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Monday, February 3, 2020

कुण्डों के जीर्णोंद्धार ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ कब तक ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति अभियान‘ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आवंटित की और अपने अतिविश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है। पर सोचने वाली बात ये है कि जल संकट जैसी गंभीर समस्या को दूर करने के लिए हम स्वयं कितने तत्पर हैं?

दरअसल पर्यावरण के विनाश का सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ता है। जिसके कारण ही पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले दो दशकों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आ गऐ।

सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की थी। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित रही। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व था कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए इसलिए तत्कालीन भारत सरकार की यह योजना विफल रही।

तब सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। हालत ये हो गई है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनमें कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। फिर ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी। पर इसमें भी राज्य सरकारें विफल रही। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनमें जल संचय हुआ। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर जहाँ नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहाँ बेगार टाली जाती है। 

पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर सवा लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बढ़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा। अन्यथा जापान के सुनामी, आस्ट्रेलिया के जंगलों में भीषण आग, केदारनाथ में बादलों का फटना इस बात के उदाहरण हैं कि हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

उ. प्र. के मथुरा जिले में विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा ‘द ब्रज फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था में 2002 से मथुरा जिले के पौराणिक कुण्डों के जीर्णोंद्धार का एक व्यापक अभियान चलाया। जिसके कारण न केवल भूजल स्तर बढ़ा बल्कि यहां विकसित की गई जनसुविधाओं से स्थानीय समुदाय को एक बेहतर जीवन मिला, जो उन्हें आजादी के बाद आज तक नहीं मिल पाया था। इसका प्रमाण गोवर्धन परिक्रमा पर स्थित गाॅव जतीपुरा, आन्योर व मथुरा के जैंत, चैमुंहा, अकबरपुर, चिकसौली, बाद, सुनरख व कोईले अलीपुर आदि हैं। जहां द ब्रज फाउंडेशन ने फलदार बड़े-बडे हजारों वृक्ष लगाये और यह सब कार्य सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के अनुरूप हुआ। जिसमें मथुरा प्रशासन और अन्य ब्रजवासियों ने सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाई। कुण्डों के जीर्णोंद्धार के मामले में प्रशासन की उपर्लिब्धयां उल्लेखनीय नहीं रही है, ऐसा स्वयं अधिकारी मानते हैं। इस दिशा में ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ को दूर करने के लिए 2009 से द ब्रज फाउंडेशन उ. प्र. सरकार से लिखित अनुरोध करती रही, कि कुण्डों के जीर्णोंद्धार की और इनके रखरखाव की स्पष्ट नीति निधार्रित करे, जिससे जल संचय के अभियान में स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी और योगदान बढ़ सके। पर आज तक यह नीति नहीं बनी। ग्रामीण जल संचय के मामले में द ब्रज फाउंडेशन ‘यूनेस्को’ समर्थित 6 राष्ट्रीय अवाॅर्ड जीत चुकी है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, नीति आयोग के सीईओ श्री अभिताभ कांत, अनेक केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री व भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी द ब्रज फाउंडेशन के द्वारा विकसित की गई इन परियोजना को देखने के बाद उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। बावजूद इसके कुछ स्वार्थीतत्वों ने द ब्रज फाउंडेशन पर मनगढं़त आरोप लगाकर ‘एनजीटी’ से उस पर दो वर्ष से हमला बोल रखा है। चिंता की बात ये है कि तमाम प्रमाण मौजूद होने के बावजूद एनजीटी तथ्यों से मुंह मोड़कर ऐसे आदेश पारित कर रही है, जिससे पर्यावरण और संस्कृति का तो विनाश हो ही रहा है, आम ब्रजवासी, संतगण और द ब्रज फाउंडेशन की समर्पित स्वयंसेवी टीम भी हतोत्साहित हो रही है और ये सब हो रहा है, तब जबकि मोदी जी ने जल संचयन के अभियान में हर नागरिक और स्वयंसेवी संस्था से आगे आकर सक्रिय योगदान देने का आवाह्न किया है। 

Monday, December 3, 2018

प्रकृति से खिलवाड़ कब रूकेगा?


दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जालाने का धुंआ भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेप्सीसाइट, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़-पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछली सरकारों ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू गई है। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनायें। यह आसान काम नहीं है।

एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से सैंतीस बरस पहले सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी है। पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

Monday, June 6, 2011

पर्यावरण का विनाश

Punjab Kesari 6 June 2011
पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले 15 वर्षों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की है। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनायंे। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से तीस बरस पहले सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी है। पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर जहाँ नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहाँ बेगार टाली जाती है। देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 122 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियांे व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीज़तन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा। अन्यथा जापान के सुनामी की तरह हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

Monday, February 28, 2011

ग्रीन इंडिया मिशन : घोषणा या हकीकत

Punjab Kesari 28 Feb11
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