Sunday, September 11, 2011

प्रियंका गाँधी का राजनैतिक भविष्य


Rajasthan Patrika 11 Sep

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथयात्रा शुरू करने का ऐलान कर चुके हैं। वे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के प्रयासों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल को भुनाने की फिराक में हैं। उधर दिल्ली की राजनीति के गलियारों में इंका के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी का अस्वस्थ होना, पार्टी को भारी पड़ा है। इन लोगों का मानना है कि अन्ना के अनशन से उपजी स्थिति का सही इस्तेमाल करने में राहुल गाँधी असफल रहे हैं। राहुल गाँधी का मंत्री मण्डल में शामिल न होने के भी दो अलग मायने लगाये जा रहे हैं। कुछ मानते हैं कि राहुल उत्तर प्रदेश में सफल हुए बिना सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वे बनेंगे तो सीधे प्रधानमंत्री या फिर संगठन के लिए काम करते रहेंगे। दूसरा पक्ष मानता है कि राहुल में आत्मविश्वास की कमी है। शायद उन्हें लगता है कि मंत्री बनकर वे ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पायेंगे, जिससे उनका जनाधार बढ़े और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत हो। इंका से बाहर के दलों में और राजनैतिक विश्लेषकों में यह बात काफी समय से चल रही है कि राहुल गाँधी का व्यक्तित्व, जमीन की समझ और आम लोगों के बारे में अनुभव इस स्तर का नहीं कि वे देश को नेतृत्व दे सकें। अभी उन्हें बहुत सीखना है, खासकर राजनीति के मामलों में। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी प्रचारित करके इंका को बहुत लाभ नहीं मिलने वाला है। 

Punjab Kesari 12 Sep
इन परिस्थितियों में इंका के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी का व्यक्तित्व, समझ और लोगों पर प्रभाव राहुल गाँधी से कहीं ज्यादा अच्छा पड़ता है। पर खुलकर कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। दबी जुबान से ही काफी नेता यही चर्चा करते हैं। जहाँ तक प्रियंका का सवाल है, उन्होंने अपनी सीमित प्रेस मुलाकातों में बार-बार यही दोहराया है कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहतीं। अपने भाई व माँ की मदद भर करना चाहती हैं। पर इंका के रणनीतिकार, जो आज कई खेमों में बंटे हैं, दावा करते हैं कि अगले चुनाव से पहले प्रियंका गाँधी को सामने लाना पार्टी की मजबूरी होगा। क्योंकि सरकार के विरूद्ध आज बने माहौल में प्रियंका का ही व्यक्तित्व ऐसा है जो आम जनता को आकर्षित कर सकता है। 

उधर प्रियंका गाँधी को निजी तौर पर जानने वालों का दावा है कि वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ ही समय बिताना चाहती है। राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहतीं। अगर यह सच है तो भी प्रियंका के राजनीति में पदार्पण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। उल्लेखनीय है कि जब राजीव गाँधी हवाई जहाज उड़ाते थे और 7 रेसकोर्स पर अपनी मम्मी के सरकारी आवास में सपरिवार रहते थे, तब यह चर्चा देश में बार-बार उठी कि राजीव गाँधी राजनीति में नहीं आना चाहते। इसलिए संजय गाँधी को सामने आना पड़ा। पर अन्त में अपने भाई की आकस्मिक मृत्यु व  माँ की हत्या के बाद उन्हें बे-मन से ही सही, राज-काज संभालना पड़ा। ठीक इसी तरह प्रियंका गाँधी कितना भी ना-नुकुर कर लें, अगर इंका के कार्यकर्ताओं ने और चुनाव के समय की देश की परिस्थिति ने उन्हें ऐसा मौका दिया तो वे शायद पीछे नहीं हटेंगी। 

Hind Samachar 12 Sep 11
इसमें एक ही अड़चन है। गत् गई महीनों से भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देशभर में करोड़ो एस.एम.एस. भेज-भेजकर इंका और उसके नेतृत्व के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चला रखा है। जिसमें नेहरू परिवार के प्रति काफी विष-वमन किया जा रहा है। तमाम तरह के आरोपों के एस.एम.एस. ये लोग दिनभर भेजते रहते हैं। यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की बीमारी पर भी इनके एस.एम.एस. ये सन्देश दे रहे थे कि वे इलाज कराने नहीं, अपनी अकूत दौलत को ठिकाने लगाने गईं हैं। इसी क्रम में इन एस.एम.एस. के माध्यम से प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वढेरा पर अनेक घोटालों में लिप्त होने के भी आरोप लगातार लगाये जा रहे हैं। इन सब आरोपों का आधार है या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि इनका मकसद प्रियंका गाँधी के राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना है। सच्चाई क्या है, प्रियंका गाँधी बेहतर जानती होंगी। अगर वे मन के किसी कोने में भी दबी हुई राजनैतिक महत्वकांक्षा पाले हुए हैं, तो वे इस सम्भावित परिस्थिति के प्रति सचेत होंगी। 

