Rajasthan Patrika 21 Aug 2011 |
अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन आक्रोश के प्रतीक बन गए हैं। उनका और उनके साथियों का कहना है कि वे ‘जन लोकपाल बिल’ पास करवाकर ही मानेंगे। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि संसद जो तय करेगी, उन्हें मान्य होगा। इसमें विरोधाभास साफ है। असल में क्या होता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। पर देश में आज भी यह मानने वालों की कमी नहीं है कि जनलोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरूप में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेगा। इसमें शक नहीं कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो राष्ट्र के और समाज के हित में होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो लोगों में भारी निराशा फैलेगी। इसके साथ ही पिछले दिनों के घटनाक्रम को लेकर राजनीति के गलियारों में अनेक तरह की रोचक चर्चाऐं चल रही हैं।
अन्ना हजारे को मयूर विहार के घर से गिरफ्तार करना एक अजीब घटना थी। आन्दोलन से पहले ही, बिना किसी कानून को तोड़े, केवल उनके इरादे को भांपकर पुलिस की यह कार्यवाही ऐसी सामान्य घटना नहीं है जैसा प्रधानमंत्री ने संसद में अपने बयान में बताने की कोशिश की। विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए हमला किया कि क्या प्रधानमंत्री पुलिस कमिश्नर की शख्सियत के पीछे छिपकर काम कर रहे हैं? वहीं यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि गत् आधी सदी से भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अन्ना हजारे को इस तरह गिरफ्तार करके हीरो बना दे। इन लोगों का मानना है कि दाल में कुछ काला है। अपने समर्थन में इनके कई और तर्क हैं। मसलन ये पूछते हैं कि देश की बड़ी नेता सोनिया गाँधी भारत से कब, कहाँ और क्यों गईं, इसकी मीडिया को भनक तक नहीं लगी। अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने घुटने का इलाज करवाने मुम्बई गए थे, तो पल-पल की खबर लेने के लिए मीडिया अस्पताल के बाहर खड़ा था।
पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।
टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं।
उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।
Punjab Kesari 22 Aug 2011 |
पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।
टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं।
उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।
मेरे विचार से भ्रष्ट सरकार से भ्रष्टाचार हटाने का बिल पास कराना तो ऐसा ही है जैसे चोर से चोरी के खिलाफ कानून बनाने की मांग रखना .
ReplyDeleteमेरा एक अगला प्रश्न है कि क्या सरकार अन्ना के मरने से डरती है ?
अशोक गुप्ता
दिल्ली