तहलका की संवाददाता के आरोपों पर पत्रिका के संस्थापक संपादक तरूण तेजपाल को बलात्कार के आरोप में गोवा की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। क्रांइम ब्रांच की जांच के बाद यह तय होगा कि आरोपों में कितना दम हैं। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जाहिरन तरूण तेजपाल को अदालत से सजा मिलेगी।
इसलिए हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं पर यहां एक हादसे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जबसे महिला अत्याचार पर जागरूकता आई है और देश का महिला संगठन व मीडिया सक्रिय हुआ है तब से स्त्रियों को लेकर जो भी कानून बन रहे हैं उनसे समस्याओं का हल नहीं निकल रहा। अलबत्ता, शोर खूब मच रहा है। हमारा आशय यह बिलकुल नहीं है कि कानून न बने और महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। पर जिस भारत में नारी की पूजा होती रही हो, जहां नारियां शास्त्रार्थ किए हों, गणराज्य की राजनैतिक सभाओं में बराबरी का योगदान दिया हो और यहां तक कि कई बार देश में शासन भी किया हो, उस देश में नारी को अबला बताकर उसके शोषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती। पर अगर कानून ही हर समस्या का हल होते तो अब तब यह समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत कुछ और है।
देश में निर्भया कांड के बाद बलात्कार को लेकर जो कानून बना क्या उससे बलात्कार की दर में 1 फीसदी भी कमी आई है ? उत्तर है नहीं। इसी तरह दहेज उत्पीड़न के लिए बने दहेज कानून की भी दशा है। इस कानून के बनने के बावजूद न तो दहेज का मांगना और देना कम हुआ और ना ही दहेज के कारण बहुओं पर होने वाले अत्याचारों पर कोई कमी आई है। ठीक वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि रिश्वत लेना और देना जुर्म है पर क्या इस कानून के कारण रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या घटी है ?
जाहिर है सिर्फ कानून समस्या का हल नहीं हो सकते है। कानून का प्रभाव डराने या चेतावती देने तक सीमित होता है। किसी भी अपराध का कारण जाने बिना उसका समाधान कैसे हो सकता है ? यह तो वह बात हुई कि वायु में भारी प्रदूषण हो, लोग लगातार खांसते रहते हों और कानून बन जाए कि सार्वजनिक स्थलों पर खांसना बना है। कितनी हास्यादपद बात है।
ठीक ऐसे ही महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं उनकी पृष्ठभूमि में है हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, हमारी सांस्कृतिक विविधता और समाज में महिला सशक्तिकरण का अभाव। इन दृष्टिकोणों से समस्या को सुलझाए बिना आप महिलाओं के प्रति नित्य होने वाले करोडों अपराधों को नहीं रोक सकते, पर वह लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए समाज को समर्पित सुधारक चाहिए। सार्थक शिक्षा चाहिए। आर्थिक प्रगति का उचित बटवारा चाहिए। पिछड़े समाजों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहिए। हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को समुचित वेतन की रोजगार चाहिए, जिसमें उसका परिवार पल सके। बिना इन सब समाधानों को खोजे हुए केवल कानून अपने आप में कुछ खास नहीं कर सकता।
महिलाओं की रक्षा के लिए हाल के वर्षों में बने कानूनों से उनकी कितनी रक्षा हुई है, इसका तो अभी कोई अध्ययन चर्चा में नहीं आया। पर ऐसे कारण सैकड़ों हैं जब इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ महिलाओं ने अपने निर्दोष पति, उसके मित्र या उसके परिजनों को नाहक थानों और अदालतों में घसीटा हो। असली दुःख पाने वाली महिलाएं तो शायद थानों तक पहुंच भी नहीं पातीं। पर इन कानूनों का सहारा लेकर पुरूष समाज को ब्लैकमेल करने वाली महिलाएं भी अब काफी तेजी से दिखाई देने लगी हैं। ऐसी महिलाएं झूठे मुकद्दमों में फंसा कर बहुत से लोगों का जीवन बर्बाद कर रही हैं पर उनकी रोकथाम की अभी कोई व्यवस्था नहीं हैं। इससे असामाजिक तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है।
इसलिए देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों पर पुर्नविचार करें। केवल महिला संगठनों के आंदालनों, मीडिया और संसद के शोर से प्रभावित होकर जो कानून बन गए हैं उनको कसौटी पर परखने की जरूरत है और आवश्यकता अनुसार बदलने की भी जरूरत है।
हम जानते हैं कि ऐसा मुददा छेड़ने पर कुछ महिला संगठन आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि डंडे के जोर पर समाज नहीं बदला करते हैं। पीढ़ियां लग जाती हैं बदलाव लाने के लिए। बेहतर यह होगा कि वे इन सवालों पर बिना उत्तेजित हुए निष्पक्षता से पुर्नविचार करें। फिर खुद पहल करें और सरकार पर दबाव डाले जिससे इन कानूनों में सुधार हो सके। यह धीमी प्रक्रिया जरूर हैं पर इसके परिणाम दूरगामी और सार्थक होंगे।