राहुल गाँधी हों या प्रियंका गाँधी, इंका सत्ता में हो या विपक्ष में, पर मूलभूत सवाल यह है कि इन दोनों की समझ देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में कितनी गहरी है? जिस तरह की अपेक्षा और आक्रोश देश की आम जनता में अब पैदा हो चुका है, उनकी मांगे ढेर सारी होंगी और वे किसी भी छलावे में आने को तैयार नहीं होंगे। 122 करोड़ लोगों की महत्वकांक्षा को पश्चिमी विकास मॉडल से पूरा नहीं किया जा सकता। उनकी उपभोक्तावादी संस्कृति ने दुनिया का औपनिवेशिक शोषण कर, अपने देशों को बनाया। नव उपनिवेशवाद के दौर में बिना गुलाम बनाए भी दुनिया के देशों का जमकर आर्थिक दोहन किया। जिससे उनके देशों की प्रजा भोग-विलास का जीवन जी सकें। जबकि भारत के अधीन ऐसा कोई उपननिवेश नहीं है जो भारत की बढ़ती मांगों की तेजी से पूर्ति कर सके। ऐसे में अमीर गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। बढ़ रहा है आक्रोश और हिंसा और लोगों की अधीरता। जिसे पूरा करने के लिए विकास का देशी गाँधीवादी मॉडल ही फिर से अपनाना होगा। कागजों पर नहीं, जमीन पर। क्या प्रियंका गाँधी ने इस बारे में कोई अध्ययन, कोई यात्रा या कोई अन्य प्रयास किया है? जिससे उनकी समझ इन मुद्दों पर विकसित हो सके। अगर किया है तो उन्हें जनता के बीच विकास का नया मॉडल लेकर जाने में कोई संकोच नहीं होगा। तब जनता उनसे जुड़ा हुआ अनुभव करेगी। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें और समाज को दिक्कत आएगी। पर यह स्पष्ट है कि प्रियंका गाँधी अपने भाई के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करके सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहेंगी। जो कुछ नेहरू-गाँधी परिवार करेगा, सामूहिक सोच और समन्वय के साथ करेगा।

Sunday, September 4, 2011

जनक्रांति या मीडिया क्रांति


Rajasthan Patrika 4Sep2011
विश्वविख्यात लेखिका अरूंधति राय ने टीम अन्ना के आन्दोलन पर जो आक्रामक लेख लिखा है, उसके समर्थन में देशभर से लाखों ईमेल आये हैं। उल्लेखनीय है कि अरूंधती राय आज तक टीम अन्ना वाली सिविल सोसाईटी की ही सदस्या रही हैं। इस आन्दोलन के तौर-तरीकों और जनलोकपाल बिल के खिलाफ उनका इतना तीखा हमला करना, टीम अन्ना पचा नहीं पा रही है। उधर पूरे देश में यह चर्चा चल पड़ी है कि यह अन्ना की जनक्रांति थी या मीडिया की बनायी हुई क्रांति?

पिछले सप्ताह दिल्ली के ‘इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर’ में इस विषय पर तीखी बहस हुई। आठ वक्ताओं में से उन टी.वी. चैनलों के प्रमुख लोग थे जिन्होंने टीम अन्ना के समर्थन में रात-दिन एक कर दिया। इसके साथ ही अन्य वक्ताओं में प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, अरूणा रॉय और मैं स्वंय शामिल थे। श्रोताओं में पाँच सौ से अधिक पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र थे। वहाँ प्रशांत भूषण और टी.वी. चैनलों के मुखियाओं ने यह बात रखी कि जनलोकपाल बिल के समर्थन में यह आन्दोलन पूरी तरह से आत्मप्रेरित था और मीडिया ने उसमें केवल दृष्टा की ही भूमिका निभायी। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से बड़ा था और इसमें उस आन्दोलन की तरह राजनेताओं का कोई समर्थन नहीं था तथा मीडिया ने पूरी तटस्थता बरती। पर इसे सुनकर श्रोता आक्रामक हो गये। उन्होंने जे.पी. आन्दोलन को बिना संचार माध्यमों व राजनेताओं की मदद से हुआ कहीं बड़ा आन्दोलन बताया।

