Monday, November 4, 2024

त्योहारों की तिथियों में विवाद क्यों?

बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्योहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफ़ी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। इस दीपावली पर मुझे कई फ़ोन आए और सभी ने इस विषय को छेड़ा और मुझे इस मुद्दे पर लिखने को कहा। मैंने शास्त्र आधारित तथ्यों पर वृंदावन में जानकारों से चर्चा की। उन विद्वानों के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं। 


कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि, इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना व बढ़ना हो जाता है। इससे त्योहार मनाने का समय बदल जाता है। कहीं पर वही त्योहार पहले मनाया लिया जाता है और कहीं पर बाद में। इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकर्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्योहारों को स्थापित करते हैं। लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्योहारों में मतेकता नहीं हो पाती है। 



सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।


इसके अलावा त्योहारों की तिथि के भेद का एक अन्य कारण संप्रदाय भेद भी है। विभिन्न संप्रदायों में मतभेद के पीछे कई कारण हैं। संप्रदायों में विभिन्नता या ज़िद्द के कारण भी त्योहारों की तिथि में अंतर आने लग गये हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आँख मूँद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फ़रमान के अनुसार ही त्योहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वो चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।      

 


इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’। ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी द्वारा बाँटे जा रहे इस ज्ञान ने भी तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं एक घर परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं। जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मन लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को माने तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं। 



तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएँगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिये । यदि दो अमावस्या परदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए। 



देखा जाए तो शास्त्रों के अनुसार दीपावली का अर्थ केवल नए कपड़े पहनना, मिठाई बाँटना, दीपोत्सव और आतिशबाजी ही नहीं है। दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वल्लित करते हैं ताकि पितरों का मार्ग प्रकाशित हो सके पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं। 


ज्वलते यस्यसेनानीरश्वमेधेन तस्य किम् । 

तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम् ॥ 

पितरश्चैव वाञ्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः। 

भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः॥ 

कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम् । 

घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः ॥ 


कार्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो। 

पापिनः पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रियाः

तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः ॥


दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेतचतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पाँच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे  बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।


कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्योहार के पीछे जो आधार हैं स्थापित हैं उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं है। इसलिए फिर वो चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद हो इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे। 

Monday, October 21, 2024

क्या विकास के पैसे सही दिशा में ख़र्च होते हैं?


बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये, वो सब कितने सच्चे हैं। 



दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 70 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ्य सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।



जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फ़र्ज़ीवाड़े के बयान लगातार धमाकेदार छपते है। इन भ्रष्ट अफ़सरों और निर्माण कम्पनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपए की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धँस जाते हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली केवल सड़क मार्गों पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियाँ भी धँस गई और रेल दुर्घटना हुई।     



उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल ख़ानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फ़र्ज़ीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊँचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएँ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।



आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएँ ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरुद्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्य पूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूँकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तों अपने पाँव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएँगे?

 

Monday, October 14, 2024

निकोलस रेरिख क्यों थे भारत के लिए महत्वपूर्ण?


1874 में सैंट पीटर्सबर्ग (रुस) में जन्मे और 1947 में  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले के नग्गर अपने आवास पर समाधिस्थ हुए रूसी चित्रकार, दार्शनिक, कवि, पुरात्ववेत्ता, सम्मोहनकर्ता निकोलस रेरिख के जन्म के 150 वें वर्ष में दुनियाँ भर में, विशेषकर भारत में रूसी दूतावास, भारत सरकार, भारत के सांस्कृतिक केंद्रों व विश्वविद्यालयों में अनेक आयोजन किए जा रहे हैं। पर नयी पीढ़ी के लोगों को शायद उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं है। केवल उन लोगों को छोड़कर जो पर्यटक के रूप में कुल्लू गये हैं या साहित्य और कला में रुचि रखते हैं। 


मुझे भी इस महान् व्यक्तित्व के विषय में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी जब तक मैंने कुल्लू में उनके आवास पर बने संग्रहालय को नहीं देखा था। जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। जबकि मेरी इस अज्ञानता को क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि मेरी पत्नी प्रोफेसर मीता नारायण रूसी भाषा की ख्यातिप्राप्त विद्वान हैं और गत चालीस वर्षों से जेएनयू में व साथ ही दर्जनों देशों के विश्वविद्यालयों में रूसी भाषा के अल्पकालीन कोर्स पढ़ाती रही हैं। रूसी भाषा पर उनकी लिखी पुस्तकें उन सब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। 


पर अभी हाल ही में उन्होंने भाषा विज्ञान के अपने विषय से हट कर निकोलस रेरिख की रूसी कविताओं का अंग्रेज़ी व हिन्दी अनुवाद उनके बनाये चित्रों के साथ एक आकर्षक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।तब मुझे रेरिख के विषय में पूरी जानकारी मिली। जो काफ़ी रोचक है । सोचा आपसे भी साझा करूँ। वैसे बॉलीवुड में रुचि रखने वालों को शायद ये पता हो कि रेरिख के बेटे सेवेटोस्लाव रेरिख की शादी अपने समय की मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री व दादा साहिब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देविका रानी से हुई थी। वो दोनों भी नग्गर (कुल्लू) के उसी सुंदर पहाड़ी आवास में रहते थे। जहां आज उनका संग्रहालय है। 


