Friday, September 26, 2003

विहिप का कहना गलत है



अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में हुए विहिप के संत सम्मेलन में प्रस्ताव पास किया गया कि यदि सरकारें मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं तो विहिप इसका खुलकर विरोध करेगी। विहिप के इस बयान के पीछे शायद यह आशंका है कि इस तरह के कदम से सरकारों की धर्म के क्षेत्र में दखलंदाजी बढ़ जाएगी। कायदे से तो धर्म का क्षेत्र सरकार के नियंत्रण के बाहर ही होना चाहिए, क्योंकि धर्म आस्था का सवाल है। आत्मा के परमात्मा का संबंध का सवाल है। परमात्मा तक जाने के अनेक मार्ग हैं चाहे वो हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के मार्ग से हों या फिर अन्य धर्मों के। धर्म निरपेक्ष देश की सरकार से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह हर धर्म की भावनाओं के अनुरूप काम करे। यदि सरकारें मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं और सरकार द्वारा तैनात अधिकारी या व्यक्ति धर्म प्रेमियों की भावनाओं की कद्र नहीं करते तो हालत और भी बिगड़ सकती है। विहिप के इस तर्क से कोई असहमत नहीं होगा। पर सोचने वाली बात ये है कि धर्म स्थलों के अधिग्रहण की जरूरत ही क्यों पड़ती है

पिछले ही दिनों जम्मू कश्मीर की धर्म निरपेक्ष सरकार के मुसलमान मुख्यमंत्री ने एक अध्यादेश जारी करवाकर जम्मू कश्मीर की सारी मस्जिदों का अधिग्रहण कर लिया। कारण साफ है, इनमें से अनेक मस्जिदें पिछले बहुत वर्षों से आतंकवादियों का अड्डा बनी हुई थीं। भय और आतंक से आतंकवादियों ने इन्हें अपने कब्जे में कर रखा था। यहां से हिंसक कार्रवाईयां संचालित होती थीं। जब पानी से सिर से गुजर गया तो जम्मू कश्मीर की सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। यह कोई अकेला मामला नहीं है। धर्म स्थलों का दुरुपयोग राजनीतिक हितों को साधने के लिए या वहां से समाज विरोधी गतिविधि चलाने के लिए अक्सर होता रहा है और आज भी हो रहा है। पूर्वी उत्तर भारत के सीमांत राज्यों में ऐसे तमाम धर्मस्थल हैं जहां भारत के विरुद्ध रात दिन जहर उगला जाता है और हिंसक गतिविधियां संचालित होती हैं। ऐसे धर्म स्थलों का नियंत्रण यदि सरकार अपने हाथ में नहीं लेती है तो राज्य के अस्तित्व को खतरा हो सकता है। इसलिए विहिप का तर्क उचित नहीं है। पहले भी अमृतसर में ऐसा कटु अनुभव हो चुका है। जब पवित्र स्वर्ण मंदिर  पर भिंडरावाला ने कब्जा जमाकर हिन्दू और सिख समाज के बीच खाई पैदा कर दी। बड़ी दुखद हिंसक कार्रवाई के बाद गुरूद्वारा साहिब की मुक्ति हुई और उसके बाद उसके चारों ओर विकास और सौन्दर्यीकरण का काम तेजी से हुआ। 

जब धर्म स्थल भ्रष्टाचार या दुराचार के केन्द्र बन जाएं, तो उन्हें स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। कभी-कभी प्रबंधकीय व्यवस्था को सुधारने के लिए भी यह करना जरूरी होता है। वैष्णो देवी का उदाहरण सबके सामने है। सरकार के अधिग्रहण से पहले यहां अव्यवस्था और अराजकता का बोलबाला था। चढ़ावे का सारा पैसा बारीदारों की जेब में जाता था। विकास अवरुद्ध था। तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। बहुत कुछ ऐसा होता था, जिसका उल्लेख करना भी शोभनीय नहीं। जम्मू के नागरिक जो कुछ बताते हैं उसे सुनकर मन में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं, अश्रद्धा उत्पन्न होती है। ऐसे हालातों में जब जम्मू कश्मीर के तत्कालीन उपराज्यपाल श्री जगमोहन ने वैष्णो देवी भवन व आसपास के पहाड़ी क्षेत्र का अधिग्रहण किया तो बारीदारों यानी पंडों ने उनका महीनों विरोध किया। आखिर में श्री जगमोहन सफल रहे और उसी का परिणाम है कि आज वैष्णो माता की यात्रा का स्वरूप ही बदल गया। अब हर आदमी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के विकास कार्यों की महिमा गाते नहीं थकता। इतना ही नहीं, चढ़ावे के धन से तमाम तरह के जनहित के कार्य भी हो रहे हैं। कभी-कभी तो जम्मू कश्मीर की सरकार तक को श्राइन बोर्ड से कर्जा मांगने की नौबत आ जाती है। 

ऐसा ही दूसरा उदाहरण तिरुपति बालाजी का है। जहां दर्शनों की सुन्दर व्यवस्था से लेकर तीर्थयात्रियों के ठहरने, भोजन और आराम आदि की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था रहती है। यह अचानक नहीं हुआ। इस मंदिर का भी बुरा हाल था। पर अधिग्रहण होने के बाद से करोड़ों रुपया मंदिर के खाते में जमा होने लगा और ट्रस्टियों ने उसका सदुपयोग करना शुरू कर दिया। आज तिरुपति एक सुव्यवस्थित धर्म स्थल का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जहां न सिर्फ आने वाले तीर्थयात्रियों को सुख मिलता है बल्कि स्थानीय जनता भी लाभान्वित हो रही है। तिरुपति के चढ़ावे से विश्वविद्यालय, स्कूल, मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेज, अस्पताल व तीर्थयात्रियों के ठहरने की तमाम व्यवस्थाएं की गई हैं। 