 
यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने प्रबुद्ध श्रोताओं में से आधे से अधिक, टीम अन्ना के भारी विरोध में खड़े थे। उनके तेवर इतने हमलावर थे कि आयोजकों को उन्हें संभालना भारी पड़ रहा था। इससे यह संकेत साफ मिला कि टीम अन्ना जो यह दावा कर रही है कि देश के 122 करोड़ लोग उसके साथ हैं, वह सही नहीं है। वक्ताओं और लोगों का आरोप था कि मीडिया ने कृत्रिम रूप से आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाया। ‘टी.वी. एंकरपर्सन’ रिपोर्टर की भूमिका में कम और ‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका ज्यादा निभा रहे थे। स्टूडियो में होने वाली वार्ताओं में टीम अन्ना के समर्थकों को सबकुछ बोलने की छूट थी और उनके विरोध के स्वर उठने नहीं दिए जाते थे।

एक प्रश्न यह भी पूछा गया कि जो टी.वी. चैनल गंभीर से गंभीर टॉक शो में हर दस मिनट बाद कॉमर्शियल ब्रेक लेते हैं, उन्होंने इस आन्दोलन के दौरान बिना कॉमर्शियल ब्रेक लिए कवरेज कैसे किया? यह कैसे सम्भव हुआ कि ओम पुरी का भाषण हो, किरण बेदी का मंच पर नाटक हो या प्रशांत भूषण की प्रेस कॉन्फरेंस हो, सब बिना किसी अवरोध के घण्टों सीधे प्रसारित होते रहे? इस दौरान इन टी.वी. चैनलों को विज्ञापन न दिखाने की एवज में जो सैंकड़ों करोड़ की राजस्व हानि हुई, उसकी इन्होंने कैसे भरपाई की? क्या किसी ने यह धन इन्हें पेशगी में दे दिया था? जैसे अक्सर लोग अपने कार्यक्रमों को कवर कराने के लिए टी.वी. चैनलों से ‘एयर टाइम’ खरीदते हैं या यह माना जाए कि इस आन्दोलन का धुंआधार कवरेज करने वालों ने इतना मुनाफा कमा लिया कि उन्होंने भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर अपने मोटे घाटे की भी परवाह नहीं की? अगर यह सही है तो क्या यह माना जाए कि भविष्य में जब ऐसे दूसरे मुद्दे उठेंगे, तब भी ये टी.वी. चैनल अपने व्यवसायिक हितों को ताक पर रखकर इसी तरह, बिना कॉमर्शियल ब्रेक के, लगातार प्रसारण करेंगे? वक्ताओं ने एक चेतावनी यह भी दी कि अगर भविष्य में इन टी.वी. चैनलों ने, पहाड़, जमीन, जल, नदी, खनन आदि से जुड़े मुद्दों पर जनआन्दोलनों के संघर्षशील लोगों के साथ ऐसी ही उदारता न बरती, जैसी टीम अन्ना के साथ दिखाई दी, तो वे आन्दोलनकारी आक्रामक होकर टी.वी. संवाददाताओं के साथ हिंसक भी हो सकते हैं और उनके कैमरे आदि भी तोड़ सकते हैं। क्योंकि उनकी अपेक्षाऐं अब टी.वी. मीडिया से काफी बढ़ चुकी हैं।

अब जबकि टी.वी. मीडिया ने ‘प्रो-एक्टिव’ होकर, सामाजिक सारोकार को टी.आर.पी. बढ़ाने का जरिया मान लिया है, तो यह माना जाना चाहिए कि भविष्य में पाँच सितारा जिन्दगी, उपभोक्तावाद, भौंडे और अश्लील नृत्य या काॅमेडी शो जैसे कार्यक्रमों पर जोर न देकर ये टी.वी. चैनल समाज और आम आदमी से जुड़े मुद्दों को ही प्राथमिकता देंगे और उसके लिए अपने व्यवसायिक लाभ को भी छोड़ देंगे। अगर ऐसा होता है तो वास्तव में यह मानना पड़ेगा कि भारत में क्रांति की शुरूआत हो गयी है। जैसा कि ये टी.वी. चैनल पिछले कुछ हफ्तों से दावा कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो देशवासियों के मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि केवल टीम अन्ना के लिए ही कुछ टी.वी. चैनलों ने इतना उत्साह क्यों दिखाया? इसके पीछे क्या राज है, इसे जानने और खोजने की उत्सुकता बढ़ेगी।

