होली के रंगों के कारण हैदराबाद के 50 लोगों की आंखों की रोशनी चली गई। इनमें से कुछ के स्थायी रूप से अंधा हो जाने की संभावना है। होली के रंग खेलने के 24 घंटे के भीतर ये लोग स्थानीय अस्पतालों की ओर दौड़ने लगे। आंखों के डाक्टरों का कहना है कि रंगों में मिले रासायन इन लोगों की आंखों के भीतर रेटिना तक पहुंच गए और उसे भारी नुकसान पहुंचा दिया। चूंकि इस रसायन का असर फौरन नहीं होता, धीरे-धीरे होता है इसलिए होली खेलते वक्त इसका पता नहीं चला। रात को सो कर जब ये लोग अगली सुबह उठे तो इनकी जिंदगी में अंधेरा छा गया। इन विपत्ती के मारों में कुछ बच्चे भी हैं। जो अब शायद सारी जिंदगी दुनिया नहीं देख पाएंगे। इस तरह इन बेचारों के रंग में भंग पड़ गई। ये कोई अकेला हादसा नहीं है। कृत्रिम जीवन की ओर तेजी की ओर बढ़ते हमारे कदम हमें हर रोज इसी तरह मौत की खाई में धकेलते जा रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण सामने हैं।
पिछले दिनों दिल्ली के मशहूर नया बजार के एक अनाज के बहुत बड़े आढ़ती अपने कृषि फार्म पर ले गए। दिल्ली-सोनीपत राजमार्ग के पास, जमुना के किनारे, 400 एकड़ का यह हरा-भरा कृषि फार्म है। सेठ जी ने बड़े उत्साह से अपना फार्म घुमाया और वहां हो रही विभिन्न किस्म की खेती की जानकारी दी। जब वे लौटने लगे तो अपने फार्म मैनेजर को हिदायत दी कि बिना फर्टिलाइजर वाले खेत से पैदा हुआ एक बोरी चना उनकी गाड़ी में लदवा दे क्योंकि उनके घर पर चने का स्टाॅक समाप्त हो गया था। चैंक कर जब उनसे तहकीकात की तो पता चला कि ज्यादा ऊपज के लालच में सभी बड़े किसान फर्टिलाइजर और कीटनाशक दवाओं का खुलकर प्रयोग करते हैं किंतु निजी इस्तेमाल के लिए बिना इन रासायनों की खेती की ऊपज का ही प्रयोग करते है। यानी अपने घर के इस्तेमाल के लिए जो अनाज, दालें या सब्जियां उगवाते हैं उसमें सिर्फ गोबर की खाद ही डालते हैं।
वृंदावन के मशहूर श्रीबांके बिहारी मंदिर की गली के सामने भल्ले, पेड़े और लस्सी की कई दुकानें हैं। जिनमें देश भर से आए दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। इन दुकानों पर पेड़े और लस्सी का स्वाद चख चुके लोगों में देश के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर फिल्मी सितारे शम्मी कपूर तक शामिल हैं। वृंदावनवासी कहते हैं कि लोग बिहारी जी के दर्शन करने कम, लस्सी पीने और पेड़े खाने ज्यादा आते हैं। पर पिछले दिनों दुकानों की इसी लाइन में काफी समय से चल रही पेड़े की एक बड़ी दुकान बंद हो गई। उसकी जगह दुकान मालिक ने भगवान के पोशाक और श्रंृगार की दुकान खोल ली। कारण पूछने पर संकोच के साथ बताया कि पिछले काफी महीनों से रासायनिक रूप से तैयार नकली दूध और मावा बाजार में आ रहा है। जिसमें डिटरजेंट पाउडर, यूरिया, तेल व इनफेंट मिल्क पाउडर मिला होता है। वह नहीं चाहता था कि तीर्थ यात्रियों को ऐसी जहरीली चीजें पिलवाकर पाप कमाए, लिहाजा उसने धंध बदल दिया। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुजफ्फर नगर से एक परिचित का लगातार फोन आ रहा है कि हम किसी टीवी चैनल की न्यूज टीम को मुजफ्फर नगर भेज दें तो वे इस तरह के रासायनिक दूध की तमाम फैक्ट्रियों की फिल्मिंग करवा देंगे। इनका कहना है कि दिल्ली को भेजे जा रहे दूध के टंैकरों में बड़ी मात्रा में इस तरह का नकली दूध भेजा जा रहा है। इस दूध को तैयार करने में लागत कम आती है और मुनाफा ज्यादा होता है। सबसे बड़ी बात यह कि बिना गाय-भैस की परवरिश किए ही यह दूध तैयार हो जाता है। हर्र लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। जनता जाए भाड़ में या मरे अस्पताल में। प्रशासन को सब पता है पर जेब अगर गर्म होती रहे तो इंसानी जिंदगियों को ठंडा होने दो, किसी को क्या फर्क पड़ता है ?
