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Monday, October 30, 2023

कमरतोड़ महंगाई से आम जनता त्रस्त


कमरतोड़ मंहगाई से आज हर आम देशवासी व विशेषकर सेवा निवृत्त लोग त्रस्त हैं। लोगों का कहना है कि पहले कहते थे ‘दाल रोटी खाओ- प्रभु के गुण गाओ’। अब तो दाल भी 200
किलो बिक रही है। सरकार अपनी मजबूरी का रोना रोती है। पर पहले से बदहाली में रहने वाले हिंदुस्तानी का क्या होगा, किसे फिक्र है? कहने को चालू वित्त वर्ष 2023-24 की अप्रैल-जून की पहली तिमाही में 7.8 प्रतिशत रही है पर इसका असर देश के किसान मजदूरों पर नहीं पड़ रहा। बढ़ती हुई महंगाई में ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला क्या खाएगा, क्या पहनेगा, कैसे घर में रहेगा, इलाज कैसे कराएगा और बच्चों को कैसे पढ़ाएगा? इसकी चिंता गरीबी की परिभाषा देने वालों को नहीं।



आज दुनिया भर में पेट्रोलियम पदार्थों व खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। इसलिए मंहगाई भी बढ़ रही है। पर कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि यह हालात पैदा कैसे हुए ? सारी दुनिया को तरक्की और ऐशोआराम का सपना दिखाने वाले अमरीका जैसे देशों के पास कोई हल क्यों नही है। अभी तो भारत के एक छोटे से मध्यमवर्ग ने अमरीकी विकास मॉडल का दीवाना बन कर अपनी जिंदगी में तड़क भड़क बढ़ानी शुरू की है।  जिस तरह के विज्ञापन टीवी पर दिखाकर मुठ्ठी में दुनिया कैद करने के सपने दिखाये जाते हैं अगर वाकई हर हिंदुस्तानी ऐसी जिंदगी का सपना देखने लगे और उसे पाने के लिए हाथ पैर मारने लगे तो क्या दुनिया के अमीर देश एक सौ दस करोड़ भारतीयों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएंगे ? क्या दे पाएंगे उन सबको जरूरत का खाद्यान्न और पेट्रोल ? आज दुनिया में गरीबी समस्या नहीं है। समस्या है दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकठ्ठा होना। धनी देश और धनी लोग साधनों की जितनी बर्बादी करते हैं उतनी में बाकी दुनिया सुखी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड के लोग हर वर्ष 410 अरब रु. की कीमत का खाद्यान्न कूड़े में फेंक देते है।



पश्चिमी विकास का मॉडल और जीवन स्तर हमारे देश के लिए बिल्कुल सार्थक नहीं है। पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हमारी सरकारें जनविरोधी नीतियां अपना कर अपने प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग कर रही है और उन्हें बर्बाद कर रही हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि जब जब मानव प्रकृति से दूर हुआ और जब जब हुक्मरान रक्षक नहीं भक्षक बने तब तब आम आदमी बदहाल हुआ। कुछ वर्ष पहले एक टेलीविजन चैनल पर एक वृत्तचित्र देखा था जिसमें दिखाया था कि विश्व बैंक से मदद लेने के बाद अफ्रीका के देशों में कैसे अकाल पड़े और कैसे भुखमरी फैली। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मदद को तो बेईमान नेता, अफसर और दलाल खा गये। जनता के हिस्से आई मंहगाई, मोटे टैक्स, खाद्यान्न का संकट और भुखमरी। इस फिल्म में रोचक बात यह थी कि उस देश के आम लोगों ने मिट्टी, पानी, सूरज की रोशनी और हवा की मदद से अपने जीने के साधन फिर से जुटाना शुरू कर दिया था।


भारत की वैदिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी थी। प्रकृति के साथ संबंध बनाकर जीना सिखाती थी। कृषि गौ आधारित थी और मानव कृषि आधारित और दोनों प्रकृति के चक्र को तोड़े बिना शांतिपूर्ण सहअस्तिव का जीवन जीते थे। दूसरी खास बात ये थी कि जब जब हमारे राजा और हुक्मरान शोषक, दुराचारी और लुटेरे हुए तब तब जनता को नानक, कबीर, रैदास, मीरा, तुकाराम, नामदेव जैसे संतों ने राहत दी।  आज सरकार राहत दे नहीं पा रही है। लोकतंत्र होते हुए भी आम आदमी सरकार की नीतियों को प्रभावित नहीं कर  पा रहा है। उसके देखते देखते उसका प्राकृतिक खजाना लुटता जा रहा है और वो असहाय है। तकलीफ की बात तो यह है कि आज उसके जख्मों पर मरहम लगाने वाले संत भी मौजूद नहीं। टीवी चैनलों पर पैसा देकर अपने को परमपूज्य कहलवाने वाले चैनल बाबाओं की धूम मची है। अरबों रूपया कमाकर अपने को वैदिक संस्कृति का रक्षक बताने वाले ये आत्मघोषित संत पांच सितारा आश्रम बनाने और राजसी जीवन जीने में जुटे है। इनकी जीवन शैली में कहीं भी न तो प्रकृति से तालमेल है और ना ही वैदिक संस्कृति का कोई दूसरा लक्षण ही। इनके जीवन में और अमरीका के रईसी जीवन शैली में क्या अंतर है ?


