जिस देश में राजनेता अपना घर भरने में लगे हों, अफसरशाही उनकी कमजोरी का फायदा उठाकर ऐशो-आराम में लिप्त हो उस देश में कोई जरा भी लीक से हटकर ठीक काम करने वाला अफसर अगर कहीं तैनात हो जाता है तो वह रातोंरात जनता का हीरो बन जाता है। इनमें से कुछ अफसर तो किरण बेदी की तरह केवल अपनी नौकरी और काम से लगातार सुर्खियों में रहते हैं और कुछ अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाकर राजनीति में जोर आजमाइश भी कर लेते हैं। जैसे बडौदा के मशहूर पुलिस कमिश्नर रहे जसपाल सिंह गुजरात की भाजपा सरकार में मंत्री हैं। इससे यह तो साफ है कि आज भी अपनी जिम्मेदारी को तत्परता से निभाने वाला घाटे में नहीं रहता। उसे अच्छे काम का इनाम फौरन और कई तरह से मिल जाता है। इस क्रम में एक नया नाम जुड़ा है सुखबीर सिंह संधू का। इस नौजवान आई.ए.एस. अधिकारी ने दो साल में ही पंजाब के लुधियाना शहर की कायाकल्प कर दी। साढे़ तीन सौ करोड़ रूपये कीमत की सरकारी जमीन अवैध कब्जों से मुक्त करायी। शहर के रास्तों और जनसुविधाओं को कम समय में तेजी से सुधारा। सबसे बड़ा काम जो श्री संधू ने किया वह है लुधियाना की रोज़ सफाई की माकूल व्यवस्था। लुधियाना वासियों को अपना ही शहर देखकर यह विश्वास नहीं होता कि गन्दगी के ढेर के नीचे दबे रहने वाला यह शहर रातो-रात सफाई की मिसाल कैसे बन गया ? इसके लिए श्री संधू ने रात-दिन एक कर दिया। आज भी वे रात के बारह बजे तक लुधियाना की सफाई रोज़ खुद सुनिश्चित करते है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ वर्ष पहले प्लेग फैलने के बाद सूरत के म्युनिस्पल कमिश्नर श्री राव ने किया था। श्री राव भी देर रात तक निगम के कार्यालय में बैठकर कंट्रोल रूम चलाते थे। उन्होंने भी सूरत की रातों-रात कायाकल्प कर दी थी। इन दोनों के ही प्रयासों में जो खास बात है वह यह कि इन्होंने नगर की सफाई को अपने लिए चुनौती मानकर कुछ अनूठा कर दिखाने का इरादा बनाया। दोनों ने ही सफाई कर्मचारियों के प्रारम्भिक विरोध के बाद धीरे-धीरे उन्हें इस बात के लिए पे्ररित किया कि वे रात में मेहनत और तत्परता से अपने फर्ज को अंजाम दें। दोनों ने ही निकम्मे सफाई कर्मचारियों को सज़ा और काम में मुस्तैदी दिखाने वाले सफाई कर्मचारियों को नियमित रूप से सार्वजनिक सभा में पुरस्कृत करने का काम लगातार किया। जिससे अच्छे और जिम्मेदार कर्मचारियों का मनोबल बढ़ा और निकम्मे कर्मचारियों को सार्वजनिक रूप से दंड सहना पड़ा। इसके चैंकाने वाले परिणाम आये। दोनों ने ही अपनी योजना में स्थानीय नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की। जिससे न सिर्फ नागरिक सफाई कर्मचारियों पर निगरानी रखने का काम करने लगे बल्कि उन्हें भी सफाई की व्यवस्था में जिम्मेदारी सौंपी गई। नतीजतन उन नागरिकों में भी जिम्मेदारी का भाव आया जो अपने पड़ौस में गन्दगी फैलाने में उस्ताद थे। शुरू में इन दोनों अधिकारियों को राजनेताओं के विरोध को सहना पड़ा, पर दोनों ने बड़ी होशियारी से स्थानीय नेताओं को समझाया कि इस प्रयास से उनकी राजनैतिक साख बढ़ेगी ही, उन्हें नुकसान नहीं होगा।
