Thursday, June 2, 2011

बदलाव का दौर

Amar Ujala 2 June 2011
आमतौर पर बजट सत्र के बाद दिल्ली के बाबू राहत की साँस लेते हैं, पर गर्मी शुरू होते ही मंत्री से संतरी तक, सब पहाड़ या विदेशी दौरे पर निकल जाते हैं। पर इस बार दिल्ली कुछ हिली हुयी है। कनिमोझी से लेकर कलमाणी तक और 2जी स्पैक्ट्रम के उद्योग जगत के सितारों तक, सबका तिहाड़ जाना सत्ता के गलियारों में कौतुहल और आशंका का विषय बना हुआ है। विकीलीक्स हो या सर्वोच्च न्यायालय में पी.आई.एल. की सख्त सुनवाई, टी.वी. शो में छीछालेदर हो या जगह-जगह होने वाली गोष्ठियाँ, सब ओर भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया हुआ है। सभी दलों के राजनेता थोड़े विचलित हैं। पता नहीं कब किसकी धोती चैराहे पर खोल दी जाए। इस बार उठापटक में औद्योगिक घरानों की भूमिका भी विगत वर्षों के मुकाबले काफी बढ़ गयी है। वे टी.वी. चैनलों से लेकर और धरने प्रदर्शनों तक में रूचि ले रहे हैं और साधन मुहैया करा रहे हैं। जानकारों का मानना है कि जबसे देश के जाने-माने उद्योगपतियों को संसदीय जाँच समिति के आगे पेश होना पड़ा है, तबसे उद्योग जगत में हलचल है और इसीलिए सामने आये बिना शायद बहुत से लोग राजनेताओं को शीशा दिखाने के काम में जुट गये हैं। इस रस्सा खिंचाई के बीच अटकलों का बाजार भी गर्म हो गया है। एक बार फिर से प्रधानमंत्री बदले जाने की बात चल पड़ी है। सुशील शिन्दे का नाम इसमें टाॅप पर चल रहा है। हालांकि इसकी कोई आधिकारिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उधर भट्टा गाँव की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि काँग्रेस और उसके युवा नेता राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश पर आक्रामक हमला कर रहे हैं। यह सारी कवायद अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावों को ध्यान में रखकर की जा रही है।

इधर दिल्ली में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सम्मेलनों और गोष्ठियों की बाढ़ आ गयी है। देश के कोने-कोने से लोग दिल्ली आकर इन सम्मेलनों में भ्रष्टाचार से निपटने के कारगर तरीके सुझा रहे हैं। उधर आगामी 4 जून से बाबा रामदेव के प्रस्तावित धरने से निपटने के लिए सरकार अपनी तैयारी में जुटी है। बाबा रामदेव का लक्ष्य अपने 5 लाख अनुयायियों को 40 दिन तक दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड में बिठाने का है। 80 शहरों में ऐसे ही धरने किये जाने की बात वे कह रहे हैं। साथ ही यह भी कि एक दिन छोड़कर एक दिन अलग-अलग शहरों से 5 हजार लोगों का दस्ता रामलीला ग्राउण्ड में आता रहे। जिससे धरने में बैठे लोगों को राहत मिलती रहे। सब तैयारियाँ पूरी हैं। अब तो 4 जून का इंतजार है। उधर सत्ता के गलियारों में यह भी चर्चा चल पड़ी है कि बाबा रामदेव का विशाल आर्थिक साम्राज्य सहारा गु्रप के मालिक देख रहे हैं। इसकी सच्चाई किसी ने परखी नहीं है। पर यदि ऐसा है तो माना जा रहा है कि सरकार के लिए बाबा रामदेव के आन्दोलन की कलाई मरोड़ना और भी आसान हो जायेगा। बाबा की माँगे ऐसी नहीं हैं कि उनपर फौरन अमल किया जा सके। जैसे कालाधन बाहर से लाना या 5सौ-हजार के नोट बन्द करना या काले धन को जब्त करना और राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करना। फिर भी बाबा रामदेव के अनुयायियों में भारी उत्साह है और वे मानकर चल रहे हैं कि इस धरने के निर्णायक परिणाम आयेंगे। दूसरी तरफ जानकारों का कहना है कि जिस तरह अन्ना हज़ारे का धरना किन्हीं खास कारणों से इतना मीडिया पर छा गया, वैसा बाबा के धरने के साथ शायद नहीं होगा। अलबत्ता उनका चैनल इसका जरूर सीधा प्रसारण करता रहेगा। दूसरी चर्चा यह भी सुनने में आयी है कि सरकार इस धरने को बहुत दिन तक नहीं चलने देना चाहती, इसलिए दो-चार दिन के नाटक-नौटंकी के बाद ही किसी समिति की घोषणा कर दी जायेगी और बाबा रामदेव से धरना समाप्त करवा दिया जायेगा। क्या होगा अभी कहना मुश्किल है? क्योंकि इस पूरे अफरा-तफरी के माहौल में बड़े-बड़े खेल परदे के पीछे खेले जा रहे हैं।

