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Monday, December 18, 2023

नौजवानों में प्रदूषण से बढ़ता कैंसर का ख़तरा


पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले हर व्यक्ति के फेंफड़ों में काले रंग के धब्बे मौजूद हैं। जैसे किसी सिगरेट पीने वाले के फेंफड़ों में होते हैं। आश्चर्य और चिंता की बात तो यह है कि दिल्ली में रहने वाले किशोरों में भी यह विकृति पाई जा रही है। यह चौकने वाला खुलासा किया है दिल्ली के मशहूर छाती रोग विशेषज्ञ (चेस्ट सर्जन) डॉ अरविंद कुमार ने। उनका कहना है कि, ‘वे तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली में चेस्ट सर्जरी कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों से उन्होंने ने दिल्ली के मरीज़ों के फेंफड़ों में एक बड़ा बदलाव देखा है। जहां 1988 में अधिकतर फेंफड़ों का रंग गुलाबी होता था वहीं बीते कुछ वर्षों में फेंफड़ों में कई जगह काले-काले धब्बे दिखाई दिये हैं। पहले ऐसे काले धब्बे केवल धूम्रपान करने वालों के फेंफड़ों में ही पाये जाते थे। किंतु अब हर उम्र के लोगों में, जिसमें अधिकतर किशोरों में, ऐसे काले धब्बे पाए जाने लगे हैं, यह बड़ी गंभीर स्थिति है। इन काले धब्बों का सीधा मतलब है कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते उनके फेंफड़ों में यह धब्बे विषैला जमाव या ‘टॉक्सिक डिपोज़िट’ है।’ डॉ अरविंद कुमार का कहना है कि ‘फेंफड़ों में इन काले धब्बों के चलते निमोनिया, अस्थमा और फेंफड़ों के कैंसर के मामलों में भी तेज़ी आई है। पहले ऐसी बीमारियाँ अधिकतर 50-60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को होती थी। परंतु अब यह पैमाना घट कर 30-40 वर्ष की आयु वर्ग में होने लगा है। पहले के मुक़ाबले महिला रोगियों की तादाद भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं महिला मरीज़ों की तादाद चालीस प्रतिशत तक है जिनमें से अधिकतर महिलाएँ धूम्रपान नहीं करतीं हैं। सबसे अहम बात यह है कि 1988 में ऐसे रोगियों में 90 प्रतिशत वह लोग होते थे जो धूम्रपान करते थे। परंतु अब यह आँकड़ा बराबरी का है।’ 



डॉ कुमार बताते हैं कि, ‘जो केमिकल सिगरेट में पाए जाते हैं वही केमिकल आज की हवा में भी हैं। यानी कैंसर के मुख्य कारक माने जाने वाले जो केमिकल सिगरेट के धुएँ में पाये जाते हैं यदि वही केमिकल हमें दूषित हवा में मिलने लगें तो हम धूम्रपान करें या ना करें हमारे फेंफड़ों के अंदर यह ज़हर ख़ुद-ब-ख़ुद प्रवेश कर ही रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि दूषित हवा से हमारे फेंफड़ों में कैंसर होने के आसार भी बढ़ गये हैं। कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यह माना कि दूषित हवा भी कैंसर का कारण हो सकती है। एक महत्वपूर्ण तर्क देते हुए डॉ अरविंद कुमार ने यह भी बताया कि पहले जब फेंफड़ों के कैंसर के मरीज़ों में इस बीमारी को पकड़ा जाता था तब उनकी उम्र 50-60 के बीच होती थी क्योंकि कैंसर के केमिकल को फेंफड़ों को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए तक़रीबन बीस वर्ष लगते थे। परंतु आज जहां दिल्ली की दूषित हवा का ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है तो ऐसी दूषित हवा में जन्म लेने वाला हर वो बच्चा इन केमिकल का सेवन पहले ही दिन से कर रहा है, इस ख़तरे का शिकार बन रहा है। आम भाषा में कहा जाए तो दूषित हवा में साँस लेना 25 सिगरेट के धुएँ के बराबर है। तो यदि कोई बच्चा अपने जन्म के पहले ही दिन से ऐसा कर रहा है तो जब तक वो 25 वर्ष की आयु का होगा उसके फेंफड़ों में और धूम्रपान करने वाले के फेंफड़ों में कोई अंतर नहीं होगा। इसीलिए डॉ अरविंद कुमार को इस बात पर कोई अचंभा नहीं होता जब वे कम उम्र के मरीज़ों में फेंफड़ों के कैंसर के लक्षण देखते हैं। उल्लेखनीय है कि जहां दिल्ली में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है वहीं लंदन और न्यू यॉर्क में यह आँकड़ा 20 से भी कम है। यह बहुत भयावह स्थिति है चाहे-अनचाहे दिल्ली का हर निवासी इस ज़हरीले गैस चैम्बर में घुट-घुट कर जीने को मजबूर है। हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है।



