Monday, October 20, 2014

मनरेगा की सार्थकता पर सवाल

जब से यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना चालू की, तब से ही यह कार्यक्रम विवादों में रहा है। यूपीए सरकार का मानना यह था कि आजादी के बाद से गरीबों के विकास के लिए जितनी योजनाएं बनीं, उनका फल आम आदमी तक नहीं पहुंचा। इसलिए गरीब और गरीब होता गया। खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सन् 1984 में कहा था कि दिल्ली से गया विकास का 1 रूपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 14 पैसे रह जाता है, यानि 86 फीसदी पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इसलिए यह नई योजना बनायी गयी, जिसमें भूमिहीन मजदूरों को साल में न्यूनतम 200 दिन रोजगार देने की व्यवस्था की गई। अगर कहीं रोजगार उपलब्ध नहीं है, तो उसे उपलब्ध कराने के लिए कुंड खोदना, कुएं खोदना या सड़क बनाना जैसे कार्य शुरू करने की ग्राम प्रधान को छूट दी गई। उम्मीरद यह की गई थी कि अगर एक गरीब आदमी को 200 दिन अपने ही गांव में रोजगार मिल जाता है, तो उसे पेट पालने के लिए शहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। गांव के अपेक्षाकृत सस्ते जीवन उसके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा। हर योजना का उद्देश्य दिखाई तो बहुत अच्छा देता है, पर परिणाम हमेशा वैसे नहीं आते, जैसे बताए जाते हैं।
मनरेगा के साथ भी यही हुआ। बहुत गरीब इलाकों के मजदूर, जो पेट पालने के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ी तादाद में जाते थे, वे जब दिवाली की छुट्टी पर घर गए, तो लौटकर नहीं आए। सूरत की कपड़ा मिलों में, महाराष्ट्र के कारखानों में और पंजाब के खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा पड़ गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि जो थोड़े बहुत मजदूर इन इलाकों में पहुंच जाते, उन्हें रेलवे स्टेशन से ही धर दबोचने को उद्योगपति और किसान स्टेशन के बाहर खड़े रहते। कभी-कभी तो उनके बीच मारपीट भी हो जाती थी। मतलब ये कि इन इलाकों में इतनी ज्यादा गरीबी थी कि थोड़ा सा रोजगार मिलते ही लोगों ने पलायन करना छोड़ दिया। पर शेष भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी।
ज्यादातर राज्यों में मनरेगा निचले स्तर पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और सरकारी कर्मचारियों की कमाई का धंधा बन गया। ऐसी बंदरबाट मची कि मजदूरों के नाम पर इन साधन संपन्न लोगों की चांदी हो गई। मजदूरों से 200 दिन की मजदूरी प्राप्त होने की रसीद पर अंगूठे लगवाए जाते और उन्हें 10 दिन की मजदूरी देकर भगा दिया जाता। वे बेचारे यह सोचकर कि बिना कुछ करे, घर बैठे आमदनी आ रही है, तो किसी के शिकायत क्यों करे, चुप रह जाते। अंधेर इतनी मच रही है कि मनरेगा के नाम पर जो विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, वे केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। धरातल पर कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर भी देश-विदेश के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्री इस बात पर आमदा है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार का कारण बना यह कार्यक्रम जारी रखा जाए। वे चेतावनी देते हैं कि अगर मनरेगा को बंद कर दिया, तो गरीब बर्बाद हो जाएंगे, भुखमरी फैलेगी, धनी और धनी होगा। इसलिए इस कार्यक्रम को जारी रखना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा के हैं। जिनका मानना है कि गरीब को हर हालत में मदद की जानी चाहिए। चाहे उस मदद का अंश ही क्यों न सही जगह पहुंचे। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसी खैरात बांटकर आर्थिक तरक्की हो पाती, तो दो दशक तक पश्चिमी बंगाल पर हावी रहे वामपंथी दलों क्यों बंगाल के गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पाए ?