इन प्रयोगों से यह बात सिद्ध होती है कि नगरों की सही सफाई रात में ही हो सकती है, क्योंकि रात में जब सारा शहर सो जाता है। सड़कों पर हलचल खत्म हो जाती है तब सफाई कर्मचारियों के लिए काम करना बेहद सुविधाजनक होता है। उनकी कूड़ागाडि़या भी आसानी से आ जा सकती हैं। जबकि दिन निकलने के बाद सफाई करना एक खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं होता। सड़कों पर चलती भीड़ और वाहन, बाजारों में खरीदारों की चहल-पहल, काम पर जाने वाले लोगों की आवाजाही इतना व्यवधान पैदा करती हैं कि सफाई कर्मचारी हाथ चला ही नहीं सकते। सैकड़ों सालों से भारत के सभी नगरों में यही व्यवस्था चलती आई थी। सफाई देर रात या सूर्योदय से बहुत पहले हो जाती थी। सफाई के बाद भिश्ती सड़कों पर पानी छिड़कते थे ताकि धूल बैठ जाए। सुबह सवेरे सोकर उठने वाले, विद्यालय जाने वाले, व्यायाम या टहलने जाने वाले लोगों को सड़कें साफ मिला करती थीं। पर पिछले वर्षों में कुछ राजनेताओं ने अपनी जिद से इस चलती आई व्यवस्था को बदल दिया। इन राजनेताओं का तर्क था कि सफाई कर्मचारी भी अन्य विभागों के कर्मचारियों की तरह ही देर से काम पर आऐंगे क्यों कि उन्हें भी अपने परिवार के साथ समय बिताना होता है। यह एक वाहियात तर्क है। हर व्यवसाय की अपनी मांग होती है। सब जानते हैं कि जब वे रेलगाडि़यों, बसों, हवाई जहाजों में रात में सफर करते हैं तो उन्हें सूचना देने, टिकट बेचने, सीट देने या उनका सामान उठाने कोई मशीने नहीं आतीं। देश भर में लाखों कर्मचारी जिनमें पुरुष और महिलाएं शामिल हैं इन व्यवसायों में सारी रात मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं। इसी तरह टेलीफोन आपरेटर भी, अस्पताल के नर्स, वार्ड ब्वाय, डाक्टर भी रात भर ड्यूटी करते हैं। अखबार में खबर लिखने वाले या उसका सम्पादन कर उसे छापने वाले अगर यह तर्क दें कि हमें भी अपने परिवार के साथ समय बिताना होता है इसलिए हम रात की ड्यूटी नहीं करेंगे, तो न तो सुबह लोगों को अखबार ही पढ़ने को मिलेगा और न रात के एक बजे टेलीविजन पर किसी आकस्मिक दुर्घटना की ताजा खबरें देखने को मिलेंगी। बर्फ की खन्दकों में गले तक धंसे रह कर भी हमारी सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिक अगर यह कहने लगें कि हम तो रात में आराम करेंगे केवल दिन में ड्यूटी करेंगे तो शायद देश की सीमाएं सुरक्षित न रह पायें। दुश्मन की फौजें रात ही रात में हमारी जमीन पर कब्जा कर लेंगी। हर व्यवसाय की मांग के अनुरूप कर्मचारियों को काम करना होता है। उसमें अगर-मगर नहीं चलता। इसलिए जिन अधिकारियों की यह जिम्मेदारी है कि शहर साफ रहे और जिन कर्मचारियों को शहर साफ करने की तनखाह दी जाती है उनका यह फर्ज है कि उनका शहर हर सुबह साफ और तरोताजा दिखाई दे। जाहिरन इसके लिए हर शहर के सम्बन्धित अधिकारियों और कर्मचारियों को देर रात तक जागकर