शालिनी अग्रवाल की चिता की आग अभी ठंडी नहीं हुई कि देश की राजधानी दिल्ली में दहेज हत्याओं की बाढ़-सी आ गई है। कोई दिन नहीं जाता जब अखबारों की पहले पेज पर दहेज के लालच में मार दी गई किसी न किसी अबला की दर्दनाक हत्या की कहानी नहीं छपी होती। आमतौर पर ये माना जाता है कि गरीब मां-बाप की बेटी ही दहेज की बेदी पर कुर्बान होती होंगी। पर आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों जिन हत्याओं की खबर सुर्खियों में रही वे सब उन नवविवाहिताओं के बारे में थी जिनके पिता और श्वसुराल दोनों ही काफी संपन्न हैं। 23 वर्ष की शालिनी अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी। उसकी दो वर्ष की बेटी बताती है कि, ‘पापा ने मम्मी को मार दिया।’ शालिनी के पिता ने अपने दामाद राहुल को दहेज में तमाम दूसरी चीजों के अलावा ओपेल एस्ट्रा कार दी थी। पर शादी के बाद उस कार को बेच कर राहुल होन्डा सिटी ले आया और इस तरह जो अतिरिक्त रकम उसने खर्च की वही वह शालिनी के पिता से मांग रहा था। ऐसा नहीं है कि शालिनी के घर वाले राहुल की इस वाहियात मांग को पूरा करने से पीछे हट जाते। पर इससे पहले कि वे राहुत की बर्बरता का अंदाजा लगा पाते कि राहुल ने रिवाल्वर से शालिनी की हत्या कर दी। देश के अलग-अलग हिस्सों से ये खबरें आ रही है कि दहेज के लालच में नवविवाहिताओं की हत्या की दर लगातार बढ़ती जा रही है।
दहेज विरोधी कानूनों, महिला संगठनों व जन चेतना के व्यापक प्रसार के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ? साफ जाहिर है कि दहेज के लोभियों के मन में न तो पुलिस का डर है और न ही कानून का। आंकड़े देखने से पता चलता है कि दहेज हत्या के मामले में जो मुकदमें दर्ज होते हैं उनमें से चार फीसदी मुकदमों में ही सजा मिल पाती है। दहेज हत्या के 96 फीसदी अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। इसलिए दहेज के लालच में घर की नव-ब्याहाता की हत्या करना घाटे का सौदा नहीं है। सजा की संभावना बहुत कम और नई शादी करके दुबारा दहेज पाने की संभावना बहुत ज्यादा रहती है। दहेज हत्या के मामलों में अक्सर देखने में आया है कि पुलिस की भूमिका हत्यारों के पक्ष में रहती है। जिनकी लाडली कच्ची उम्र में ही अकाल मृत्यु के गाल में समा जाती है वो थाने वालों को क्योंकर रिश्वत देने लगे ? वे तो रोएंगे, चीत्कार करेंगे, थाने के दरोगा की देहरी पर माथा रगडें़गे और उससे न्याय देने की अपील करेंगे। अगर वो नहीं सुनेगा तो भारी दुख और हताशा में मजबूर होकर उसे बुरा-भला कहेंगे। किस्मत के मारे ये बेचारे इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं ? पर जिस खूनी दरिंदे पति ने अपनी नवयौवना पत्नी की हत्या करने जैसा जघन्य अपराध किया है, जिसके पत्थर दिल बाप ने अपनी बहू की हत्या की साजिश में बेटे का साथ दिया है, जिसकी चुडै़ल मां ने अपनी बहू को यातनाएं देते वक्त यह भी नहीं सोचा कि कल वो भी किसी की बेटी थी, जिसकी बहन और भाईयों ने अपने भाभी की हत्या का माहौल बनाने में आग में घी का काम किया