देशभर से आये कुछ दर्जन भाजपाई मानसिकता के युवा इस माहौल को लेकर अतिउत्साहित हैं। उनका विश्वास है कि इस सबसे काँग्रेस लगातार कमजोर हो रही है और सरकार गिरने की संभावना बन रही है। इनका आंकलन है कि अगर बाबा रामदेव का धरना सफल हो जाता है तो 15 दिन में वे सरकार गिरा देंगे। वे संविधान को भी पूरी तरह बदलना चाहते हैं। पर जब इन लोगों से इस विषय पर गहराई से चर्चा की जाती है तो पता चलता है कि न तो इनके पास वैकल्पिक संविधान उपलब्ध है और न ही वैकल्पिक राजनैतिक नेतृत्व। अगर कुछ गोपनीय रखा गया है तो वह फिलहाल जनता के सामने नहीं है। उधर ये लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि अन्ना हजारे की टीम सरकार द्वारा प्रायोजित टीम है और उसी के इशारे पर काम कर रही है। ऐसे माहौल में गम्भीर लोगों के लिए असलियत को जान पाना मुश्किल हो रहा है। भ्रम की सी स्थिति बन रही है। ऐसा लग रहा है कि तमाम शुभेच्छा होने के बावजूद, काले धन से निपटने और सरकार में सुधार लाने का आन्दोलन अभी अपने लक्ष्य और रणनीति को स्पष्ट नहीं कर पाया है। जिसकी आज सख्त जरूरत है। ऐसे में देशवासी उत्सुकता से इस धरने का आगाज और अंजाम देखना चाहेंगे।

Sunday, May 29, 2011

अब एक और अनशन

Panjab kesari 30-05-2011
दिल्ली में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सम्मेलनों और गोष्ठियों की बाढ़ आ गयी है। देश के कोने-कोने से लोग दिल्ली आकर इन सम्मेलनों में भ्रष्टाचार से निपटने के कारगर तरीके सुझा रहे हैं। उधर आगामी 4 जून से बाबा रामदेव के प्रस्तावित धरने से निपटने के लिए सरकार अपनी तैयारी में जुटी है। बाबा रामदेव का लक्ष्य अपने 5 लाख अनुयायियों को 40 दिन तक दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड में बिठाने का है। 80 शहरों में ऐसे ही धरने किये जाने की बात वे कह रहे हैं। साथ ही यह भी कि एक दिन छोड़कर एक दिन अलग-अलग शहरों से 5 हजार लोगों का दस्ता रामलीला ग्राउण्ड में आता रहे। जिससे धरने में बैठे लोगों को राहत मिलती रहे। सब तैयारियाँ पूरी हैं। अब तो 4 जून का इंतजार है। उधर lŸkk के गलियारों में यह भी चर्चा चल पड़ी है कि बाबा रामदेव का विशाल आर्थिक साम्राज्य सहारा गु्रप के मालिक देख रहे हैं। इसकी सच्चाई किसी ने परखी नहीं है। पर यदि ऐसा है तो माना जा रहा है कि सरकार के लिए बाबा रामदेव के आन्दोलन की कलाई मरोड़ना और भी आसान हो जायेगा। बाबा की माँगे ऐसी नहीं हैं कि उनपर फौरन अमल किया जा सके। जैसे कालाधन बाहर से लाना या 5सौ-हजार के नोट बन्द करना या काले धन को जब्त करना और राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करना। फिर भी बाबा रामदेव के अनुयायियों में भारी उत्साह है और वे मानकर चल रहे हैं कि इस धरने के निर्णायक परिणाम आयेंगे। दूसरी तरफ जानकारों का कहना है कि जिस तरह अन्ना हज़ारे का धरना किन्हीं खास कारणों से इतना मीडिया पर छा गया, वैसा बाबा के धरने के साथ शायद नहीं होगा। vycŸkk उनका चैनल इसका जरूर सीधा प्रसारण करता रहेगा। दूसरी चर्चा यह भी सुनने में आयी है कि सरकार इस धरने को बहुत दिन तक नहीं चलने देना चाहती, इसलिए दो-चार दिन के नाटक-नौटंकी के बाद ही किसी समिति की घोषणा कर दी जायेगी और बाबा रामदेव से धरना समाप्त करवा दिया जायेगा। क्या होगा अभी कहना मुश्किल है? क्योंकि इस पूरे अफरा-तफरी के माहौल में बड़े-बड़े खेल परदे के पीछे खेले जा रहे हैं।

Rajasthan Patirka 29-05-2011
देशभर से आये कुछ दर्जन भाजपाई मानसिकता के युवा इस माहौल को लेकर अतिउत्साहित हैं। उनका विश्वास है कि इस सबसे काँग्रेस लगातार कमजोर हो रही है और सरकार गिरने की संभावना बन रही है। इनका आंकलन है कि अगर बाबा रामदेव का धरना सफल हो जाता है तो 15 दिन में वे सरकार गिरा देंगे। वे संविधान को भी पूरी तरह बदलना चाहते हैं। पर जब इन लोगों से इस विषय पर गहराई से चर्चा की जाती है तो पता चलता है कि न तो इनके पास वैकल्पिक संविधान उपलब्ध है और न ही वैकल्पिक राजनैतिक नेतृत्व। अगर कुछ गोपनीय रखा गया है तो वह फिलहाल जनता के सामने नहीं है। उधर ये लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि अन्ना हजारे की टीम सरकार द्वारा प्रायोजित टीम है और उसी के इशारे पर काम कर रही है। ऐसे माहौल में गम्भीर लोगों के लिए असलियत को जान पाना मुश्किल हो रहा है। भ्रम की सी स्थिति बन रही है। ऐसा लग रहा है कि तमाम शुभेच्छा होने के बावजूद, काले धन से निपटने और सरकार में सुधार लाने का आन्दोलन अभी अपने लक्ष्य और रणनीति को स्पष्ट नहीं कर पाया है। जिसकी आज सख्त जरूरत है। ऐसे में देशवासी उत्सुकता से इस धरने का आगाज और अंजाम देखना चाहेंगे।