आम धारणा के विरुद्ध सभी रूसी लोग वामपंथी नहीं होते। अध्यात्म, विशेषकर भारत के आध्यात्मिक ज्ञान में उनकी गहरी रुचि होती है। इसी रुचि के कारण एक संपन्न परिवार में जन्में रेरिख रुस छोड़ कुल्लू के एक छोटे से क़स्बे में आ बसे। रेरिख को आमतौर पर उनकी अत्यंत मनभावनी व गहरी चित्रकला के लिए जाना जाता रहा है।अपनी इन पैंटिंग्स में रेरिख ने हिमालय की पर्वत शृंखला का अद्भुत चित्रण किया है। इसके साथ ही बुद्ध धर्म और वैदिक धर्म के गहरे भावों को भी इन चित्रों में देखे जा सकते हैं। पर उनकी कविताओं को लेकर उतनी जिज्ञासा नहीं रही जितनी चित्रों के प्रति रही है। मीता जी ने उनके चित्रों और उनकी कविताओं को आमने सामने प्रकाशित करके दोनों के बीच के अंतरसंबंधों को उजागर करने का सफल प्रयास किया है। इसलिए ये पुस्तक प्रकाशित होते ही रूसियों और भारतीयों के बीच एकदम लोकप्रिय हो गयी और एक ही महीने में इसके पुनः मुद्रण की नौबत आ गयी।



निकोलस रेरिख ने रूस, यूरोप, मध्य एशिया, मंगोलिया, तिब्बत, चीन, जापान और भारत की यात्राएं कीं। 1928 से वह हिमालय के संपर्क में आए। इसके अनुपम सौंदर्य से वह इतने प्रभावित हुए कि इन्होंने अपने जीवन के बीस वर्ष कुल्लू घाटी में व्यतीत किए। 73 वर्ष के अपने जीवन काल में इन्होंने विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अपार ज्ञान प्राप्त किया, लेकिन प्रमुख रूप से यह अमर चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके सम्मान में अमरीका में 1929 में 29 मंजिला विशाल भवन बनवाया गया। यहां इनकी चित्रकारियां संग्रहित हैं। 


अपनी आध्यात्मिक समझ व सात्विक जीवन शैली के चलते वे महर्षि के नाम से प्रसिद्ध थे। वे हिमालय में एक इंस्टीट्यूट स्थापित करना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने राजा मण्डी से 1928 में ‘हॉल एस्टेंट नग्गर’ खरीदा।


बचपन में अपनी प्राथमिक पेंटिंग्स में, रेरिख ने रूस की आध्यात्मिक संस्कृति को दर्शाने के लिए, अपनी मातृभूमि और अपने लोगों के इतिहास को चित्रित करने का प्रयास किया। यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद, पेरिस और बर्लिन के संग्रहालयों और प्रदर्शनियों का दौरा करने के लिए रेरिख एक वर्ष के लिए यूरोप चले गए। फ़्रांस में उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार एफ. कॉर्मन से चित्रकला भी सीखी। यूरोप जाने से ठीक पहले, रूस के त्वेर प्रांत में एक पुरातात्विक शोध के दौरान, उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी येलेना से हुई, जो सेंट पीटर्सबर्ग के प्रसिद्ध वास्तुकार, इवान इवानोविच शापोशनिकोव की पुत्री थी। 1902 में, निकोलाय और येलेना रेरिख के घर में एक बेटे का जन्म हुआ, यूरी, जो आगे चलकर एक प्राच्यविद् वैज्ञानिक बने और 1904 में उनके दूसरे बेटे स्वेतोस्लाव का जन्म हुआ, जो अपने पिता की तरह एक कलाकार और एक सार्वजनिक व्यक्ति बन गया। 1903 और 1904 की गर्मियों में, ऐलेना और निकोलाई ने रूस के चालीस से अधिक प्राचीन शहरों की लंबी यात्रा की। निकोलस ने प्रकृति के कई रेखाचित्र बनाए और येलेना ने कई प्राचीन स्मारकों की तस्वीरें खींचीं।


रेरिख बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिनके हुनर, विभिन्न क्षेत्रों में देखें जा सकते हैं। वह एक विद्वान संपादक, उत्कृष्ट पुरातत्वविद्, अद्भुत कलाकार, प्रतिभाशाली सज्जाकार और सेट डिजाइनर और ग्राफिक्स के भी मास्टर थे। अपने पूरे जीवन में, रेरिख ने इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, अमेरिका, भारत आदि जैसे विभिन्न देशों और महाद्वीपों में विभिन्न प्रदर्शनियों का दौरा किया, कई हजार पेंटिंग, भित्तिचित्रों के रेखाचित्र बनाए, ओपेरा और बैले के लिए नाटकीय सेट और वेशभूषाएँ बनाईं और सार्वजनिक इमारतों और चर्चों के लिए मोज़ाइक और स्मारकीय भित्ति चित्र भी बनाए। 