वैदिक ऋषि गाय, जमीन, जंगल और पानी के साथ आनंद का जीवन जीते थे। श्रम करते थे। पर आज अपने को संत बताने वाले अपने परिवेश का विनाश करके भोगपूर्ण जीवन जीते हैं और लाखों लोगों को माया मोह त्यागने और वैदिक मान्यताओं पर आधारित जीवन जीने का उपदेश देते हैं। इनकी वाणी में न तो तेज है और न ही असर। इसलिए आम जनता के संकट आने वाले दिनों में घटने वाले नहीं है। न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ कमजोर होगी न ही हमारे हुक्मरान अपनी गलतियों को दोहराना बंद करेंगे। इसलिए मंहगाई हो या खाद्यान्न का संकट हमें नए सिरे से अपनी जीवन शैली के विषय में सोचना होगा। सौभाग्य से आज देश में ऐसे अनेकों लोग है जो इन तथाकथित संतों की तरह खुद को परमपूज्य नहीं कहते पर बड़ी निष्ठा, त्याग और अनुभव के आधार पर आम लोगों को वैकल्पिक जीवन जीने के सफल मॉडल दे रहे है। इनकी बात मानकर लाखों लोग सुख का जीवन जी रहे है। इन लोगों को मंहगाई बढ़ने से असर नहीं पड़ता क्योंकि इन्हें इस बाजार से कुछ भी खरीदना नहीं होता। ये अपनी जरूरत की हर वस्तु खुद ही पैदा कर रहे हैं। 


ऐसा ही एक नाम है सुभाष पालेकर का। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में सुभाष पालेकर ने आम आदमी की जिंदगी बदल दी है। उन्हें वर्ष 2016 के भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। आज भी उनके अनुभव सुनने और उनसे ज्ञान लेने लाखों किसान जुटते हैं और उन्हें दो तीन दिन तक लगातार सुनते हैं। ऐसे सैकड़ों लोग देश में और भी है जिन्होंने वैदिक जीवन पद्धति को समझने और उसे समसामायिक बनाने में जीवन गुजार दिया। महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान लाचार भले ही हों और उनके पास आम आदमी के दुख दर्द दूर करने का समाधान भी न हो पर देश में सुभाष पालेकर जैसे लोग आज भी है जो हल दे सकते हैं। बशर्तें हम उनकी बात सुनने और समझने को तैयार हों।  