उधर देश में भ्रष्टाचार के प्रति जो आक्रोश था, उसे संगठित करने का अभूतपूर्व कार्य बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने किया है। पर इस जागृति से उत्पन्न ऊर्जा को स्वार्थी तत्व, अपने राजनैतिक लाभ के लिए उपयोग न कर सकें, इसके लिए देशवासियों को सचेत रहना होगा। वरना आशा को हताशा में बदलने में देर नहीं लगेगी और वह अच्छी स्थिति नहीं होगी।

Monday, August 29, 2011

कैसे सुनिश्चित हो सरकार की जवाबदेही?

Punjab Kesari 29 Aug 2011
बहुसंख्यक गरीब लोगों के इस मुल्क में 122 करोड़ में मुठ्ठीभर खुशकिस्मत लोग हैं, जिन्हें सरकारी नौकरी मिलती है। चाहे राज्य सरकार में हों या केन्द्र सरकार में। सरकारी नौकरी को नियामत समझा जाता है। बंधी तनख्वाह, दूसरे भत्ते, बुढ़ापे में पैंशन और ताउम्र जलवा। गाँव-देहात में तो अगर बेटा पुलिस में सिपाही भर्ती हो जाए तो वह परिवार खुद को इलाके के पुलिस अधीक्षक से कम नहीं समझता। इसीलिए सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों में भारी उत्सुकता रहती है। फौज में भर्ती हो, आंगनबाड़ी में हो या सरकारी महकमों में, रिक्त पदों से कई गुना ज्यादा युवा आवेदन करते हैं। अक्सर उनकी बेकाबू भीड़ पर पुलिस को लाठी भी चलानी पड़ती है। ये तो निचले स्तर की नौकरियों की बात है। आई.ए.एस. जैसी नौकरियों के लिए बैठने वाले प्रत्याशियों की तादाद भी लाखों में होती है। जबकि हर साल नौकरी मिलती है चन्द हजारों को। दूसरी तरफ इस देश के करोड़ों युवा और उनके आर्थिक रूप से असुरक्षित परिवार हैं, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में किसी तरह रो-रोकर जिन्दगी बसर करते हैं।

सोचने वाली बात यह है कि इन हालातों में जिन्हें सरकारी नौकरी मिल जाती है, वे क्यों कामचोरी, निकम्मापन, भ्रष्टाचार और कोताही करते हैं? क्यों तनख्वाह और भत्तों से उनका पेट नहीं भरता? क्यों आज जरूरत पड़ रही है ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ की? साफ जाहिर है कि हर स्तर की नौकरशाही में काफी तादाद ऐसे लोगों की आ गई है, जो जनता से आज भी औपनिवेशिक साम्राज्य की रियाया की तरह बर्ताव करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत 1947 से लोकतंत्र बन चुका है। वे भूल जाते हैं कि इस देश की जनता जब हुक्मरानों से नाराज होती है तो बड़े-बड़े ताकतवर सत्ताधीशों के तख्ते पलट देती है। फिर चाहें 1977 में श्रीमती गाँधी की सरकार हो या 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार। हाँ, सत्ता के इस फेरबदल में नौकरशाही का कुछ नहीं बिगड़ता। वे तो ‘आई एम सिक्योर्ड’ के मूड में मस्त रहते हैं। इसी लिए उनके अधीनस्थ कर्मचारी भी अलमस्त रहते हैं। पर अब ये चलने वाला नहीं।