जबकि दूसरी ओर देश के तमाम मंदिर, गुरुद्वारे और मस्जिद हैं। जो आज भी ऐसे हैं कि उनमें आने वाला दान का करोड़ों रुपया पंडे, मौलवियों के पेट में चला जाता है। दर्शनार्थियों या श्रद्धालुओं के लिए कोई सुविधाएं नहीं है। हर पंडा उन्हें लूटने को तैयार रहता है। शांति की खोज में आने वाले लुट पिट कर जाते हैं। कुछ तो तय कर लेते हैं कि फिर कभी लौटकर नहीं आएंगे। भगवान को चढ़ाए गए धन की लूट करना और उससे मौज मस्ती करना आम बात है। इसके प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं। किसी भी तीर्थस्थल में चले जाइए। प्रमाण आंखों के सामने दिखाई दे जाएगा। ठाकुर जी के धन का सदुपयोग हो और उससे तीर्थयात्रियों की सुविधाएं बढ़े, ऐसा शायद ही कहीं होता है। भेंट चढ़ाने वाले यह सोच सोचकर परेशान होते हैं कि हम तो अपने गोस्वामी को इतनी मोटी रकम देकर आए थे, इस उम्मीद में कि वह सारी रकम ठाकुरजी की सेवा में जमा हो जाएगी, पर असलियत ये है कि गोस्वामियों के हाथ में दी गई रकम शायद ही कभी ठाकुर जी की गुल्लक में पहंुचती हो। दर्शनार्थी तो अपनी भेंट को ठाकुर जी तक पहंुचाने के लिए इन पंडों को पकड़ाते हैं। उन्हें क्या पता कि उनके द्वारा अर्पित धन ठाकुर जी तक नहीं पहंुंचेगा। वे बार बार इन पंडों के दुव्र्यवहार की शिकायत करते हैं, पर इनका आपसी गठबंधन इतना मजबूत है कि वे कोई भी सुधार होने ही नहीं देते। दर्शनार्थियों को लगता है कि मंदिर का प्रबंधन कमजोर है। जबकि प्रबंधन को लगता है कि कैसे इन पंडों को नियंत्रित किया जाए और दर्शनार्थियों के लिए सुविधाओं का विस्तार किया जाए। ऐसे तमाम विवादास्पद मंदिरों को यदि सरकार अपने कब्जे में ले ले तो उनकी व्यवस्था सुधर सकती है। बशर्ते कि सरकार के द्वारा इन बोर्डों में उन व्यक्तियों को ही नामित किया जाए जिनकी भक्ति और उस धाम के प्रति आस्था में कोई कमी न हो। नास्तिक, भ्रष्ट, विधर्मी व्यक्ति कभी भी उस देवालय या उसके श्रद्धालुओं के प्रति न्याय नहीं कर पाएगा। इसलिए बहुत देखभाल कर लोगों को चुनना चाहिए। यदि राज्य सरकारें मंदिरों या मस्जिदों का अधिग्रहण करने के बाद उनमें अपने राजनैतिक कार्यकर्ताओं या चाटुकारों को फिट करती हैं तो इनकी दशा सुधरने के बजाए और भी बिगड़ जाएगी। तब इन सरकारों को भलाई के बजाए बुराई ही मिलेगी, जिसका खामियाजा उसे चुनावों में उठाना पड़ सकता है। इसलिए प्रतिष्ठित, साधन संपन्न, चरित्रवान, भक्त व निष्कलंक व्यक्तियों को ही ऐसे न्यासों का सदस्य बनाया जाना चाहिए। ठाकुर जी के धन का दुरुपयोग न हो और उसके खर्चे की व्यवस्था पारदर्शी हो। वैष्णो देवी और तिरुपति बालाजी की तरह मंदिर और मंदिर से जुड़े सभी क्षेत्रों के कलात्मक निर्माण की छूट दी जाए ताकि कम समय में ही ठोस परिणाम दिखाई देने लगें। हां यह बात जरूर है कि सरकार केवल उन्हीं मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारों का अधिग्रहण करे जिनमें या तो देशद्रोही गतिविधियों का संचालन होता हो या भ्रष्टाचार का बोलबाला हो। जिन मंदिरों मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्चों के न्यासी खुद ही व्यवस्था अच्छी चला रहे हों, या ठाकुरजी के धन से तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अच्छे कदम उठा रहे हों, वैसे न्यासों को छेड़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि सरकार द्वारा नामित सदस्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से ही कार्य करे। यदि इन सावधानियों को बरतते हुए धर्मस्थलों का अधिग्रहण किया जाता है तो विहिप या दूसरे धार्मिक संगठनों को उसका विरोध नहीं करना चाहिए। विरोध केवल विरोध के लिए न हो, हर केस में वस्तुस्थिति का मूल्यांकन करने के बाद हो तो विरोध करने वालों की गरिमा बढ़ती है अन्यथा यह महज चुनावी स्टंटबाजी लगता है।

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