है, ऐसा वहशी परिवार पुलिस को रिश्वत क्यों न देगा ? क्योंकि उनके मन में चोर है, उन्हें पता है कि उन्होंने कानून और समाज की नजर में एक जघन्य अपराध किया है। स्वभाविक ही है कि ऐसे हत्यारे परिवार की हर कोशिश होती है कि मामले पर किसी तरह खाक डल जाए। सबूत मिटा दिए जाएं। बहु के मायके वालों की तरफ से उनके खिलाफ थाने में लिखी जाने वाली रिपोर्ट इस तरह अधकचरी हो कि आगे चलकर उसका फायदा उठाया जा सके। यही वजह है कि ऐसी हत्या के बाद अक्सर पुलिस मामले को दुर्घटना बता कर रफा-दफा कर देती है। सोचने की बात है कि खाना पकाते वक्त जल कर ज्यादा नवयुवतियां की क्यों मरती हैं ? जबकि कम उम्र की लड़किया तो ज्यादा फुर्तीली और चैकन्नी होती हैं। अगर खाना पकाने में जल कर मरने की कोई दुर्घटना होती भी है तो वो उन बुजुर्ग महिलाओं के साथ होनी चाहिए जिनके अंग शिथिल पड़ चुके हों और जो ऐसी दुर्घटना होने पर तुरत-फुरत भाग कर अपनी रक्षा करने में सक्षम न हों। पर विडंबना देखिए कि अखबारों में जब भी खाना पकाते वक्त मौत होने की खबर छपतीं हैं तो उनमें मरने वाली कोई नववधु ही होती है। जाहिर है कि श्वसुराल वालों द्वारा जबरन पकड़ कर जला दी गई बहू की मौत को पुलिस वाले मोटी रकम खाकर दुर्घटना बता देते हैं। उधर कानून की प्रक्रिया भी इतनी धीमी है कि दहेज हत्या के अपराधियों को सजा मिलने में कई दशक लग जाते हैं। फिर भी सजा चार फीसदी अपराधियों को ही मिल पाती है।
पुलिस और कानून के ऐसे निकम्मे रवैए के कारण ही मार डाली गई लड़की के घर वालों, रिश्तेदारों, शुभचिंतकों या अड़ौसी-पड़ौसियों का उत्तेजित होकर लड़के वालों के घर धावा बोलना एक स्वभाविक सी बात है। कन्या पक्ष के लोगों को इस बात पर खीज आती है कि हत्या के मामले में प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में ही उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। अगर कन्या पक्ष के लोग दबाव न बनाए रखें तो रिपोर्ट दर्ज होने की संभावना काफी कम रह जाती है। इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात वो होती है जब थानेदार कन्या पक्ष के बयान को तोड़-मरोड़ कर दर्ज करता है। शालिनी के मामले में यही हुआ। कन्या पक्ष के लोग पहले दिन से कह रहे थे कि ये दहेज हत्या का मामला है। शालिनी को उसकी सास, ननद, श्वसुर और पति बराबर यातनाएं देते रहे थे। जिनकी शिकायत वह डरी-सहमी सी अपनी मां और मामाओं से करती रहती थी। चूंकि शालिनी के पिता का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है और वे कच्ची गृहस्थी के मुखिया हैं इसलिए शालिनी उन्हें अपना दर्द बता कर, उनके जीवन को खतरे में नहीं डालना चाहती थी। पर शालिनी के परिवार की इस शिकायत को सुन कर भी थाने वालों ने अनसुना कर दिया। चूंकि राहुल और उसके पिता सबरजिस्ट्रार आफिस में कातिब का काम करते हैं और दिल्ली के तमाम महत्वपूर्ण लोगों की अवैध संपत्तियों की रजिस्ट्री में मदद करते रहे हैं इसलिए उन्हें अपने धन बल और संपर्क बल पर पूरा भरोसा था कि पुलिस उनका कुछ नहीं बिगाड़ेगी। आश्चर्य