पिछले दिनों बैंडमिंटन के विश्व चैम्पियन फुलैला गोपीनाथ ने ठंडे शीतल पेयों के विज्ञापन में हिस्सा न लेने का फैसला करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। इस नौजवान ने करोड़ों रूपए के मुनाफे और टीवी चैनलों पर मिलने वाली लोकप्रियता को ठोकर मार कर जनहित में यह कदम उठाया था। श्री गोपीनाथ का कहना था कि ये शीतल पेय स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं क्योंकि ये सिर्फ रासायनिक पदार्थों से बने होते हैं। श्री गोपीनाथ को इस बात से बेहद तकलीफ है किइन शीतल पेयों की आक्रामक मार्केटिंग ने स्वास्थ्यवद्धक पेय जैसे नारियल का पानी, नींबू की शिकंजी, छाछ, फलों का रस और ऐसे दूसरे प्राकृतिक पेयों को पीछे धकेल दिया है। दुर्भाग्य की बात यह है कि न तो सुश्री सुषमा स्वराज को यह सूझा कि फुलैला गोपीनाथ को लेकर इन प्राकृतिक पेयों पर आधारित एक विज्ञापन जनहित में तैयार करवाएं और उसे दूरदर्शन पर प्रसारित करें और न ही शीतल पेयों के विज्ञापनों की दौड़ में जुटे फिल्मी सितारे अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरूख खान व ऋत्विक रोशन ने ही ठिठक कर कुछ सोचना गवारा किया और न हीं क्रिकेट सम्राट सचिन तेन्दुलकर ने। ये सब धन के लालच में देश की जनता के हितों की उपेक्षा कर रहे हैं।
उत्तर भारत में आजकल मौसम बदल रहा है। खाल सूखने लगी है और जगह-जगह से फट भी जाती है। यह स्वभाविक प्रक्रिया है। इसका इलाज भी प्रकृति ने दे रखा है। सरसों, नारियल, तिल या जैतून के तेल से मालिश करने पर अपनी त्वचा की रक्षा की जा सकती है। इस तरह पूरे परिवार की आवश्यकता का तेल जितने पैसे में आएगा उतने पैसे में कोल्ड क्रीम की एक छोटी सी शीशी आती है जो दो हफ्ते भी नहीं चलती। पूरे शरीर पर लेपो तो एक दिन भी नहीं चलेगी। इस क्रीम से चेहरे पर कुछ देर चमक भले ही आ जाती हो, पर त्वचा को स्थायी खुराक नहीं मिलती। इतना ही नहीं विभिन्न रासायनिक पदार्थों से बनी ये क्रीम अक्सर त्वचा को नुकसान पहुंचा देती हैं। लाल चकत्ते उभर आते हैं या दाने या फिर त्वचा का रंग ही काला पड़ जाता है। पर इन क्रीमों का विज्ञापन यही दिखाता है कि ये आपको गोरा और तरोताजा बना देती है। हम रोज छलेे जाते हैं पर फिर भी सचेत नहीं होते। बाजार की शक्तियों के प्रवाह में बहे चले जाते हैं। किसी भी अस्पताल के चर्मरोग विभाग में चले जाइए, आप पाएंगे कि ज्यादातर लोग सौंदर्य प्रसाधनों या सिंथैटिक कपड़ों के कारण चर्मरोग के शिकार हुए। पर कोई भी टीवी चैनल इस पर चर्चा नहीं करना चाहता। हम परंपराओं से बिना समझे ही घृणा करते हैं। अंधे होकर नए के पीछे भागते हैं। विज्ञापनों से दिग्भ्रमित हो जाते हैं। जब इस अंधी दौड़ से होने वाले नुकसान का पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
