Friday, June 6, 2003

सिक्खों से पे्ररणा ‘ब्रज रक्षक दल’ करेगा ब्रज की रक्षा


सिक्ख समुदाय से हर धर्मावलम्बी को बहुत कुछ सीखना चाहिए। सेवा करने का जो भाव सिक्ख स्त्री और पुरुषों में देखने को मिलता है वैसा दूसरे किसी समुदाय में नहीं। 1997 की बात है मैं छत्तीसगढ़ इलाके के कांकेड़ नाम के शहर से एक जनसभा सम्बोधित करके लौट रहा था। आधी रात से भी बाद का समय था। घने जंगल, ऊंचे-ऊंचे वृक्ष और सुनसान सड़क पर हमारी टाटा सफारी तेजी से दौड़ रही थी। मैं और मेरे साथ चल रहे मध्य प्रदेश पुलिस के सुरक्षाकर्मी व कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भूख से बेहाल थे। उस दिन सुबह से रात तक पूरे छत्तीसगढ़ में मैंने लगभग आठ जनसभाओं को सम्बोधित किया। एक शहर से दूसरे शहर का सफर कई घंटे का था। इसलिए समय का पालन करना जरूरी था। वर्ना आगे की सब जनसभाओं में इन्तजार करती भीड़ को नाहक कष्ट होता। इसलिए खाने का भी समय नहीं मिला। ऐसे घने जंगल में अचानक एक सरदार जी का जगमगाता हुआ विशाल ढाबा देखकर सबकी जान में जान आई। सब खाने की तरफ लपक पड़े पर मैं ये देखकर ठिठक गया कि उस ढाबे में मांस और मुर्गे भी परोसे जा रहे थे। मैं लौट कर गाड़ी में बैठ गया। दूर से ढाबा मालिक सरदार जी ने यह देख लिया और दौड़ कर मेरे पास आए। पूछा कि मैं खाना क्यों नहीं खा रहा। मैंने कहा कि जहां मास पकता है वहां मैं अन्न नहीं लेता। उन्होंने बिना एक क्षण सोचे कहा कि आप मेरे घर चल कर भोजन कीजिए। मुझे लगा कि घर पर ही जाने से क्या अन्तर पड़ेगा। वहां भी तो मांस पकता होगा। सरदार जी बोले, ”जी नहीं। हमने अमृत छका है। हमारे घर मांस अण्डा नहीं पकता।सरदार जी मुझे ही नहीं मेरे साथ आए छः-सात लोंगों को भी बड़े उत्साह से अपने घर ले गये। ढाबे से कई किलोमीटर दूर जंगल में उनका बंगला था। उन्होंने घर की बहू बेटियों को रात के डेढ बजे सोते से जगाया और आधे धण्टे में गर्मागर्म खाना परोस कर हमें अभिभूत कर दिया। इस पे्रम की कीमत पैसे देकर तो चुकाई नहीं जा सकती थी। पर चलते वक्त मेरी आंखें नम थीं। आज भी जब उन सरदार जी की याद आती है तो यही सोचता हूं कि उनका मेरा क्या लेना देना था। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि मैं कौन था और कहां से आया था। उन्होंने तो अतिथि देवो भव का धर्म निभाया। द्वार से कोई भूखा न लौटे ये सब धर्मों में सिखाया जाता है। पर इसका जीता जागता रूप उस दिन देखने को मिला।