उधर आमतौर पर बजट सत्र के बाद दिल्ली के बाबू राहत की साँस लेते हैं, पर गर्मी शुरू होते ही मंत्री से संतरी तक, सब पहाड़ या विदेशी दौरे पर निकल जाते हैं। पर इस बार दिल्ली कुछ हिली हुयी है। कनिमोझी से लेकर कलमाणी तक और 2जी स्पैक्ट्रम के उद्योग जगत के सितारों तक, सबका तिहाड़ जाना सŸाा के गलियारों में कौतुहल और आशंका का विषय बना हुआ है। विकीलीक्स हो या सर्वोच्च न्यायालय में पी.आई.एल. की सख्त सुनवाई, टी.वी. शो में छीछालेदर हो या जगह-जगह होने वाली गोष्ठियाँ, सब ओर भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया हुआ है। सभी दलों के राजनेता थोड़े विचलित हैं। पता नहीं कब किसकी धोती चैराहे पर खोल दी जाए। इस बार उठापटक में औद्योगिक घरानों की भूमिका भी विगत वर्षों के मुकाबले काफी बढ़ गयी है। वे टी.वी. चैनलों से लेकर और धरने प्रदर्शनों तक में रूचि ले रहे हैं और साधन मुहैया करा रहे हैं। जानकारों का मानना है कि जबसे देश के जाने-माने उद्योगपतियों को संसदीय जाँच समिति के आगे पेश होना पड़ा है, तबसे उद्योग जगत में हलचल है और इसीलिए सामने आये बिना शायद बहुत से लोग राजनेताओं को शीशा दिखाने के काम में जुट गये हैं। इस रस्सा खिंचाई के बीच अटकलों का बाजार भी गर्म हो गया है। एक बार फिर से प्रधानमंत्री बदले जाने की बात चल पड़ी है। सुशील शिन्दे का नाम इसमें VkWi पर चल रहा है। हालांकि इसकी कोई आधिकारिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उधर भट्टा गाँव की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि काँग्रेस और उसके युवा नेता राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश पर आक्रामक हमला कर रहे हैं। यह सारी कवायद अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावों को ध्यान में रखकर की जा रही है।

Thursday, May 26, 2011

पुलिस का निकम्मापन

नोएडा के आरूषि हत्या कांड की जांच उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह की गलतियां की हैं उन्हें लापरवाही नही माना जा सकता। साफ लगता है कि शुरूआती जांच में पुलिस ने हत्यारों को बचाने की कोशिश की। अखबारों में और टीवी चैनलों पर अनेक तथ्य सामने आ चुके हैं जिनसे इस आरोप की पुष्टि होती है। नोएडा के थानेदार ने आरूषि के कमरे में दीवार पर लगे खून के निशान और उसके सिर के बाल का नमूना क्यों नहीं लिया। आरूषि के माता पिता के असमान्य व्यवहार पर पुलिस ने कोई जांच क्यों नहीं की। पुलिस ने आरूषि का पोस्टमार्टम परंपरा से हटकर जल्दीबाजी में क्यों करवाया। जांच टीम ने घटना स्थल से ऊपर जा रहे जीने की रेलिंग पर और छत के दरवाजे पर लगे खून के निशान क्यों नहीं देखे। ऐसे तमाम कारण है जो ये सिद्ध करते हैं कि पुलिस ने जांच के नाम पर नाटक किया।

ऐसा पहली बार नही हुआ। निठारी कांड ने भी उ. प्र. पुलिस की ऐसी ही मिली भगत सामने आयी थी। आमतौर पर महत्वपूर्ण लोगों या पैसे वाले लोगों से जुड़े अपराधों में उप्र.पुलिस अक्सर अपराधियों को संरक्षण देने का काम करती आयी है। लखनऊ में मशहूरबैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या की जांच में भी इसी तरह पुलिस ने सबूतों को मिटाने का काम किया। अपराधियों की स्वाकारोक्ति के बाद भी उन्हें सजा नहीं मिल
पायी। क्योंकि उनके विरुद्ध सबूतों को पुलिस ने ही गायब कर दिया था।

