Monday, November 18, 2024

रोज़गारपरक शिक्षा कैसे हो?


आय दिन अख़बारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।



पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।



दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।


कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत। 

Monday, November 11, 2024

कैसे बने देश अपराध मुक्त ?


चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है। हाल ही में संपन्न हुए कुछ विधान सभा चुनावों और इससे पहले हुए लोकसभा 
के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 75 वर्षों में हज़ारों अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनिया भर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहाँ से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। मुझे याद है 2009 में एक हवाई यात्रा के दौरान गुजरात के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छः हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। प्रशिक्षण के बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने यह बताना है कि इन छः हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा, उसका लाभ उसके राज्य को कैसे मिल सकता है। मेरे लिये ये यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। जिसका उल्लेख मैंने तब भी इस कॉलम में किया था। 



हम भारतीयों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहाँ सड़के अच्छी हैं। वहाँ बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरों पर जाता रहता हूँ। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूल खर्ची देखकर चिंता होती है। पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी, इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहाँ की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने  कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहाँ न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।



हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में सिंगापुर  के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डॉलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरूद्ध एक खुली जाँच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हालाँकि एटोर्नी जनरल को संबंधित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये। परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।


आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे, ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूँ तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूँ। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूँ तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’


उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये, वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं है। ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है, तो भारत में हमारे हुक्मरान अपने अफ़सरों और मंत्रियों पर ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?


बातें सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि आजतक हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट रहे हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यों न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। इसीलिए हमारे यहाँ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितने अपराध होते हैं, उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं। ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी? क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? आम जनता को लगातार क़ानून का डर दिखाने से पहले हुक्मरानों का आचरण, उनके निर्णय और उनकी नीतियाँ पारदर्शी व आम जनता के हित में होनी चाहिए। 

भगवतगीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ अर्थात्- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वैसा ही व्यवहार अन्य लोग भी करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़ देता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं।माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर ‘जहाँ चाह वहाँ राह।’ 

Monday, November 4, 2024

त्योहारों की तिथियों में विवाद क्यों?

बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्योहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफ़ी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। इस दीपावली पर मुझे कई फ़ोन आए और सभी ने इस विषय को छेड़ा और मुझे इस मुद्दे पर लिखने को कहा। मैंने शास्त्र आधारित तथ्यों पर वृंदावन में जानकारों से चर्चा की। उन विद्वानों के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं। 


कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि, इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना व बढ़ना हो जाता है। इससे त्योहार मनाने का समय बदल जाता है। कहीं पर वही त्योहार पहले मनाया लिया जाता है और कहीं पर बाद में। इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकर्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्योहारों को स्थापित करते हैं। लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्योहारों में मतेकता नहीं हो पाती है। 



सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।


इसके अलावा त्योहारों की तिथि के भेद का एक अन्य कारण संप्रदाय भेद भी है। विभिन्न संप्रदायों में मतभेद के पीछे कई कारण हैं। संप्रदायों में विभिन्नता या ज़िद्द के कारण भी त्योहारों की तिथि में अंतर आने लग गये हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आँख मूँद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फ़रमान के अनुसार ही त्योहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वो चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।      

 


इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’। ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी द्वारा बाँटे जा रहे इस ज्ञान ने भी तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं एक घर परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं। जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मन लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को माने तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं। 



तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएँगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिये । यदि दो अमावस्या परदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए। 



देखा जाए तो शास्त्रों के अनुसार दीपावली का अर्थ केवल नए कपड़े पहनना, मिठाई बाँटना, दीपोत्सव और आतिशबाजी ही नहीं है। दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वल्लित करते हैं ताकि पितरों का मार्ग प्रकाशित हो सके पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं। 


ज्वलते यस्यसेनानीरश्वमेधेन तस्य किम् । 

तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम् ॥ 

पितरश्चैव वाञ्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः। 

भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः॥ 

कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम् । 

घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः ॥ 


कार्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो। 

पापिनः पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रियाः

तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः ॥


दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेतचतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पाँच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे  बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।


कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्योहार के पीछे जो आधार हैं स्थापित हैं उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं है। इसलिए फिर वो चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद हो इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे। 

Monday, October 21, 2024

क्या विकास के पैसे सही दिशा में ख़र्च होते हैं?


बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये, वो सब कितने सच्चे हैं। 



दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 70 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ्य सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।



जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फ़र्ज़ीवाड़े के बयान लगातार धमाकेदार छपते है। इन भ्रष्ट अफ़सरों और निर्माण कम्पनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपए की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धँस जाते हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली केवल सड़क मार्गों पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियाँ भी धँस गई और रेल दुर्घटना हुई।     



उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल ख़ानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फ़र्ज़ीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊँचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएँ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।



आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएँ ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरुद्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्य पूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूँकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तों अपने पाँव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएँगे?

 

Monday, October 14, 2024

निकोलस रेरिख क्यों थे भारत के लिए महत्वपूर्ण?


1874 में सैंट पीटर्सबर्ग (रुस) में जन्मे और 1947 में  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले के नग्गर अपने आवास पर समाधिस्थ हुए रूसी चित्रकार, दार्शनिक, कवि, पुरात्ववेत्ता, सम्मोहनकर्ता निकोलस रेरिख के जन्म के 150 वें वर्ष में दुनियाँ भर में, विशेषकर भारत में रूसी दूतावास, भारत सरकार, भारत के सांस्कृतिक केंद्रों व विश्वविद्यालयों में अनेक आयोजन किए जा रहे हैं। पर नयी पीढ़ी के लोगों को शायद उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं है। केवल उन लोगों को छोड़कर जो पर्यटक के रूप में कुल्लू गये हैं या साहित्य और कला में रुचि रखते हैं। 


मुझे भी इस महान् व्यक्तित्व के विषय में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी जब तक मैंने कुल्लू में उनके आवास पर बने संग्रहालय को नहीं देखा था। जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। जबकि मेरी इस अज्ञानता को क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि मेरी पत्नी प्रोफेसर मीता नारायण रूसी भाषा की ख्यातिप्राप्त विद्वान हैं और गत चालीस वर्षों से जेएनयू में व साथ ही दर्जनों देशों के विश्वविद्यालयों में रूसी भाषा के अल्पकालीन कोर्स पढ़ाती रही हैं। रूसी भाषा पर उनकी लिखी पुस्तकें उन सब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। 


पर अभी हाल ही में उन्होंने भाषा विज्ञान के अपने विषय से हट कर निकोलस रेरिख की रूसी कविताओं का अंग्रेज़ी व हिन्दी अनुवाद उनके बनाये चित्रों के साथ एक आकर्षक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।तब मुझे रेरिख के विषय में पूरी जानकारी मिली। जो काफ़ी रोचक है । सोचा आपसे भी साझा करूँ। वैसे बॉलीवुड में रुचि रखने वालों को शायद ये पता हो कि रेरिख के बेटे सेवेटोस्लाव रेरिख की शादी अपने समय की मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री व दादा साहिब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देविका रानी से हुई थी। वो दोनों भी नग्गर (कुल्लू) के उसी सुंदर पहाड़ी आवास में रहते थे। जहां आज उनका संग्रहालय है। 


आम धारणा के विरुद्ध सभी रूसी लोग वामपंथी नहीं होते। अध्यात्म, विशेषकर भारत के आध्यात्मिक ज्ञान में उनकी गहरी रुचि होती है। इसी रुचि के कारण एक संपन्न परिवार में जन्में रेरिख रुस छोड़ कुल्लू के एक छोटे से क़स्बे में आ बसे। रेरिख को आमतौर पर उनकी अत्यंत मनभावनी व गहरी चित्रकला के लिए जाना जाता रहा है।अपनी इन पैंटिंग्स में रेरिख ने हिमालय की पर्वत शृंखला का अद्भुत चित्रण किया है। इसके साथ ही बुद्ध धर्म और वैदिक धर्म के गहरे भावों को भी इन चित्रों में देखे जा सकते हैं। पर उनकी कविताओं को लेकर उतनी जिज्ञासा नहीं रही जितनी चित्रों के प्रति रही है। मीता जी ने उनके चित्रों और उनकी कविताओं को आमने सामने प्रकाशित करके दोनों के बीच के अंतरसंबंधों को उजागर करने का सफल प्रयास किया है। इसलिए ये पुस्तक प्रकाशित होते ही रूसियों और भारतीयों के बीच एकदम लोकप्रिय हो गयी और एक ही महीने में इसके पुनः मुद्रण की नौबत आ गयी।