जनता जाग चुकी है। टी.वी. चैनल हर वक्त कैमरा लिए दफ्तरों के बाहर तैनात रहते हैं। टी.आर.पी. बढ़ाने की होड़ में वे किसी की भी पतलून उतारने में संकोच नहीं करते। जनहित याचिकाऐं बड़े-बड़ों को गद्दी से उतार देती हैं या जेल पहुँचा देती हैं। ऐसे माहौल में यह जरूरी है कि नौकरशाही अपना रवैया बदले। इसी लिए सरकारें भी अब ऐसे कानून बना रही है, जिससे नौकरशाही की जनता के प्रति जबावदेही सुनिश्चित हो। ‘सिटिजन्स चार्टर’ नाम से यह परिकल्पना 1991 में इंग्लैण्ड में सामने आयी जब नौकरशाही को समयबद्ध तरीके से जनता की शिकायतों को दूर करने का कानून बनाया गया। न करने वालों के खिलाफ मौद्रिक सजा का प्रावधान भी सुनिश्चित किया गया। अब भारत की कई प्रांतीय सरकारें इस कानून को बना रही है। कानून तो पहले भी बहुत हैं। पर सफेद कागज पर काली स्याही से छपा कानून किताबी ही रहता है, जब तक उसे अंजाम तक न ले जाया जाए।

जबावदेही कानून को प्रभावी बनाने के लिए हर सरकार को अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करना होगा। दूसरी तरफ यह माहौल बना रहे तो नौकरशाही पर दबाव बनेगा। इसलिए ज्यादा जिम्मेदारी जनता, सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया की है कि वे फालतू के नाच-गाने और मनोरंजन से हटकर असली सवालों पर पाठकों और दर्शकों का ध्यान केन्द्रित करें और जनता के साथ गद्दारी करने वाले को निर्वस्त्र करते रहें। अन्ना हजारे के धरने के दौरान मीडिया कवरेज करने वालों ने पहली बार मीडिया की ताकत को पहचाना। उन्होंने यह महसूस किया कि जनहित के मुद्दे पर भी टी.आर.पी. बढ़ाई जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि यह जज्बा कायम रहे। पर इसमें फालतू की उत्तेजना न फैलने दी जाए। भड़काऊ और अराजक भाषा का प्रयोग न किया जाए। गंभीरता से, पर मजबूती से, जनता के साथ खड़े रहकर सरकारी तंत्र को जबावदेह बनाया जाए। उच्च पदों पर बैठे अधिकारी और मंत्री इस रवैये से नाराज होकर, जनता के प्रति बैर का नहीं सद्भाव का आचरण करें। जिससे गाड़ी के दो पहिए की तरह मुल्क विकास की पटरी पर आगे चले। अभी तक होता यह आया है कि निचले कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण और निकम्मेपन को ऊपर के अधिकारी या उनके राजनैतिक आका संरक्षण दे देते हैं। जिससे जनता हताश हो जाती है। पर दुनिया का सूचनतंत्र जुड़ चुका हो, त्रिपोली से लेकर काहिरा तक की खबरें हर मिनट लोगों तक पहुँचती हों, तो जनता का उठ खड़े होना, बेकाबू हो जाना और हिंसक हो जाना कभी भी सम्भव है।

समय आ रहा है जब राजनेताओं को भी बदलना होगा। जनता से संवाद कायम करना होगा। आपसी राजनैतिक झगड़ों से हटकर जनता के बुनियादी सवालों के हल ढूँढने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ इस दिशा में एक और ठोस कदम होगा।

Sunday, August 21, 2011

अन्ना की क्रांति

Rajasthan Patrika 21 Aug 2011
अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन आक्रोश के प्रतीक बन गए हैं। उनका और उनके साथियों का कहना है कि वे ‘जन लोकपाल बिल’ पास करवाकर ही मानेंगे। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि संसद जो तय करेगी, उन्हें मान्य होगा। इसमें विरोधाभास साफ है। असल में क्या होता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। पर देश में आज भी यह मानने वालों की कमी नहीं है कि जनलोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरूप में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेगा। इसमें शक नहीं कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो राष्ट्र के और समाज के हित में होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो लोगों में भारी निराशा फैलेगी। इसके साथ ही पिछले दिनों के घटनाक्रम को लेकर राजनीति के गलियारों में अनेक तरह की रोचक चर्चाऐं चल रही हैं।