लगातार चुनाव जीतने की राजनीति में जुटे रहने वाले दल प्रदूषण जैसे गंभीर मुद्दों पर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इस समस्या के हल के लिए केंद्र या राज्य की सरकार कोई ठोस काम नहीं कर रही। पराली जलाने को लेकर इतना शोर मचता है कि ऐसा लगता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान ही दिल्ली के प्रदूषण के लिये ज़िम्मेदार हैं। जबकि असली कारण कुछ और है। दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है। 


दिल्ली में 1987 से यह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसके लिए पहले डेनमार्क से तकनीकी का आयात किया गया था। पर यह मशीन एक हफ़्ते में ही असफल हो गई क्योंकि इसकी बुनियादी शर्त यह थी कि जलाने से पहले कूड़े को अलग किया जाए और उसमें मिले हुए ज़हरीले पदार्थों को न जलाया जाए। इतनी बड़ी आबादी का देश होने के बावजूद भारतीय प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही इस कदर है कि आजतक कूड़े को छाँट कर अलग करने का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाया है। आज दिल्ली में प्रतिदिन 7000 टन मिश्रित कूड़ा ‘इनसिनिरेटर्स’ में जलाया जाता है। जिसे जल्दी ही 10000 टन करने की तैयारी है। इस मिश्रित कूड़े को जलाने से निकलने वाला ज़हरीला धुआँ ही दिल्ली के प्रदूषण का मुख्य कारण है। जबकि इसी मशीन से सिंगापुर में जब कूड़ा जलाया जाता है तो उसमें से ज़हरीला धुआँ नहीं निकलता क्योंकि वहाँ सभी सावधानियाँ बरती जाती हैं। वैसे केवल सरकार को दोष देने से हल नहीं निकलेगा। दिल्ली और देश के निवासियों को अपने दैनिक जीवन में तेज़ी से बढ़ रहे प्लास्टिक व अन्य क़िस्म के पैकेजिंग मैटीरियल को बहुत हद तक घटाना पड़ेगा जिससे ठोस कचरा इकट्ठा होना कम हो जाए। हम ऐसा करें ये हमारी ज़िम्मेदारी है ताकि हम अपने बच्चों के फेंफड़ों को घातक बीमारियों से बचा सकें। मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने क्या खूब कहा शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा, कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा। पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था, जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा ।।
 

Monday, May 4, 2020

ऋषि कपूर ने कहा था, “पापा की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना”

दादासाहेब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आए राज कपूर जी को मई 1988 में दिल का भारी दौरा पड़ा और 2 जून को वो चल बसे। तब ऋषि कपूर ने कहा था, पापा (राज कपूर) की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना। पर कोरोना क़हर के चलते कल ऋषि कपूर का बेटा रणबीर कपूर चाह कर भी अपने मशहूर पिता को उनके क़द के अनुरूप विदाई नहीं दे सका। ऋषि कपूर का शरीर विद्युत शव दाहग्रह में पंचतत्वों में विलीन हो गया। 

उन दिनो मैं इंडीयन इक्स्प्रेस समूह के हिंदी अख़बार जनसत्ता का दिल्ली संवाददाता था । एप्रिल और मई 1988 में मैं सपरिवार अमरीका के टूर पर था, जहां मेरे व्याख्यान स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी (सैन फ़्रांसिस्को) और शिकागो में हो रहे थे। 

तभी दिल्ली दफ़्तर से फ़ोन आया फ़ौरन भारत लौट आओ। राज कपूर जी को दिल का घातक दौरा पड़ा है और वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती हैं, जहां हिंदी या इंग्लिश के किसी भी पत्रकार को घुसने नहीं दिया जा रहा। तुम ही उनकी खबर निकाल कर ला सकते हो। मजबूरन मुझे अमरीका की यात्रा अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। 

तब से एक महीने तक हर दिन मैं सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक एम्स के प्राइवेट वार्ड के सूट नम्बर 101 में कपूर परिवार के साथ रहता और रात को दफ़्तर जाकर दिन भर की रिपोर्ट लिखता। क्योंकि वहाँ दिन भर मिलने आने वाले वीवीआईपी और फ़िल्मवालों का ताँता लगा रहता था। जिसके कई रोचक क़िस्से होते। मेरी खबरों को ही अगले दिन देश भर के बाक़ी अख़बार अपनी- अपनी भाषा में छापते थे।

दुःख की घड़ी में आशा की हर किरण नई अपेक्षा जगा देती है। उन्हीं दिनों एक दिन दोपहर को राजीव कपूर (राम तेरे गंगा मैली के नायक) और मैं वीआईपी वार्ड के उसी कमरे में एक ही पलंग पर नीचे पैर लटकाए सो रहे थे। वार्ड के पर्दे के पीछे मरीज़ वाले पलंग पर श्रीमती कृष्णा राजकपूर, बहुरानी और तारीक़ा बाबीता और नीतू इसी तरह पैर लटकाये सो रही थीं। राज साहब तो आईसीयू में थे। 