वाहे गुरू जी की वाकई सिक्ख भाई-बहनों पर बड़ी कृपा है। आप भारत के गांवों में तो अतिथि देवों का भाव पायेंगे पर हम शहर वाले बड़े शुष्क और आत्मकेद्रित हो गये हैं। अनजाने को भोजन कराना तो दूर हम तो अपनों को भी भोजन कराने में भार महसूस करते हैं। दूसरी तरफ सिक्ख समुदाय के लोग जहां भी रहें शहर में, गांव में, देश में या विदेश में अतिथि की सेवा करने में पीछे नहीं हटते। कहने को तो भारत धर्म प्रधान देश है। पर केवल गुरूद्वारा ही वह स्थान है जहां आने वाले हर व्यक्ति को भरपेट मुफ्त भोजन मिलता हैं। गरीब और अमीर का भेद नहीं किया जाता। एक साथ पंगत में भोजन होता है। खिलाने वाले उत्साह और पे्रम से खिलाते हैं। इतना ही नहीं तीर्थयात्रियों के जूते साफ करना, उनके रहने खाने की उत्तम व्यवस्था करना और गुरूद्वारों और अपने तीर्थ स्थलों को अपने हाथों से साफ करना, संजाना और संवारना। सिक्खों के इस गुण को सीखने की जरूरत है। आज हमारे लगभग सभी तीर्थस्थल तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। यातायात और संचार की बेहतर व्यवस्थाओं और मध्यमवर्ग की समृद्धि ने तीर्थाटन को पहले की तुलना में कई गुना बढ़ा दिया है। इस हद तक भीड़ होने लगी है कि अक्सर तीर्थस्थलों की व्यवस्था चरमरा जाती है। सब तीर्थयात्री यही चाहते हैं कि उन्हें अपनी आस्था का केन्द्र साफ सुथरा और सुन्दर मिले। हराभरा हो और बुनियादी सुविधाओं की कमी न रहे। पर उनको अक्सर निराशा हाथ लगती है। तीर्थस्थलों की दुर्दशा देखकर आस्थावान लोग रो देते हैं। पर रोने से और सरकार की आलोचना करने से कोई व्यवस्था सुधर तो नहीं सकती। उसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत होती है। कुछ त्याग और तपस्या की जरूरत होती है। जिसकी जिस धर्म में आस्था हो उसे अपनी आस्था के केन्द्र की सेवा अपने हाथों से करनी चाहिए। जिस आमतौर पर पंजाबी में कार सेवाकहा जाता है, उसका सही हिन्दी शब्द है कर सेवा। कर यानी हाथ से सेवा। धन का दान तो हर साधन सम्पन्न व्यक्ति कर सकता है पर श्रम का दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह धन दान करने से नहीं। कर सेवा करके हम अपने प्रभू का मन आकर्षित करते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि देश के हर तीर्थ स्थल की सेवा और सुरक्षा के लिए आस्थावान लोग संगठन बनाऐं। उस तीर्थस्थल की जो समस्याएं हैं उनकी सूची बनाएं। फिर एक एक समस्या का क्रमशः निदान करते जाएं। यह काम सामूहिक भावना से किया जाए, यश प्राप्ति की भी कामना न हो तो कोई कारण नहीं कि सफलता न मिले। लोग भी जुटेंगे और साधन भी। 

अजमेर शरीफ की दरगाह में या नाथद्वारे के श्रीनाथ मन्दिर में जिस समय भीड़ का रेला घुसता है उस समय बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं को अपनी जान बचाना भारी पड़ जाता है। दर्शनार्थी इस तरह कुचल जाते हैं कि अच्छे भले आदमी की भीड़ में घुसने की हिम्मत न पड़े। जरा सोचिए कितने अरमान लेकर कितनी तकलीफ उठाकर आपकी बूढ़ी मां या दादी अपने इष्ट को देखने आईं और उन्हें इस तरह की भयावह स्थिति का सामना करना पड़ा। ये कैसी धार्मिकता है ? ज़रा उन बच्चों की तो सोचिये जिन्हें धर्म के नाम पर ऐसी अराजकता, लूटखसोट या गन्दगी के साम्राज्य का सामना करना पड़ता है। बालमन पर पड़ी ये छाप उनके मन में अपने धर्म के प्रति अरूचि पैदा कर देगी। इसलिए सभी धर्मावम्बियों को अपने अपने धर्म क्षेत्र की रक्षा के लिए सेवाभाव से आगे आना चाहिए और सिक्ख समुदाय से पे्ररणा लेकर कुछ ऐसा करना चाहिए कि आने वाली सदियां भी उनके कामों को याद रखें।