वैसे भी यह मान्य सिद्धांत है कि भूखे को रोटी देने से बेहतर है, उसे रोटी बनाने के लायक बनाना। मनरेगा यह नहीं करता। यह तो बिना कुछ करे भी रोजी कमाने की गारंटी देता है, इसलिए यह समाज के हित में नहीं। ठीक जिस तरह अंग्रेज भारत को अंग्रेजीयत का गुलाम बनाकर चले गए और आज तक हमारा उल्लू बना रहे हैं। उसी तरह यूपीए सरकार के थिंक टैंक ने मनरेगा को पार्टी कार्यकर्ताओं की सुविधा विस्तार का उपक्रम बना लिया। इसलिए धरातल पर इसके ठोस परिणाम नहीं आ रहे हैं।
आज से 30 बरस पहले सन् 1984 में लंदन के एक विश्वविद्यालय में रोजगार विषय पर बोलते हुए मैंने भारत की खोखा संस्कृति पर प्रकाश डाला था। मैंने वहां युवाओं को बताया कि भारत के ग्रामीण बेरोजगार युवा बिना किसी कालेज या पाॅलीटैक्निक में जाए केवल अपनी जिज्ञासा से हुनर सीख लेते हैं। किसी कारीगर के चेले बन जाते हैं। कुछ महीने बेगार करते हैं। पर जब सीख जाते हैं, तो उसी हुनर की दुकान शहर के बाहर, सड़क के किनारे एक लकड़ी के खोखे में खोल देते हैं। फिर चाहे चाय की दुकान हो, स्कूटर कार मरम्मत करने की हो या फिर किसी और मशीन को मरम्मत करने की। पुलिस वाले इनसे हफ्ता वसूलते हैं। बाजार के निरीक्षक इन्हें धमकाते हैं। स्थानीय प्रशासनिक संस्था इनकी दुकान गिरवाती रहती हैं। फिर भी ये हिम्मत नहीं हारते और अपने परिवार के पालन के लिए समुचित आय अर्जित कर लेते हैं। दुर्भाग्य से इनकी समस्याओं का हल ढूढ़ने का कोई प्रयास आज तक सरकारों ने नहीं किया।
जरूरत इस बात की है कि सरकार हो या बड़े औद्योगिक घराने, इन उद्यमी युवाओं की छोटी-छोटी समस्याओं के हल ढूढ़ें। जिससे देश में रोजगार भी बढ़े और आर्थिक तरक्की भी हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल ही में इस मुद्दे में विशेष ध्यान देना शुभ संकेत है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मनरेगा से बंटने वाली खैरात की जगह आम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद की जाएगी। जिससे गरीबी भी दूर होगी और बेरोजगारी भी।

Monday, October 13, 2014

कैसे सुधरे धर्मस्थलों का स्वरूप

आर्थिक मंदी और तेजी के दौर आते जाते रहते हैं। पर धर्म एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कभी आर्थिक मंदी नहीं आती। कड़वी भाषा में बोंले तो धर्म का कारोबार हमेशा बढ़ता ही रहता है। धर्म कोई भी हो, उसकी संस्थाओं को चलाने वालों के पास पैसे की कमी नहीं रहती। भारत की जनता संस्कार से धर्मपारायण है। गरीब भी होगा, तो मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे में अपनी हैसियत से ज्यादा चढ़ावा चढ़ाएगा। फिर तिरूपति बालाजी में 5 से 10 करोड़ रूपये के मुकुट चढ़ाने वालों की तो एक लंबी कतार है ही। फिर भी क्या कारण है कि भारतीय धर्मनगरियों का बुरा हाल है ?
 
