डीडीए के फ्लैट वालों या झुग्गी-झोपडि़यों पर बुलडोजर चलवाते हैं तो यह नैतिक काम नहीं होगा। फिर अगर ऐसी तमाम कालोनियों और बस्तियों के लोग शहरी विकास मंत्रालय के सामने धरने पर बैठ जाएं और मांग करें कि ‘पहले अनंतराम डेरी के महल तोड़ों, फिर हमारी ओर मुख मोड़ों।’ अनंतराम डेरी तो एक उदाहरण हैं ऐसे दर्जनों मामले जगमोहन जी के मंत्रालय की फाइलों में बंद हैं जो जनता व मीडिया के निगाह में है।

गनीमत है कि जगमोहन जी ने इस बार ये कहा है कि इन अवैध निर्माणों को अनदेखा करने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को सजा दी जाएगी। अगर दिल्ली के विभिन्न इलाकों में हुए अवैध निर्माणों की सूची तैयार की जाए तो पता चलेगा कि पिछले बीस वर्ष में डीडीए, एमसीडी और एनडीएमसी के ज्यादातर अधिकारी सजा पाने वालों की कतार में खड़े होंगे। जाहिर है कि इन अधिकारियों ने प्रेम और करूणावश तो दिल्ली वासियों को ये अवैध निर्माण करने की छूट तो दी नहीं होगी। मोटी रकम ऐंठ कर ही अपनी आंखंे बंद की होंगी। अगर जगमोहन जी वाकई कानून का डर पैदा करना चाहते हैं तो पहले इन अधिकारियों की खबर ले। इसका एक आसान तरीका यह होगा कि वे सार्वजनिक घोषणा करके दिल्ली वासियों से पूछें कि उन्होंने किस अधिकारी को कब, कितनी रिश्वत देकर अवैध निर्माण करवाया था। जिनके विरूद्ध शिकायतें आएं उनके बारे में निश्चित समय सीमा में जांच करवा कर उन्हें बर्खास्त करें। ताकि भविष्य में कोई भी अधिकारी अवैध निर्माण को देख कर आंख न मीच पाए।

इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि नए अवैध निर्माण तोड़ने से पहले श्री जगमोहन पहले उन विवादास्पद भवनों की जांच करवाएं जिनके अवैध रूप से निर्मित् हिस्सों को पिछले वर्षों में गिराया गया था। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि इनमें से ज्यादा तर ने संबंधित विभागों को फिर पैसा खिलाकर दुबारा पहले ही की तरह अवैध निर्माण करलिए हैं। नए अवैध निर्माण गिराने से क्या फायदा जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अब दुबारा अवैध निर्माण नहीं होगा। ऐसे बहुत सारे विवादास्द भवन आसानी से पहचाने जा सकते हैं क्योंकि जब उनके अवैध हिस्से गिराए गए थे तब वे खबरों में छाए रहे थे।

लोकतंत्रा में सांसदों, विधायकों और मंत्रियों की भूमिका मार्ग दर्शक ही होती है। वीआईपी माने जाने वाले केंद्रीय दिल्ली इलाके में बने सांसदों और मंत्रियों के भवनों और सत्तारूढ भाजपा सहित सभी दलों के मुख्यालयों में नियमों और कानूनों को ताक पर रखकर डट कर अवैध निर्माण हुए है। जिन्होंने अंग्रेजों की बसाई इस दिल्ली का खूबसूरत चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है। कानून में आस्था रखने वाला देश का हर आम नागरिक श्री जगमोहन से अगर यह अपेक्षा रखे कि वे इन अतिविशिष्ट लोंगों के खिलाफ बिना देरी के कड़ी कार्रवाही करेंगे तो इसमें क्या गलत है ?

इस बात के तमाम प्रमाण प्रशासनिक फाइलों में दर्ज हैं कि अवैध निर्माण कर चुके साधन संपन्न लोगों ने प्रशासन के विरूद्ध विभिन्न न्यायालयों से स्थगन आदेश ले रखे हैं और सरकारी अफसरों को रिश्वत देकर मुकदमें की तारीख लगातार आगे बढ़वाते रहते हैं, या तारीख पड़ने ही नहीं देते हैं। इससे पहले कि शहरी विकास मंत्रालय के बुलडोजर आम जनता के विरूद्ध अभियान छेड़े, यह जरूरी होगा कि न्यायालयों में लंबित ऐसे सभी मामलों में देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को खींचा जाए और इन मामलों को जल्दी निपटवाने की मुहिम चलाई जाए। ताकि लोग अवैध निर्माण को बचाने के लिए अदालतों की तरफ दौड़ना बंद करें। जगमोहन जी से पहले इसी सरकार में शहरी विकास मंत्राी रहे श्री राम जेठमलानी ने दिल्ली की रिंग रोड पर स्थित सिंधिया परिवार की विशाल बेशकीमती जमीन को निहायत पक्षपातपूर्ण ढंग से अधिग्रहण से मुक्त करके सिंधिया परिवार को सैकड़ों करोड़ रुपए का फायदा करवाया है। जबकि दिल्ली के देहातों में बसे लाखों परिवारों की खेती और चरागाहों की जगह को अधिग्रहण करते समय सरकार का दिल नहीं पसीजा। श्री जेठमलानी तो ऐसे और भी भूखंडों को अधिग्रहण से मुक्त करने की कार्रवाही शुरू कर चुके थे। वो तो भला हो श्री जगमोहन की मुस्तैदी का कि उन्होंने शहरी विकास मंत्रालय का पदभार संभालते ही उस पर रोक लगा दी। क्या श्री जगमोहन सिंधिया परिवार की इस विवादास्पद जमीन और ऐसी ही दूसरी जमीनों के मामले में जनता से किए गए धोखे को खुलासा करके इस घोटाले से जुड़े जिम्मेदारों लोगों को सजा दिलवाने की भी कोई कदम उठाएंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते है तब यह संदेश जाएगा कि जगमोहन जी की नजर में भी सब बराबर नहीं हैं और वे अपना निशाना साधारण लोगों को बना रहे हैं जबकि बड़ें लोगों को हाथ तक नहीं लगा रहे हैं।