फूलन देवी की हत्या दिल्ली के पौश इलाके अशोक रोड स्थित अपनी कोठी के पास हुई। फूलन देवी के सुरक्षा गार्डों ने न तो उसे बचाने की कोशिश की और न हीं हत्यारों को पकड़ने की। दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी दावा करते हैं कि दिल्ली में सुरक्षा के तीन अभेद घेरे हैं। कोई अपराधी अगर अपराध करके भागता है तो उसे इन घेरों में तुरंत पकड़ा जा सकता है। फिर क्या वजह थी कि फूलन देवी के हत्यारे इन तीनों सुरक्षा घेरों को आसानी से पार करके दिल्ली की सरहदों के बाहर निकल गये। इतना ही काफी नही था जब हत्यारे को पश्चिमी उ. प्र. से पकड़ कर लाया गया और ऐशिया की सबसे बड़ी और सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में कैद करके रखा गया तो आश्चर्य देखिए कि हत्यारे के मित्र फर्जी वारंट दिखाकर उसे तिहाड़ जेल से छुड़ा ले गये।

जैन हवाला कांड में 1991 में सीबीआई ने छापा डाला और मार्च 1995 तक जैन बंधु स्वतंत्र घूमते रहे। जनहित याचिका की सुनवायी के दौरान जब सीबीआई ने सर्वोच्च अदालत में झूठा शपथ पत्र दाखिल किया कि जैन बंधु फरार है और उनको ढ़ूंढने के लिए नोटिस चस्पा किये गये हैं तो जनहित याचिकाकर्ता ने अदालत को दिल्ली के प्रतिष्ठित अंगे्रजी दैनिक के पहले पेज पर छपी एक प्रमुख खबर दिखाई जिसमें लिखा था कि गत सप्ताह जैन बंधुओं ने अपने फार्म हाऊस पर एक शानदार दावत की जिसमे कई नामी हस्तियां मौजूद थीं। ये कैसे हो सकता है कि खुलेआम शानदार दावतें देने वाले व्यक्ति को ढूंढने में सीबीआई तो नाकाम रही और पत्रकारों को उनके क्रिया कलापों की जानकारी सहजता से उपलब्ध थी। साफ जाहिर है कि सीबीआई ने इस कांड में ऐसी ही तमाम साजिशें करके अपराधियों को निकल भागने के दर्जनों मौके दिये। जिनका प्रमाण सर्वोच्च न्यायालय की केस फाइल में दर्ज है। ठीक ऐसे ही बोफोर्स से लेकर स्टैंप घोटाले तक की जांच में होता आया है।

उत्तर पूर्वी राज्य के एक बड़े नेता के सपूत ने एक शिक्षक की बेटी के साथ बलात्कार कर उसे झील में फेंक दिया। उसे डूब कर मरा बता दिया गया। जब विरोधी दलों ने शोर मचाया तो जांच सीबीआई को सौंपी गयी। मजे की बात यह है कि इस हत्या की जांच भी हो गयी। पर उस अभागी लड़की के विसरा के नमूनों की सील तक नहीं टूटी। यानी बिना कीकात के रिपोर्ट बना दी गयी। ये सपूत सबूत के अभाव में बरी हो गया। सारे देश में खोजने चले तो ऐसे हजारों उदाहरण मिलेगें जहां पुलिस जांच में जानबूझ कर निकम्मापन करती हैं। ज्यादातर मामले न तो प्रकाश में आते हैं और न ही मीडिया की उन पर नजर पड़ती है।

दरअसल राज्यों की पुलिस का बहुत तेजी से राजनैतिककरण हुआ है। आज उत्तर प्रदेश में ऊपर से नीचे तक पुलिस राजनैतिक दलों के बीच बट गयी है। कम्प्यूटर में बाकायदा बसपा व सपा से जुड़े पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों की सूचियां दर्ज हैं। जिन्हें ध्यान में रखकर ही उनकी तैनाती की जाती है। ऐसे मे पुलिस से सही और निष्पक्ष जांच की उम्मीद करना मूर्खता होगी।

आज पुलिस व्यवस्था का राजनैतिककरण समाज के लिए बहुत घातक होता जा रहा है। इसे रोकने के ठोस प्रयास किये जाने चाहिए। ऐसे दर्जनों सुझाव है जिन पर अमल किया जा सकता है। बशर्तें कि राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्र की सरकार पुलिस व्यवस्था में सुधार कर इसे प्रभावशाली, निष्पक्ष और जनउपयोगी बनाना चाहें। जरूरत इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रांतों के उच्च न्यायालयों के अधीन आपराधिक जांच के लिए योग्य पुलिसकर्मियों की इकाइयां गठित की जायें। जो अदालत के निर्देश पर निडर होकर जांच करें। उन्हें सत्तारूढ़ दलों की नाराजगी का डर न हों। ये ऐजेंसियां महत्वपूर्ण मामलों की समयबद्ध जांच करें और निडर होकर अपनी जांच अदालत को सौंप दें। तभी अपराधी पकड़े जाऐंगे। वरना अपराधी ही नहीं आतंकवादी भी छूटते रहेंगे और जनता तबाह होती रहेगी क्यों आज तो हमारी पुलिस काफी निकम्मी हो चुकी है। एक शेर माकूल रहेगा- रात का अंदेशा था, लुट गए उजाले में।