इस मामले में एक अच्छी पहल ब्रज में शुरू हुई है। भगवान श्री राधाकृष्ण की सैकड़ों लीला स्थलियों को स्वयं में धारण किए श्री ब्रजधाम इस भूमण्डल से भिन्न गोलोक वृन्दावन का ही अभिन्न अंग माना जाता है। पांच हजार साल से साधु सन्तों और भक्तजनों ने अपने पे्रमाश्रुओं और जप-तप से इसके कण-कण को पोषित किया है। इसके अद्भुत सौंदर्य की प्रशस्ति में हजारों पद और श्लोक रचे गये हैं। बृन्दावन या ब्रजमण्डल का नाम लेते ही कृष्णभक्तों के हृदय में जो चित्र उभरता है वह है हरेभरे लता कुंजों का, शीतल जल से भरे मनोरम कुंडों का, यमुना के दिव्य घाटों का और फलों से आच्छादित वनों और पर्वतों का। पर वहां आकर जो कुछ देखने को मिलता है उससे नए-नऐ भक्तों का कलेजा धक्क रह जाता है। वे समझ ही नहीं पाते कि ब्रज का इतना विनाश कैसे हो गया। दरअसल पिछले एक हजार वर्ष से ब्रज का विनाश किया जा रहा है। आजादी के बाद विनाश की यह गति घटने के बजाय बढ़ी है। पिछले दस वर्षों में ब्रज का और भी तेजी से विनाश हुआ है। बिना रोके यह रुकने वाला नहीं है। इसलिए ब्रज के विरक्त सन्तों की पे्ररणा से अनेक ब्रजवासी नौजवानों, देश के अन्य भागों में रहने वाले कृष्ण भक्तों और कुछ अत्यन्त मशहूर लोगों नें साझे प्रयास से ब्रज रक्षक दल नाम का स्वयंसेवी संगठन बनाकर ब्रज की सेवा एवं संरक्षण का काम शुरू किया है। कुछ ही दिनों में इस संगठन को जो चमत्कारिक उपलब्धियां हुई हैं उससे यह विश्वास दृढ़ होता है कि अब ब्रज की दुर्दशा के दिन थोड़े से ही बचे हैं। निःस्वार्थ भाव से ब्रज की सेवा को तत्पर हजारों लोग ब्रज रक्षक दल से जुड़ते जा रहे हैं। ब्रज रक्षक दल प्रचार से बच कर ठोस काम में विश्वास रखता है। इसमें शामिल होने वाला हर कृष्ण भक्त ब्रज रक्षक कहलाता है। कोई पदों के बंटवारे का झगड़ा नहीं है। कोई पे्रस विज्ञप्ति और नाम छपवाने की होड़ नहीं है। कोई पैसे का लालच नहीं है। सब अपनी क्षमता अनुसार तन मन धन से सेवा में जुटे हैं। ब्रज रक्षक दल का पहला बड़ा अभियान ब्रज के सैकड़ों कुण्डों और सरोवरों का जीर्णोद्धार करना है। इनमें जमीं मिट्टी बाहर निकालना। जल के स्रोत खोलना। इनके चारों तरफ बने ऐतिहासिक घाटों की मरम्मत करना और इनके चारों ओर सुन्दर वृक्ष लगाकर घाटों को इनका खोया हुआ स्वरूप पुनः प्रदान करना। काम बड़ी तेजी से चल रहा है। कई कुण्डों का उद्धार हो चुका है। आजकल बरसाना स्थित श्री वृषभानु कुण्ड की खुदाई का काम चल रहा है। खुदाई की बड़ी मशीनें और टैªक्टरों के साथ ही विरक्त सन्त और भक्त खुद भी जुट कर इस काम को करवा रहे हैं। 

चूंकि आजकल गर्मियों की छुट्टियां हैं और नौजवनों के पास करने को कुछ खास नहीं। ऐसे में कृष्ण भक्तों को एक अवसर मिला है कि वे श्रीमती राधारानी के गांव इस पवित्र सरोवर और इसमें स्थापित जल महल की सेवा के लिए बरसाना पहुंचें और ब्रज रक्षक दल से जुड़ कर ब्रज की सेवा के कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। कुण्डों के उद्धार के साथ ही ब्रज रक्षक दल कई अन्य मोर्चों पर भी महत्वपूर्ण काम कर रहा हैं जिसकी जानकारी आनेवाले दिनों में देशवासियों को मिलनी शुरू हो जायेगी। फिलहाल ऐसे सिविल इंजीनियरों की जरूरत है जो सेवामुक्त हो चुके हों या बिना पैसा लिए सेवा-भावना से कुण्डों के जीर्णोद्धार के इस महायज्ञ में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। इससे सेवा में लगे साधुओं को दूसरे क्षेत्रों में भी काम शुरू करने का मौका मिलेगा। ब्रज रक्षक दल की सदस्यता के लिए कोई औपचारिकता नहीं है। जो भी ब्रज की सेवा करना चाहता है वही ब्रज रक्षक दल का सदस्य है। उसे ब्रज रक्षक दल के संयोजकों से मार्गनिर्देशन लेकर ब्रज की सेवा में जुट जाना चाहिए। इस तरह एक ऐसी शुरुआत होगी जो कि ब्रज का कायाकल्प करके ही रुकेगी।

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