1921 में, न्यूयॉर्क में, रेरिख ने ने मास्टर इंस्टीट्यूट ऑफ यूनाइटेड आर्ट्स की स्थापना की। उनका मानना था कि कला, ज्ञान और सौंदर्य वे महान आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं जो मानवता के भविष्य को एक नई राह दिखाएँगीं। न्यूयॉर्क में, रेरिख और उनकी पत्नी ने एक अंतर्राष्ट्रीय कला केंद्र की भी स्थापना की, जहाँ विभिन्न देशों के कलाकार अपनी प्रदर्शनियाँ प्रस्तुत कर सकते थे। एशिया और विशेष रूप से भारत, रेरिख के दिल के बहुत करीब था। रेरिख ने मानवता को संस्कृति की एक नई परिभाषा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके लिए, संस्कृति मानव जाति के अस्तित्व का आधार है, जो लौकिक स्तर पर मानव जाति के विकास की अवधारणा से जुड़ी है। रेरिख के अनुसार, संस्कृति व्यक्ति के प्रति प्रेम है। संस्कृति जीवन और सौंदर्य का संयोजन है। केवल संस्कृति के माध्यम से ही एक व्यक्ति सुधर सकता है और अपने अस्तित्व के नए स्तर पर पहुँच सकता है।


1928 में, मध्य एशिया का अपना भव्य खोजयात्रा पूरी करने के बाद, उन्होंने संपूर्ण मानवता की सांस्कृतिक संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए रेरिख संधि नामक संधि तैयार की। उन्होंने वेदों और भगवद गीता का भी अध्ययन किया और उनसे बहुत प्रभावित हुए। रेरिख का काव्य अत्यंत आध्यात्मिक और मानवतावादी है, जो अंतरतम अर्थात आत्मा के जीवन के बारे में बात करता है। 

Monday, October 7, 2024

क्या गाय का दूध पीना बंद कर दें?


अमरीका में हमारे एक शुभचिंतक सतीश जी है। जिन्होंने मुंबई आईआईटी से पढ़ाई करके अमरीका में अपार धन कमाया। पर वे अत्यंत धार्मिक हैं और शास्त्रों में पारंगत हैं। उन्होंने गौवंश की सेवा के लिए ब्रज की एक गौशाला को 800 करोड़ रुपये दान दिया था। पर अब वो ग़ोरस (दूध, दहीं, छाछ, मक्खन, पनीर आदि) के दैनिक जीवन में उपभोग के घोर विरोधी हो गये हैं और उस गौशाला को भी दान देना बंद कर दिया है। पिछले हफ़्ते मेरी उनसे बीस बरस बाद टेलीफोन पर बात हुई तो उन्होंने मुझसे ज़ोर देकर कहा कि मैं और मेरा परिवार गोरस का उपभोग तुरंत बंद कर दें और ‘वीगन’ बन जाएँ। आज दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो वीगन बन चुके हैं। यानी वो पशु आधारित किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन नहीं करते। मतलब डेरी और मीट उत्पाद उनके भोजन से दूर जा चुके हैं। 



मैं सतीश जी के जीवन की पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कृत में संभाषण करने की क्षमता और धर्मार्थ कार्यों में उदारता से दान देने की प्रवृत्ति का सम्मान करता हूँ। पर उनकी यह सलाह मेरे गले नहीं उतरी। मुरलीधर गोपाल के भक्त हम सब ब्रजवासी गोरस को अपने दैनिक जीवन से भला कैसे दूर कर सकते हैं? कल्पना कीजिए कि आपको गर्म दूध, ठंडी लस्सी, पेड़े, गोघृत में चुपड़ी रोटी और नामक जीरे की छौंक लगी छाछ या मलाईदार क़ुल्फ़ी के सेवन से अगर अचानक वंचित कर दिया जाए तो हम ब्रजवासी जल बिन मछली की तरह तड़प जाएँगे। हम ही क्यों, बाहर से श्री वृंदावन बिहारी के दर्शन करने आने वाले करोड़ों भक्त, दर्शन करने के बाद सबसे पहले कुल्हड़ की लस्सी और वृंदावन के पेड़ों पर ही तो टूट कर पड़ते हैं। अगर उन्हें ये ही नहीं मिलेगा और ठाकुर जी की प्रसादी माखन मिश्री नहीं मिलेगी तो क्या ब्रज आने का उनका उत्साह आधा नहीं रह जाएगा? 