हम तो हैं परदेस देस में निकला होगा चांद

Wednesday, May 25, 2011

कैसे बचें भारत की धरोहरों


पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के अखबारों में खबर छपी कि ताजमहल की दरारों में भद्दी तरीके से प्लास्टर आ¡फ पेरिस भरकर लीपापोती की जा रही है। उसके फर्शों पर पान की पीक के दाग हैं और तमाम दावों के बावजूद उसका रंग पीला पड़ रहा है। इस खबर के छपते ही राष्ट्रकुल खेलों की तैयारी में जुटे देश के कर्णधारों में हड़कम्प मचा और आनन-फानन में एक मोटी रकम ताज की सफाई के लिए पुरातत्व विभाग में आवण्टित कर दी गई। ऐसी हड़बड़ाहट और फौरी कार्यवाहियों से धरोहरों की रक्षा नहीं हुआ करती। धरोहरों की रक्षा और उनकी प्रस्तुति करने के लिए जिस जज्बे और समझ की जरूरत है, वह हमारे हाकिमों में नहीं है। पर हाकिमों की क्या कहें, जनता भी धरोहरों की कीमत नहीं समझती। तभी तो उनकी इतनी दुर्दशा है।

बचपन से सुनते आये थे कि ‘‘यूनान, मिस्त्र और रोमा सब मिट गये जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’। अल्लामा इकबाल की यह नज्म हर हिन्दुस्तानी की जुबान पर है। बेशक हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत विश्व में अनूठी है और उसमें निरन्तरता है। जबकि पश्चिमी देशों की संस्कृति भौतिकतावादी होने के कारण इतनी गहराई तक नहीं गयी है। पर रूहानियत को छोड़ दें और सांस्कृतिक अवशेषों की बात करें तो शायद हमारा यह दावा सही नहीं बैठेगा।

पिछले हफ्ते रोमन साम्राज्य की भूमि इटली के तीन शहरों में दो-दो, तीन-तीन दिन रहा। फ्लोरेंस, वेनिस व रोम में जो धरोहरों की रक्षा, संरक्षण, प्रस्तुतिकरण, व्यवसायिकरण देखा, वह हैरतअंगेज था। रोम में इक्कीस सौ साल पुराना स्टेडियम है जिसे कोलोजियम कहते हैं। यह कोलोजियम 187 मीटर लम्बा और 155 मीटर चैड़ा है, जिसमें 80 मेहराबें हैं। जिसमें दर्शकों के बैठने की 19 पंक्तियाँ हैं और एक बार में लगभग 40 हजार दर्शक बैठकर खेलों का आनन्द ले सकते हैं। कोलोजियम के महत्व और इतिहास को किसी भी बेवसाईट पर देखा जा सकता है। जो बात यहाँ महत्वपूर्ण है, वह यह है कि इस धरोहर को इटली के लोगों ने बड़ी नफासत से सहेज कर रखा है। इसमें प्रवेश के लिए बारह सौ रूपये की टिकट है। आ¡डियो गाईड है, जिन्हें कान पर लगाकर आप स्टेडियम के किसी भी कोने पर खड़े होकर उसके इतिहास की कमेंट्री सुन सकते हैं। यह तो एक उदाहरण है। पूरे इटली और फ्रांस में ऐसे हजारों उदाहरण हैं जहाँ ऐतिहासिक भवनों, चित्रों, मूर्तियों, फव्वारों, पुलों, फर्नीचर, सजावट का साजो-सामान बड़े करीने से सजाकर रखा गया है। दो हजार से पाँच सौ साल पुरानी इन धरोहरों की चमक-दमक देखकर लगता नहीं कि ये इतनी पुरानी हैं। इतना ही नहीं, इन देशों के आम नागरिक अपनी इन धरोहरों की बड़ाई करते और उन पर गर्व करते थकते नहीं हैं। दुनियाभर का सैलानी मीलों लम्बी कतार में खड़े होकर इन धरोहरों को देखने आता है और दाँतो तले उँगली दबा लेता है। इन सैलानियों के कारण इन देशों में खूब पैसा आता है। 

दूसरी तरफ हम हिन्दुस्तानी हैं, जो सारे जहाँ से अच्छा होने का दावा तो करते हैं, पर धरोहरों को तोड़कर उन पर मकान बनाने, काॅलोनी काटने, व्यवसायिक भवन खड़ा करने में कोई कोताही नहीं बरतते। जो ऐतिहासिक इमारत सदियों की मार झेले खड़ी होती है, वह भूमाफिया की कृपा से शुक्रवार के दिन से सोमवार की सुबह तक धूल में मिल जाती है। क्योंकि शनिवार को प्रायः अदालतें बन्द होती हैं। इसलिए स्थगन प्रस्ताव आना सम्भव नहीं होता। ब्रज क्षेत्र में ऐसा विनाश हर दिन गत् 7 वर्षों से देख रहा हूँ। एक टीस मन में उठती है। पर बहुत कुछ कर नहीं पाता। क्योंकि एक-एक इमारत को बचाने के लिए महीनों संघर्ष करना पड़ता है। लोग भण्डारों और फूल बंगलों पर तो लाखों लुटा देते हैं। भागवत कथाओं के पण्डाल करोड़ों में बनवाते हैं। पर भगवत लीलाभूमि में व्यापार की सम्भावनाऐं तलाशते रहते हैं। भगवान की लीलास्थलियों को लीलने को तैयार रहते हैं। इनके जीर्णोद्धार के लिए उनके मन में न कभी विचार आता है, न वे कोई प्रयास करते हैं। वृन्दावन में तो ऐसे श्रीमन्त महन्त हैं जो वृन्दावन की रक्षा का वर्षों से झण्डा बुलन्द किये हैं, पर एक वर्गफुट धरोहर भी बचा नहीं पाये। इतना ही नहीं स्वंय धरोहरों पर कब्जा कर अपने लिए महल बना लिए। साधन सम्पन्न भक्त ऐसे महंतों के आगे उनकी भव्यता देख नतमस्तक हो जाते हैं। जिन्हें बरगला कर ये निरर्थक कामों में और अपने वैभव को बढ़ाने में पैसा बर्बाद करवाते रहते हैं। अगर वृन्दावन की इतनी ही चिन्ता है तो उन्हें सभी धरोहर भवनों को खाली करवाकर उनका जीर्णोद्धार करवाना चाहिए और उनमें ब्रज की संस्कृति व साहित्य और चित्रों की प्रदर्शनियाँ और कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिऐं।