Punjab Kesari 22 Aug 2011
अन्ना हजारे को मयूर विहार के घर से गिरफ्तार करना एक अजीब घटना थी। आन्दोलन से पहले ही, बिना किसी कानून को तोड़े, केवल उनके इरादे को भांपकर पुलिस की यह कार्यवाही ऐसी सामान्य घटना नहीं है जैसा प्रधानमंत्री ने संसद में अपने बयान में बताने की कोशिश की। विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए हमला किया कि क्या प्रधानमंत्री पुलिस कमिश्नर की शख्सियत के पीछे छिपकर काम कर रहे हैं? वहीं यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि गत् आधी सदी से भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अन्ना हजारे को इस तरह गिरफ्तार करके हीरो बना दे। इन लोगों का मानना है कि दाल में कुछ काला है। अपने समर्थन में इनके कई और तर्क हैं। मसलन ये पूछते हैं कि देश की बड़ी नेता सोनिया गाँधी भारत से कब, कहाँ और क्यों गईं, इसकी मीडिया को भनक तक नहीं लगी। अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने घुटने का इलाज करवाने मुम्बई गए थे, तो पल-पल की खबर लेने के लिए मीडिया अस्पताल के बाहर खड़ा था।

पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।

टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं। 

उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।

Sunday, August 14, 2011

गोपनीयता के पक्ष में तर्क क्या सही है?

Rajasthan Patrika 14 Aug
श्रीमती सोनिया गाँधी की बीमारी को लेकर देशभर में उत्सुकता बनी हुई है। आधिकारिक सूचना न होने के कारण तमाम तरह की अटकलों का बाजार गर्म है। गम्भीर किस्म की असाध्य माने जानी वाली बीमारी तक का कयास लगाया जा रहा है। राष्ट्रीय नेताओं के जीवन के कुछ पक्षों की क्या इस तरह की गोपनीयता लोकतंत्र में सही ठहरायी जा सकती है? इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। गोपनीयता के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सुना वह सी.एन.एन. के उस अमरीकी संवाददाता का था, जो 9/11 के आतंकी हमले के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाईट हाउस को कवर कर रहा था। सी.एन.एन. के एंकर पर्सन ने उससे बार-बार पूछा कि व्हाईट हाउस में क्या हो रहा है? पर वह बताने से कतराता रहा। यह वो वक्त था जब वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें ध्वस्त हो चुकी थीं। पेंटागाॅन पर हमला हो चुका था। यात्रियों का एक हवाई जहाज आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था। पूरे अमरीका में अफरा-तफरी मची थी। इस आपातकालीन दौर में सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कहीं टी.वी. पर नजर नहीं आ रहे थे। टी.वी. चैनल अटकलें लगा रहे थे कि वे जान बचाने के लिए या तो बंकर में घुस गये हैं या अपने अत्यंत सुरक्षित विमान में अमरीका के आसमान में चक्कर लगा रहे हैं या हमले में मारे जा चुके हैं। ऐसी अनिश्चितता के समय में जाहिर है कि व्हाईट हाउस को देखने वाले संवाददाता से कुछ आधिकारिक और असली खबर की अपेक्षा होती। पर जब उससे एंकर पर्सन ने झुंझलाकर पूछा कि तुम गत् 18 वर्षों से व्हाईट हाउस के भीतर की खबरें देते रहे हो तो अब क्यों कुछ नहीं बताते? संवाददाता का उत्तर था कि, ‘‘क्योंकि मैं 18 वर्षों से व्हाईट हाउस कवर करता रहा हूँ, इसीलिए मैं वह सबकुछ लोगों को नहीं बता सकता, जो मैं जानता हूँ। यह देशहित में नहीं होगा।’’ इस घटना के बाद मैंने बहुत चिंतन किया। मेरी वृत्ति एक ऐसे बेखौफ खोजी पत्रकार की रही, जिसने तथ्य हाथ में आने के बाद बड़े से बड़े ताकतवर लोगों को बेनकाब करने में एक मिनट की देरी नहीं की। मुझे लगा कि सब जानने का मतलब, सब बताना नहीं है। कई बार राष्ट्रहित में चुप भी रह जाना होता है।

आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।

इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।

हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है।  जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।

क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।

Sunday, August 7, 2011

खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों की असलियत

Rajasthan Patrika 7 Aug
बढ़ती मंहगाई को लेकर विपक्ष का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। क्योंकि यह मुद्दा आम जन-जीवन से जुड़ा है। ऐसे मुद्दों पर शोर मचाने से जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित होता है और उसका राजनैतिक लाभ मिलता है। इसलिए भ्रष्टाचार की ही तरह महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर जो भी दल केन्द्र सरकार में हो, उसे हमेशा विपक्षी दलों की मार सहनी पड़ती है। ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते जायेंगे, इस मुद्दे का राजनैतिक लाभ लेने की तीव्रता बढ़ती जाएगी। पर इसका मतलब यह नहीं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लोकसभा में बहस करते हुए भाजपा कार्यकाल में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने सरकार को चेताया कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद महंगाई के चलते पिछले 20 महीनों में  देश में गरीबी और तेजी से बढ़ी है। उनकी तीखी चेतावनी इस बात का संकेत था कि भाजपा इस मुद्दे को बार-बार उछालने में परहेज नहीं करेगी।

उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी यह सफाई दे रहे हैं कि अन्र्तराष्ट्रीय बाजार में पैट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते दामों ने मुद्रास्फीति को बढ़ाने में मदद की है। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्द ही महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। हालांकि महंगाई को उन्होंने अन्र्राष्ट्रीय समस्या बताया, पर क्या ऐसे बयान देने से गरीब के आँसू पौंछे जा सकते हैं? प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए दृढ़ संकल्प ले चुकी है? क्या महंगाई का कारण पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि ही है या इसके पीछे कोई माफिया काम कर रहा है? जब पैट्रोलियम के दाम बढ़े नहीं होते, तब भी बाजार से अचानक चीनी का गायब हो जाना, प्याज का अदृश्य हो जाना यह बताता है कि इसके पीछे खाद्यान्न के व्यापार करने वालों की एक सशक्त लाॅबी है जो अपने राजनैतिक आकाओं के अभयदान से देश में ऐसी स्थिति अक्सर पैदा करती रहती है। यह लॉबी इतनी सशक्त है कि केंद्र सरकार सबकुछ जानकर भी इनका बाल-बांका नहीं कर पाती। अन्ततः खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

विपक्ष का यह कहना है कि देश में खाद्यान्न के भण्डार क्षमता के अनुसार भरे पड़े हैं। उधर सरकार का भी यह दावा कि कृषि उत्पादकता बढ़ी है, सरकार के बयानों में विरोधाभासों को प्रकट करता है। अगर खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ी है और सरकार के गोदामों में 65.5 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, तो महंगाई बढ़ने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। फिर भी सरकार नहीं बता पा रही कि इस महंगाई की वजह क्या है? यह बात दूसरी है कि सरकार के विरूद्ध मत विभाजन में सरकार बच गई क्योंकि उसे 51 के मुकाबले 320 मत प्राप्त हुए। पर इससे जनता की तकलीफ कम नहीं होती। महंगाई के मामले पर अब राजनेता ही नहीं, स्वंयसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता भी सक्रिय होने लगे हैं। इस तरह लोगों की दुखती रग से जुड़े महंगाई के सवाल पर विपक्ष का हमला अगले चुनाव तक जारी रहेगा। उधर सरकार को गहरा मंथन करके इस समस्या का हल खोजना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि भूखे को भोजन की तस्वीर दिखाकर सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करा रही है और फूड सेफ्टी बिल लाने की तैयारी भी कर रही है, पर महंगाई की मार ऐसी है कि वो केवल उन्हीं लोगों पर नहीं पड़ती जो समाज में सबसे पिछड़े तबके हैं, बल्कि मध्यमवर्गीय शहरी भी इसका दर्द महसूस करता है।

Punjab Kesari 8 Aug 2011
आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई दौर आए हैं जब महंगाई को काबू में लाने के लिए सरकार ने जमाखोरों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की है। आज भी अगर केन्द्रीय और प्रांत सरकारें सतर्क और आक्रामक हो जाऐं तो खाद्यान्न की महंगाई को काबू में लाया जा सकता है। क्योंकि यह बात सही है कि देश में आज खाद्यान्न का कोई संकट नहीं है। सारी समस्या वितरण और भण्डारों से जुड़े भ्रष्टाचार से है।

उधर वामपंथी दलों के तेवर तो महंगाई के मामले पर हमेशा ही कड़े रहते हैं। वे सदन का इस मुद्दे पर बहिष्कार भी कर चुके हैं और जब जरूरत समझेंगे, लाखों मजदूरों की भीड़ जुटाकर सरकार को आईना दिखा देंगे। इसलिए महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही नहीं बल्कि पूरी केबिनेट को कड़े निर्णय लेने चाहिऐं।