कूड़े के अंबार, तंग गलियां, ट्रैफिक की भीड़, प्रदूषण, लूटपाट, सूचनाओं का अभाव और तमाम दूसरी विसंगतियां। बयान बहुत लोग देते हैं, सुधरना चाहिए ये भी कहते हैं। दर्शन या परिक्रमा को बड़े-बड़े वीआईपी आते हैं और स्थानीय जनता और मीडिया के सामने लंबे-चैड़े वायदे करके चले जाते हैं। न तो कोई प्रयास करते हैं और न पलटकर पूछते हैं कि क्या हुआ? जो कुछ होता है, वो कुछ व्यक्तियों के या संस्थाओं के निजी प्रयासों से होता है। सरकारी तंत्र की रोड़ेबाजी के बावजूद होता है। स्थानीय नागरिकों की भी भूमिका कोई बहुत रचनात्मक नहीं रहती। छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के कारण वे सुधार के हर प्रयास का विरोध करते हैं, उसमें अडंगेबाजी करते हैं और सुधार करने वालों को उखाड़ने में कसर नहीं छोड़ते।
जहां तक सरकारी तंत्र की बात है, उसके पास न तो इन धर्मनगरियों के प्रति कोई संवेदनशीलता है और न ही इन्हें सुधारने का कोई भाव। अन्य नगरों की तरह धर्मनगरियों को भी उसी झाडू से बुहारा जाता है। जिससे सुधार की बजाय विनाश ज्यादा हो जाता है। पर कौन किसे समझाए ? कोई समझना चाहे, तब न ? मुख्यमंत्री बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर योजनाओं की घोषणा कर देते हैं। पर क्या कभी उन योजनाओं के क्रियान्वयन की सार्थकता, गुणवत्ता और सततता पर कोई जांच की जाती है ? नहीं। की जाती, तो बनते ही कुछ महीनों में इन स्थलों का पुनः इतनी तेजी से विनाश न होता। एक नहीं दर्जनों उदाहरण है। जब केंद्र सरकार, अंतर्राष्ट्रीयों संगठनों या निजी क्षेत्र से करोड़ों-अरबों रूपया वसूल कर स्थानीय प्रशासन धर्मनगरी के सुधार के लंबे-चैड़े दावे करता है, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। यह क्रम जारी है। किसी राज्य में ज्यादा, किसी में कम। इसे पलटने की जरूरत है। प्रधानमंत्री अकेले कोई धर्मनगरी साफ नहीं कर सकते। इसके लिए तो एक समर्पित टीम चाहिए। जिसे स्थानीय मुद्दों और इतिहास की जानकारी हो। यह टीम कार्यक्रम बनाए और वही उसके क्रियान्वयन का मूल्यांकन करे और फिर कोई समर्पित स्वयंसेवी संस्था उस स्थान की दीर्घकाल तक देखरेख का जिम्मा ले। तभी धरोहरों की रक्षा हो पाएगी, तभी धर्मस्थान सुरक्षित रह पाएंगे। वरना, सैकड़ों-करोड़ों रूपया खर्च करके भी कुछ हासिल नहीं होगा।
मथुरा जिले के बरसाना कस्बे में गहवर वन के पास एक दोहिनी कुण्ड है। जहां राधारानी की गायों का खिरक था। वहां राधारानी अपनी गायों का दूध दोहती थीं। एक दिन वहां कौतुकी कृष्ण आ गए और राधारानी को दूध दोहने की विधि समझाने लगे। उन्होंने ऐसा दूध दोहा कि दोहिनी कुण्ड दूध से भर गया। फिर ये सैकड़ों साल उपेक्षित और खण्डर पड़ा रहा। तब ब्रज फाउण्डेशन ने इसकी गहरी खुदाई करवायी। इसके घाटों का पत्थर से निर्माण करवाया और फिर इसके चहू ओर विकास की योजना बनाकर भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को भेज दी। वहां से सवा करोड़ रूपया स्वीकृत हुआ। टेण्डर मांगे गए और एक नकली फर्म चलाने वाले धोखेबाज आदमी को एल-वन बताकर उसके क्रियान्वयन का ठेका दे दिया गया। जब इसकी शिकायत की गई, तो भारतीय पर्यटन विकास निगम के कई अधिकारी इस भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए। ठेका निरस्त हो गया। अब यही ठेका उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने निकाला और जयपुर के एक ठेकेदार को ठेका मिला। उसने आधे-अधूरे मन से जो काम किया, वह हृदयविदारक था। सवा करोड़ लगने के बाद दोहिनी कुण्ड आज लावारिस और उजड़ा पड़ा है। जो कुछ ढांचे बनाए गए थे, वो सब भी ढहने लगे हैं। जबकि इस कुण्ड का लोकार्पण अभी डेढ़-दो साल पहले ही हुआ है। इसी तरह अन्य धर्मनगरियों के भी उदाहरण मिल जाएंगे।
 
ऐसे में पर्यटन और तीर्थांटन की योजनाओं में अमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। जो संस्था या व्यक्ति पूरी समझ, निष्ठा और समर्पण के साथ इन धर्मनगरियों को समझता हो और जिसने कोई ठोस काम करके दिखाया हो। ऐसे लोगों को योजना बनाने की, उसके क्रियान्वयन की और उन स्थलों की दीर्घकाल तक देखरेख की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। जिसके लिए प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी कुछ क्रान्तिकारी निर्णय लेने होंगे। जिससे नए विचारों को खाद, पानी मिल सके और जो नौकरशाही 60 बरस से सत्ता चला रही है, उसे यह पता चले कि उनसे कम संसाधनों में भी कितना बढ़िया, ठोस और स्थाई काम किया जा सकता है।
 

Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |

Monday, September 22, 2014

रंजीत सिन्हा विवाद सीबीआई व देश हित में नहीं है

    सीबीआई के मौजूदा निदेशक रंजीत सिन्हा को लेकर हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में जो विवाद खड़ा हुआ, वह न तो सीबीआई के लिए अच्छा है और न ही देश के लिए। यह सही है कि सीबीआई को सत्तारूढ़ दल हमेशा अपने हथियार की तरह दुरूपयोग करते आए हैं और सीबीआई का आचरण हमेशा संदेह से परे नहीं रहा। परंतु जब देश की पुलिस व्यवस्था में इतनी गिरावट आ गई हो कि आम नागरिक का पुलिस पर से भरोसा ही उठ जाएं, तो सीबीआई से देशवासियों को एक उम्मीद की किरण दिखाई देती है। इसीलिए बड़े आर्थिक घोटालों के अलावा सामाजिक अपराधों तक के लिए बार-बार अदालतों से सीबीआई से जांच कराने की गुहार लगाई जाती है।