ब्रज ही क्यों दिल्ली के हौजखास जैसे ऐतिहासिक भवन में पुरातत्व विभाग के नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर और इन भवनों से छेड़-छाड़ कर ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठान चलाये जा रहे हैं, जिनका इन भवनों के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। कमोबेश यही हालत देश की बाकी धरोहरों की भी हो रही है। राष्ट्रकुल खेलों की तैयारी की हड़बड़ी में देश की राजधानी के निकटवर्ती क्षेत्रों में धरोहरों के संरक्षण का जो कार्य अब रात-दिन किया जा रहा है, वह तसल्ली से, सुनियोजित तरीके से, समय से क्यों नहीं किया जा सकता था? इस तरह हड़बड़ी में किये जा रहे कार्यों में गुणवत्ता को सुनिश्चित करना असम्भव होगा। भवन छोड़, भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत की प्राणदायिनी धरोहर गंगा और जमुना तक को हम नहीं बचा पाये। 

पुरातत्व विभाग तो धरोहरों की ठीक सूची तक नहीं बनाता है। उनका व्यापक लेखा-जोखा तक उसके पास नहीं है। संरक्षण के लिए धन अभाव का रोना हमेशा रोया जाता है। पर उनका डाॅक्यूमेंटेशन करना और उनके संरक्षण के लिए स्थानीय जनता को प्रेरित करना और उसके साथ साझी समितियाँ बनाकर जीर्णोद्धार और संरक्षण के प्रयास करना तो सम्भव हो ही सकता है। अब जबकि भारत में पर्यटन कई नई ऊँचाईयाँ छू रहा है, जैसे सांस्कृति पर्यटन, मेडिकल पर्यटन, व्यापारिक पर्यटन, धार्मिक पर्यटन आदि, तब इस बात पर गहरा चिन्तन और मंथन किया जाना चाहिए कि अपनी धरोहरों को बचाने, सजाने और उन्हें पर्यटन के बाजार में सुसंस्कृत रूप में प्रस्तुत करने के लिए हमे क्या करना चाहिए? वर्ना भविष्य में हम अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के अवशेषों को देखने से वंचित रह जायेंगे।

Monday, May 23, 2011

जन लोकपाल या लोकतांत्रिक लोकपाल ?

Panjab Kesari 23-05-2011
लोकपाल विधेयक बनाने की साझी समिति अपना काम कर रही है। पर इसके साथ ही सरकारी विधेयक और भूषण पिता-पुत्र द्वारा तैयार विधेयक, दोनों की ही खामियों को दूर करता हुआ एक लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक एक और टीम ने तैयार किया है। जिसमें लोकसभा के महासचिव रहे सुप्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ श्री सुभाष कश्यप, सर्वोच्च न्यायालय के वकील श्री अरूणेश गुप्ता, क्रांतिकारी विचारक भरत गाँधी आदि अन्य लोग शामिल हैं। इन तीनों विधेयकों की तुलना करने से पाठकों को स्पष्ट हो जायेगा कि यदि भ्रष्टाचार को दूर करना है तो भूषण पिता-पुत्र का लोकपाल विधेयक नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विधेयक ही कारगर रहेगा।

लोकतांत्रिक मूल्य
सरकारी लोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री पद के मूल्य से कम होगा, क्योंकि वह निर्वाचित नहीं होगा। कमोबेश जनलोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य भी सरकारी विधेयक जैसा ही है। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल देश-भर के ब्लाॅक प्रमुखों द्वारा निर्वाचित होगा। अतः लोकतांत्रिक मूल्य में अधिक होगा और प्रधानमंत्री पर निगरानी करने का उसका अधिकार पूरी तरह तर्क संगत होगा।

विचारधारा की लोक परीक्षा
सरकारी लोकपाल विधेयक द्वारा बनाये गये लोकपाल की राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा क्या है यह केवल देश के बडे राजनेता ही जान पाएंगे, क्योंकि वही लोग लोकपाल को नियुक्त करेंगे। आम जनता अन्धेरे में रहेगी। जनलोकपाल की नियुक्ति संवैधानिक पदों पर बैठे ह्रुए लोगों के अलावा उद्योगपतियों द्वारा समर्थित कुछ तथाकथित समाजसेवी व विदेशी हुकूमतों से ईनाम पाने वाले उनके कृपापात्र भी करेंगे। इन मुठ्ठीभर लोगों के अलावा लोकपाल की विचारधारा और आचरण से पूरा देश अनजान रहेगा। चूंकि लोकतांत्रिक लोकपाल का चुनाव होगा, अतः उसके प्रतिद्वन्दी जनता के सामने उसकी सारी पोल खोल देंगे। पूरा देश जान पाएगा कि जो व्यक्ति लोकपाल की कुर्सी पर बैठने जा रहा है उसकी राजनीतिक व आर्थिक विचारधारा क्या है और उसका चरित्र व आचरण कैसा रहा है?