की बात है कि शालिनी की हत्या के मामले में पुलिस ने उसकी सास और ननद को गिरफ्तार नहीं किया। पुलिस के ऐसे रवैए से नाराज एक क्रुद्ध भीड़ ने जब राहुल की कोठी पर हमला बोल दिया तो पुलिस शालिनी के परिवार जनों को गिरफ्तार करने के पीछे पड़ गई। यह सही है कि तोड़-फोड़ की कार्रवाही कानूनन जुर्म है पर यहां प्रश्न उठता है कि कौन सा जुर्म बड़ा है ? किसी की लाड़ली बेटी को गाजे-बाजे और दान-दहेज के साथ ब्याह कर लाओं और फिर उसे तड़पा-तड़पा कर मार दो या जब किसी की लाड़ली इस तरह बेमौत मारी जाए और पुलिस अपराधियों को संरक्षण दे रही हो तो उनके शुभचिंतक खीज कर क्रोध में हत्यारे परिवार को खुद ही थोड़ी-बहुत सजा देने का काम कर बैठे? दहेज हत्याओं की बढ़ती संख्या के लिए पुलिस की ऐसी नाकारा भूमिका ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। जिस पर फौरन ध्यान दिया जाना चाहिए और दोषी पुलिस कर्मियों को सजा देने की श्ुरूआत की जानी चाहिए।
यूं महिला संगठन, समाज शास्त्री और सुधारक लोग यही कहेंगे कि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति ज्यादा जागरूक किया जाए। उनके आर्थिक अधिकार सुनिश्चित किए जाएं। परिवार के किसी भी सदस्य के नाम में उनकी संपत्ति का हस्तांतरण अवैध घोषित करने वाले कानून बनाए जाएं। दहेज हत्या के मामलों से निपटने के लिए अलग तरह की पुलिस व्यवस्था या विशेष अदालतें गठित की जाएं। पर हकीकत यह है कि ये सब कदम पिछले बीस वर्षों में काफी मात्रा में उठाए जा चुके हैं और इनका थोड़ा-बहुत असर भी पड़ा है। पर सबसे ज्यादा असर अगर पड़ेगा तो वह होगा पुलिस और कानून का डर। कानून आज भी दहेज लोभी हत्यारों के पक्ष में नहीं है। पर जब किसी मुकदमें की बुनियाद ही कमजोर होगी तो उसके नतीजे सही कैसे आएंगे ? दहेज हत्या के मामले में बुनियाद होती है- संबधित थाने में दर्ज प्राथमिक सूचना रिपोर्ट व पुलिस इंसपेक्टर की रिपोर्ट जो वह मामले की जांच करने के बाद तैयार करता है। इसलिए प्रायः दहेज हत्या के अपराधी एक अच्छा आपराधिक वकील पकड़ लेते हैं और थाने में पेशगी रकम पहुंचवा देते हैं ताकि थाना उनके पक्ष में हो जाए और अपनी कार्रवाही को इस तरह करे कि हत्यारे अंततः छूट जाएं। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार और नागरिकों दोनों को पहले करनी होगी। कानून में इस तरह का प्रावधान बना लिया जाना चाहिए कि दहेज हत्या के बाद कन्या पक्ष के लोग थाने में आकर जो भी रिपोर्ट दर्ज कराएं उसके आडियो और वीडियो कैसेट वहीं तैयार किए जाएं। जिनकी एक प्रति थाने में रहे और दूसरी प्रति कन्या पक्ष को सौप दी जाए। ताकि अगर बाद में कन्या पक्ष को लगे कि उनकी बातें थाने में हुबहू दर्ज नहीं की गई है तो वे उच्च अधिकारियों या अदालत के सामने इन टेपों को प्रस्तुत कर अपनी बात सिद्ध कर सकें।