    पिछले दिनों कोलगेट और टूजी स्पेक्ट्रम के दो बहुचर्चित घोटालों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में एक अजीब स्थिति पैदा हो गई, जब याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण ने अदालत के सामने एक डायरी प्रस्तुत की। जिसमें इन घोटालों व अन्य घोटालों से संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्तियों का सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा के घर आने जाने का विस्तृत ब्यौरा है। याचिकाकर्ताओं का यह आरोप था कि सीबीआई निदेशक जिन लोगों के विरूद्ध जांच कर रहे हैं, वही लोग एक-दो बार नहीं, बल्कि दर्जनों बार देर रात तक सीबीआई निदेशक के घर आते-जाते रहे हैं। इसलिए उनकी मांग थी कि सीबीआई के मौजूदा निदेशक को इन घोटालों की जांच से अलग कर दिया जाए। इन डायरियों में ऐसे व्यक्तियों के आने और जाने का समय और तारीख आदि मौजूद हैं। यह डायरियां सीबीआई निदेशक के घर पर ही तैयार की गई हैं, ऐसा अनुमान लगता है।

    इस सनसनीखेज आरोप पर रंजीत सिन्हा की प्रतिक्रिया बहुत अजीब थी। उन्होंने एक बयान देकर कहा कि ये डायरियां नकली हैं और उन्हें बदनाम करने के लिए तैयार की गई हैं। पर उनमें से कुछ प्रविष्टियां सही हैं। वे इन लोगों से घर पर मिले हैं। पर उनका घर तो खुला दरबार है। जहां कोई भी फरियादी अपनी फरियाद लेकर आ सकता है। इसलिए उन्होंने अदालत से मांग की कि प्रशांत भूषण से इन डायरियों के स्त्रोत के बारे में पूछा जाए। इस पर एक बैंच ने तो नोटिस जारी कर दिया। जबकि मुख्य न्यायाधीश की बैंच ने आयकर विभाग से उन छापों की रिपोर्ट तलब की, जिनमें सीबीआई निदेशक के एक कुख्यात मांस निर्यातक मौहम्मद कुरैशी के साथ संबंधों के बारे में प्रमाण मिलने का आरोप है।

    अदालती नोटिस के बावजूद प्रशांत भूषण ने स्त्रोत बताने से मना कर दिया। उनका कहना था कि मामला इतना गंभीर है कि अदालत को फौरन जांच करनी चाहिए और स्त्रोत पूछने के लिए दवाब नहीं डालना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से स्त्रोत की जान को खतरा हो सकता है। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं, क्योंकि 1993 में जब मैंने सीबीआई के विरूद्ध हवाला कांड की जांच को दबाने का गंभीर आरोप लगाया था और सीबीआई के कब्जे में मौजूद जैन डायरी को अदालत को प्रस्तुत किया था, तो तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री वेंकटचलैया बार-बार मुझ पर स्त्रोत बताने का दबाव डालते रहे। पर मैंने स्त्रोत बताने से मना कर दिया और अपने वकील के मार्फत यह तर्क रखा कि वाॅटरगेट कांड में अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने पत्रकार बाॅब वुडवर्ड के आरोप पर जांच की और राष्ट्रपति निकसन को जाना पड़ा। आप इसी तरह मेरे आरोप पर सीबीआई को नोटिस करें और अगर सीबीआई मेरे आरोपों को झूठा सिद्ध कर दे, तो आप मुझ पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चला सकते हैं। इस तर्क पर मेरी याचिका को मुख्य न्यायाधीश ने स्वीकार कर लिया। सीबीआई को नोटिस दिया और सीबीआई को मानना पड़ा कि मेरे आरोप सही थे। इसके बाद तो जो हुआ, उसे पूरी दुनिया जानती है।