निजी सनक और राजनीतिक अनुभवहीनता
सरकारी लोकपाल विधेयक के अनुसार निर्वाचित न होने के कारण लोकपाल सनकी हो सकता है और देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोग उसकी सनक के शिकार हो सकते हैं। इसी तरह जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल दोनों के सनकी होने की पूरी सम्भावना है। इससे देश के संवैधानिक पद जनलोकपाल की राजनीतिक अनुभवहीनता का शिकार हो सकते हैं। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल व्यक्तिगत सनक व राजनीतिक अनुभवहीनता से मुक्त होगा। क्योंकि उसे चुनाव लडना पडेगा। चुनाव के दौरान उसका व्यवहार व क्रियाकलाप चर्चाओं का विषय बनेगा।

रिश्वत देने वालों का बचाव
सरकारी लोकपाल विधेयक के अनुसार लोकपाल रिश्वत देने वालों पर किसी तरह का अनुशासन नहीं लगाता। भूषण पिता-पुत्र का जनलोकपाल विधेयक भी कुछ इस प्रकार बनाया गया है जिसे देखकर लगता है कि यह रिश्वत देने वालों के संगठित प्रयास से बनाया गया हो। क्योंकि यह विधेयक रिश्वत देने वालों को या रिश्वत लेने के लिए विवश करने वालों को दण्डित करने का कोई प्रावधान नहीं करता। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक रिश्वत देने वालों, रिश्वत लेने वालों और रिश्वत लेने के लिए विवश करने वालों तीनों को दण्डित करने का प्रावधान करता है।

औद्योगिक घरानों के भ्रष्टाचार को बढावा
सरकारी लोकपाल विधेयक औद्योगिक घरानों के द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर मौन है। क्योंकि सरकार पर औद्योगिक घरानों का शासन चलता है इसलिए ऐसा होना स्वभाविक ही है। जनलोकपाल विधेयक भी सरकारी विधेयक की तरह औद्योगिक घरानों के भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं लगाता। इसके विपरीत लोकपाल की चयन प्रक्रिया द्वारा औद्योगिक घरानों को बढावा भी देता है। औद्योगिक घराने कुछ स्तर पर चन्दा देकर उसी नेता और उसी पार्टी को राजनीतिक अखाडे पर पहुचाते हैं जो भ्रष्ट होते हैं। चूंकि उच्च स्तर पर रिश्वत देने वाले औद्योगिक घराने संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को रिश्वत लेने के लिए मजबूर करते हैं और रिश्वत लेने की बात न मानने पर सरकार गिरा देते हैं। इसलिए लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक में लोकपाल के अधीन एक ऐसे उपलोकपाल का पद बनाया गया है जो केवल औद्योगिक घरानों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए और रिश्वत देने वालों को दण्डित करने के लिए ही काम करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार पर रोक
सरकारी लोकपाल विधेयक अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार के मामले पर चुप है। जबकि इसी रास्ते देश का अधिकांश काला धन विदेश जाता है और इस पर सक्षम अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा रोक न लगाई गई तो विदेश का धन देश में वापस नही लाया जा सकता। यदि यह काम किसी तरह हो भी गया तो यह सारा धन वापस विदेश फिर से चला जाएगा। देश के बडे भ्रष्टाचारी, चाहे वे नेता हों, चाहे अधिकारी हों या व्यापारी हों, सभी भ्रष्टाचार से प्राप्त रकम की सुरक्षा के लिए दूसरे देश के भ्रष्ट लोगों से गठजोड कर लेते हैं। भूषण पिता-पुत्र जनलोकपाल विधेयक के अनुसार भ्रष्टाचार से प्राप्त उनकी रकम और उस रकम से बनी सम्पत्ति को देश के अन्दर बरामद नहीं किया जा सकता। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल के अधीन एक ऐसा लोकपाल जो अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार को रोकने के कानूनी उपाय भी करेगा।

लोकपाल के लिए अनोखे चरित्र वाले व्यक्ति की तलाश का तरीका
संवैधानिक संस्थाओं पर सामान्य चरित्र के लोग पहुँचने लगें, इसीलिए लोकपाल की जरूरत पडी। परन्तु सरकारी विधेयक में कोई ऐसा तरीका नही बतलाया जा सका, जिससे कि अलग ढंग के चरित्र वाले व्यक्ति को तलाश कर लोकपाल बनाया जा सके। जनलोकपाल विधेयक बनाने वाले शब्दों में तो दावा करते हैं कि उन्होंने अलग ढंग के चरित्र के आदमी को तलाशने का तरीका ढूंढ लिया है। लेकिन उनका दावा विधेयक के प्रावधानों में दिखाई नहीं देता। लोकपाल को तलाशने वाले मुठ्ठी भर लोग जिस तरह के भ्रष्टाचार में खुद लिप्त होंगे उस तरह के भ्रष्टाचार को खत्म करने में रुचि रखने वाले किसी व्यक्ति को लोकपाल बनाना क्यों पसन्द करेंगे? अगर भ्रष्टाचार में विश्वास करने वाला व्यक्ति ही लोकपाल बनेगा तो वह भ्रष्टाचार को कैसे रोकेगा?