पर सतीश जी का तर्क भी बहुत वज़नदार है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं ओटीटी प्लेटफार्म पर जा कर एक फ़िल्म ‘माँ का दूध’ अवश्य देखूँ। ये ढाई घंटे की फ़िल्म बहुत गहन शोध और मेहनत से बनाई गई है। इसे देखने वाले का कलेजा काँप उठेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के नाम पर अपने को शाकाहारी और सात्विक मानने वाले हम लोग भी, जाने-अनजाने ही पशु हिंसा के भयंकर पाप कर्म में लिप्त हो रहे हैं। ये फ़िल्म हम सब की आँखें खोल देती है, ये बता कर कि हम पढ़े-लिखे लोग भी किस तरह अपनी अज्ञानता के कारण अपने भोजन में नित्य ज़हर खा रहे हैं। आज महामारी की तरह फैलता कैंसर रोग इसका एक प्रमाण है। 


मैंने सतीश जी के कहने पर अभी गोरस का प्रयोग बंद नहीं किया है। पर फ़िल्म देखने के बाद मैंने उनसे कहा कि उनकी बात में बहुत वज़न है। पर ये भी कहा कि सदियों का अभ्यास क्षणों में आसानी से छोड़ा नहीं जाता। 


यहाँ आपके मन में प्रश्न उठेगा कि गोरस और शाकाहार करने वाले लोग पशु हत्या के पाप में कैसे लिप्त हो सकते हैं? इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के लालच में बिना दूध देने वाली करोड़ों गायों और उनके बछड़ों को रोज़ क़त्ल किया जा रहा है और उनके मांस का व्यापार अन्य देशों की तुलना में तपोभूमि भारत में सबसे ज़्यादा हो रहा है। 



जब भगवान श्रीकृष्ण-बलराम गायों को चराते थे तब  भारत की अर्थव्यवस्था गोवंश और कृषि पर आधारित थी। गऊ माता के दूध, गोबर और मूत्र से हमारा शरीर व पर्यावरण पुष्ट होता था और बैल कृषि के काम आते थे। दूध न देने वाली बूढ़ी गाय और हल में न जुत सकने वाले बैल कसाईखाने को नहीं बेचे जाते थे। बल्कि परिवार के बुजुर्गों  की तरह उनकी घर पर ही आजीवन सेवा होती थी। उनकी मृत्यु पर परिवार में ऐसे ही शोक मनाया जाता था जैसे कि परिवार के मुखिया के मरने पर मनाया जाता है। 


पिछले दशकों में आधुनिक खेती के नाम पर खनिज, उर्वरक, कीटनाशक, डीज़ल ट्रेक्टर और अन्य आधुनिक उपकरणों को भारतीय किसानों पर क्रमशः थोप दिया गया। नतीजतन किसान की  भूमि उर्वरता, उसके परिवार का स्वास्थ्य, उसकी आर्थिक स्थिति और उसके परिवेश पर ग्रहण लग गया। इस तथाकथित विकसित कृषि ने उसे कहीं का न छोड़ा। ये मत सोचियेगा कि इस सबका असर केवल किसानों के परिवार पर ही पड़ा है। बल्कि आप और हम भी इस दुश्चक्र में फँस कर स्वस्थ जीवन जीने की संभावना से हर दिन दूर होते जा रहे हैं। 


क्या आप जानते हैं कि भारत में रोज़ाना मात्र 14 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है। जबकि भारत में हर दिन 64 करोड़ लीटर दूध और उससे बने पदार्थों की खपत होती है।ये खपत 50 करोड़ लीटर नक़ली सिंथेटिक दूध बनाकर ही पूरी की जाती है। गोपाल की लीलाभूमि ब्रज तक में नक़ली दूध का कारोबार खुलेआम धड़ल्ले से लिया जा रहा है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस तरह दूध के नाम पर हम सब अपने परिवार को ज़हर खिला रहे हैं। 


मूल प्रश्न पर लौटें, गौ रस पान से हिंसा कैसे होती है? जब केवल दूध की चाहत है तो दूध देना बंद करने वाली गायों को कसाईखाने में कटने के लिए भेज दिया जाता है। इसी तरह जब खेती में बैल की जगह ट्रेक्टर जुतने लगे तो बछड़े और बैल का धड़ल्ले से उपयोग मांस के व्यापार के लिए होने लगा है। इस तरह उनके हत्या के लिए हम सब भी अपराधी हैं। इस गंभीर विषय को पूरी तरह समझने के लिए आप ‘माँ का दूध’ फ़िल्म ज़रूर देखियेगा। ये गंभीर चर्चा हम आगे भी जारी रखेंगे। मैंने सतीश जी को यह आश्वासन दिया है कि इस गंभीर विषय पर मैं अभी और शोध करूँगा और इस समस्या के हल का अपने जीवन में हम क्या विकल्प सोच सकते हैं इस पर भी अनुभवी लोगों से प्रश्न पूछूँगा, तभी कोई निर्णय ले पाने की स्थिति में पहुँच पाऊँगा। पाठक भी इस विषय पर गहरी जाँच करें। 

Monday, September 23, 2024

यूरोप क्यों तालिबानी मुसलमानों के ख़िलाफ़ है?