हर समाज में समाज की अवरोधक स्थितियों से निपटने की अपनी एक स्वभाविक प्रक्रिया होती है। भारत में भी यह व्यवस्था सदियों से चली आ रही थी। जिसे फिरंगी हुक्मरानों ने जानबूझ कर ध्वस्त कर दिया। दहेज हत्या के मामले में तथ्यों की सबसे ज्यादा जानकारी घटना स्थल के आसपास रहने वाले लोगी की होती है। वे ही ऐसी दुर्घटना से सबसे ज्यादा आंदोलित होते हैं। क्या कानून में सुधार करके कुछ ‘जूरी’ जैसा गठन किया जा सकता है ? ताकि हर इलाके के लोग ऐसे मामलों में दहेज के लोभी परिवार के खिलाफ कुछ दंडात्मक कार्रवाही फौरन ही करने में सक्षम हो सके। हत्या से जुड़े मुकदमे को भारतीय दंड संहिता के तहत बाकायदा अदालत में चलाया जा सकता है। यह व्यवस्था कुछ ऐसी ही होगी जैसी अनेक महानगरों में पुलिस और मजिस्ट्रेट के काम के लिए नागरिकों के बीच में से कुछ लोगों को नियुक्त करके चलाई जाती है। चूंकि इस व्यवस्था में स्थानीय लोग शामिल होंगे इसलिए उनका दबाव दहेज के लोभियों पर ज्यादा पड़ेगा और उसका असर लंबे समय तक रहेगा। इस तरह अपने ही समाज में अपमानित और तिरस्कृत होने का भय ऐसे दरिंदों को नवयौवनाओं की हत्या करने से रोकेगा। इस विषय पर सभी संबंधित संस्थाओं और संगठनों द्वारा गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। इसके साथ ही यह भी बहुत जरूरी है कि लड़कियों को उनके कानूनी हक स्कूल से ही पढ़ाए जाएं और उनमें अत्याचार को न सहने की मानसिकता को विकसित किया जाए। उन्हें यह समझाया जाए कि अपने माता-पिता को दहेज की मार से बचाने के लिए अगर वे खुद शहीद हो जाती हैं तो वह स्थिति उनके माता-पिता का शेष जीवन बर्बाद कर देगी। इससे कहीं अच्छा होगा कि ऐसी लड़कियां जिनके श्वसुराल में दहेज की मांग करके उन्हें सताया जाता है बहुत शुरू में ही इस अत्याचार के विरूद्ध अपने घर वालों को पूरी तरह सतर्क रखें और ये मान लें कि इस तरह सताने वाला पति परमेश्वर नहीं हो सकता। इसलिए उसे समय रहते ही सुधार लिया जाए और न सुधर तो उसे सजा दिलवाने की व्यवस्था खुद या किसी की मार्फत सुनिश्चित कर ली जाए। यह कहना जितना आसान है उतना व्यवहार में मुश्किल। जिस समाज में लड़की को यह कह कर श्वसुराल भेजा जाता हो कि अब तेरी अर्थी ही वहां से निकले, यही तेरा धर्म है, तो उस समाज में लड़की अत्याचार सह कर भी मुंह कैसे खोलेगी ? इसलिए बदलते आर्थिक परिवेश में जब लोगों की भौतिक आकांक्षाएं मानवीय संवेदनाओं पर हावी हो रही हों तब भी अपनी बिटिया को ऐसी पारंपरिक शिक्षा देना उसे कुंए में ढकेलने जैसा है। यह सही है कि भारतीय समाज अभी उस आर्थिक स्थित तक नहीं पहुंचा जब नारी के लिए आर्थिक सुरक्षा सुगमता से उपलब्ध हो। इसलिए उनके मन में यह स्वभाविक भय बना रहता है कि अगर मैंने पति का घर छोड़ दिया तो मैं कहीं की न रहूंगी। इस डर से गरीब और बेपढ़ी लड़कियां ही नहीं संपन्न और सुशिक्षित लड़कियां भी ग्रस्त रहती हैं। इसलिए अत्याचार सह कर भी खामोश रहती हैं। उनकी इस मानसिकता को बदलने की जिम्मेदारी हर लड़की के माता-पिता की है। दहेज उत्पीड़न की समस्या नई नहीं है। पर आज की परिस्थिति में इसका चेहरा विकृत और विक्राल होता जा रहा है इसलिए इस समस्या का समाधान नए संदर्भों में खोजने की जरूरत है।
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