    जहां तक रंजीत सिन्हा के बयान का सवाल है, तो उनका बयान बिल्कुल बेतुका है। अगर डायरी की कुछ प्रविष्टियां सही हैं, तो डायरी फर्जी कैसे हो सकती है। दूसरी बात उनका घर अवश्य खुला दरबार हो। पर सीबीआई के निदेशक को आरोपित व्यक्तियों से अपने घर पर देर रात बार-बार मिलने की क्या मजबूरी है ? यह काम क्या दिन में अपने आॅफिस में नहीं किया जा सकता ? वैसे भी सरकारी अधिकारियों का इस तरह के कार्य को घर से करना आचार संहिता के विरूद्ध है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन मुकदमों और जांचों की सीधी निगरानी सर्वोच्च अदालत खुद कर रही है और उसके स्पष्ट आदेश है कि जांच में कोई बाहरी दखलंदाजी न हो। चाहे वह प्रधानमंत्री का कार्यालय ही क्यों न हो। इस तरह आरोपियों से घर पर मिलकर सीबीआई निदेशक ने अदालत की अवमानना की है। क्योंकि सीबीआई की प्रथा के अनुसार किसी भी केस की जांच करने का काम जिस जांच अधिकारी को सौंपा जाता है, उसे जांच करने की पूरी स्वतंत्रता होती है और उसकी जांच प्रक्रिया में उसके वरिष्ठ अधिकारी दखल नहीं दे सकते। यह बात दूसरी है कि जांच अधिकारी अपने काम के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों से सलाह ले लें। पर इसकी कोई बाध्यता नहीं है। इसलिए फरियादियों का सीबीआई निदेशक के घर जाकर फरियाद करने जैसा कोई आधार ही नहीं है। साफ जाहिर है कि सीबीआई के निदेशक का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है। ऐसे में उन्हें अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए स्वयं ही पद से हट जाना चाहिए या कम से कम इन घोटालों की जांच से अपने को मुक्त कर लेना चाहिए। पर वे ऐसा नहीं कर रहे और अपने कृत्यों को सही ठहरा रहे हैं। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण बात है। अब अगली तारीख पर इस विवाद का पूरा स्वरूप सामने आएगा, जब आयकर विभाग की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में सौंपी जाएगी। तब तक के लिए सीबीआई की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में रहेगी।

Monday, September 15, 2014

बाढ़ ने खोली कश्मीर सरकार के प्रबंधों की पोल

जम्मू श्रीनगर में आयी प्राकृतिक आपदा ने राज्य सरकार की कलई खोलकर रख दी है। विकास के नाम खरबों रूपया डकारने वाली कश्मीर सरकार आज तक क्या करती रही ? अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतनी तत्परता न दिखाते और राहत को इतने बड़े पैमाने पर न पहुंचाते, तो तबाही का मंजर कुछ और ही होता। अब तो कश्मीर के लोगों को यह समझ में आ जाना चाहिए कि न तो पाकिस्तान की फौज, न आईएसआई के सूरमा और न ही आए दिन भड़काने वाले उनके नेता उनकी राहत को सामने आए और न ही आतंकवादी। इतना ही नहीं उन्हें अब यह भी समझ लेना चाहिए कि आजादी के बाद से लेकर आज तक जिस तरह उनके नेताओं ने उनका उल्लू बनाया है, उसी कारण कश्मीर की आर्थिक प्रगति नहीं हो पायी।

गत 2 दौरों में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जम्मू कश्मीर के निवासियों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए हरसंभव प्रयास का आश्वासन दिया है। बाढ़ में डूबे लोग टी.वी. और कैमरों के सामने बार-बार यही कर रहे थे कि मोदीजी गुजरात की तरह कश्मीर का भी विकास करके दिखाएं। इसके लिए जरूरी होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में कश्मीरी स्थानीय मुद्दों को भूलकर एक व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाएं। जिससे देश के सक्षम निवेशकर्ता घाटी में जाकर आर्थिक विकास की नई मंजिलें तय कर सकें। इससे भटक रहे नौजवानों को रोजगार मिलेगा और पूरे राज्य में तरक्की दिखाई देगी।

कश्मीर ही वह अकेला राज्य नहीं है, जहां केंद्रीय मदद का इतना भारी दुरूपयोग होता है। ज्यादातर राज्यों की हालत ऐसी ही है। विकास की जितनी योजनाएं केंद्र बनाकर क्रियान्वयन के लिए राज्यों को देता है, उन योजनाओं में इतना भ्रष्टाचार किया जाता है कि वे केवल कागजों तक सिमटकर रह जाती हैं। पिछले दिनों श्री मोदी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यों के कार्यों से संबंधित फाइलों को तेजी से निपटाने के लिए एक नया विभाग खोलने की घोषणा की। जिस विभाग के तहत वेबसाइट पर फाइलों की स्थिति का पता हर समय लगाया जा सकेगा। यह एक अच्छी पहल है। पर इसके साथ ही राज्यों के सोशल आॅडिट की भी भारी जरूरत है। जिन राज्यों को आर्थिक मदद दी जा रही है, उनके क्रियान्वयन का स्तर कैसा है, इसे जांचने की जरूरत है। गत 5 वर्षों में जिन-जिन राज्यों को, जो अनुदान दिए गए हैं, उसकी समीक्षा के लिए प्रधानपमंत्री को एक नई पहल करनी चाहिए। उन्हें हर प्रदेश की जनता का आह्वान करना चाहिए कि वह योजनाओं के क्रियान्वयन से संबंधित जमीनी हकीकत की सूचना प्रधानमंत्री के कार्यालय को ई-मेल पर भेजें। इस काम में हर शहर और गांव के पढ़े-लिखे और जागरूक नागरिकों को सक्रिय किया जा सकता है। जिन राज्यों की रिपोर्ट ठीक नहीं हो, उन्हें विकास कार्यों के नाम पर आगे और ज्यादा लूट करने की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।