निकोलस रेरिख ने रूस, यूरोप, मध्य एशिया, मंगोलिया, तिब्बत, चीन, जापान और भारत की यात्राएं कीं। 1928 से वह हिमालय के संपर्क में आए। इसके अनुपम सौंदर्य से वह इतने प्रभावित हुए कि इन्होंने अपने जीवन के बीस वर्ष कुल्लू घाटी में व्यतीत किए। 73 वर्ष के अपने जीवन काल में इन्होंने विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अपार ज्ञान प्राप्त किया, लेकिन प्रमुख रूप से यह अमर चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके सम्मान में अमरीका में 1929 में 29 मंजिला विशाल भवन बनवाया गया। यहां इनकी चित्रकारियां संग्रहित हैं। 


अपनी आध्यात्मिक समझ व सात्विक जीवन शैली के चलते वे महर्षि के नाम से प्रसिद्ध थे। वे हिमालय में एक इंस्टीट्यूट स्थापित करना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने राजा मण्डी से 1928 में ‘हॉल एस्टेंट नग्गर’ खरीदा।


बचपन में अपनी प्राथमिक पेंटिंग्स में, रेरिख ने रूस की आध्यात्मिक संस्कृति को दर्शाने के लिए, अपनी मातृभूमि और अपने लोगों के इतिहास को चित्रित करने का प्रयास किया। यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद, पेरिस और बर्लिन के संग्रहालयों और प्रदर्शनियों का दौरा करने के लिए रेरिख एक वर्ष के लिए यूरोप चले गए। फ़्रांस में उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार एफ. कॉर्मन से चित्रकला भी सीखी। यूरोप जाने से ठीक पहले, रूस के त्वेर प्रांत में एक पुरातात्विक शोध के दौरान, उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी येलेना से हुई, जो सेंट पीटर्सबर्ग के प्रसिद्ध वास्तुकार, इवान इवानोविच शापोशनिकोव की पुत्री थी। 1902 में, निकोलाय और येलेना रेरिख के घर में एक बेटे का जन्म हुआ, यूरी, जो आगे चलकर एक प्राच्यविद् वैज्ञानिक बने और 1904 में उनके दूसरे बेटे स्वेतोस्लाव का जन्म हुआ, जो अपने पिता की तरह एक कलाकार और एक सार्वजनिक व्यक्ति बन गया। 1903 और 1904 की गर्मियों में, ऐलेना और निकोलाई ने रूस के चालीस से अधिक प्राचीन शहरों की लंबी यात्रा की। निकोलस ने प्रकृति के कई रेखाचित्र बनाए और येलेना ने कई प्राचीन स्मारकों की तस्वीरें खींचीं।


रेरिख बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिनके हुनर, विभिन्न क्षेत्रों में देखें जा सकते हैं। वह एक विद्वान संपादक, उत्कृष्ट पुरातत्वविद्, अद्भुत कलाकार, प्रतिभाशाली सज्जाकार और सेट डिजाइनर और ग्राफिक्स के भी मास्टर थे। अपने पूरे जीवन में, रेरिख ने इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, अमेरिका, भारत आदि जैसे विभिन्न देशों और महाद्वीपों में विभिन्न प्रदर्शनियों का दौरा किया, कई हजार पेंटिंग, भित्तिचित्रों के रेखाचित्र बनाए, ओपेरा और बैले के लिए नाटकीय सेट और वेशभूषाएँ बनाईं और सार्वजनिक इमारतों और चर्चों के लिए मोज़ाइक और स्मारकीय भित्ति चित्र भी बनाए। 