उधर महंगाई का एक दूसरा पक्ष भी है, जो उन लोगों का है जो इस महंगाई को गलत नहीं समझते। इनका कहना है कि क्या आप मोटर कार निर्माता से यह पूछते हैं कि 2 रूपये का पेंच 80 रूपये में क्यों बेच रहे हैं? या डबल रोटी में आलू की टिकिया रखकर बर्गर के नाम से बहुराष्ट्रीय कम्पनी 60 रूपये का क्यों बेच रही हैं? इनका कहना है कि इससे साफ जाहिर है कि जब बड़ी कम्पनियां बड़े मुनाफे कमाने के लिए साधारण सी वस्तुओं को भी कई गुने दाम पर बेचती हैं, तब महंगाई को लेकर कोई शोर नहीं मचता। उपभोक्ता चाहें निम्न वर्ग का हो, मध्यम का हो या उच्चवर्ग का हो, परिस्थिति को हंसते-हंसते सह लेते हैं। पर जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैं तो ऐसे शोर मचाया जाता है मानो आसमान सिर पर टूट पड़ा हो। जबकि खाद्यान्न का उत्पादन करने वाले देश के बहुसंख्यक किसान इस महंगाई से प्रभावित नहीं होते। क्योंकि उन्हें ये चीजें अपने स्थानीय बाजार में सरलता से सही दाम पर उपलब्ध हो जाती हैं। बिचैलियों के कारण शहरों में जब कई गुना महंगी होकर बिकती हैं तो भी उन किसानों को लाभ ही होता है। मार पड़ती है तो शहरी मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग पर। क्योंकि उसकी आवाज मीडिया में सुनी जाती है, इसलिए खाद्यान्न का दाम बढ़ने पर शोर ज्यादा मचता है। वास्तविकता इन दोनों परिस्थितियों के बीच की है। कुल मिलाकर खाद्यान्न के उत्पादन, संग्रहण, वितरण और मूल्य पर सरकार की जैसी पकड़ होनी चाहिए, वैसी नहीं है। इसलिए आम जनता को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 

Sunday, July 31, 2011

हंगामेदार होगा संसद का यह सत्र

Rajasthan Patrika 31 July
पहली अगस्त से शुरू होने वाला संसद सत्र भारी हंगामे का होगा। वामपंथी दलों सहित सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। इतने सारे मुद्दे हैं कि सरकार के लिए गाड़ी खींचना आसान न होगा। मंहगाई की मार यानि आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि, पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में बार-बार वृद्धि, डीजल के दामों में वृद्धि आदि किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं और आम मतदाता परेशान है। विपक्ष इसका पूरा फायदा उठायेगा। पाकिस्तान को सोंपी गई मोस्ट वान्टेड लिस्ट के मामले में सरकार ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इस लापरवाही को अनदेखा नहीं किया जाएगा। बाबा रामदेव के धरने में, रामलीला मैदान में, शांतिपूर्वक बैठे लोगों पर केन्द्र सरकार की बर्बर कार्यवाही को लेकर जनता में नाराजगी है। उधर नई भूमि अधिग्रहण नीति-विधेयक मसौदा भी काफी विवादास्पद है। 

ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।

काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।

इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
 
सबसे रोचक विषय तो लोकपाल बिल रहेगा। जहाँ टीम अन्ना ने सरकारी बिल को मनलोकपाल (मनमोहन सिंह) कहकर इसका मजाक उड़ाया है और सरकार पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है, वहीं यह बात भी सही है कि सरकारी लोकपाल बिल काफी लचर है और जनता की अपेक्षाओं खरा नहीं उतरता। इसलिए टीम अन्ना इस मामले को लेकर जनता को उत्तेजित करने का प्रयास करेगी। अगर उसे पहले की तरह टी.वी. चैनलों का असामान्य समर्थन मिला तो वह सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। विपक्षी दल इस मामले में लामबंद हो चुके हैं। वे सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए संसद में इस मामले पर भी सरकार को घेरेंगे। यह बात दूसरी है कि जब टीम अन्ना विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से मिली तो उसे किसी दल ने भी उसके जन लोकपाल बिल के समर्थन में कोई आश्वासन नहीं दिया। निजी बातचीत में तो हर दल का नेता पत्रकारों से यही कहता रहा कि टीम अन्ना की मांग और तरीका दोनों ही नाजायज हैं। वे कहते हैं, ‘यह सत्याग्रह नहीं, दुराग्रह है।’ पर संसद में राजनैतिक लाभ लेने की दृष्टि से विपक्षी दल इस मुद्दे पर टीम अन्ना के साथ खड़े होने का नाटक जरूर करेंगे।

जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?

उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।