पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गयी दिखती है |
पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जतायी जा रही थी |
अब ऐसा नहीं दीखता या तो हमने ठीक ठाक कर लिया है या आँखें फेर ली हैं | नज़र डालने
से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए | यानी कि हमने आँखे मूँद ली हैं | एसा
क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर
भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं |
हाल ही मैं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ
सक्रियता दिखी है | खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता
बढ़ती जा रही है | मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिकाविज्ञान के विशेषग्य प्रायोगिक
तौर पर अध्ययन ज़रूर कर रहे हैं लेकिन उनके शोध अध्ययन सामजिक स्तर पर जागरूकता या
राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिलकुल ही बेअसर हैं | कुछ स्वयमसेवी
संस्थाएं ज़रूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज़ उठाती हैं लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी
क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता | हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण
की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती | और शायद इसलिए नहीं समझी
जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं |
80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध
विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बाँध, रासायनिक
खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे | लेकिन
फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गयी | तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच
प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है | यानी
निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है | साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के
इलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है | विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के
प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं |
जब तक हमें कोई दूसरा उपाय ना सूझे तब तक आर्थिक विकास
के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है | लेकिन धार्मिक स्थानों
से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि
प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक
सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे – यह स्वीकारना मुश्किल है |
क़ानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस क़ानून का पालन
कराने में सरकारी एजंसियां बिलकुल असहाय नज़र आती हैं | धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े
लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिलकुल बेखौफ बैठी हुई है | और इसके
बेख़ौफ़ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के
लिए कुछ भी करने की छूट देती है |
जहाँ तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के
जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या द्रढता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर
बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही
नहीं है | ये विद्वान क्या मजबूती के साथ यह नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म
से कोई लेना देना नहीं है | आस्था बिलकुल निजी मामला है | धार्मिक विश्वास नितांत
व्यक्तिगत बात है | उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव
डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिलकुल ही नाजायज़ है |
चलिए जागरूक समाज हो विद्वत समाज हो या क़ानून पालन करने
वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर
मूक दर्शक बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी
तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है | आस्था और धार्मिक
विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय
दीखता है | यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अदालतों को भी साक्ष के तौर पर समाज के
जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए | आस्ता और धार्मिक क्षेत्र
की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी ज़रूरत पड़ सकती
है |