Sunday, December 18, 2011

विकास के साथ राजनीति

राजस्थान पत्रिका 18 Dec
यूरोप व अमेरीका की मंदी के बाद पूरी दुनिया की निगाहें भारत और चीन पर टिकी हैं। पर अब कहा जा रहा है कि मंदी भारत के दरवाजे पर भी दस्तक दे रही है। खाद्य पदार्थों की कीमत में आई गिरावट और ऑटोमोबाइल बाजार की मांग में गिरावट को इसका संकेत माना जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्ष और मीडिया इस कदर तूफान मचाता है कि मानो आसमान टूट पड़ा हो। वह यह भूल जाता है कि जहां मुद्रास्फिति डकैत होती हैं वहीं मुद्रविस्फिति हत्यारी होती है। लूटा हुआ आदमी तो फिर से खड़ा हो सकता है पर जिसकी हत्या हो जाए वह क्या करेगा ? इसलिए महंगाई को विकास का द्योतक माना जाता है। इसीलिए पिछले दिनों जब महंगाई बढ़ी और विपक्ष एवं मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया तो सरकार ने चेतावनी दी थी कि महंगाई कम करने के चक्कर में मंदी आने का डर है।
विपक्ष के पास भी अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। वह जानता था कि सरकार की बात में दम है पर महंगाई के विरोध में शोर मचाना हर विपक्षी दल की राजनैतिक मजबूरी होती है। मजबूरन सरकार ने कुछ मौद्रिक उपाए किए जैसे बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई। ब्याज दर बढ़ने से लोग उधार कम लेते हैं जिससे मांग में कमी आती है और कीमतें गिरने लगती है। सरकार की मौद्रिक नीति के अपेक्षित परिणाम सामने आए,पर यह हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहा।
 पिछले दिनों भारत पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक मजबूती का दावा करता रहा है। विदेशी मुद्रा के भण्डार भी भरे हैं। वैश्विक मंदी के पिछले वर्षों के झटकें को भी भारत आराम से झेल गया था। ये बात विदेशी ताकतों को गवारा नहीं होती इसलिए वे भी मीडिया में ऐसी हवा बनाते हैं कि सरकार रक्षात्मक हो जाए। कुल मिलाकर यह मानना चाहिए कि अगर मंदी की आहट जैसी कोई चीज है तो उसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने महंगाई पर शोर मचाकर विकास की प्रक्रिया को पटरी से उतारने का काम किया है। उदाहारण के तौर पर खाद्यान्न की महंगाई से किसको परेशान होना चाहिए था ? देश के गरीब आदमी को ? पर इस देश की 68 फीसदी आबादी जो गांव में रहती है, खाद्यान्न की महंगाई से उत्साहित थी क्योंकि उसे पहली बार लगा कि उसकी कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई का कुछ वाजिब दाम मिलना शुरू हुआ। क्योंकि यह आबादी खाद्यान्न के मामले में अपने गांवों की व्यवस्था पर निर्भर है। शोर मचा शहरों में। शहरों के भी उस वर्ग से जो किसान और उपभोक्ता के बीच बिचैलिए का काम कर भारी मुनाफाखोरी करता है। उस शोर का आज नतीजा यह है कि आलू और प्याज 1 रूपया किलों भी नहीं बिक रहा है। किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी रही है। भारत मंदी के झटके झेल सकता है, अगर हम आर्थिक नीतियों को राजनैतिक विवाद में घसीटे बिना देश के हित में समझने और समझाने का प्रयास करें तो।
 वैसे भी मंदी तब मानी जाए जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो। पर देश का सम्पन्न वर्ग, जिसकी तादाद कम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर से भी ऊंचा जीवन-यापन कर रहा है। जरूरत है साधन और अवसरों के बटवारें की। उसके दो ही तरीके हैं। एक तो साम्यवादी और दूसरा बाजार की शक्तियों का आगे बढ़ना। इससे पहले कि मंदी का हत्यारा खंजर लेकर भारतीय अर्थ व्यवस्था के सामने आ खड़ा हो, देश के अर्थशास्त्रियों को उन समाधानों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था मजबूत बने। वे एक सामुहिक खुला पत्र जारी कर सभी राजनैतिक दलों से अपील कर सकते हैं कि आर्थिक विकास की कीमत पर राजनीति न की जाए।

Sunday, August 7, 2011

खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों की असलियत

Rajasthan Patrika 7 Aug
बढ़ती मंहगाई को लेकर विपक्ष का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। क्योंकि यह मुद्दा आम जन-जीवन से जुड़ा है। ऐसे मुद्दों पर शोर मचाने से जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित होता है और उसका राजनैतिक लाभ मिलता है। इसलिए भ्रष्टाचार की ही तरह महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर जो भी दल केन्द्र सरकार में हो, उसे हमेशा विपक्षी दलों की मार सहनी पड़ती है। ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते जायेंगे, इस मुद्दे का राजनैतिक लाभ लेने की तीव्रता बढ़ती जाएगी। पर इसका मतलब यह नहीं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लोकसभा में बहस करते हुए भाजपा कार्यकाल में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने सरकार को चेताया कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद महंगाई के चलते पिछले 20 महीनों में  देश में गरीबी और तेजी से बढ़ी है। उनकी तीखी चेतावनी इस बात का संकेत था कि भाजपा इस मुद्दे को बार-बार उछालने में परहेज नहीं करेगी।

उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी यह सफाई दे रहे हैं कि अन्र्तराष्ट्रीय बाजार में पैट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते दामों ने मुद्रास्फीति को बढ़ाने में मदद की है। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्द ही महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। हालांकि महंगाई को उन्होंने अन्र्राष्ट्रीय समस्या बताया, पर क्या ऐसे बयान देने से गरीब के आँसू पौंछे जा सकते हैं? प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए दृढ़ संकल्प ले चुकी है? क्या महंगाई का कारण पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि ही है या इसके पीछे कोई माफिया काम कर रहा है? जब पैट्रोलियम के दाम बढ़े नहीं होते, तब भी बाजार से अचानक चीनी का गायब हो जाना, प्याज का अदृश्य हो जाना यह बताता है कि इसके पीछे खाद्यान्न के व्यापार करने वालों की एक सशक्त लाॅबी है जो अपने राजनैतिक आकाओं के अभयदान से देश में ऐसी स्थिति अक्सर पैदा करती रहती है। यह लॉबी इतनी सशक्त है कि केंद्र सरकार सबकुछ जानकर भी इनका बाल-बांका नहीं कर पाती। अन्ततः खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