1921 में, न्यूयॉर्क में, रेरिख ने ने मास्टर इंस्टीट्यूट ऑफ यूनाइटेड आर्ट्स की स्थापना की। उनका मानना था कि कला, ज्ञान और सौंदर्य वे महान आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं जो मानवता के भविष्य को एक नई राह दिखाएँगीं। न्यूयॉर्क में, रेरिख और उनकी पत्नी ने एक अंतर्राष्ट्रीय कला केंद्र की भी स्थापना की, जहाँ विभिन्न देशों के कलाकार अपनी प्रदर्शनियाँ प्रस्तुत कर सकते थे। एशिया और विशेष रूप से भारत, रेरिख के दिल के बहुत करीब था। रेरिख ने मानवता को संस्कृति की एक नई परिभाषा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके लिए, संस्कृति मानव जाति के अस्तित्व का आधार है, जो लौकिक स्तर पर मानव जाति के विकास की अवधारणा से जुड़ी है। रेरिख के अनुसार, संस्कृति व्यक्ति के प्रति प्रेम है। संस्कृति जीवन और सौंदर्य का संयोजन है। केवल संस्कृति के माध्यम से ही एक व्यक्ति सुधर सकता है और अपने अस्तित्व के नए स्तर पर पहुँच सकता है।


1928 में, मध्य एशिया का अपना भव्य खोजयात्रा पूरी करने के बाद, उन्होंने संपूर्ण मानवता की सांस्कृतिक संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए रेरिख संधि नामक संधि तैयार की। उन्होंने वेदों और भगवद गीता का भी अध्ययन किया और उनसे बहुत प्रभावित हुए। रेरिख का काव्य अत्यंत आध्यात्मिक और मानवतावादी है, जो अंतरतम अर्थात आत्मा के जीवन के बारे में बात करता है। 

Monday, October 7, 2024

क्या गाय का दूध पीना बंद कर दें?


अमरीका में हमारे एक शुभचिंतक सतीश जी है। जिन्होंने मुंबई आईआईटी से पढ़ाई करके अमरीका में अपार धन कमाया। पर वे अत्यंत धार्मिक हैं और शास्त्रों में पारंगत हैं। उन्होंने गौवंश की सेवा के लिए ब्रज की एक गौशाला को 800 करोड़ रुपये दान दिया था। पर अब वो ग़ोरस (दूध, दहीं, छाछ, मक्खन, पनीर आदि) के दैनिक जीवन में उपभोग के घोर विरोधी हो गये हैं और उस गौशाला को भी दान देना बंद कर दिया है। पिछले हफ़्ते मेरी उनसे बीस बरस बाद टेलीफोन पर बात हुई तो उन्होंने मुझसे ज़ोर देकर कहा कि मैं और मेरा परिवार गोरस का उपभोग तुरंत बंद कर दें और ‘वीगन’ बन जाएँ। आज दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो वीगन बन चुके हैं। यानी वो पशु आधारित किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन नहीं करते। मतलब डेरी और मीट उत्पाद उनके भोजन से दूर जा चुके हैं। 



मैं सतीश जी के जीवन की पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कृत में संभाषण करने की क्षमता और धर्मार्थ कार्यों में उदारता से दान देने की प्रवृत्ति का सम्मान करता हूँ। पर उनकी यह सलाह मेरे गले नहीं उतरी। मुरलीधर गोपाल के भक्त हम सब ब्रजवासी गोरस को अपने दैनिक जीवन से भला कैसे दूर कर सकते हैं? कल्पना कीजिए कि आपको गर्म दूध, ठंडी लस्सी, पेड़े, गोघृत में चुपड़ी रोटी और नामक जीरे की छौंक लगी छाछ या मलाईदार क़ुल्फ़ी के सेवन से अगर अचानक वंचित कर दिया जाए तो हम ब्रजवासी जल बिन मछली की तरह तड़प जाएँगे। हम ही क्यों, बाहर से श्री वृंदावन बिहारी के दर्शन करने आने वाले करोड़ों भक्त, दर्शन करने के बाद सबसे पहले कुल्हड़ की लस्सी और वृंदावन के पेड़ों पर ही तो टूट कर पड़ते हैं। अगर उन्हें ये ही नहीं मिलेगा और ठाकुर जी की प्रसादी माखन मिश्री नहीं मिलेगी तो क्या ब्रज आने का उनका उत्साह आधा नहीं रह जाएगा? 