सफाई करनी ही चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं और उनका शहर गन्दा नजर आता है तो इसके लिए वे न सिर्फ जिम्मेदार हैं बल्कि उनके विरूद्ध कामचोरी, ड्यूटी की उपेक्षा करना जैसे आरोप लगाकर प्रशासनिक और कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। क्योंकि न सिर्फ वे कामचोरी कर रहे हैं बल्कि बिना काम के वेतन भी वसूल रहे हैं। इस तरह वे जनता के टैक्स के पैसे पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जैसे घर में चोर पकड़े जाने पर हम शोर मचा देते हैं, पुलिस बुला लेते हैं, वैसे ही निकम्मे कर्मचारियों और अफसरों को देख कर हर नगर की जनता को सामूहिक रूप से शोर मचाना चाहिए और उनके खिलाफ जगह-जगह लिखकर शिकायतें करनीं चाहिए। जब कोई अधिकारी व उसकी टीम के कर्मचारी सुखबीर सिंह संधू की तरह कम समय में ही अच्छा काम करके दिखाते हैं तब पता चलता है कि बाकी के शहरों में जो अधिकारी या कर्मचारी तैनात हैं वे कितने निकम्मे और कामचोर हैं। दरअसल कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है। लोगों के वोटों से ही वार्डों के प्रतिनिधि, नगरपालिकाओं के अध्यक्ष, विधायक और सांसद चुने जाते हैं पर जीतने के बाद ये तथाकथित जनप्रतिनिधि सत्ता के दलालों या अलग-अलग तरह के माफियाओं के ही प्रतिनिधि रह जाते हैं। जनता की इन्हें सुध भी नहीं रहती। पर इसके लिए ये लोग नहीं जनता ही दोषी है जो मान लेती है कि वोट देकर उसका काम खत्म हो गया। असली काम तो चुनाव के नतीजे आने के बाद शुरू होता है। तब यह देखना होता है कि जिन वायदों को करके ये जनप्रतिनिधि चुनाव लड़े थे उनमें से कितनों को ये पूरा करवा रहे हैं। कोताही देखते ही इनके विरूद्ध शोर न मचाकर जनता खुद ही अपने को कमजोर करती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि सभी चुने हुए प्रतिनिधि या अफसर निकम्मे होते हैं। जो काम करवाना चाहते हैं उन्हें अपने सहयोगियों का तो सहयोग मिलता ही नहीं है जनता में से भी बहुत सारे लोग मदद करने सामने नहीं आते। कुछ कमी इनकी भी होती है कि ये जनता को विश्वास में लेकर उसे जिम्मेदारी सौंपने से कतराते हैं। शायद इन्हें डर लगता हो कि अगर जनता को हवलदार बना दिया तो अपनी नौकरी चला पाना खतरे में पड़ जायेगा। पर सुखबीर सिंह संधू जैसे युवा अधिकारी उनकी इस आशंका को निर्मूल करते हैं। जिस किसी अधिकारी ने जनता के हित में ईमानदारी से काम किया उसे जनता ने सर-आंखों पर बिठा लिया। इसलिए पहल उसे ही करनी होगी जिसके हाथ में शक्ति और साधन है। भीड़ उसके पीछे हो लेगी।