तभी वार्डबोय ने सूचना दी कि रामायण की सीता जी आयी हैं। हम सब हड़बड़ाकर उठ गए। दीपिका चिखलिया अपनी माँ और छोटे भाई के साथ आयीं थी। उन्हें देखकर बॉलीवुड का ये मशहूर कपूर ख़ानदान ऐसे नतमस्तक हो गया मानो साक्षात सीता जी ही आशीर्वाद देने आ गयी हों। उस दिन मैंने जनसत्ता में खबर लिखी ‘कपूर ख़ानदान के लिए सीता ही थीं दीपिका चिखलिया’।

2 जून 1988 की शाम जब राज कपूर साहब ने अंतिम साँस ली तो उस कक्ष का वातावरण एकदम गमगीन हो गया। पर फिर जल्दी ही आगे की तय्यारी की चर्चा होने लगी। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं। अस्पताल के वीआईपी कमरे में जो एम.टी.एन.एल का फ़ोन था उसमें भारत सरकार ने एस.टी.डी की सुविधा दे रखी थी ।

उस पर सभी कपूर भाई बहन लगातार बम्बई फ़ोन करके अपने-अपने सचिवों को शव यात्रा की तैयारी की हिदायत दे रहे थे। दुखी बैठी श्रीमती कृष्णा राजकपूर को इस सबसे परेशानी ना हो इसलिये उस फ़ोन के तार को लंबा खींच कर बाहर बाल्कनी तक ले गये थे। जहां परिवार के मित्र फ़िल्मी सितारे राजेश खन्ना आदि कुर्सी पर बैठे लगातार सिगरेट पी रहे थे। रणधीर कपूर बहुत गमगींन ख़ामोश खड़े थे। 

मैं तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य व उड्डयन मंत्री मोतीलाल वोरा जी को हर थोड़ी देर बाद फ़ोन करके आगे की व्यवस्था पूछ रहा था। कुछ तय नहीं हो पाया था। 

क़रीब रात 9 बजे वोरा जी ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी से अनुमति मिल गयी है। इंडीयन एयरलाइंज़ का एक विशेष विमान कपूर परिवार को लेकर बम्बई जाएगा। उन्होंने मुझसे इसे गोपनीय रखने को कहा अन्यथा इतने सारे फ़िल्मी सितारों को देखने भारी भीड़ अस्पताल और हवाई अड्डे पर जुट जाती। 

तय हुआ कि रात के दो बजे पालम से विमान उड़ेगा। वोरा जी ने कहा मैं रात एक बजे अस्पताल आऊँगा। मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी मारुति कार खुद चलाता हूँ इस भागदौड़ में कैसे चला पाउँगा? तो मैं अस्पताल से आपके साथ आपकी गाड़ी में पालम हवाई अड्डे तक विदा करने चलूँगा। उन्होंने कहा ठीक है। कपूर परिवार की बम्बई यात्रा का ये प्लान तय होते ही कक्ष में हलचल तेज हो गयी। 

तभी ऋषि कपूर ने अपने सचिव को फ़ोन करके सारे काम बताना शुरू किये। जहाज़ जब बंबई पहुँचेगा तो इन लोगों को क्या-क्या करना है। कल शव यात्रा के लिए सब सफ़ेद फूल होने चाहिये। उनका एक ख़ास वाक्य मुझे आज भी याद है कि पापा की चिता में आई वांट आल सैंडल्वुड (सब चंदन की लकड़ी होनी चाहिये)।

2018 की बात है, ऋषि कपूर एक हास्य फ़िल्म के लीड रोल में अभिनय कर रहे थे। जिसकी शूटिंग दिल्ली में कई हफ़्तों से चल रही थी। अचानक ऋषि कपूर की तबियत ख़राब हो गयी और कुछ ही घंटों में उनका बेटा रणबीर कपूर मुम्बई से उन्हें लेने आ गया। सारी शूटिंग रोक दी गयी। पूरी शूटिंग यूनिट मुम्बई लौट गई। फिर तो न्यू यॉर्क में ऋषि कपूर का कैन्सर का लम्बा इलाज चला। 

इस तरह उनकी यह आख़री फ़िल्म अधूरी रह गई। ऋषि कपूर की ज़िंदगी में बचपन से ही शानो-शौक़त और शौहरत क़िस्मत में लिखी थी। उनके दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर आज तक दर्जनों फ़िल्मी सितारे इस परिवार ने बॉलीवुड को दिए हैं। पर क़िस्मत का खेल देखिए जब ऋषि कपूर की माँ श्रीमती कृष्णा राजकपूर का मुंबई में देहांत हुआ तो ऋषि कपूर न्यू यॉर्क में थे और कैन्सर के इलाज के कारण अपनी माँ के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए। अब तो उनकी यादें उन दर्जनों मनोरंजक फ़िल्मों से दुनिया भर के फ़िल्म प्रेमियों को गुदगुदाती रहेंगी। जैसे उनके पिता राज कपूर की फ़िल्में आज भी सदाबहार हैं। अलविदा ऋषि कपूर।