पर सतीश जी का तर्क भी बहुत वज़नदार है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं ओटीटी प्लेटफार्म पर जा कर एक फ़िल्म ‘माँ का दूध’ अवश्य देखूँ। ये ढाई घंटे की फ़िल्म बहुत गहन शोध और मेहनत से बनाई गई है। इसे देखने वाले का कलेजा काँप उठेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के नाम पर अपने को शाकाहारी और सात्विक मानने वाले हम लोग भी, जाने-अनजाने ही पशु हिंसा के भयंकर पाप कर्म में लिप्त हो रहे हैं। ये फ़िल्म हम सब की आँखें खोल देती है, ये बता कर कि हम पढ़े-लिखे लोग भी किस तरह अपनी अज्ञानता के कारण अपने भोजन में नित्य ज़हर खा रहे हैं। आज महामारी की तरह फैलता कैंसर रोग इसका एक प्रमाण है। 


मैंने सतीश जी के कहने पर अभी गोरस का प्रयोग बंद नहीं किया है। पर फ़िल्म देखने के बाद मैंने उनसे कहा कि उनकी बात में बहुत वज़न है। पर ये भी कहा कि सदियों का अभ्यास क्षणों में आसानी से छोड़ा नहीं जाता। 


यहाँ आपके मन में प्रश्न उठेगा कि गोरस और शाकाहार करने वाले लोग पशु हत्या के पाप में कैसे लिप्त हो सकते हैं? इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के लालच में बिना दूध देने वाली करोड़ों गायों और उनके बछड़ों को रोज़ क़त्ल किया जा रहा है और उनके मांस का व्यापार अन्य देशों की तुलना में तपोभूमि भारत में सबसे ज़्यादा हो रहा है। 



जब भगवान श्रीकृष्ण-बलराम गायों को चराते थे तब  भारत की अर्थव्यवस्था गोवंश और कृषि पर आधारित थी। गऊ माता के दूध, गोबर और मूत्र से हमारा शरीर व पर्यावरण पुष्ट होता था और बैल कृषि के काम आते थे। दूध न देने वाली बूढ़ी गाय और हल में न जुत सकने वाले बैल कसाईखाने को नहीं बेचे जाते थे। बल्कि परिवार के बुजुर्गों  की तरह उनकी घर पर ही आजीवन सेवा होती थी। उनकी मृत्यु पर परिवार में ऐसे ही शोक मनाया जाता था जैसे कि परिवार के मुखिया के मरने पर मनाया जाता है। 


पिछले दशकों में आधुनिक खेती के नाम पर खनिज, उर्वरक, कीटनाशक, डीज़ल ट्रेक्टर और अन्य आधुनिक उपकरणों को भारतीय किसानों पर क्रमशः थोप दिया गया। नतीजतन किसान की  भूमि उर्वरता, उसके परिवार का स्वास्थ्य, उसकी आर्थिक स्थिति और उसके परिवेश पर ग्रहण लग गया। इस तथाकथित विकसित कृषि ने उसे कहीं का न छोड़ा। ये मत सोचियेगा कि इस सबका असर केवल किसानों के परिवार पर ही पड़ा है। बल्कि आप और हम भी इस दुश्चक्र में फँस कर स्वस्थ जीवन जीने की संभावना से हर दिन दूर होते जा रहे हैं। 


क्या आप जानते हैं कि भारत में रोज़ाना मात्र 14 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है। जबकि भारत में हर दिन 64 करोड़ लीटर दूध और उससे बने पदार्थों की खपत होती है।ये खपत 50 करोड़ लीटर नक़ली सिंथेटिक दूध बनाकर ही पूरी की जाती है। गोपाल की लीलाभूमि ब्रज तक में नक़ली दूध का कारोबार खुलेआम धड़ल्ले से लिया जा रहा है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस तरह दूध के नाम पर हम सब अपने परिवार को ज़हर खिला रहे हैं। 


मूल प्रश्न पर लौटें, गौ रस पान से हिंसा कैसे होती है? जब केवल दूध की चाहत है तो दूध देना बंद करने वाली गायों को कसाईखाने में कटने के लिए भेज दिया जाता है। इसी तरह जब खेती में बैल की जगह ट्रेक्टर जुतने लगे तो बछड़े और बैल का धड़ल्ले से उपयोग मांस के व्यापार के लिए होने लगा है। इस तरह उनके हत्या के लिए हम सब भी अपराधी हैं। इस गंभीर विषय को पूरी तरह समझने के लिए आप ‘माँ का दूध’ फ़िल्म ज़रूर देखियेगा। ये गंभीर चर्चा हम आगे भी जारी रखेंगे। मैंने सतीश जी को यह आश्वासन दिया है कि इस गंभीर विषय पर मैं अभी और शोध करूँगा और इस समस्या के हल का अपने जीवन में हम क्या विकल्प सोच सकते हैं इस पर भी अनुभवी लोगों से प्रश्न पूछूँगा, तभी कोई निर्णय ले पाने की स्थिति में पहुँच पाऊँगा। पाठक भी इस विषय पर गहरी जाँच करें। 

Monday, September 23, 2024

यूरोप क्यों तालिबानी मुसलमानों के ख़िलाफ़ है?


