एक तरफ हमारा देश हजारों
करोड़ रूपया पश्चिमी एशियाई देशों को देकर क्रूड आयल और नेचुरल गैस खरीद रहा है। दूसरी
ओर अंडमान निकोबार द्वीप समूह में हमारे पास क्रूड आॅयल और नेचुरल गैस के अपार भंडार
भरे पड़े हैं। जिन्हें हमारी लापरवाही के कारण इंडोनेशिया अप्रत्यक्ष रूप से दोहन करके
दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक बना हुआ है। क्या इसके पीछे कोई निहित स्वार्थ हैं।
अमेरिका के दो वैज्ञानिकों
ने मध्य-पूर्व एशिया के तेल के कुंओं का पिछले 20 साल में शोध करके एक शोध पत्र प्रकाशित किया है। जिसमें बताया
कि इन कुंओं से रोजाना 10 से 20 मिलियन बैरल तेल निकालकर बेचा जाता है और ये काम पिछले 70-80 वर्ष से चल रहा है। इसके बावजूद हर साल जब मिडिल ईस्ट के तेल
के कुंओं का स्तर नापा जाता है, तो वह पहले से भी ऊंचा निकलता है। यानि कि मिडिल ईस्ट के तेल
के कुंओं में चमत्कार हो रहा है। वहां पर जितना मर्जी तेल निकाले जाओ, उसके बावजूद तेल का स्तर
घटने की बजाय लगातार बढ़ रहा है। दरअसल मिडिलईस्ट के तेल के कुंओं में तेल बढ़ने का कारण
वहां का ‘सबडक्शन जोन‘ है। सउदी अरब की ‘क्रस्टल प्लेट‘ ईरान की ‘क्रस्टल प्लेट‘ के
नीचे 1200 डिग्री ‘सैल्सियस मैग्मा‘
के अंदर जब प्रवेश करती है, तो उस प्लेट के ऊपर जो कैल्शियम कार्बोनेट होता है, वह टूट जाता है और उससे
कार्बन निकलता है। फारस की खाड़ी का पानी जब 1200 डिग्री सैन्टीग्रेड मैग्मा में प्रवेश करता है, तो वह भी टूट जाता है और उसमें से हाइड्रोजन गैस निकलती है।
हाड्रोजन और कार्बन दोनों मिलकर तत्काल हाइड्रोकार्बन बना देते हैं। जिसको हम रोजमर्रा
की भाषा में क्रूड आयल और नेचुरल गैस कहते हैं।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है कि बंगाल की खाड़ी में भी यही
हो रहा है। वहां पर ‘इंडो-आॅस्टे’ लियन क्रस्टल प्लेट‘ ‘यूरेशियन क्रस्टल प्लेट‘ के
नीचे डाइव कर रही हैं और उसके अंदर भी कैल्शियम कार्बोनेट टूट रहा है। साथ ही बंगाल
की खाड़ी का पानी भी टूट रहा है और दोनों मिलकर वहां पर भी क्रूड आॅयल और नेचुरल गैस
बना रहे हैं।
बंगाल की खाड़ी का जो
‘सबडक्शन जोन‘ है, उसका दक्षिणी
हिस्सा इंडोनेशिया के पास है। इससे इंडोनेशिया प्रतिदिन 1 मिलियन बैरल क्रूड आयल निकालता है। इसके अलावा इंडानेशिया
की गैस प्रोडेक्शन एशिया-पैसेफिक में नंबर एक है। अंडमान निकोबार के उत्तर में म्यांमार
(वर्मा) देश है। वह भी प्रतिदिन 30 हजार बैरल क्रूड
आयल निकाल रहा है। इसके अलावा उसका गैस प्रोडेक्शन भी बहुत ज्यादा है। उसने अंडमान
बेसिन के पास ‘आफशोर गैस फील्ड्स‘ और ‘आयल फील्ड्स‘ में तेल निकालने और उसके शुद्धीकरण
का काम भी शुरू कर दिया है।
प्रश्न ये पैदा होता
है कि भारत अपनी कीमती विदेशी मुद्रा मिडिल ईस्ट को दे करके तेल क्यों खरीदता है ? जबकि हमारे पड़ोसी देश
इंडानेशिया और म्यांमार उसी बंगाल की खाड़ी से तेल निकाल रहे हैं और हम हाथ पर हाथ रखकर
बैठे हैं। हम अंडमान निकोबार के ‘डीप वाटर ब्लाक्स‘ से तेल और गैस निकालकर देश को
क्यों नहीं देते ? हमारी विदेशी
मुद्रा नाहक मिडिलईस्ट के शेखों को क्यों लुटाई जा रही है ? 2014 में करीब 10 लाख करोड़ रूपये की विदेशी मुद्रा तेल और गैस की खरीददारी में
मिडिलईस्ट के शेखों को दी गई।
2015 में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम गिरने से तेल और गैस
की खरीददारी में 8.50 लाख करोड़ रूपये की विदेशी मुद्रा खर्च हुई। ये डेढ़ लाख करोड़
की विदेशी मुद्रा जो बची, उसी से सरकार
चल रही है। अगर कहीं तेल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में न गिरे होते, तो महंगाई ने भारत की
खाट खड़ी कर दी होती और हमारा भुगतान संतुलन भी गंभीर संकट के दौर में पहुंच जाता। फिर
हमें चंद्रशेखर सरकार की तरह रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया का सोना गिरवी रखना पड़ जाता।
सरकार ने 5 ‘डीप वाटर ब्लाक्स‘
अंडमान बेसिन में प्राइवेट कंपनियों को तेल निकालने के लिए आफर किए। जिसमें से 1296 बिलियन बैरल्स तेल होने का प्रलोभन दिया। प्रश्न ये पैदा होता
है कि हमारी राष्ट्रीय कंपनियां, जैसे कि ओएनजीसी, ओआईएल, गेल, जीएसपीसी आदि अंडमान
निकोबार के 16 डीप वाटर ब्लाक्स
में से तेल और गैस निकालकर देश को क्यों नहीं देतीं?
उल्लेखनीय है कि इस इलाके
में 83419 वर्ग किमी. में तेल
और गैस फैली हुई है। इतने बड़े क्षेत्र में सरकार ने 22 तेल के कुएं खोदे और उनमें गैस मिली। इसी के आधार पर उन्होंने
5 डीप वाटर ब्लाक्स में
से तेल और गैस निकालने के लिए प्राइवेट कंपनियों को न्यौता दिया। पर प्रश्न ये पैदा
होता है कि आज 2 साल गुजर गए, जबसे इन कुंओं से गैस मिल रही है। फिर भी कोई प्राइवेट कंपनी
ठेका लेने सामने नहीं आई, तो सरकार किस बात का इंतजार कर रही है ? हमारी तेल कंपनियां किस
काम के लिए बनाई हैं?