विपक्ष का यह कहना है कि देश में खाद्यान्न के भण्डार क्षमता के अनुसार भरे पड़े हैं। उधर सरकार का भी यह दावा कि कृषि उत्पादकता बढ़ी है, सरकार के बयानों में विरोधाभासों को प्रकट करता है। अगर खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ी है और सरकार के गोदामों में 65.5 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, तो महंगाई बढ़ने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। फिर भी सरकार नहीं बता पा रही कि इस महंगाई की वजह क्या है? यह बात दूसरी है कि सरकार के विरूद्ध मत विभाजन में सरकार बच गई क्योंकि उसे 51 के मुकाबले 320 मत प्राप्त हुए। पर इससे जनता की तकलीफ कम नहीं होती। महंगाई के मामले पर अब राजनेता ही नहीं, स्वंयसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता भी सक्रिय होने लगे हैं। इस तरह लोगों की दुखती रग से जुड़े महंगाई के सवाल पर विपक्ष का हमला अगले चुनाव तक जारी रहेगा। उधर सरकार को गहरा मंथन करके इस समस्या का हल खोजना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि भूखे को भोजन की तस्वीर दिखाकर सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करा रही है और फूड सेफ्टी बिल लाने की तैयारी भी कर रही है, पर महंगाई की मार ऐसी है कि वो केवल उन्हीं लोगों पर नहीं पड़ती जो समाज में सबसे पिछड़े तबके हैं, बल्कि मध्यमवर्गीय शहरी भी इसका दर्द महसूस करता है।

Punjab Kesari 8 Aug 2011
आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई दौर आए हैं जब महंगाई को काबू में लाने के लिए सरकार ने जमाखोरों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की है। आज भी अगर केन्द्रीय और प्रांत सरकारें सतर्क और आक्रामक हो जाऐं तो खाद्यान्न की महंगाई को काबू में लाया जा सकता है। क्योंकि यह बात सही है कि देश में आज खाद्यान्न का कोई संकट नहीं है। सारी समस्या वितरण और भण्डारों से जुड़े भ्रष्टाचार से है।

उधर वामपंथी दलों के तेवर तो महंगाई के मामले पर हमेशा ही कड़े रहते हैं। वे सदन का इस मुद्दे पर बहिष्कार भी कर चुके हैं और जब जरूरत समझेंगे, लाखों मजदूरों की भीड़ जुटाकर सरकार को आईना दिखा देंगे। इसलिए महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही नहीं बल्कि पूरी केबिनेट को कड़े निर्णय लेने चाहिऐं।

उधर महंगाई का एक दूसरा पक्ष भी है, जो उन लोगों का है जो इस महंगाई को गलत नहीं समझते। इनका कहना है कि क्या आप मोटर कार निर्माता से यह पूछते हैं कि 2 रूपये का पेंच 80 रूपये में क्यों बेच रहे हैं? या डबल रोटी में आलू की टिकिया रखकर बर्गर के नाम से बहुराष्ट्रीय कम्पनी 60 रूपये का क्यों बेच रही हैं? इनका कहना है कि इससे साफ जाहिर है कि जब बड़ी कम्पनियां बड़े मुनाफे कमाने के लिए साधारण सी वस्तुओं को भी कई गुने दाम पर बेचती हैं, तब महंगाई को लेकर कोई शोर नहीं मचता। उपभोक्ता चाहें निम्न वर्ग का हो, मध्यम का हो या उच्चवर्ग का हो, परिस्थिति को हंसते-हंसते सह लेते हैं। पर जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैं तो ऐसे शोर मचाया जाता है मानो आसमान सिर पर टूट पड़ा हो। जबकि खाद्यान्न का उत्पादन करने वाले देश के बहुसंख्यक किसान इस महंगाई से प्रभावित नहीं होते। क्योंकि उन्हें ये चीजें अपने स्थानीय बाजार में सरलता से सही दाम पर उपलब्ध हो जाती हैं। बिचैलियों के कारण शहरों में जब कई गुना महंगी होकर बिकती हैं तो भी उन किसानों को लाभ ही होता है। मार पड़ती है तो शहरी मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग पर। क्योंकि उसकी आवाज मीडिया में सुनी जाती है, इसलिए खाद्यान्न का दाम बढ़ने पर शोर ज्यादा मचता है। वास्तविकता इन दोनों परिस्थितियों के बीच की है। कुल मिलाकर खाद्यान्न के उत्पादन, संग्रहण, वितरण और मूल्य पर सरकार की जैसी पकड़ होनी चाहिए, वैसी नहीं है। इसलिए आम जनता को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।