इसके साथ ही क्रियान्वयन को कैसे सुधारा जाए। इस पर देशव्यापी बहस चलाई जानी चाहिए। आजकल हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के टीवी चैनल ऐसे मुद्दे कम उठा रहे हैं। उनका सारा ध्यान रोजमर्रा के राजनैतिक मुद्दों पर भड़काऊ बहसें करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि जमीनी स्तर पर योजनाओं का क्रियान्वन इतना फूहड़ है कि अगर टीवी कैमरे घुमाए जाएं तो पता चलेगा कि केवल उद्घाटन का पत्थर लगा होगा, प्रोजेक्ट का अता पता नहीं होगा। अगर प्राजेक्ट बना भी होगा तो उद्घाटन के 6 महीने में उस स्थल की ऐसी दुर्दशा होगी कि यह कहना पड़े कि यह जगह बिना प्रोजेक्ट के बेहतर थी। योजना कोई भी बने उसके क्रियान्वन के लिए मंत्रियों के चहेते ठेकेदार पहले से तैयार रहते हैं और वे मंत्री को एडवांस कमीशन देकर टेंडर अपने नाम करवा लेते हैं। अब तो ‘सैयां भए कोतवाल तो डर कहे का’ चाहे रेत लगाओ या गारा कोई पूछने वाला नहीं। मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वायदा हर भारतवासी से किया है और वो उसके लिए कोशिश भी कर रहे हैं। पर जब तक जमीनी स्तर पर क्रियान्वन के तौर तरीके में आमूलचूल बदलाव नहीं आता तब तक कुछ नहीं बदलेगा।

जमीनी स्तर पर सरकारी धन के सदुपयोग करने की इच्छा रखने वाले चाहे गिने चुने अधिकारी हों, समाज सेवी हों या जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार के आगे सब विफल हो जाते हैं। राजनीति और न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने वालों में इस लेख के लेखक का नाम देश के गिने चुने लोगों में शामिल है, पर स्थानीय स्तर के भ्रष्टाचार से लड़ने में मुझे भी जो दिक्कत आ रही है, उसे देखकर मैं हैरान हूं कि आम आदमी की क्या हालत होगी ? यह बहुत गंभीर मसला है । जो मीडिया आज मोदीजी का गुणगान कर रहा है वही कल उन पर हमले करने में चूकेगा नहीं द्य जबकि योजनाओं के क्रियान्वन की खामियों को लगातार, रोज, शिद्दत से उठाना मीडिया का पहला कर्तव्य है । दिल्ली में भाजपा की सरकार कैसे बने या आपा के नाटकों की नयी पटकथा पर रोजाना की बहसों से कहीं ज्यादा सार्थक होगा जमीनी हालात को उजागर करना और लापरवाही और भ्रष्टाचार करने वाली नौकरशाही को रोज बेनकाब करना ।

Monday, September 8, 2014

सारे कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द हों

कोयला खदानों का आवंटन जिस तरह यूपीए सरकार ने किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध बताया है। जब आवंटन अवैध हैं, तो उन्हें निरस्त क्यों नहीं किया जाता? शायद, अदालत ऐसा कर देती पर उसके सम्मुख राजग सरकार की ओर से कुछ ऐसे तर्क रखे गए कि अदालत ने इस मामले में आगे सुनवाई की और कुल आवंटनों को दो श्रेणी में बांट दिया। जिन खदानों पर काम शुरू नहीं हुआ है, उन्हें तो रद्द करने के आदेश दे दिए। पर जिन पर काम शुरू हो गया है, उन पर अदालत को अभी फैसला देना है। इस तरह कुल 46 खदानों को रद्द न करने की मांग मौजूदा राजग सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन खदानों में काम चालू हो चुका है और अगर इनके आवंटन रद्द किए गए, तो देश में ऊर्जा का भारी संकट पैदा हो जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन 46 में से मात्र 3 खदानें ही ऐसी हैं, जिनको ऊर्जा उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हैं। इन तीनों खदानों के मामले में भी हकीकत यह है कि आवश्यकता से कई गुना ज्यादा कोयला खोदने की अनुमति इन्हें दी जा चुकी है। निष्कर्ष यह है कि ऊर्जा उत्पादन के लिए आवश्यक कोयले की आपूर्ति में कहीं कोई कमी नहीं आएगी। उसके अतिरिक्त भंडार भरे पड़े हैं।