पिछले कुछ वर्षों से यूरोप की स्थानीय आबादी और बाहर से वहाँ आकर बसे मुसलमानों के बीच नस्लीय संघर्ष तेज हो गए हैं। ये संघर्ष अब खूनी और विध्वंसकारी भी होने लगे हैं। कई देश अब मुसलमानों पर सख़्त पाबन्दियाँ लगा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने की माँग उठ रही है। आतंकवादियों की शरणस्थली बनी उनकी मस्जिदें बुलडोज़र से ढहायी जा रही हैं। उनके दाढ़ी रखने और बुर्का पहनने पर पाबन्दियाँ लगाई जा रही हैं। 


ये इसलिए हो रहा है क्योंकि मुसलमान जहां जाकर बसते हैं वहाँ शरीयत का अपना क़ानून चलाना चाहते हैं। वो भी ज्यों का त्यों नहीं। वे वहाँ स्थानीय संस्कृति व धर्म का विरोध करते हैं। अपनी अलग पहचान बना कर रहते हैं। स्थानीय संस्कृति में घुलते मिलते नहीं है। हालाँकि सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। पर जो अतिवादी होते हैं उनका प्रभाव अधिकतर मुसलमानों पर पड़ता है। जिससे हर मुसलमान के प्रति नफ़रत पैदा होने लगती है। ये बात दूसरी है कि इंग्लैंड, फ़्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल जैसे जिन देशों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बना है। ये वो देश हैं जिन्होंने पिछली सदी तक अधिकतर दुनिया को ग़ुलाम बनाकर रखा और उन पर अपनी संस्कृति और धर्म थोपा था। पर आज अपने किए वो घोर पाप उन्हें याद नहीं रहे। पर इसका मतलब ये नहीं कि अब मुसलमान भी वही करें जो उनके पूर्वजों के साथ अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ़्रांसीसियों, डच ने किया था। क्योंकि आज के संदर्भ में मुसलमानों का आचरण अनेक देशों में वाक़ई चिंता का कारण बन चुका है। उनकी आक्रमकता और पुरातन धर्मांध सोच आधुनिक जीवन के बिलकुल विपरीत है। इसलिए समस्या और भी जटिल होती जा रही है। 



ऐसा नहीं है कि उनके ऐसे कट्टरपंथी आचरण का विरोध उनके विरुद्ध खड़े देशों में ही हो रहा है। ख़ुद मुस्लिम देशों में भी उनके कठमुल्लों की तानाशाही से अमनपसंद आवाम परेशान है। अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं को लें। उन पर लगीं कठोर पाबंदियों ने इन महिलाओं को मानसिक रूप से कुंठित कर दिया है। वे लगातार मनोरोगों का शिकार हो रही हैं। जब तालिबान ने पिछले महीने सार्वजनिक रूप से महिलाओं की आवाज़ पर अनिवार्य रूप से प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून पेश किया, तो दुनिया हैरान रह गई। 



लेकिन जो लोग अफगानिस्तान के शासन के अधीन रहते हैं, उन्हें इस घोषणा से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी से बात करते हुए वहाँ रहने वाले एक महिला बताया कि, हर दिन हम एक नए कानून की उम्मीद करते हैं। दुर्भाग्यवश, हर दिन हम महिलाओं के लिए एक नई, पाबंदी की उम्मीद करते हैं। हर दिन हम उम्मीद खो रहे हैं। इस महिला के लिए इस तरह की कार्रवाई अपरिहार्य थी। लेकिन उसके लिए व उसके जैसी अनेक महिलाओं के लिए ऐसे फ़ैसलों के लिए मानसिक रूप से तैयार होने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हानिकारक प्रभाव कम नहीं हुआ। तालिबान द्वारा यह नया प्रतिबंध महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गाने, कविता पढ़ने या ज़ोर से पढ़ने से भी रोकता है क्योंकि उनकी आवाज़ को शरीर का ‘अंतरंग’ हिस्सा माना जाता है। अगस्त के अंत में लागू किया जाने वाला यह तालिबानी आदेश स्वतंत्रता पर कई प्रहारों में से एक है। 


महिलाओं को अब ‘प्रलोभन’ से बचने के लिए अपने पूरे शरीर को हर समय ऐसे कपड़ों से ढकना चाहिए जो पतले, छोटे या तंग न हों, जिसमें उनके चेहरे को ढकना भी शामिल है। जीवित प्राणियों की तस्वीरें प्रकाशित करना और कंप्यूटर या फोन पर उनकी तस्वीरें या वीडियो देखना भी प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिससे अफगानिस्तान के मीडिया आउटलेट्स का भाग्य गंभीर खतरे में पड़ गया है। महिलाओं की आवाज़ रिकॉर्ड करना और फिर उन्हें निजी घरों के बाहर प्रसारित करना भी प्रतिबंधित है। इसका मतलब है कि जिन महिलाओं ने अपने इंटरव्यू रिकॉर्ड किए या वॉयस नोट्स के माध्यम से किसी न्यूज़ एजेंसी के साथ बात करना चुना, तो ऐसा उन्होंने काफ़ी बड़ा जोखिम उठा कर किया। लेकिन कड़ी सज़ा की संभावना के बावजूद उन्होंने कहा कि वे चुप रहने को तैयार नहीं हैं। इस एजेंसी को दिए गए इंटरव्यू के माध्यम से वे चाहते हैं कि दुनिया अफगानिस्तान में महिला के रूप में जीवन की क्रूर, अंधकारमय सच्चाई को जाने।