आजकल देश के महानगरों की बड़ी किताबों की दुकानों पर अंग्रजी की नई एक किताब आई है। जिसका शीर्षक कुछ इस तरह है,‘आधुनिक औषधी का उत्थान व पतन’ इस पुस्तक में दुनियां भर में ऐलोपैथी की दवाओं के इस सदी में हुए भारी उत्थान और सदी के अंत तक आए पतन की दास्तान है। पर भारत में हर गांव और कस्बे तक में ये दवाएं धड़ल्ले से डाक्टरों द्वारा दी और मरीजों द्वारा ली जा रही है। इन दवाओं का कारोबार अरबों रूपए का है। विडंबना देखिए कि जिन देशों ने इन दवाओं को ईजाद किया उन्हीं पश्चिमी देशों में इनकी लोकप्रियता धरातल पर आ चुकी है। आयुर्वेद, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, एक्यूपंचर व योग और ध्यान से अमरीका और यूरोप के देशों में ज्यादातर बीमारियों का इलाज किया जा रहा है। इन पारंपरिक दवा पद्धतियों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। जबकि हम अपनी दादी और नानी के ज्ञान और अनुभव की उपेक्षा कर आधुनिक बनने की फिराक में लगातार आधुनिक दवा कंपनियों के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। इस देश में 70 फीसदी बीमारियां पीने का शुद्ध जल न मिलने के कारण होती है। यदि पीने का साफ जल हरेक को मुहैया हो जाए तो 70 फीसदी भारतीय बीमार ही नहीं पड़ेंगे। न तो बड़े-बड़े अस्पतालों और मशीनों की जरूरत पड़ेगी और न ही बड़ी दवा कंपनियों को आम आदमी की जेब पर डाका डालने का मौका ही मिलेगा। बशर्ते देश के हुक्मरान सदियों पुराने इस ज्ञान को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी लें।
उधर जापान स्थित संयुक्त राष्ट्र विश्विद्यालय ने शोध करके यह सिद्ध कर दिया है कि भारत और दूसरे एशियाई देशों के घरों में रोज पकने वाली साधारण रोटी दुनिया की सर्वाधिक पौष्टिक रोटी है। जबकि अनेक रासायनिक पदार्थों के मिश्रण से व मैदा से बनी डबलरोटी हमारे पेट के लिए बहुत नुकसानदेह है। पर विडंबना देखिए कि अब संपन्न ही नहीं गरीब आदमी भी डबलरोटी या पाव खाकर जी रहा है। जी ही नहीं रहा बल्कि अपने अबोध बच्चों को भी अज्ञानतावश यही बेतुकी खुराक दे रहा है।
आज पूरी दुनिया में यह बात स्थापित हो चुकी है कि खान-पान और जीवनचर्या में जीतना ज्यादा प्राकृतिक और पारंपरिक रहेंगे उतने ही स्वस्थ और सुंदर बनेंगे। इसलिए हर देश के हुक्मारान, धनी लोग और जागरूक लोग अब तेजी से प्राकृतिक और पारंपरिक जीवन शैली अपनाते जा रहे हैं जबकि शेष दुनिया को आधुनिकता के नाम पर रासायनिक और कृत्रिम जीवन शैली की ओर धकेलते जा रहे हैं। दूसरे देशों की बात छोड़ दंे पर हमारे देश में तो हर आम आदमी स्वस्थ रहने का यह ज्ञान अपनी जन्मघुट्टी के साथ पीता आया है। पर आज हम सब भी बाजार की शक्तियों के चंगुल में फंस कर अपनी जड़ों से उखड़ते जा रहे हैं। लुट रहे हैं, बीमार पड़ रहे हैं और दुख पा रहे हैं। हैदराबाद में होली के रंगों में मिले रासायनिक पदार्थों से लोगों का अंधा होना खतरे की घंटी है। टेसू के रंग और प्राकृतिक वस्तुओं से बने अबीर की जगह नए रंगों ने ले ली है। अगर हम जानबूझकर इन घंटियों की आवाज न सुने या बहरे बनने का नाटक करें तो दोष बाजार की शक्तियों या हुक्मरानों का नहीं, खुद हमारा है। इन सवालों को बार-बार उठाते रहने की जरूरत है। कुछ लोगों का तो दिमाग अवश्य पलटेगा। तभी सबके हित की बात आगे बढ़ेगी।
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