Friday, April 19, 2002

अमरीकी भारतीयों के बीच आध्यात्मिक नवजागरण क्यों ?

अमरीका में जा बसे भारतीयों की समस्याओं पर पिछले कुछ वर्षों में कई अंग्रेजी फिल्म आई है। जिन्होंने न सिर्फ अमरीका में बसे अप्रवासी भारतीयों को आकर्षित किया है बल्कि भारत में रहने वाले लोगों को भी। क्योंकि इन फिल्मों से उन्हें अपने नातेदारों के जीवन के उस पक्ष का पता चलता है जो वे बिना वहां जाए नहीं जान सकते थे। तब उन्हें समझ में आता है कि, ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।इस तरह की फिल्मों के क्रम में हाल ही में एक तमिल अप्रवासी परिवार पर केंद्रित अंग्रेजी फिल्म प्रदर्शन के लिए जारी हुई है। जिसका शीर्षक है, ‘मित्र।हर उस व्यक्ति को जो अमरीका जाना चाहता है यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। उसे भी जिसके नातेदार अमरीका में रहते हैं। 


अमरीका में जाकर बसने की ललक मध्यम वर्गीय परिवारों के हर आधुनिक युवा या युवती के मन में रहती हैं। जिसको जहां भी, जरा भी संभावना दीखती है वही अमरीका पहुंच जाता है। आम भारतीय परिवारों में अक्सर यह धारणा रहती हैं कि ये  युवा डाॅलर कमाने के लालच में अमरीका जाते हैं। इसमें शक नहीं कि भौतिक उन्नति के शिखर पर बैठे अमरीका में आम आदमी का भी जीवन-स्तर इतना ऊंचा है कि भारत के मध्यमवर्गीय परिवार उसके सामने निर्धन नजर आते हैं। पर ऐसा नहीं है कि अमरीका जाते ही सबकी लाॅटरी खुल जाती हो। अमरीका जाकर बसने वाले युवक युवतियों को शुरू के वर्षों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। रात-दिन काम करना पड़ता है। कड़ी मेहनत का यह सिलसिला वर्षों चलता है। यूं कार, किराए का फ्लैट और आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाएं तो इन युवाओं को जाते ही मुहैया हो जाती हैं। पर उसकी कीमत भारतीय जीवन स्तर के चाहे कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, अमरीकी जीवन स्तर के मुकाबले कुछ नहीं होती है। वहां इस बात का महत्व नहीं है कि आपके पास एअरकंडिशन कार और फ्लैट है। वहां तो यह देखा जाता है कि आपका फ्लैट या घर किस क्षेत्र में है। आपकी कार का माॅडल कौन सा है। आपके कपड़े किस मशहूर स्टोर के हैं। जब अमरीका के ऐसे उपभोक्तावादी समाज से इन युवाओं का सामना होता है तब अचानक इन्हें  लगता है कि जिन चीजों को पाने की हसरत लेकर वे अमरीका आए थे, उन्हें इतनी जल्दी पाकर भी वे निर्धन ही रहे। 


यहीं से शुरू होता है एक अंधी दौड़ का सिलसिला। जिसमें इतने वर्ष गुजर जाते हैं कि जब तक अमरीकी समाज में सफल माने जाने वाले जीवन स्तर की संपन्नता हासिल होती है तब तक उनकी जवानी 15-20 वर्ष पीछे छूट चुकी होती है। अब उनके पास रहने को खासा बड़ा घर तो होता है। नई आलिशान कारें भी होती हैं। व्यवसाय में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा होती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजाना भाग-दौड़ की जिंदगी भी होती है। बैंको में करोड़ों रूपया जमा होता है। उनके बच्चे बढि़या और महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे होते हैं। यह सब होता है पर मन फिर भी रीता रहता है। पैसा कमाने की धुन में एकदूसरे के लिए समय ही नहीं बचता। बच्चे अमरीकी संस्कृति के प्रभाव में आजाद ख्यालों के हो जाते हैं। अपने दैनिक जीवन में माता-पिता की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते। उनके भारतीय संस्कारों और जीवनमूल्यों की उपेक्षा करते हुए तथाकथित आधुनिक व स्वच्छंद जीवन जीने लगते हैं। जिससे घर में तनाव पैदा होता है। तब इस पहली पीढ़ी के दंपत्ति को अपने वतन की याद आती है। मातृ भूमि के प्रति प्रेम उमड़ता है। घर-गांव में छूट गए भाई-बहन, नातेदार व मोहल्ले व स्कूल के दोस्तों की याद सताती है। घर लौट जाने को मन करता है। उनकी प्रबल इच्छा होती है कि अपने वतन की सांस्कृतिक धरोहर इन बच्चों को दिखाई जाए। इसलिए उन्हें जबरदस्ती तीर्थाटन कराने भारत लाया जाता है। इस उम्मीद में कि पश्चिमी समाज के जो अवांछित तत्व उनके परिवारों में घुस आए हैं उन्हें बाहर निकाला जा सके। इस प्रयास में किसी को सफलता मिलती है तो ज्यादातर को विफलता। 


