Rajasthan Patrika 26 June |
महिला आरक्षण विधेयक फिर खटाई में पड़ गया। इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्टीय महिला आयोग को नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?
महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गांँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।
बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रोपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।
नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यूयाॅर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनियाभर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभाषी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी कबाबी, शराबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?
इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।
आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एकतरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।