पिछले कुछ वर्षों से यूरोप की स्थानीय आबादी और बाहर से वहाँ आकर बसे मुसलमानों के बीच नस्लीय संघर्ष तेज हो गए हैं। ये संघर्ष अब खूनी और विध्वंसकारी भी होने लगे हैं। कई देश अब मुसलमानों पर सख़्त पाबन्दियाँ लगा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने की माँग उठ रही है। आतंकवादियों की शरणस्थली बनी उनकी मस्जिदें बुलडोज़र से ढहायी जा रही हैं। उनके दाढ़ी रखने और बुर्का पहनने पर पाबन्दियाँ लगाई जा रही हैं। 


ये इसलिए हो रहा है क्योंकि मुसलमान जहां जाकर बसते हैं वहाँ शरीयत का अपना क़ानून चलाना चाहते हैं। वो भी ज्यों का त्यों नहीं। वे वहाँ स्थानीय संस्कृति व धर्म का विरोध करते हैं। अपनी अलग पहचान बना कर रहते हैं। स्थानीय संस्कृति में घुलते मिलते नहीं है। हालाँकि सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। पर जो अतिवादी होते हैं उनका प्रभाव अधिकतर मुसलमानों पर पड़ता है। जिससे हर मुसलमान के प्रति नफ़रत पैदा होने लगती है। ये बात दूसरी है कि इंग्लैंड, फ़्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल जैसे जिन देशों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बना है। ये वो देश हैं जिन्होंने पिछली सदी तक अधिकतर दुनिया को ग़ुलाम बनाकर रखा और उन पर अपनी संस्कृति और धर्म थोपा था। पर आज अपने किए वो घोर पाप उन्हें याद नहीं रहे। पर इसका मतलब ये नहीं कि अब मुसलमान भी वही करें जो उनके पूर्वजों के साथ अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ़्रांसीसियों, डच ने किया था। क्योंकि आज के संदर्भ में मुसलमानों का आचरण अनेक देशों में वाक़ई चिंता का कारण बन चुका है। उनकी आक्रमकता और पुरातन धर्मांध सोच आधुनिक जीवन के बिलकुल विपरीत है। इसलिए समस्या और भी जटिल होती जा रही है। 



ऐसा नहीं है कि उनके ऐसे कट्टरपंथी आचरण का विरोध उनके विरुद्ध खड़े देशों में ही हो रहा है। ख़ुद मुस्लिम देशों में भी उनके कठमुल्लों की तानाशाही से अमनपसंद आवाम परेशान है। अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं को लें। उन पर लगीं कठोर पाबंदियों ने इन महिलाओं को मानसिक रूप से कुंठित कर दिया है। वे लगातार मनोरोगों का शिकार हो रही हैं। जब तालिबान ने पिछले महीने सार्वजनिक रूप से महिलाओं की आवाज़ पर अनिवार्य रूप से प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून पेश किया, तो दुनिया हैरान रह गई। 



लेकिन जो लोग अफगानिस्तान के शासन के अधीन रहते हैं, उन्हें इस घोषणा से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी से बात करते हुए वहाँ रहने वाले एक महिला बताया कि, हर दिन हम एक नए कानून की उम्मीद करते हैं। दुर्भाग्यवश, हर दिन हम महिलाओं के लिए एक नई, पाबंदी की उम्मीद करते हैं। हर दिन हम उम्मीद खो रहे हैं। इस महिला के लिए इस तरह की कार्रवाई अपरिहार्य थी। लेकिन उसके लिए व उसके जैसी अनेक महिलाओं के लिए ऐसे फ़ैसलों के लिए मानसिक रूप से तैयार होने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हानिकारक प्रभाव कम नहीं हुआ। तालिबान द्वारा यह नया प्रतिबंध महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गाने, कविता पढ़ने या ज़ोर से पढ़ने से भी रोकता है क्योंकि उनकी आवाज़ को शरीर का ‘अंतरंग’ हिस्सा माना जाता है। अगस्त के अंत में लागू किया जाने वाला यह तालिबानी आदेश स्वतंत्रता पर कई प्रहारों में से एक है। 