असली सवाल इस बात का है कि जिन बाकी खदानों को बचाने की कोशिश की जा रही है, उनका उपयोग लोहे और इस्पात से जुड़े उद्योगों के लिए ही हो रहा है। इस मामले में भी चिंता की बात यह है कि जिन घरानों को ये आवंटन किए गए हैं, वे उनकी आवश्यकता से कई गुना ज्यादा हैं। जैसे जायसवाल नीको की वार्षिक आवश्यकता मात्र 20 लाख टन है। जबकि उसे 1250 लाख टन का  आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह प्रकाश इंडट्रीज की सलाना आवश्यकता मात्र 10 लाख टन है। पर इसे 340 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह इलेक्ट्रो स्टील कास्टिंग की आवश्यकता मात्र 5 लाख टन सालाना है। जबकि इसे 2310 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। जाहिर है कि इतना अतिरिक्त कोयला या तो ये खुले बाजार में बेचेंगे या उसका लाइसेंस बेचकर भारी मुनाफा कमाएंगे। यह तथ्य सर्वविदित है कि खदानों का काम कभी ईमानदारी से और आवंटन की अनुमति के दायरे के भीतर रहकर नहीं किया जाता। इस बात के अनेकों प्रमाण हैं कि जहां एक ट्रक कोयला खोदने की अनुमति होती है, वहां खदान विभाग, वन विभाग, स्थानीय पुलिस व प्रशासन को रिश्वत देकर सौ गुनी खुदाई कर ली जाती है। फिर वो चाहें कोयले की खदान हो, लोहे की खदान हो या पत्थर की खदान हो।
 
जहां तक राज्य सरकारों को आवंटित कोयला खदानों के निरस्त न किए जाने की मांग मौजूदा सरकार की ओर से की गई है, तो वह भी देश के हित में नहीं है।
 
राज्य सरकारों को ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला ब्लॉक के आवंटन प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर पत्रकार एम. राजशेखर की खोज से यह पता चलता है कि राज्य सरकारों ने निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ बेतुके समझौते करके इस सुविधा का पूरा लाभ निजी क्षेत्र की झोली में डाल दिया है। उदाहरण के तौर पर दामोदर घाटी निगम ने अडानी समूह की कंपनी के साथ समझौता कर लिया है कि वे ही खुदाई का काम करेंगे। ये समझौते साझे उपक्रम के तौर पर किए गए हैं। जैसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम ने अडानी समूह के साथ समझौता किया है। जिसमें 74 फीसदी कोयला या उसका मुनाफा अडानी समूह का होगा और मात्र 26 फीसदी मुनाफा या कोयला राजस्थान सरकार का। इसी तरह अन्य राज्यों ने भी समझौते कर रखे हैं। कुल मिलाकर निजी क्षेत्र को कोयला खदानें लूटने के लिए राज्य सरकारों की मार्फत विकल्प दे दिए गए हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को आवंटित खदानों को निरस्त न करने का कोई औचित्य नहीं है। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि सरकार में पारदर्शिता लाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे के बावजूद सरकार के कुछ लोग इस तरह की मांग सर्वोच्च न्यायालय में रखकर मोदी सरकार की छवि खराब कर रहे हैं। राष्ट्रहित में तो यही होगा कि सभी खदानों के आवंटन रद्द किए जाएं और नए सिरे से नीलामी कर आवंटन किए जाएं। ऐसा करने से सरकार की छवि पर कोई दाग नहीं लगेगा और कोयले की खदानों में हाथ काले कर चुके मुनाफाखोरों, दलालों और रिश्वतखोरों को अपने किए की सजा भुगतनी पड़ेगी।

Monday, September 1, 2014

कुण्ड ही हैं सूखे से राहत का कारगर तरीका

 
इस साल भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखे की मार पड़ रही है। किसान हाहाकार कर रहे हैं। मीडिया अपना काम ही समस्या को बताना ही समझता है, लिहाजा सूखे की तीव्रता को बताने का काम वह गंभीरता से  करता रहता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि इसके समाधान या इस सूखे की मार से बचाव के उपायों पर उतनी गंभीरता से कुछ भी होता नहीं दिखता। सरकारें और सरकारी एजेंसियां ऐसे मौकों पर समस्या की गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने के अलावा कुछ खास करती नहीं दिखती। कुछ करती दिखती हैं, तो बस इतना कि पीड़ित इलाकों को सूखाग्रस्त घोषित करती हैं और सांकेतिक मुआवजे का मरहम लगाकर अपने फर्ज की इतिश्री समझती हैं।
 