इस इंटरव्यू में अधिकतर महिलाओं ने अमानवीय सज़ा के डर से अपना नाम न देने की इच्छा ज़ाहिर की। परंतु काबुल की सोदाबा नूरई एक अनोखी महिला थीं - उन्होंने सज़ा से बिना डरे अपना नाम लेने की इच्छा की। न्यूज़ एजेंसी को भेजे एक वॉइस मेसेज में उन्होंने कहा, महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से बोलने पर प्रतिबंध के बावजूद मैंने आपसे बात करने का फैसला किया क्योंकि मेरा मानना ​​है कि हमारी कहानियों को साझा करना और हमारे संघर्षों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। खुद पहचान ज़ाहिर करना एक बहुत बड़ा जोखिम है, लेकिन मैं इसे लेने को तैयार हूं क्योंकि चुप्पी केवल हमारी पीड़ा को जारी रखने की अनुमति ही देगी। यह नया कानून बेहद चिंताजनक है और इसने महिलाओं के लिए भय और उत्पीड़न का माहौल पैदा कर दिया है। यह हमारी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है और यह शिक्षा, कार्य और बुनियादी स्वायत्तता के हमारे अधिकारों को कमजोर करता है। उल्लेखनीय है कि सोदाबा नूरई को अपनी नौकरी से अगस्त 2021 में हाथ धोना पड़ा। क्योंकि तब वहाँ तालिबान का राज पुनः स्थापित हुआ और शरीयत क़ानून के मुताबिक़ महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये। अब उसे सरकार से प्रति माह 107 डॉलर के बराबर राशि मिलती है, जिसे वह महिलाओं की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त मानती हैं। 


यह महिलाएँ चाहती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को तत्काल एक मजबूत, समन्वित और प्रभावी रणनीति विकसित और लागू करनी चाहिए जो तालिबान पर इन बदलावों को लाने के लिए दबाव डाले। इस तालिबानी आदेश से यह दिखाई देता है कि तालिबान द्वारा किसी एक अधिकार का उल्लंघन अन्य अधिकारों के प्रयोग पर किस तरह से घातक प्रभाव डाल सकता है। कुल मिलाकर, तालिबान की नीतियाँ दमन की एक ऐसी प्रणाली बनाती हैं जो अफ़गानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के साथ उनके जीवन के लगभग हर पहलू में भेदभाव करती है। इसलिए ऐसे दमनकारी आदेशों के ख़िलाफ़ पूरे विश्व को एक होने की आवश्यकता है। 

Monday, September 16, 2024

जल संकट: एक बार फिर वही रोना


देश के ज़्यादातर हिस्से में भारी वर्षा ने हालात बेक़ाबू कर दिये हैं और समाधान दिखाई नहीं देता। कई बाँधों में जल का स्तर ख़तरे के निशान से भी ऊपर चला गया है। ये पानी अगर छूट कर निकल पड़ा तो दूर-दूर तक तबाही मचा देगा। नदियों के बहाव में पुल बहे जा रहे हैं। जिनमें आए दिन जान-माल की हानि हो रही है। अनेक प्रदेशों के बड़े शहरों की पॉश बस्तियों में कमर तक पानी भर रहा है। ग़रीब बस्तियों की तो क्या कही जाए? वे तो हर आपदा की मार सहने को अभिशप्त हैं। देश की राजधानी दिल्ली का ही इतना बुरा हाल है कि यहाँ जल से भरे नालों और बिना ढक्कन के मैनहोलों में कितनी ही जाने जा चुकी हैं। अनियंत्रित जल का भराव, बिजली के खम्बों को अपनी लपेट में ले रहा है, जिनमें फैला करंट जानलेवा सिद्ध हो रहा है। नगरपालिका हो या महापालिकाएँ हों इस अतिवृष्टि के सामने बेबस खड़ी हैं। इसके अपने अलग कई कारण हैं। 


पहले तो इंजीनियरिंग डिज़ाइन में ही गड़बड़ी होती है। दूसरा, जल के प्रवाह को और धरती के ढलान को निर्माण करते समय गंभीरता से नहीं लिया जाता। तीसरा, जल बहने के मार्ग कचड़े से पटे होने के कारण वाटर-लॉगिंग को पैदा करते हैं। ये सब ‘विकास’ अगर सोच-विचार कर किया जाता तो ऐसे हालात पर क़ाबू पाया जा सकता था। पर जब उद्देश्य समस्या का हल न निकालना हो कर बल्कि अपनी हित साधना हो तो विकास के नाम पर ऐसा ही विनाश होगा। 