लोकतांत्रिक लोकपाल को व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने पर विधेयक में रोक है। इस प्रावधान के कारण लोकपाल के पद पर केवल वही व्यक्ति बैठ सकेगा जो देश के सभी लोगों को अपने परिवार का सदस्य मानता हो। परिवार का अभिभावक भ्रष्टाचार क्यों करेगा? संवैधानिक पदों पर आज जो लोग बैठे हैं, वे ऊँचे-ऊँचे वेतन-भत्ते लेते हैं। भोगविलास करते हैं। उन्हें इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं कि दूसरे लोग किस तरह की जिंदगी जी रहे हैं। इसीलिए लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक में ऐसे व्यक्ति को तलाशने का प्रावधान किया गया है जो सम्पत्ति व संतति मोह से मुक्त हो और ईमानदार होने के साथ-साथ योग्य भी हो।

Sunday, May 22, 2011

ममता की विजय और आगे की चुनौती

Rajasthan Patrika 22-05-2011
आज पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि पश्चिम बंगाल की जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

ममता की जीत के कारणों पर अब तक बहुत कुछ कहा गया है। मुझे भी लगता है कि ममता ज्योति वसु के कार्यकाल से ही जिस तरह से पश्चिम बंगाल सरकार में प्रशासन के साथ-साथ पार्टी का सरकार के हर विभाग पर दबदबा रहा और आम आदमी जिस तरह से सरकार की फासीवादी नीतियों का गवाह रहा, उससे ममता बनर्जी की त्रृणमूल काॅंगे्रस की मुहिम को अनायास ही एक जनसंवेदना मिली। लोग ममता बनर्जी को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखने लगे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ममता बनर्जी ही यह लाल किला ढहाने में कामयाब होंगी। दरअसल ममता बनर्जी ने सिंगूर आन्दोलन से लेकर जो अपने जनअभियान की शुरूआत की, उसकी परिणति इस चुनाव में आकर हुई। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

ममता की विजय का दूसरा कारण था, वामपंथी सरकार की चरमराती प्रशासन व्यवस्था, आम आदमी पर हो रहे पुलिस और वामपंथी पार्टीतन्त्र का अत्याचार, बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी और खासकरके युवा शिक्षित बेरोजगारों में हताशा का भाव। आज की तारीख में पश्चिम बंगाल में लिखे-पढ़े बेरोजगारों की संख्या 76 लाख से उपर है और उनके लिए नौकरी मुहैया कराना और उनकी उर्जा को सही तरीके से इस्तेमाल करना, उनके लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी।

ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ और लोगों की आकांक्षाओं की कसौटी में वो खरी उतरीं।

इस वक्त ममता बनर्जी के सामने चार प्रमुख चुनौतियां हैं। जिनके बारे में उनको बहुत ही संजीदगी से सोचकर समुचित कदम उठाने की आवश्यकता है। राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था को बहाल करने के अलावा औघोगिक और आर्थिक विकास उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। साथ ही राज्य में नक्सलवाद से निपटना भी जरूरी होगा। पश्चिम बंगाल को विकास की राह पर ले जाने के लिए कई दूरगामी परियोजनाओं तथा केन्द्र सरकार से समुचित मात्रा में आर्थिक सहायता प्राप्त करना भी कम आसान नहीं होगा।

36 साल के वामपंथी प्रशासन में चैमुखी बदलाव की जरूरत तो है, मगर ममता बनर्जी को उसके लिए जी-तोड़ मेहनत ही नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि एक ऐसे मंत्रिमण्डल का भी चुनाव करना होगा जिसमें हरेक मंत्री को जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं और राज्य की बहुक्षेत्रीय आवश्यकताओं की कसौटी पर भी खरा उतरना होगा।

पश्चिम बंगाल की राज्य सीमा चारों तरफ से अलग-अलग समस्याओं से घिरी हुई हैं। एक तरफ नक्सलवाद है तो दूसरी तरफ बांग्लादेशी शरणार्थियों को भी मुख्य धारा में लाने का काम। देखना यह है कि ममता बनर्जी इतनी बड़ी चुनौती और जनमानस की आकांक्षाओं को कितनी मुस्तैदी और ईमानदारी से निभा पाती है। क्योंकि रेलमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल और कार्यशैली उतना ओजस्वी और प्रशंसनीय नहीं रहा है। पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर अगर वो राज्य की चुनौतियों से जूझने के लिए एक सही और सार्थक शुरूआत भी कर लेती हैं तो शायद पश्चिम बंगाल के राजनैतिक इतिहास में यह निश्चय ही एक महत्वपूर्ण मोड़ गिना जायेगा।