सूखे या बाढ़ की समस्या का एक बड़ा ही शातिराना पहलू यह है कि इस समस्या के कारणों को आसमानी  या सुल्तानी मार बताकर बड़ी चतुराई से आसमानी साबित कर दिया जाता है। लेकिन क्या सूखे को महज प्राकृतिक विपदा कहकर यूं ही छोड़ सकते हैं ? 2 दिन पहले ब्रज क्षेत्र में चैरासी कोसीय परिक्रमा मार्ग पर इनोवेटिव इंडियन फाउण्डेशन की टीम कुछ गांवों में कुण्डों और जलाशयों का जायजा ले रही थी। संस्था के निदेशक संकर्षण कुण्ड पर पुनर्रोद्धार कार्य का जायजा लेने भी रूके थे। वहां जमा पास के आन्यौर गांव वालों ने उन्हें परिक्रमा मार्ग से 2 किलोमीटर भीतर ले जाकर अपने खेतों की हालत दिखाई। आईआईएफ के विशेषज्ञों को देखकर बड़ी हैरानी हुई कि सरकार की भरी-पूरी प्रणालियों की मौजूदगी के बावजूद बिना पानी के उनकी धान की फसलें तबाह हो चुकी थीं।
 
इसी दौरान इन विशेषज्ञों ने महाजलप्रबंधन और ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलास्थलियों को संवारने में जुटी संस्था द ब्रज फाउण्डेशन के परियोजना निदेशक से भी बात की। उनसे ब्रज क्षेत्र के इन कुण्डों के उपयोगिता की भी चर्चा की। एक खास बात यह है कि आसमानी आफत से निपटने के लिए प्राचीनकाल से ही कुण्ड, तालाब और जलाशय बनते आए हैं। लेकिन आज शहरीकरण और भवन निर्माण की अपनी रोज बढ़ती जरूरतों के कारण नए कुण्ड और तालाब बनाना तो दूर पुरानी धरोहरों को भी हम बेदर्दी से मिटाने में लगे हैं। ऐसे कुण्ड और तालाब मैट्रोलॉजिकल ड्राउट यानी मौसमी सूखे के दौरान राहत देने के काम आते थे। अगर आधुनिक जलविज्ञान से किए गए उपाय यानी सिंचाई के प्रबंध को देखें, तो उसकी सीमाओं के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या यानी हाइड्रोलिक ड्राउट के दौरान भी कुण्डों में जल होने से एग्रीकल्चरल ड्राउट के अंदेशे कम हो जाते हैं। अगर इस बात को सरलता से कहें, तो कुछ इस तरह से कहा जाएगा कि अगर पानी न बरसे और हमारी जलप्रबंध प्रणाली में जमा पानी भी न बचे, तो ये कुण्ड और तालाब खेतों में न्यूनतम पानी या नमी बनाए रखकर प्राणदायक की भूमिका निभाते थे।
 
फिलहाल निर्माणाधीन संकर्षण कुण्ड अगर अपनी मूल स्थिति में आता है, तो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे गांव आन्यौर के खेतों में भूमिगत जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से खुद-ब-खुद उपर आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि पूरे उ0प्र0 के 9 लाख से ज्यादा तालाबों, पोखरों और कुण्डों का हिसाब लगाएं, तो इनकी क्षमता 10 हजार करोड़ रूपये की लागत वाले किसी भी बड़े से बड़े बांध की क्षमता से कम नहीं होगी। एक मोटा अनुमान है कि इन कुण्डों और तालाबों के जीर्णोद्धार, पुनरोद्धार या पुर्ननिर्माण पर आधी से कम रकम खर्च करके वहां गिरा पानी वहीं जमा किया जा सकता है। बाढ़ की विभीषिका कम की जा सकती है और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि आसमानी हो या सुल्तानी हो, सूखे जैसे समस्या से निपटने का एक स्वचालित प्रबंध बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
 
लगे हाथ यह कह लेना भी जरूरी लगता है कि सूखे की समस्या भले ही कालजयी साबित हो रही हो, लेकिन आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का काम उसके समाधान के लिए उपाय ढूढ़ना है। जब हमारे पास पारंपरिक ज्ञान उपलब्ध हो, ऐतिहासिक निर्माण कार्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हों, और चिंतनशील विशेषज्ञ हों, तो सूखे जैसी आसमानी आफत से बचाव के उपाय हम क्यों नहीं कर सकते ? इसके लिए प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।