जो हालत दिल्ली की है कमोवेश वही हालत देश के दूसरे नगरों की है। जहां इसी तरह सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से अवैध निर्माण का धंधा फलता-फूलता रहा है।वहां भी जब कभी कोई दमखम वाला अफसर या मंत्राी अवैध निर्माण गिराने की कोशिश करता है तो उसका लक्ष्य प्रायः आम लोग ही होते है। साधन संपन्न और ताकतवर लोग नहीं। इसलिए आम जनता के मन में ऐसी दोहरी नीतियों को देखकर क्रोध आना स्वभाविक ही है। एक अंग्रेजी कहावत है कि, ‘सीजर की पत्नी को ईमानदार होना ही नहीं, ईमानदार दिखना भी चाहिए।’ जगमोहन जी की कर्तव्यनिष्ठा और नेक ईरादों पर उंगली नहीं उठाई जा सकती पर अगर वे राजधानी के साधन संपन्न और ताकतवर लोगों को छुए बिना आम लोगों पर बुलडोजर चलाते हैं तो स्वभाविक ही है कि जनता की ओर से इसका भारी विरोध होगा। इतना ही नहीं जगमोहन जी चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न बरते, फिर भी उनके अधिनस्थ अधिकारी इस माहौल का निजी लाभ उठाने से नहीं चूकेंगे। अक्सर ज्यादातर शहरों में देखा गया है कि स्थानीय पुलिस पैसे खाकर अवैध निर्माण की तरफ से आंख मूंद लेती है और अगर धमकाती भी है तो अवैध निर्माण रोकने के मकसद से नहीं बल्कि ऐसा निर्माण करने वालों से मोटा पैसा ऐठने के मकसद से। इस बात की पूरी संभावना है कि जगमोहन जी अपने मंत्रालय की फाइलों में उलझे रहे या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के पुस्तकालय की पुस्तकों में डूबे रहे है और उनके फारमानों का डर दिखा कर उनके ही अधीनस्थ अधिकारी राजधानी वासियों से नए सिरे से उगाही शुरू कर दें। यह असंभव नहीं है। इसलिए जगमोहन जी का रास्ता काफी मुश्किल है। पर मजबूत इरादे के लोग राह की मुश्किलों से रास्ते नहीं बदला करते। जगमोहन जी भी आसानी से इस अभियान को छोड़ने वाले नहीं है। वह दूसरी बात है कि जिनके स्वार्थ इस अभियान से टकराएंगे वे भू-माफिया सरकार पर दबाव डलवार कर एक बार फिर जगमोहन जी का मंत्रालय ही छिनवा दें। इस संभावना से बचने का एक ही तरीका है कि श्री जगमोहन राजधानी की जनता से खुलकर सहयोग लें और अवैध निर्माण तोड़ने के अभियान में सरकार और जनता को आमने-सामने खड़ा करने की बजाए एक ही पाली में खड़ा करें। हां, यह स्वभाविक ही है कि जनता का विश्वास जीते बिना उससे ऐसे धर्मनिष्ठ आचरण की अपेक्ष नहीं की जा सकती। विश्वास जीतने की पहली शर्त है अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना। इस लेख के शुरू में उठाए गए सवालों पर अगर जगमोहन जी जनता को यह विश्वास दिला पाते हैं तो कि उनकी नजर में नियम और कानून तोड़ने वाले सभी लोग एक जैसे हैं तो उन्हें जनता का सहयोग अवश्य मिलेगा। पर इसके लिए पहल डीडीए की कालोनियों से और गंदी बस्तियों से नहीं बल्कि अनंतराम डेरी, सरकारी बंगलों और दूसरे बड़े लोगों के खिलाफ कड़ी और ठोस कार्रवाही करके ही की जानी चाहिए। ताकि किसी के मन में कोई शक न रह जाए। अगर जगमोहन जी इन सब सीमाओं के भीतर राजधानी को सुंदर और सुव्यवथित बना पाते हैं तो इससे देश के बाकी नगरों में भी बैठे अधिकारियों को प्रेरणा मिलेगी।