इस संदर्भ में, अपने इसी कॉलम में, शहरों में जल भराव की समस्या के एक महत्वपूर्ण कारण को पिछले दो दशकों में मैं कई बार रेखांकित कर चुका हूँ। पर केंद्र और प्रांतों के शहरी विकास मंत्रालय, इस पर कोई ध्यान नहीं देते। समस्या यह है कि हर शहर में सड़कों की मरम्मत या पुनर्निर्माण का कार्य केवल विभाग और ठेकेदार के मुनाफ़ा बढ़ाने के उद्देश्य से किए जाते हैं, जनता की समस्या का हल निकालने के लिए नहीं। हर बार पुरानी सड़क पर नया रोड़ा-पत्थर डाल कर उसे उसके पिछले स्तर से 8-10 इंच ऊँचा कर दिया जाता है और यह क्रम पिछले कई दशकों से चल रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज अच्छी-अच्छी कॉलोनियों की सड़कें, उन सड़कों के दोनों ओर बने भवनों से क़रीब एक-एक मीटर ऊँची हो गई हैं। नतीजतन, हल्की सी बारिश में ही इन घरों की स्थित नारकीय हो जाती है। क्योंकि सड़क पर गिरने वाला वर्ष का जल, इन घरों में जमा हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण की नगरी मथुरा हो या महाकाल की नगरी उज्जैन, आप इस समस्या का साक्षात प्रमाण देख सकते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हर बार सड़क की मरम्मत या पुनर्निर्माण से पहले उसे खोद कर उसके मूल स्तर पर ही बनाया जाए। मैंने दुनिया के कई दर्जन देशों की यात्रा की है। पर ऐसा भयावह दृश्य कहीं नहीं देखा जहां हर हर कुछ सालों में लोगों के घर के सामने की सड़क ऊँची होती जाती है। 



आज़ादी मिलने से आज तक खरबों रुपया जल प्रबंधन के नाम पर ख़र्च हो गया पर वर्षा के जल का संचय हम आज तक नहीं कर पाए। हमारे देश में वर्ष भर में बरसने वाले जल का कुल 8 फ़ीसद का ही संचयन हो पाता है। बाक़ी 92 फ़ीसद वर्षा का शुद्ध जल बह कर समुद्र में मिल जाता है। जिसका परिणाम यह होता है कि गर्मी की शुरुआत होते ही देश में जल संकट शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, वैसे-वैसे यह संकट और भी गहरा हो जाता है। 


राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे अनेक प्रांतों में तमाम शहर हैं जो अपनी आबादी की जल की माँग की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ता है तो दूसरी ओर कई शहर हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकती है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है। 



एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसलिए प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। चेन्नई जैसे 22 महानगरों में भूजल पूरी तरह समाप्त हो गया है। जहां अब टैंकरों, रेल गाड़ियों और पाइपों से दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है। अगर देश और प्रांतों के नीति निर्धारक और हम सब नागरिक केवल वर्षा के जल का सही प्रबंधन करना शुरू कर दें तो भारत सुजलाम-सुफलाम देश बन जाएगा, जो ये कभी था। ‘पानी बीच मीन प्यासी, मोहे सुन-सुन आवे हाँसी।’  

Monday, September 9, 2024

कांग्रेस समझदारी से चले


जून 2024 के चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी का ग्राफ काफ़ी बढ़ गया है। बेशक इसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष किया और भारत के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे लम्बी पदयात्रा की। जिसके दौरान उन्हें देशवासियों का हाल जानने और उन्हें समझने का अच्छा मौक़ा मिला। इस सबका परिणाम यह है कि वे संसद में आक्रामक तेवर अपनाए हुए हैं और तथ्यों के साथ सरकार को घेरते रहते हैं। किसी भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों का मज़बूत होना ज़रूरी होता है। इसी से सत्ता का संतुलन बना रहता है और सत्ताधीशों की जनता के प्रति जवाबदेही संभव होती है। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र को अधिनायकवाद में बदलने में देर नहीं लगती।
 


आज राहुल गांधी विपक्ष के नेता भी हैं। जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद है। जिसकी बात को सरकार हल्के में नहीं ले सकती। इंग्लैंड, जहां से हमने अपने मौजूदा लोकतंत्र का काफ़ी हिस्सा अपनाया है, वहाँ तो विपक्ष के नेता को ‘शैडो प्राइम मिनिस्टर’ के रूप में देखा जाता है। उसकी अपनी समानांतर कैबिनेट भी होती है, जो सरकार की नीतियों पर कड़ी नज़र रखती है। ये एक अच्छा मॉडल है जिसे अपने सहयोगी दलों के योग्य नेताओं को साथ लेकर राहुल गांधी को भी अपनाना चाहिए। आपसी सहयोग और समझदारी बढ़ाने के लिए, ये एक अच्छी पहल हो सकती है। 


राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनाने में ‘इंडिया गठबंधन’ के सभी सहयोगी दलों, विशेषकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की बहुत बड़ी भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश से 37 लोक सभा सीट जीत कर अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनने का आधार प्रदान किया। आज समाजवादी पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ऐसे में अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का ये नैतिक दायित्व है कि वे भी अखिलेश यादव जैसी उदारता दिखाएं जिसके कारण कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी जैसी प्रतिष्ठा की सीटें जीतने का मौक़ा मिला। वरना उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन और जनाधार के मामले में बहुत पीछे जा चुकी थी। अब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव हैं, जहां कांग्रेस सबसे बड़े दल की भूमिका में हैं। वहाँ उसे समाजवादी पार्टी को साथ लेकर चलना चाहिए और दोनों राज्यों के चुनावों में समाजवादी पार्टी को भी कुछ सीटों पर चुनाव लड़वाना चाहिए। महाराष्ट्र में तो समाजवादी पार्टी के दो विधायक अभी भी थे। हरियाणा में भी अगर कांग्रेस के सहयोग से उसके दो-तीन विधायक बन जाते हैं तो अखिलेश यादव को अपने दल को राष्ट्रीय दल बनाने का आधार मिलेगा। इससे दोनों के रिश्ते प्रगाढ़ होंगे और ‘इंडिया गठबंधन’ भी मज़बूत होंगे। 