पर दुख की बात तो यह है कि आम शहरों की क्या बिसात जब देश के जाने-माने तीर्थस्थल ही गन्दगी के ढेर में दबे पड़े हैं। मन्दिर, मस्जिद, गिरजों के नाम पर धर्म की पताका फहराने का दम्भ करने वाले भी तीर्थस्थानों की सफाई का इन्तजाम करना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं। वृन्दावन में पाँच हजार मन्दिर हैं। यह शहर रात को 9 बजे सो जाता है और सुबह 4 बजे से वृन्दावनवासी और बाहर से आये तीर्थयात्री नहाधोकर विभिन्न मन्दिरों में मंगल-आरती के दर्शनों के लिए दौड़ पड़ते हैं। पर ऐसे तीर्थस्थानों पर भी उन्हें सड़कों पर बिखरे कूड़े, उफनती नालियों और गन्दगी फैलाते सुअरों के बीच से कूद-कूद कर जाना होता है। पर किसी अधिकारी या जनप्रतिनिधि को शर्म नहीं आती। कोई धनी या साधन सम्पन्न व्यक्ति गंदगी के आसपास रहना पसंद नहीं करता। जब ये धनी लोग ही गन्दे इलाकों में नहीं रहते तो जो सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो सकल ऐश्वर्य का स्वामी है, वो भगवान या खुदा गन्दे धर्म क्षेत्रों में कैसे रह सकता है ? उसे क्या मजबूरी है ? उसे क्या गर्ज पड़ी है कि वह कूड़े के ढेर में अपने नाक पर रूमाल रखकर खड़ा रहे सिर्फ इसलिए कि उसके सेवायत पुजारियों, मौलवियों, पादरियों का धन्धा चल रहा है ? उसे क्या गर्ज कि वह उस जनता को आशीर्वाद देने कूड़े से घिरे मन्दिर या मस्जिद में बैठकर लोगों की उम्मीदें पूरी करे ? उसे कोई इस गन्दगी के बीच बैठने को मजबूर नहीं कर सकता। इसलिए विभिन्न धर्मों के अनुयाइयों को तो इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उनके पूजा स्थलों से दूर-दूर तक गन्दगी का नामोनिशान न रहे। इस मामले में सिक्खों का उदाहरण सबके लिए अनुकरणीय है। जो लोग अपने को किसी विशिष्ट धर्म का होने पर गर्व करते हैं उनके लिए तो यह और भी चुनौती है कि वे अपनी आस्था के केन्द्रों को साफ और सुव्यवस्थित रखें। सिक्ख धर्म का मानने वाला चाहे उद्योगपति हो या मंत्री, गुरू के द्वार पर सब समान हैं। सबको कर सेवा करनी ही होती है।
आज जबकि टेलीविजन के तमाम चैनल चल पड़े हैं। कई चैनलों के पास तो ढंग के कार्यक्रम तक नहीं हैं। ऐसे सभी टी.वी. चैनलों को सुखबीर सिंह संधू जैसे कर्मठ नौजवान के अनुभवों और सुझावों को इस तरह प्रसारित करना चाहिए कि वे अन्य नगरों के अधिकारियों के लिए भी पे्ररणास्पद बन सकें। किसी एक नगर में एक संधू या एक राव पैदा होकर देश भर की गन्दगी तो नहीं साफ कर सकते पर शेष देश के अधिकारियों और नागरिकों को राह तो दिखाई ही सकते हैं। कहते हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। लुधियाना शहर में सुखबीर सिंह संधू की सफलता के बाद देखना यह है कि कितने नगरों के कर्मचारी, जनप्रतिनिधि व अधिकारी श्री संधू से पे्ररणा लेकर अपने-अपने नगरों को लुधियाना या सूरत की तरह रातों-रात नर्क से स्वर्ग में बदलते हैं। जो इस काम में दिलचस्पी नहीं लेते या अपने अधीन कर्मचारियों को कर्तव्य पालन करने की पे्ररणा नहीं देते वे सब लोग मक्कार हैं, कामचोर हैं और नगरवासियों पर बोझ हैं। उनकी खबर ली जानी चाहिए ताकि उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो। तभी कुछ बात बनेगी। वैसे एक शायर ने कहा है:
‘हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा’।
पूरे देश के तमाम शहर आज अपनी बेनूरी पर रो रहे हैं। देखें कितने संधू दीदावर बनकर पैदा होते हैं ?