Friday, September 12, 2003

मायावती की दुविधा


सुश्री मायावती ने ये सोचा भी न होगा कि उनकी सत्ता इतनी आसानी से हाथ से छीन जाएगी। सत्ता जाने के सदमे में तो वो थीं ही अब उन्हें एक और झटका लगा कि उनके दर्जनों विधायक साथ छोड़ भागे और श्री मुलायम सिंह के हाथ मजबूत कर दिए। अब सुश्री मायावती के पास हाथ मलने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं है। अगर श्री मुलायम सिंह यादव व उनके सहयोगी श्री अमर सिंह व अन्य नेता ये तय कर लें कि उन्हें सुश्री मायावती को मुह तोड़ जवाब देना है तो वे आसानी से ऐसा करने की स्थिति में हैं। वे चाहे तो उत्तर प्रदेश में बसपा कार्यकताओं को कचहरी और थानों में दौड़ा-दौड़ा कर मारें। हालांकि सत्ता में आने के बाद हर राजनेता यही कहता है कि उसकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी। पर मानव का स्वभाव है कि वो जैसे को तैसा जवाब देना चाहता है। इसलिए अगर श्री यादव सुश्री मायावती और उनके कार्यकर्ताओं पर कानूनी शिकंजा कसते हैं तो कोई नई बात नहीं होगी। हां, सुश्री मायावती की उलझनें जरूर बढ़ जाएंगी। पर एक बात ऐसी है जो सुश्री मायावती के पक्ष में जाती है। अपनी जाति वाले वोटों पर उनकी पकड़ मजबूत है। बसपा जिस दल के साथ भी चुनाव में कूद पड़े उसी को जिताने की स्थिति रखती है क्योंकि उनके समर्थकों के वोट एकजुट होकर पड़ते हैं। अपने इस जनाधार के कारण ही सुश्री मायावती इतनी आत्मविश्वास से भरी रहती हैं और शायद यही कारण है कि वे राजनीति की मैदान में किसी को भी पटकनी देने को तैयार रहती हैं। पर उनके इसी आक्रामक तेवर ने उन्हें काफी विवादास्पद बना दिया है। कोई भी दल उन पर विश्वास नहीं करता। मजबूरी में ही भाजपा ने सुश्री मायावती का हाथ थामा था और शायद यही मजबूरी कांग्रेस को मजबूर करे कि वो सुश्री मायावती से हाथ मिला कर आगामी विधानसभा चुनावों में चुनाव लड़े। यदि ऐसा होता है तो यह समीकरण भाजपा को बहुत भारी पड़ेगा। शायद यही कारण है कि भाजपा नेतृत्व सुश्री मायावती के साथ दोहरा खेल खेल रहा है। एक गुट ने मायावती सरकार गिराने की कार्यवाही को अंजाम दिया और दूसरा गुट उनसे अभी भी संबंध बनाए रखे है। इस का एक ही उद्देश्य है कि किसी भी तरह से सुश्री मायावती और कांग्रेस का समझौता नहीं हो पाए, क्योंकि वह एक मजबूत गठबंधन होगा।

सब कुछ सुश्री मायावती को ही सोचना और तय करना है। शुरू-शुरू में सभी नेता सत्ता के मद में कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जिससे उनका घाटा ही होता है पर समय सब सिखा देता है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वास मत के दौरान श्री मुलायम सिंह यादव के जो तेवर थे वे आज नहीं है। अब वे ज्यादा परिपक्व हो गए हैं और दूर की राजनीति करने लगे हैं। पिछले अनुभवों से सुश्री मायावती को भी सबक लेना चाहिए। यूं राजनीति में कोई संबंध स्थायी नहीं हुआ करते। मौका और समय देखकर ये बनते और टूटते रहते हैं। लेकिन अगर विचारधारा के स्तर पर देखा जाए तो सुश्री मायावती का भाजपा से तालमेल कभी नहीं बैठ सकता क्योंकि दोनों की विचारधारा में भारी विरोधाभास है। जबकि कांग्रेस और बसपा की विचारधारा में काफी साम्य है और अगर ये दो दल साथ आ जाते हैं तो हिन्दुस्तान के प्रजातंत्र में राजनीति के धु्रविकरण का एक नया अध्याय शुरू होगा जिसमें एक तरफ होंगे समाजवादी, वामपंथी या यूं कहिए कि धर्मनिरपेक्ष ताकतों का खेमा और दूसरी तरफ होंगे दक्षिणपंथी दल। तब शायद आया-राम, गया-राम और ब्लैक मेलिंग की राजनीति से भी देश को राहत मिल पाएगी।

इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि सुश्री मायावती अपनी सोच में बदलाव करें। राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए शुरू में सभी आक्रामक तेवर अपनाते हैं। बाद में धीरे-धीरे हालात उन्हें शांत कर देते हैं। सुश्री मायावती ने शुरू के दौर में कहा था, ’तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।बाद में खुद ही ठाकुर, ब्राह्मण और बनियों को टिकट बांटे। अब उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि काठ की हाड़ी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। जिस तेजी से वे सहयोगी दलों को झटका देती आई हैं उस तेजी से वे राजनीति में लंबे समय तक शायद कामयाब न हो पाएं। उन्हें कुछ स्थायी संबंध तो बनाने ही होंगे। ऐसा नहीं है कि दलितों के वोट सदा के लिए सुश्री मायावती के झोली में पड़े रहेंगे। सपने दिखा कर कुछ समय तक लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है- हमेशा नहीं। आज वे दलितों की निर्विवाद नेता हैं लेकिन जब दलित देखेंगे कि उनकी आर्थिक प्रगति में और बसपा के नेताओं की आर्थिक प्रगति में जमीन-आसमान का अंतर है तो उनमें असंतोष फैलेगा और फिर सुश्री मायावती का ही कोई दाहिना या बाॅया हाथ उनके विरूद्ध बगावत का झंडा लेकर खड़ा हो जाएगा और एक नई बसपा बना लेगा। तब उनमें न वो ऊर्जा रहेगी न वो तेवर और तब नए खून वाले दलितों का मोर्चा ले उड़ेंगे। पिछले बीस सालों में दलितों के जो नेता ऊभरे आज उनके जनाधार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गए हैं। इस बात का ध्यान सुश्री मायावती को हमेशा रखना चाहिए।

जहां तक दलितों का प्रश्न हैं इस विषय में भी नई सोच की जरूरत है। ये सही है कि देहातों में जातिवाद की जड़े अभी भी बहुत गहरी हैं और दलितों के साथ सहज, सामान्य व्यवहार नहीं किया जाता। लेकिन यह भी सही है कि नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के कारण कम से कम शहरों में तो काफी बदलाव आया है। अब अपने को ऊंची जाति का मानने वाले भी दलित अधिकारी के सामने नतमस्तक रहते हैं। पर इस प्रक्रिया में सामाजिक सद्भाव बढ़ने की बजाए वैमनस्य और द्वेष बढ़ रहा है। दलितों की बात करने वाले अब महात्मा गांधी और विनोवा भावे जैसे संत तो हैं नहीं। ज्यादातर लोग सत्ता लोलुप हैं और दलित वोट को भुनाना चाहते हैं इसलिए सामाजिक वैमनस्य बढ़े ये उनके हित में जाता है। सुश्री मायावती अगर दलितों की सच्ची हमदर्द हैं तो सत्ता से बाहर रहने का जो समय उन्हें मिला हैं उसका इस्तेमाल उन्हें दलित समाज को जागृत करने में करना चाहिए। भक्ति युग के अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने दलित उत्थान के लिए ठोस काम किया। जैसे कबीर दास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु, संत रैदास, गुरूनानक देव आदि इन संतों ने दलितों को शेष समाज के साथ जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा किए गए प्रचार कार्य में सामाजिक सौहार्द बढ़ा, वैमनस्य नहीं क्योंकि इनकी भावना लोक कल्याण की थी, जनता को मूर्ख बना कर कुर्सी हथियाने की नहीं।

पर आज दलितों के नेतृत्व करने वालों की न तो चेतना का विस्तार हुआ है न उन्हें आध्यात्मिक रूचि है। आग उगल कर लोगों की भावनाए भड़काना और उसे वोटों में बदल देना फिर सत्ता में बने रहने के लिए नौकरियां और खैरात के टुकड़े बांट देना ही दलित राजनीति का निचोड़ बन कर रह गया है। यह दुखःद स्थिति है। दलित समाज को इससे निकलने की जरूरत है। तभी दलितों के बच्चे भविष्य में शेष समाज के साथ सौहार्दपूर्ण जीवन जी पाएंगे। सत्ता में रहने वालों को कुछ नया और ठोस सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती पर सत्ता छीन जाने के बाद ऐसे शुभ कार्य करने के लिए काफी समय मिलता है। वैसे भी श्री मुलायम सिंह की सरकार अब जल्दी गिरने वाली नहीं है। इसलिए सुश्री मायावती के आगे तीन विकल्प हैं या तो आराम से बैठें और सैर-सपाटें करें जो उनकी उम्र का कोई राजनेता कभी करना नहीं चाहेगा। दूसरा विकल्प है कि दलितांे की बैठकों में जाकर श्री मुलायम सिंह के खिलाफ जहर उगलें और तीसरा विकल्प हैं कि कुछ दिन के लिए उठापठक की राजनीति से बच कर वैचारिक स्तर पर कुछ ठोस करें जिससे दलित समाज के प्रति एक दीर्घकालिक उपलब्धि प्रस्तुत कर सकें। ऐसे ही लोग इतिहास के पन्नों में अपनी जगह आरक्षित कराते हैं। सत्ता में आने और जाने का क्रम तो चलता रहता है पर समाज को हम क्या दे कर जाते हैं, समाज उसे ही याद रखता है। सुश्री मायावती को आत्ममंथन की आवश्यकता है। उन्हें दुविधा छोड़ कर दलितों के लिए रचनात्मक और ठोस करना होगा और राजनीति को समझने का अपना नजरिया व्यवहारिक बनाना होगा।

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