महिलाओं को अब ‘प्रलोभन’ से बचने के लिए अपने पूरे शरीर को हर समय ऐसे कपड़ों से ढकना चाहिए जो पतले, छोटे या तंग न हों, जिसमें उनके चेहरे को ढकना भी शामिल है। जीवित प्राणियों की तस्वीरें प्रकाशित करना और कंप्यूटर या फोन पर उनकी तस्वीरें या वीडियो देखना भी प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिससे अफगानिस्तान के मीडिया आउटलेट्स का भाग्य गंभीर खतरे में पड़ गया है। महिलाओं की आवाज़ रिकॉर्ड करना और फिर उन्हें निजी घरों के बाहर प्रसारित करना भी प्रतिबंधित है। इसका मतलब है कि जिन महिलाओं ने अपने इंटरव्यू रिकॉर्ड किए या वॉयस नोट्स के माध्यम से किसी न्यूज़ एजेंसी के साथ बात करना चुना, तो ऐसा उन्होंने काफ़ी बड़ा जोखिम उठा कर किया। लेकिन कड़ी सज़ा की संभावना के बावजूद उन्होंने कहा कि वे चुप रहने को तैयार नहीं हैं। इस एजेंसी को दिए गए इंटरव्यू के माध्यम से वे चाहते हैं कि दुनिया अफगानिस्तान में महिला के रूप में जीवन की क्रूर, अंधकारमय सच्चाई को जाने।


इस इंटरव्यू में अधिकतर महिलाओं ने अमानवीय सज़ा के डर से अपना नाम न देने की इच्छा ज़ाहिर की। परंतु काबुल की सोदाबा नूरई एक अनोखी महिला थीं - उन्होंने सज़ा से बिना डरे अपना नाम लेने की इच्छा की। न्यूज़ एजेंसी को भेजे एक वॉइस मेसेज में उन्होंने कहा, महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से बोलने पर प्रतिबंध के बावजूद मैंने आपसे बात करने का फैसला किया क्योंकि मेरा मानना ​​है कि हमारी कहानियों को साझा करना और हमारे संघर्षों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। खुद पहचान ज़ाहिर करना एक बहुत बड़ा जोखिम है, लेकिन मैं इसे लेने को तैयार हूं क्योंकि चुप्पी केवल हमारी पीड़ा को जारी रखने की अनुमति ही देगी। यह नया कानून बेहद चिंताजनक है और इसने महिलाओं के लिए भय और उत्पीड़न का माहौल पैदा कर दिया है। यह हमारी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है और यह शिक्षा, कार्य और बुनियादी स्वायत्तता के हमारे अधिकारों को कमजोर करता है। उल्लेखनीय है कि सोदाबा नूरई को अपनी नौकरी से अगस्त 2021 में हाथ धोना पड़ा। क्योंकि तब वहाँ तालिबान का राज पुनः स्थापित हुआ और शरीयत क़ानून के मुताबिक़ महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये। अब उसे सरकार से प्रति माह 107 डॉलर के बराबर राशि मिलती है, जिसे वह महिलाओं की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त मानती हैं। 


यह महिलाएँ चाहती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को तत्काल एक मजबूत, समन्वित और प्रभावी रणनीति विकसित और लागू करनी चाहिए जो तालिबान पर इन बदलावों को लाने के लिए दबाव डाले। इस तालिबानी आदेश से यह दिखाई देता है कि तालिबान द्वारा किसी एक अधिकार का उल्लंघन अन्य अधिकारों के प्रयोग पर किस तरह से घातक प्रभाव डाल सकता है। कुल मिलाकर, तालिबान की नीतियाँ दमन की एक ऐसी प्रणाली बनाती हैं जो अफ़गानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के साथ उनके जीवन के लगभग हर पहलू में भेदभाव करती है। इसलिए ऐसे दमनकारी आदेशों के ख़िलाफ़ पूरे विश्व को एक होने की आवश्यकता है।