स्वाभाविक सी बात है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को इस रिश्ते से तक़लीफ़ होगी। क्योंकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक एक सा है। ये नेता पुराने ढर्रे पर चलकर समाजवादी पार्टी के जनाधार पर निगाह गढ़ाएँगे। पर ऐसी हरकत से दोनों दलों के आपसी संबंध बिगड़ेंगे और बहुत दूर तक साथ चलना मुश्किल होगा। इसलिए ‘इंडिया गठबंधन’ के हर दल को ये ध्यान रखना होगा कि जिस राज्य में जिस दल का वर्चस्व है वो वहाँ नेतृत्व संभले पर, साथ ही अपने सहयोगी दलों को भी साथ खड़ा रखे। विशेषकर उन दलों को जिनका उन  राज्यों में कुछ जनाधार है। इससे गठबंधन के हर सदस्य दल को लाभ होगा। राहुल गांधी को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी दल ‘इंडिया गठबंधन’ में अपने को उपेक्षित महसूस न करें। इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी के बाद सबसे बड़ा क़द अखिलेश यादव का है। अखिलेश की शालीनता और उदारता का उनके विरोधी दलों के नेता भी सम्मान करते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव को पूरा महत्व देकर राहुल गांधी अपनी ही नींव मज़बूत करेंगे। 



हालाँकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के पिछले कुछ अनुभव अच्छे नहीं रहे। इसलिए और भी सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि अखिलेश यादव में इतना बड़प्पन है कि वे अपनी कटु आलोचक बुआजी बहन मायावती से भी संबंध सुधारने में सद्भावना से पहल कर रहे हैं। यही नीति ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार व लालू यादव आदि को भी अपनानी होगी। तभी ये सब दल भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत बना पायेंगे। 


यही बात भाजपा पर भी लागू होती है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देकर भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ एनडीए गठबंधन चला रही है। पर भाजपा का पिछले दस वर्षों का ये इतिहास रहा है कि उसने प्रांतों की सरकार बनाने में जिन छोटे दलों का सहयोग लिया, कुछ समय बाद उन्हीं दलों को तोड़ने का काम भी किया। इससे उसकी नीयत पर इन दलों को संदेह बना रहता है। पिछले दो लोक सभा चुनावों में भाजपा अपने बूते पर केंद्र में सरकार बना पाई। पर 2024 के चुनाव परिणामों ने उसे मिलीजुली सरकार बनाने पर मजबूर कर दिया। पर अब फिर वही संकेत मिल रहे हैं कि भाजपा का नेतृत्व, तेलगुदेशम, जदयू व चिराग़ पासवान के दलों में सेंध लगाने की जुगत में हैं।  अगर इस खबर में दम है तो ये भाजपा के हित में नहीं होगा। जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच एजेंसियों के तौर-तरीक़ों पर लगाम कसनी शुरू की है, उससे तो यही लगता है कि डरा-धमका कर सहयोग लेने के दिन लद गए। भाजपा को अगर केंद्र में सरकार चलानी है या आगामी चुनावों में भी वो राज्यों की सरकारें बनाना चाहती है तो उसे ईमानदारी से सबका साथ-सबका विकास की नीति पर चलना होगा। 


हमारे लोकतंत्र का ये दुर्भाग्य है कि जीते हुए सांसद और विधायकों की प्रायः बोली लगाकर उन्हें ख़रीद लिया जाता है। इससे मतदाता ठगा हुआ महसूस करता है और लोकतंत्र की जड़ें भी कमज़ोर होती हैं। 1967 से हरियाणा में हुए दल-बदल के बाद से ‘आयाराम-गयाराम’ का नारा चर्चित हुआ था। अनेक राजनैतिक चिंतकों और समाज सुधारकों ने लगातार इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की माँग की है। पर कोई भी दल इस पर रोक लगाने को तैयार नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि संविधान में परिवर्तन करके ऐसा क़ानून बनाया जाए कि जब कोई उम्मीदवार, लोक सभा या विधान सभा का चुनाव जीतता है तो उसे उस लोक सभा या विधान सभा के पूरे कार्यकाल तक उसी दल में बने रहना होगा जिसके चुनाव चिन्ह पर वो जीत के आया है। अगर वो दूसरे दल में जाता है तो उसे अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देना होगा। तभी इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सभी दलों को अपने हित में इस विधेयक को पारित कराने के लिए एकजुट होना होगा।