ऐसा नहीं है कि अमरीका में बसे सभी भारतीय परिवार इस समस्या से जूझ रहे हैं। प्रायः ऐसे परिवार, जिनकी अमरीका आकर बसने वाली पहली पीढ़ी कम शिक्षित थी उन्हें ही इस समस्या से ज्यादा जूझना पड़ रहा है। क्योंकि इस पीढ़ी ने अपनी सारी ऊर्जा काराबोर जमाने और धन कमाने में लगा दी। परिवार के सदस्यों की भावनाओं का कोई ख्याल ही नहीं रखा। जबकि वे परिवार जिनकी पहली पीढ़ी प्रोफेशनल्स की थी उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया। उन्होंने अमरीकी समाज के तनावों से निपटने के लिए भारतीय अध्यात्म की शरण ली । भारत से अमरीका घूमने जाने वाले उन लोगों को जो यहां आधुनिकरण के नाम पर अमरीकी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, यह सब देख कर बहुत अचंभा होता है। उनकी समझ में नहीं आता कि भौतिक संपन्नता की इस ऊंचाई पर पहंुच कर इन लोगों को अध्यात्म की शरण लेने की क्या मजबूरी आ पड़ी


दरअसल अमरीका आकर पहले 10-15 वर्षों में, संघर्ष तो इन प्रोफेशनल्स ने भी वैसा ही किया जैसा कम पढ़े-लिखे दूसरे भारतीय परिवारों ने किया। पर इन्होंने धन कमाने के साथ ही ज्ञान अर्जन पर भी बहुत ध्यान दिया। अपने बच्चों को अमरीकी संस्कृति में डूबने से पहले ही उन्हें भारतीय संस्कृति और अध्यात्म के सबक सिखाने शुरू कर दिए। जहां भारत में धर्म की शिक्षा का, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, मखौल उड़ाया जा रहा है, वहीं विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में सबसे आगे बढ़े देश अमरीका में बसे भारत के मेधावी वैज्ञानिक और प्रोफेशनल्स गीता, उपनिषद, वेद, पुराण और दूसरे धर्म ग्रंथों का अध्ययन बड़ी गंभीरता से कर रहे हैं। ये लोग अपने बच्चों को वैदिक मंत्रों के उच्चारण और संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं। इन बच्चों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के अल्पकालिक कोर्स चला रहे हैं। हार्वड और एमआईटी जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले अनेक भारतीय छात्र नियमित ध्यान और जप करते हैं और धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हैं। उनका कहना है कि ऐसा करने से उन्हें बहुत शक्ति मिलती है। वे अपने काम में मन को एकाग्रता से लगा पाते हैं। उनमें सही और गलत को तोलने की समझ पैदा होती है। उन्हें अपने अतीत पर गर्व होता है। उन्हें अमरीकी समाज की सारहीन बातें आकर्षित नहीं कर पाती। इसके साथ ही वे जानते हैं कि इससे उनके माता-पिता को भी बहुत सुख की अनुभूति होती है। ये युवा बहुत संजीदगी के साथ भारतीय संस्कृति को समझने की ईमानदार कोशिश करते हैं। मौका मिलते ही भारत घूमने आते हैं। यहां आकर इनका ध्यान प्रशासनिक अव्यवस्था, गंदगी या दूसरी बुराईयों की तरफ नहीं जाता। जाता भी है तो उसे ये महत्व नहीं देते। ये तो भारतीय समाज के गुणों का अध्ययन करते है और उनसे लाभांवित होते हैं। वहां जाकर ये सब युवा भारत के सांस्कृतिक राजदूत बन जाते हैं। वे साम्प्रदायिक और पोंगापंथी नहीं बनते, बल्कि विवेकपूर्ण और ज्यादा समझदार हो जाते हैं। 


दूसरी तरफ हम भारत में रह कर भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। आधुनिक बनने और दीखने की ललक ने हमारी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। हम बिना विचारे पश्चिम के कचड़े को गले लगाते जा रहे हैं। इससे और निराशा फैल रही है। परिवार टूटने लगे हैं। परिवारों के बीच मन-मुटाव , तनाव और विघटन बढ़ रहा है। संजीव नंन्दा, जेसिका लाल, नताशा सिंह, विकास यादव जैसे दुखद कांड हो रहे हैं। पर फिर भी तथाकथित आधुनिकतावादी जागने को तैयार नहीं हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण का एजंडा लेकर सत्ता में आई भाजपा अनेक कारणों से इस दिशा में कुछ विशेष योगदान नहीं दे पाई। ऐसा नहीं है कि इस काम को करने का एकाधिकार भाजपा का ही हो। जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब भी भारत के ऋषियों और मनीषियों ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सदियों से सहेज कर रखा था। पर राज व्यवस्था के संरक्षण के अभाव में इसका क्रमशः लोप होता गया। आयातित धर्मों और संस्कृतियों ने यहां अपने पैर जमा लिए। बुद्धिमानी इसी बात में है कि अपने समाज और देश की चिंता करने वाले किसी राजनैतिक दल की परवाह किए बगैर जो कुछ राष्ट्रहित में हो उसे करते जाएं। इससे राजनैतिक लाभ या घाटा किसे होता है, यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।




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